द्वापर की द्वारिका

मन्त्रमुग्ध द्वारिका

विश्वकर्मा जी के द्वारा अनेक निर्माण कथाएं प्रचलित और ग्रंथो मे वर्णित है। भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित द्वारिका सभी निर्माणों में सबसे श्रेष्ट है। और अनंत सुख सुविधा से परिपूर्ण नगरी बनाई गई थी। कहा जाता है कि विश्वकर्मा जी ने गज के द्वारा चारो युगों मे महत्वपूर्ण निर्माण किए हैं। सत्ययुग मे सोने के गज से अमरावती नगरी का निर्माण किया था। त्रेतायुग मे चांदी के गज से लंका नगरी का निर्माण हुआ था। द्रापरयुग मे चंदन और बांस के गज के द्वारा द्वारिकापुरी का निर्माण किया था। और कलियुग में काष्ठ और लौह से बने गज द्वारा चौसठ कलाओं का निर्माण किया था।

भारतवर्ष की सात मोक्षदायिका पुरियों में से द्वारावती एक है जो द्वारका के रूप में विख्यात है। विविध पुराणों में द्वारकापुरी को कुशस्थली, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, आनर्तक क्षेत्र एवं ओखा-मण्डल(उषा मंडल) इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया है। माना जाता है कि महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, जिस कारण इस भूमि का नाम कुशस्थली पड़ा। एक अन्य मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। (पृ.10)

पूर्वकाल में सौराष्ट्र देश में राजा शर्याति के पुत्र आनर्त का शासन होने के कारण उन्हीं के नाम से संयुक्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आनर्तक क्षेत्र कहा गया है। देवी भागवत के सातवें स्कंध के सप्तम में इस प्रसंग का वर्णन है। (पृ.10)

ओखा नाम उषा का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। कल्याण राय जोशी के मतानुसार ध्रेवाण नामक ग्राम से उद्भूत उषा नदी के कारण इस मंडल का नाम ओखा-मंडल रखा गया है। अथवा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का बाणासुर की पुत्री उषा के साथ विवाह किये जान के कारण उषा के नाम से ओखा पड़ा है।(पृ.10)

पौराणिक आधार
कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कुशस्थली आना तय हुआ। समस्त यादवों के साथ कृष्ण कुरु, जांगल, पांचाल, ब्रह्मावर्त, सौवीर, मरू, धन्वदेश आदि होते हुए कुशस्थली पहुंचे। कुशस्थली में रहने वाले असुरों - कुशादित्य, कर्णादित्य, सर्वादित्य और गुहादित्य के साथ युद्ध कर उन्हें निर्मूल किया और समुद्र के तट पर पुण्य और दिव्य नगरी द्वारका का निर्माण किया। इसके लिए उन्हें समुद्र से 12 योजन जमीन लेनी पड़ी । (पृ.11)

कुछ लोगों के मत में यह नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, जिसका सम्बन्ध रैवत गिरी के साथ था। महाभारत के सभा पर्व के अनुसार आनर्त के पौत्र रेवत ने रैवत गिरी के पास कुशस्थली बसाई थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संकार किया।

गोमती द्वारका को विशेष पवित्र बनाने के लिए मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह और क्रतु इन पांच मुनियों ने पांच तीर्थों के सहित यहाँ निवास किया। यह पंचनद नाम से जाना जाता है। सनकादि मुनियों के द्वारा पूजित सिद्धेश्वर महादेव और कृष्ण के समस्त कार्यों को सिद्ध करनेभद्रकाली देवी के शक्तिपीठ पौराणिक और प्राचीन स्थल द्वारका की भूमि को सिद्धिदायक बनाते हैं।(पृ.12)

कृष्ण ने द्वारका को बसाने के बाद इसे अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और अनेक कार्य यहाँ रहकर अथवा यहाँ से जाकर सम्पादित किये थे। 

रुक्मिणी हरण तथा विवाह,रुक्मी विजय,स्यमन्तक मणि सम्बंधित घटनाएं,जाम्बवती, रोहिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या, नाग्नजिती, सुशीलामाद्री, लक्ष्मणा व दत्ता सुशैल्या आदि के साथ विवाह,नरकासुर वध,प्राग्ज्योतिषपुर विजय,बाणासुर विजय,उषा-अनिरुद्ध विवाह,महाभारत युद्ध सञ्चालन,द्रौपदी की प्रतिष्ठा की रक्षा,युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में हस्तिनापुर गमन,पौंड्रिक - शिशुपाल - शाल्व वध आदि

द्वारका की रचना का मूल कारण कालयवन और जरासंध से त्रस्त यदुवंशियों की रक्षा करना और सुदूर रहकर महाभारत युद्ध सञ्चालन करना था; परन्तु साथ ही दुनिया के अन्य देशों से वैदेशिक सम्बन्धों का सुदृढ़ीकरण, आवागमन, आयात-निर्यात, व्यापर आदि तथ्यों का ध्यान रखा गया प्रतीत होता है। क्योंकि प्रारम्भ से ही यह अरब देशोंसे भारत में प्रवेश द्वार का काम करता था|

कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आगया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार(बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषयो के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।

बाद में युधिष्ठिर ने कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को शूरसेन देश का राजा बनाया। बड़े होने पर वज्रनाभ द्वारका आ गए और उन्होंने अपने दादा कृष्ण की स्मृति में त्रैलोक्य सुन्दर विशाल मंदिर का निर्माण कराया। (पृ.13)

द्वारका नगरी में अनेक धाम 
त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर परिसर में विभिन्न देवी देवताओं एवं पटरानियों के मंदिर स्थित हैं। 
1. शक्ति माताजी मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर के चौथी मंजिल पर स्थित।
2.कुशेश्वर महादेव मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में कुल बीस मंदिर हैं. मोक्षद्वार से प्रवेश करने पर दाहिने और नवग्रह देवता के यंत्र और समीप कुशेश्वर महादेव शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि द्वारका की यात्रा के आधे भाग का मालिक कुशेश्वर महादेव है। एक मत के अनुसार कुशनामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। (पृ.10)
3.काशी विश्वनाथ मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में स्थित है।
4.कोलवा भगत - द्वारकाधीश जी के अपंग भक्त कोलवा का मंदिर।
5.गायत्री मंदिर 
6.प्रद्युम्न मंदिर - कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का मंदिर।
7. अनिरुद्ध मंदिर - कृष्ण के प्रपौत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का मंदिर। अनिरुद्ध का विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था, जिसके कारण द्वारका क्षेत्र को उषामण्डल कहा जाता है।8. अम्बा मंदिर - कृष्ण की कुलदेवी का मंदिर जिसकी पूजा शारदा पीठ द्वारा संपन्न की जा रही है।9. पुरुषोत्तम मंदिर - द्वारकाधीश को पुरुषोत्तम कहते हैं।
10. दत्तात्रेय मंदिर - नवनाथ के गुरु दत्तात्रेय की मूर्ति यहाँ है जिनकी पादुका जूनागढ़ के गिरनार के शिखर पर स्थापित है।
11. शेषावतार श्री बलदेव मंदिर - बलदेवजी भगवान त्रिविक्रमजी के साथ पातळ लोक से पधारे थे। श्री द्वारकाधीश मंदिर के सभा मंडप के कोने आपका मंदिर है।
12.देवकी माता मंदिर - कृष्ण की माताजी का मंदिर। (पृ.61)
13.राधा-कृष्ण मंदिर - कृष्णने बाल्यावस्था में राधा के साथ बाल क्रीड़ाएँ तथा रासलीला की थी।
14.माधवराय मंदिर - रुक्मिणी हरण के बाद कृष्ण की शादी रुक्मिणी के साथ माधवपुर गाँव में हुई थी। उस स्मृति के फलस्वरूप यहाँ मंदिर है।
15.त्रिविक्रम मंदिर - कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र का यह मंदिर है
16.दुर्वासा मंदिर - दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी में वियोग हुआ। इस कारण रुक्मिणी का मंदिर द्वारका से बाहर है।
17.जाम्बुवती मंदिर - जाम्बुवान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर।
18.राधिका मंदिर - वृषभान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर, इनके साथ कृष्ण ने गोकुल-वृन्दावन में बाल लीलाएं की।
19.लक्ष्मी मंदिर - कृष्ण की ज्येष्ठ पटरानी का मंदिर।
20. सत्यभामा मंदिर - कृष्ण की पटरानी, सत्राजित की पुत्री। सत्राजित ने कृष्ण पर स्यमन्तक मणि चुराने का आरोप लगाया था। जाम्बुवन से मणि प्राप्त होने पर लज्जित होकर अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ मणि दहेज़ में दी। इनके रूठने पर कृष्ण ने स्वर्गलोक के नंदनवन से पारिजात वृक्ष इनको प्रसन्न किया।
21. सरस्वती मंदिर - भगवती शारदा के रूप में यहाँ की प्रसिद्धि है।
22. लक्ष्मी नारायण मंदिर लक्ष्मी जी और विष्णु का मंदिर है।
23. ज्ञान मंदिर नारदा मठ - छप्पन सीढ़ी पर स्थित।
24. शंकराचार्य समाधि - द्वारकाधीश मंदिर प्रांगण में भोग चोक के सामने माधवराय और देवकीजी मंदिर के बीच शारदापीठ परंपरा के दो शंकराचार्यों की प्राचीन समाधी है। 

गोमती द्वारका  
द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है। निष्पाप कुण्ड: इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं। पंचनद तीर्थ - द्वारका तीर्थ के गोमती नदी पर पंचनद तीर्थ है। यहाँ की लोक भाषा में इस तीर्थ को पंचकुई कहा जाता है। यहाँ चारों तरफ समुद्र का खारा पानी है परन्तु इन पांच कुओं में मीठा पानी है। कहते हैं कि यहाँ पांडवों ने निवास किया था। इसके समीप ही लक्ष्मीनारायणदेव जी का मंदिर है। बगल में पांडवों की गुफा है। (पृ.62) निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर। 

शंकराचार्य स्मारक  
गोमती पार पंचकुआँ के पास शंकराचार्य स्मारक स्थल है।गोमती जी - द्वारका नगरी गोमती नदी एवं अरब तट पर स्थित है। गोमती नदी का उद्गम स्थल द्वारका से 16 किमी दूर नानाभावड़ा गाँव के पास है। इसलिए इस जगह को मूल गोमतीके नाम से जाना जाता है। कुछ लोग इसे मूल गोमता नाम से भी पुकारते हैं। गोमती नदी गंगा का दूसरा स्वरुप है। जिसे वशिष्ठ जी की पुत्री कहा गया है। इसका स्कंदपुराण के द्वारका महात्म्य के अंतर्गत पांचवें अध्याय में किया गया है। स्कंदपुराण में बताया गया है कि मन, वाणी तथा कर्म के द्वारा किये गए समस्त पाप गोमती में स्नान करने से नष्ट हैं। (पृ.63-64) गोमती माता का मंदिर- छप्पन सीढ़ी के सामने गोमती माता का मंदिर स्थित है। (पृ.64)संगम नारायण मंदिर - माता गोमती जी का संगम जिस स्थान पर समुद्र से होता है, वहीँ पर संगम नारायण मंदिर है। (पृ.64) चक्रतीर्थ - संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। चारधाम एवं सप्तपुरियों में वर्णित द्वारका को चक्रतीर्थ के नाम से जाना जाता है। स्कन्द पुराण में प्रभास खंड के द्वारका महात्म्य के अध्याय में इसका वर्णन है। गोमती और समुद्र के संगम स्थल पर शीला की प्राप्ति होने के कारण इसे चक्रतीर्थ कहा गया है। (पृ.65) इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है। इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है। 

कैलासकुण्ड़ 
इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है। यही असली द्वारका है।रणछोड़जी का मन्दिर: रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल । सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

शंख तालाब 
रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

बाण तीर्थ 
द्वारका कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है।बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है। हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा थायादवस्थान: सोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

सोमनाथ पाटन 
बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पाटन है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था। सोमनाथ: इस सोमनाथ पाटन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमा जायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है। 

शामलशाह भगवान का मंदिर - द्वारकाधीश ने नरसिंह भगत की हुंडी की रकम शामलशाह बन कर दिया। (पृ.66)
सिद्धेश्वर महादेव मंदिर - द्वारका तीर्थ के अंतर्गत आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ के आराध्य सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के द्वारका महात्म्य के चतुर्थ अध्याय में किया गया है। (पृ.66)
भद्रकाली माताजी मंदिर - द्वारकाधीश स्थित शारदापीठ की आराध्या भगवती भद्रकाली का मंदिर इससे आधा किमी स्थित है। इस मंदिर के पत्थर पर श्रीचक्र अंकित है। (पृ.67)
कृकलास कुण्ड - द्वारका के तीर्थों में कृकलास कुण्ड प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थान है। इस स्थान का महात्म्य श्रीमद भागवत और सकंदपुराण के रजा नृग के आख्यान के साथ जुड़ा हुआ है।(पृ.68)

रुक्मिणी मंदिर
कृष्ण की आठ पटरानियों में माता रुक्मिणी का विशिष्ठ स्थान है। कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया और उनके साथ विवाह किया। रुक्मिणी-मंदिर द्वारका से करीब 3 किलोमीटर की दूरी पर द्वारका शहर के बाहरी हिस्से में स्थित है। इस मंदिर के बारे में एक रोचक कहानी है कि एक बार दुर्वासाऋषि जो भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे, द्वारका में पधारने वाले थे। यह खबर सुनकर भगवान कृष्ण तथा माता रुक्मणि उन्हें ससम्मान लेने के लिए जंगल में गए, दुर्वासा ऋषि की इच्छा के अनुरूप भगवान कृष्ण तथा रुक्मणि रथ में घोड़ों की जगह खुद जुत गए, अत्यधिक गर्मी तथा थकान की वजह से माता रुक्मणि को प्यास सताने लगी तो भगवान श्रीकृष्ण के माता की प्यास बुझाने के लिए जमीन से कुछ पानी निकाला जिसे रुक्मणि जी पीने लगी, यह देखकर ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हो गए। कहा कि पहले गुरु से पानी का पूछने के बजाय रुक्मणि ने खुद कैसे पानी पी लिया। अत्यधिक क्रोधी स्वभाव के होने के कारण दुर्वासा ने रुक्मणि जी को श्राप दिया कि अगले बारह वर्षों तक रुक्मणि जी भगवान कृष्ण से दूर इसी स्थान पर तथा प्यासी रहेंगी। इसी श्राप की वजह से माता रुक्मणि का यह मंदिर द्वारका से बाहर है। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण रुक्मिणी मंदिर भगवान् के मंदिर से दूर बनाया गया। कृष्ण के जीवन से सम्बद्ध यह स्थल द्वारका से 13 किमी दूर चरण-गङ्गा प्राकट्यके नाम से जाना जाता है। कृष्ण ने चरण से जहाँ गंगा प्रकट की वहाँ 35 फुट गहरा मीठे पानी का कुआ है। मंदिर में एक अजीब प्रथा भी है कि हर भक्त मंदिर में प्रवेश से पहले एक छोटा ग्लास पानी पीकर ही प्रवेश कर सकता है अन्यथा नहीं।

गोपी तालाब 
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से कुछ किलोमीटर चलने के बाद बेट द्वारका के रास्ते में आता है गोपी तालाब। गोपी तलाव द्वारका से 20 किलोमीटर तथा नागेश्वर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बेट द्वारका के मार्ग पर स्थित है। गोपी तालाब एक छोटा सा तालाब है जो कि चन्दन जैसी पिली मिट्टी से घिरा है जिसे गोपी चन्दन कहते हैं, यह चन्दन भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों के द्वारा माथे पर तिलक लगाने के लिए किया जाता है। यह तालाब हिन्दू पौराणिक कथाओं में विशेष स्थान रखता है। इस सम्बन्ध में कथा प्रचलित है कि भौमासुर नामक एक राजा ने वरुण का छात्र, माता अदिति का कुंडल और मेरुपर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया। इंद्र ने कृष्ण को बताया तो कृष्ण पत्नी सत्यभामा के साथ भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर गए। वहाँ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें भौमासुर मारे गए। कृष्ण ने वहाँ कैद 16000 जाजकुमारियों को मुक्त किया। (भागवत स्कंध अध्याय 59 श्लोक 33-42) (पृ.71) इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि इस स्थल पर कृष्ण ने अर्जुन का अहंकार दूर किया था। कृष्ण ने अपनी सभी रानियों को द्वारका से बाहर सुरक्षित लेजाने का भार अर्जुन को सौंपा था। अर्जुन को अहंकार हो गया कि उसके पास गांडीव जैसा धनुष है और महाभारत जैसे युद्ध में विजय पाई है। काबा जातिके लोगों ने अर्जुन पर हमला कर गोपियों को लूट लिया। अर्जुन के गांडीव ने काम नहीं किया। लुटेरों के डर से कितनी ही रानियाँ तालाब में डूब कर मर गयी। इसलिए उस तालाब को आज भी गोपी तालाब कहते हैं। वहाँ की चिकनी एवं पीले रंग की मिटटी गोपी चन्दन के रूप में प्रसिद्ध है। इस चन्दन को लगाने से खाज-खुजली मिट जाती है, ऐसी मान्यता है। (पृ.72) 

बेट द्वारका
बेट द्वारका, द्वारका से करीब 30 किलोमीटर दूर है तथा ऐसा माना जाता है की यह जगह भगवान कृष्ण का निवास स्थान था। भगवान कृष्ण बेट द्वारका में निवास करते थे तथा उनका कार्यालय (दरबार) द्वारका में था। बेट द्वारका वही जगह है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की अपने बाल सखा सुदामा जी से मुलाकात (भेंट) हुई थी। इसी वजह से इसे बेट द्वारका कहा जाता है। बेट द्वारका समुद्र के कुछ किलोमीटर अन्दर एक छोटे से द्वीप (Island) पर स्थित है जहाँ पहुँचने के लिए ओखा के समुद्री घाट (Jetty ) से फेरी (छोटा जहाज या नाव) की सहायता से जाना पड़ता है। फेरी से बेट द्वारका पहुँचने में लगभग आधे घंटे का समय लगता है। लेकिन यह आधे घंटे का सफ़र बड़ा ही आनंददायक होता है। खुले आकाश में नाव की सवारी करके एक टापू पर पहुंचना सचमुच बहुत सुखद अनुभव था। पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड हमारी नाव के ऊपर उड़ रहे थे एवं कई बार तो ये पक्षी एकदम हमारे करीब आ जाते थे इतना करीब की हम उन्हें छू सकते थे। इस कभी न भूलने योग्य अनुभव को हमने अपनी स्मृति में हमेशा के लिए बसा लिया और कुछ ही देर में हम बेट द्वारका के द्वीप पर पहुँच गए। बेट द्वारका में हमने सबसे पहले दर्शन किये भगवान कृष्ण के निवास स्थान के जो अब एक मंदिर है। बेट द्वारका में और भी सुन्दर तथा देखने लायक मंदिर हैं।
बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इल पांचों महलो की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचोंध हो जाती है। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े है। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए है। सच्ची जरी के कपड़ो से उनको सजाया गया है।

युधिष्ठिर वर्ष 2663 का स्थापित शारदापीठ द्वारका

लगभग 2520 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने समग्र देश में भ्रमण कर लोगों के जीवन को तपस्वी बनाया देश की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। उत्तर में ज्योतिष्पीठ, दक्षिण में शृंगेरीपीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ और पश्चिम में शारदापीठ। इन चार पीठों में से सर्वप्रथम द्वारका में शारदापीठ की स्थापना हुई। ऐसा 'मठाम्नाय' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रथमः पश्चिमाम्नाय: शारदामठ उच्यते। (पृ.45)

राजा सुधन्वा  
राजा सुधन्वा आदि शंकराचार्य के समकालीन थे और उन्होंने ही शंकराचार्यों को राजोपचार तथा प्रजा से धर्मकर लेने के अधिकार उपलब्ध कराये थे। अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार राजा सुधन्वा चाहमान (चौहान) वंश के छठे राजा थे, जो युधिष्ठिर के वंशज थे। महाभारत से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने यादवों के गृह युद्ध के पश्चात अंधक वंशी कृतवर्मा के पुत्र को मार्तिकावत (III.116.6)), शिनिवंशी सात्यकी के पुत्र युयुधान को सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्रों तथा इंद्रप्रस्थ का राज्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को, कृष्ण की मृत्यु के पश्चात दे दिया था। महिष्मति का राज्य भी युधिष्ठिर द्वारा ही राजा को दे दिया था। यह जैमिनी के अश्वघोष पर्व से ज्ञात होता है। कर्नल टॉड, डॉ रमेशचंद्र मजुमदार एवं राजस्थानी इतिवृत चौहानों का मूल राज्य माहिष्मती को ही मानते हैं।

हरिवंश पुराण के अनुसार
हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
विष्णु पुराण के अनुसार आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर राज्य किया।
विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी।
महाभारत के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-‘कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्’।

प्राचीन द्वारका एक पूर्ण नियोजित शहर था- कहा जाता है कि शहर को छह विभागों (सेक्टरों) में विभाजित किया गया था, जिसमें आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र, चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े चौक, 7,00,000 महल जो सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से बने थे, साथ ही कई सार्वजनिक सुविधाएं शामिल थीं। इसके अलावा वनस्पति उद्यान और झील भी थी। द्वारका में एक बड़ा हॉल जिसे सुधर्मा सभा कहा जाता था, यह वह स्थान था जहाँ सार्वजनिक सभाएं होती थीं। द्वारका में विशालकाय सभा मंडप था। शहर पानी से घिरे होने के कारण पुलों और बंदरगाहों के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा था।

समुद्र देवता ने उन्‍हें अपना राज्‍य बसाने के लिए 12 योजन अर्थात लगभग 773 वर्गकिमी भूमि प्रदान की थी और हिन्‍दू मान्‍यताओं में सुंदर इमारतें बनाने वाले भगवान विश्‍वकर्मा ने श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा को स्‍वीकार करके उनके लिए एक नए राज्‍य का निर्माण किया। धन-धान्‍य से संपन्‍न यह राज्‍य स्‍वर्ण नगरी कहलाया और द्वारका के राजा श्रीकृष्‍ण को द्वारकाधीश कहा जाने लगा। श्रीकृष्‍ण के जीवन का उद्देश्‍य एक ऐसे राज्‍य की स्‍थापना करना था, जो सत्‍य धर्म के सिद्धान्‍त पर आधारित हो। द्वारका द्वारावती के नाम से भी जानी जाती है, जो ‘द्वारा’ शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ होता है द्वार या दरवाजा और ‘का’ का अर्थ होता है ब्रह्मा।

द्वारका नियोजित रूप से बसा शहर था, जहां छह सुसंगठित क्षेत्र थे- आवासीय, व्‍यावसायिक जोन, चौड़ी सड़कें, चौक, महल और कई सार्वजनिक सुविधाएं। जन सभाएं एक हाल में आयोजित होती थीं, जिसे सुधर्म सभा (सत्‍य धर्म सभा) कहा जाता था। नगर में सात ऐसे स्थान थे, जो सोने, चांदी व अन्‍य कीमती पत्‍थरों से बने थे, साथ ही सुंदर बाग व झीलें भी थीं। पूरा नगर चारो ओर से पानी से घिरा हुआ था, यहा से मुख्‍य भूमि तक जाने के लिए पुल बने हुए थे।

श्रीमद्भागवतम् पुराण और अन्य शास्त्रों के अध्ययन के मुताबिक द्वारका वर्ष 3102 ई.पू. में डूबा था, जो आज से लगभग 5100 वर्ष है। 3102 ईसा पूर्व द्वापर युग का अंत और कलयुग का प्रारंभ हुआ था। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, कलियुग 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व की मध्य रात्रि यानी 12 बजे से शुरू हुआ। धर्म ग्रंथों में यही वह तिथि मानी जाती है, जब श्रीकृष्ण बैकुंठ लोक लौट गए थे।

जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ 
जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ में द्वारका के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। बहुत से पुराणकार मानते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम, कृतवर्मा, सत्याकी, अक्रूर, उद्धव और उग्रसेन समेत 18 साथियों के साथ द्वारका आए थे। कृष्ण ने जब कंस का वध कर दिया, तब कंस के ससुर मगधिपति जरासंघ ने यादवों को खत्म करने का फैसला किया। वे मथुरा और यादवों पर बार-बार आक्रमण करते थे। इसलिए यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया। कृष्ण और उनके साथियों ने द्वारका आकर इस भूमि को रहने लायक बनाया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाराजा रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही द्वारका का नाम कुशस्थली हुआ था।

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