श्री विश्वकर्मा स्तोत्र

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श्री विश्वकर्मा स्तोत्र 
                 
पद्म पुराणे भू खंडे स्कंद- विश्वकर्मा महात्म्ये
अध्याय २५ श्लोक ७-१७
श्री विश्वकर्मा स्तोत्र कृष्ण रुद्रावूचतु:।
  
ॐ वशंतंतुमयं शिक्यं शिक्ये ब्रह्माण्डमद्भुतम्। 
निहितं उभयं येन विश्वकर्मा स पातु न: ।।७।। 

अर्थात - 
सब जगत के उत्पन्न कर्ता श्री विश्वकर्मा इन्होंने सूत्रमय रचे हुए पृथ्वी रूपी छीके में सूक्ष्म देहरूप पिण्डाण्ड व ब्रह्माण्ड इन दोनों को एक जगह गूथ कर उन सब सूक्ष्म तत्वात्मक चराचरो को स्थूलत्व दिये हैं।

ॐ दिवि भुव्युदरे काष्ठपाषाणादौ च यो विभु। 
चतुर्धा व्यभजज्योतिश्चतुर्विध फलाप्तये।।८।। 

अर्थात -
श्री मद्विश्वकर्मा परमात्मा ने चतुर्विध अर्थात चार तरह की फल प्राप्ति के लिए यज्ञ निर्माण करने के वास्ते तेज स्तत्व के चार भाग किए हैं। वह चारों भाग उन्होंने आकाश, भूमि, उदर और काष्ठ पाषाणादि ऐसे चार जगह में रक्खे हैं।

ॐ वातरज्जू धृतं दिव्यं ज्योति कालस्य कारणम् 
बिभ्रमीत्यनिशं येन प्रवर्तंते क्रतु क्रिया॥ ९॥ 

अर्थात् -
आकाश में रखे हुए तेज को वायु रूप रज्जू में गूंथ कर उससे हमेशा फिरने वाला और जिससेे यज्ञ की क्रिया चलती है ऐसे काल प्रदर्शक सूर्य को उत्पन्न किया है उसको दिव्यतेज कहते हैं

ॐ भौममाकरजं ज्योति: स्वर्णाय: पारदादिकम्
नानाकार्यकरं लोके भूषायुधरसायनै॥ १०॥ 

अर्थात -
भूमि में रखे हुए तेज से सुवर्ण, लोह, पारा इत्यादि धातु उत्पन्न किये  यह सब अलंकार,वस्त्र,रसायन आदि द्रव्यों में काम आते हैं अर्थात् कारणभूत होते हैं और उन सबों का बड़ा भारी प्रयोग हो रहा है इस स्वर्णाख्य भौम तेज का उपयोग विशेषत: यज्ञादि में दक्षिणा के वास्ते किया है और लोहाख्य भौम तेज का उपयोग यज्ञ भूमि रचना में (आदि में शस्त्रादिक से) किया हुआ है। 

ॐ यो सौ वैश्वानरो वह्नि:प्राणिनां देहमाश्रित:
चतुर्विधं पचत्यन्तं तदुदयं महामृतम्॥ ११॥ 

अर्थात -
तेज का तीसरा भाग प्राणियों के पेट में रखा गया है उसको उदर्य  (जठराग्नि) तेज कहते हैं वह चारों प्रकार का भोजन किया हुआ अन्न पचाता  है इसलिए इस तेज के यज्ञ करने वाले व यज्ञ कराने वाले यजमान के रक्षण अर्थ जानना चाहिए। 

ॐ दृढ़ाघातेन काष्ठादेर्यत्तेजो जायते महत्
ज्वलनो नाम तल्लोके श्रौतं स्मार्तं हवि: पत्थर॥१२॥ 

अर्थात -
काष्ठादि में रखा हुआ तेज काष्ठों के या पाषाणों के दृढ़ आघात अथवा परस्पर संघर्ष में (एक में एक रगड़ से जैसे पीपल आदि से अग्नि) उत्पन्न होती है वह ज्वलन अर्थात अग्नि इस नाम से प्रसिद्ध है यह ज्वलन (अग्नि) तेज यज्ञ आदि में आहुति  दिया हुआ हविष्य अन्न पचाता है। 

ॐ य: कालं दक्षिणां चैव यजमानं हवींषिच
धारयंय: परशिवो विश्वकर्मा स पातुन:॥१३॥ 

अर्थात -
इस तरह काल ,दक्षिणा, यजमान और हविष्यन्न यह चार प्रकार की सामग्री यज्ञ के वास्ते जिन्होंने उत्पन्न किये है ऐसे परमात्मा परमेश्वर पर शिव विश्वकर्मा हमारी रक्षा करें 
इति श्री विश्वकर्मा यज्ञ निर्माण करता है। 

ॐ नयत्यनेकरसतां वै मधुर रसं जलम्
यस्तद्वीजयोगेन महाशिल्पी स पातुन:॥ १४॥ 

अर्थात -
उसी तरह एक मधुर उदक द्वारा नाना प्रकार के बीज संयोग से आम, नीम, जामुन, इमली इत्यादि अनेक वृक्षों से खट्टा ,कड़ुआ ,मीठा युक्त इत्यादि अनेक रस जिन्होंने उत्पन्न किए हैं ऐसे महा शिल्पी विश्वकर्मा परमात्मा हमारी रक्षा करें। 

ॐ भौमान्यनेकरूपाणि यस्य शिल्पानि मानव:
उपजीवन्ति तं विश्वं विश्वकर्माणमीमहे॥ १५॥ 

अर्थात -
जिन्होंने इस पृथ्वी में नाना प्रकार के चमत्कारिक पदार्थों के रूपों को उत्पन्न किया है और जिनकी शिल्प विद्या से सब मानव उपजीविका करते हैं (सब मानव को उपजीविका अन्न से होती है अन्न खेत में उत्पन्न होता है और खेती से अन्नादिक धान्य उत्पन्न करने ँ के मुख्य साधन हल आदि हैं यह हल आदि बनाने का मुख्य शिल्प कर्म श्री विश्वकर्मा का है) ऐसे विश्वरूप श्रीमद् विश्वकर्मा को हमारा नमस्कार है। 

ॐ दिक्कालौ सूर्यचंद्राभ्यां गोविप्राभ्यां हविर्मनून्
निर्माय निर्ममे यज्ञं तस्मै यज्ञात्मने नम:॥१६॥ 

अर्थात -
सूर्य के यथार्थ पवित्र देश, चंद्र से शुभ तिथि , नक्षत्र आदि काल, गाय से दूध, दही और घी इत्यादि हवन द्रव्य और ब्राह्मणों से वेद मंत्र यह सब याज्ञिक सामग्री निर्माण करके सब यज्ञ योगादिक क्रिया निर्मित हुई है ऐसे यज्ञ मूर्ति श्री मद् विश्वकर्मा को हमारा नमस्कार है। 

ॐ दिविभुव्यतरिक्षे वा पाताले वापि सर्वश:
यत्किंचिच्छलिपनां शिल्पंत्प्रवर्तक ते नम:॥१७॥ 

अर्थात -
स्वर्ग, पृथ्वी, आकाश, पाताल इत्यादि स्थानों में जो भी शिल्पियों के कर्म हैं ,उन सबों के प्रवर्तक जो विश्वकर्मा परमात्मा हैं उन को मेरा नमस्कार अर्पित हो। 
             
शिल्प कर्म और यज्ञ कर्म दोनों एक रूप है शिल्प क्रिया साधन ही से यज्ञ क्रिया सिद्ध होती है तथा दोनों की उत्पत्ति एक ही स्थान पर और एक ही प्रकार से हुई है इसलिए यह दोनों कर्म एक ही वर्ण ब्राह्मण वर्ण के हैं।

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