पुष्पक विमान और विमानिक विज्ञान

पुष्पक विमान और विमानिक विज्ञान 

विमान निर्माण, उसके प्रकार एवं संचालन का संपूर्ण विवरण महर्षि भारद्वाज विरचित वैमानिक शास्त्र में मिलता है। यह ग्रंथ उनके मूल प्रमुख ग्रंथ यंत्र-सर्वेश्वम् का एक भाग है। वैमानिक-शास्त्र में आठ अध्याय, एक सौ अधिकरण, पांच सौ सूत्र (सिद्धांत) और तीन हजार श्लोक हैं। यह ग्रंथ वैदिक संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इस विमान में जो तकनीक प्रयोग हुई है, उसके पीछे आध्यात्मिक विज्ञान ही है। ग्रंथों के अनुसार आज किसी भी पदार्थ को जड़ माना जाता है, किंतु प्राचीन काल में सिद्धिप्राप्त लोगों के पास इन्हीं पदार्थों में चेतना उत्पन्न करने की क्षमता उपलब्ध थी, जिसके प्रयोग से ही वे विमान की भांति परिस्थितियों के अनुरूप ढलने वाले यंत्र का निर्माण कर पाते थे। वर्तमान काल में विज्ञान के पास ऐसे तकनीकी उत्कृष्ट समाधान उपलब्ध नहीं हैं, तभी ये बातें काल्पनिक एवं अतिशयोक्तिपूर्ण लगती हैं। लेकिन प्रमाण युक्त ग्रंथ और अनेक जगह पर उल्लेख किया जाना ये भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। 
देव शिल्पी द्वारा विमान रचना
प्राचीन हिंदू साहित्य में देव-शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा बनाए गए अनेक विमानों का वर्णन मिलता है। जैसे वाल्मीकि रामायण के अनुसार शिल्पाचार्य विश्वकर्मा द्वारा पितामह ब्रह्मा के प्रयोग हेतु पुष्पक विमान का निर्माण किया गया था। विश्वकर्मा की माता सती योगसिद्धा थीं। देवताओं के साथ ही आठ वसु भी बताए जाते हैं, जिनमें आठवें वसु प्रभास की पत्नी योगसिद्धा थीं। यही प्रभास थे जिन्हें महाभारत के अनुसार वशिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था कि उन्हें मृत्यु लोक में काफी समय व्यतीत करना होगा। तब गंगा ने उनकी माता बनना स्वीकार किया तथा गंगा-शांतनु के आठवें पुत्र के रूप में उन्होंने देवव्रत नाम से जन्म लिया था। कालांतर में अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण वह भीष्म कहलाए थे। इन्हीं प्रभास-योगसिद्धा संतति विश्वकर्मा द्वारा देवताओं के विमान, अस्त्र-शस्त्र तथा महल-प्रासादों का निर्माण किया जाता था। वाल्मीकि रामायण में इस विमान का विस्तार से वर्णन है। 

पुष्पक वर्णन
यह मेघों के समान उच्च, स्वर्ण समान कांतिमय, पुष्पक भूमि पर एकत्रित स्वर्ण के समान प्रतीत होता था। ढेरों रत्नों से विभूषित, अनेक प्रकार के पुष्पों से आच्छादित तथा पुष्प-पराग से भरे हुए पर्वत शिखर के समान शोभा पाता था। आकाश में विचरण करते हुए यह श्रेष्ठ हंसों द्वारा खींचा जाते हुए दिखाई देता था। इसका निर्माण अति सुंदर ढंग से किया गया था एवं अद्भुत शोभा से संपन्न दिखता था। इसके निर्माण में अनेक धातुओं का प्रयोग इस प्रकार से किया गया था कि यह पर्वत शिखर ग्रहों और चंद्रमा के कारण आकाश और अनेक वर्णों से युक्त विचित्र शोभासंपन्न दिखता था। उसका भूमि क्षेत्र स्वर्ण-मंडित कृत्रिम पर्वतमालाओं से परिपूर्ण था। वहां अनेक पर्वत वृक्षों की विस्तृत पंक्तियों से हरे-भरे रचे गए थे। इन वृक्षों पर पुष्पों का बाहुल्य था एवं ये पुष्प पंखुडि़यों से पूर्ण मंडित थे। उसके अंदर श्वेत वर्ण के भवन थे तथा उसे विचित्र वन और अद्भुत सरोवरों के चित्रों से सज्जित किया गया था। वह रत्नों की आभा से प्रकाशमान था एवं आवश्यकतानुसार कहीं भी भ्रमण करता था। इसकी शोभा अद्भुत थी जिसमें नाना प्रकार के रत्नों से अनेक रंगों के सर्पों का अंकन किया गया था तथा अच्छी प्रजाति के सुंदर अंग वाले अश्व भी बने थे। विमान पर अति-सुंदर मुख एवं पंख वाले अनेक विहंगम चित्र बने थे, जो एकदम कामदेव के सहायक जान पड़ते थे। यहां गजों की सज्जा मूंगे और स्वर्ण निर्मित फूलों से युक्त थी तथा उन्होंने अपने पंखों को समेट रखा था, जो देवी लक्ष्मी का अभिषेक करते हुए से प्रतीत होते थे। उनके साथ ही वहां देवी लक्ष्मी की तेजोमय प्रतिमा भी स्थापित थी, जिनका उन गजों द्वारा अभिषेक हो रहा था। इस प्रकार सुंदर कंदराओं वाले पर्वत के समान तथा बसंत ऋतु में सुंदर कोटरों वाले परम सुगंध युक्त वृक्ष के समान वह विमान बड़ा मनोहारी था। हनुमान जी ने जब इस अद्भुत विमान को देखा तो वह भी आश्चर्यचकित हो गए थे। रावण के महल के निकट रखे हुए इस विमान का विस्तार एक योजन लंबा और आधे योजन चौड़ा था एवं सुंदर महल के समान प्रतीत होता था। इस दिव्य विमान को विभिन्न प्रकार के रत्नों से भूषित कर स्वर्ग में देवशिल्पी विश्वकर्मा ने ब्रह्मा के लिए निर्मित किया था जो बाद में कुबेर और कालांतर में रावण के अधिकार में आ गया। यह विमान पूरे विश्व के लिए उस समय किसी आश्चर्य से कम नहीं था, न ही अब है।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार
पुष्पक विमान
वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सप्तमः सर्गः सातवां सर्ग श्लोक १ से १७ तक, 
पुष्पक विमान का वर्णन और विशेषता 

स वेश्मजालं बलवान्ददर्श व्यासक्तवैडूर्यसुवर्णजालम् । 
यथा महत्पादृषि मेघजालं विद्युत्पिनद्धं सविहङ्गजालम् ॥ १॥ 

बलवान हनुमान जी उन घरों के समूहों को देखते चले जाते थे, जिनमें पन्नों के और सौने के झरोखे बने हुए थे। उन घरों की वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसी शोभा वर्षाकालीन मेघों की बिजुली और वकपंक्ति से होती है ॥ १ ॥  

निवेशनानां विविधाश्च शाला: सामान प्रधानशङ्खायुधचापशालाः 
मनोहराश्चापि पुनर्विशाला पनाम का ददर्श वेश्माद्रिषु चन्द्रशालाः॥२॥ 

उस विशाल भवन के भीतर रहने बैठने सोने आदि के लिये विविध दालान कोठे बने हुए थे। उनमें शङ्खों शस्त्रों और धनुषों के रखने के कमरे बने हुए थे। उन पर्वताकार भवन समूहों के ऊपर बनी हुई अटारियों को, जिनको चन्द्रशाला भी कहते हैं) हनुमान जी ने देखा ॥२॥   
 

सर्वैश्च दोषैः परिवर्जितानि कपिर्ददर्श स्ववलार्जितानि ॥३॥ 

विविध प्रकार के द्रव्यों से परिपूर्ण, क्या देवता, क्या असुर सब से पूजित अर्थात् क्या देवता और क्या असुर सभी इनमें रहने को लालायित रहते थे समस्त दोषों से रहित और रावण के निज भुजबल से सम्पादित इन भवनों को हनुमान जी ने देखा ॥३॥   


तानि प्रयत्नाभिसमाहितानि भयेन साक्षादिव निर्मितानि । 
महीतले सर्वगुणोत्तराणि ददर्श लङ्काधिपतेहाणि ॥ ४ ॥ 

बड़े प्रयत्न और सावधानी से मानों साक्षात् मय नाम के दैत्य द्वारा निर्मित और इस भूमण्डल पर सब प्रकार से श्रेष्ठ, रावण के इन भवनों को हनुमान जी ने देखा ॥ ४॥   

ततो ददशेच्छितमेघरूपं मनोहरं काञ्चनचारुरूपम् । 
रक्षोधिपस्यात्मबलानुरूपं गृहोत्तमं ह्यप्रतिरूपरूपम् ॥ ५॥ 

ये अत्यन्त ऊँचे मेघाकार, मनोहर, सौने के वने, राक्षसराज रावण के बल के अनुरूप और अनुपम उत्तम भवन थे ॥ ५ ॥   


महोतले स्वर्गमिव प्रकीर्ण श्रिया ज्वलन्तं बहुरत्नकीर्णम् ।
नानातरूणां कुसमावकीर्ण गिरेरिवाग्रं रजसावकीर्णम् ॥६॥ 

ये भवन मानों पृथिती पर उतरे हुए स्वर्ग के समान कान्तिमान और विविध प्रकार के बडून से रत्तों से भरे हुए थे। इन विविध प्रकार के रत्नों से भरे होने के कारण, वे घर पुष्पों और पुष्पपराग से पूर्ण पर्वतशिखर जैसे जान पड़ते थे ॥६॥    

नारीप्रवेकैरिव दीप्यमानं तडिदिरम्भोदवदय॑मानम् । 
हंसप्रवेकैरिव वाह्यमानं श्रिया युतं खेसुकृतं विमानम् ॥ ७ ।। 

राक्षसराज रावण का वह राजभवन श्रेष्ठ सुन्दरियों से ऐसा प्रकाशमान हो रहा था, जैसे बिजलियों से मेघ की घटा प्रकाशित होती है। अथवा पुण्यावान् जन का हंसयुक्त आकाशचारी विमान शोभायमान होता है ॥ ७॥   

(वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड सातवां सर्ग श्लोक १ से १७ तक) 
पुष्पक विमान की क्या विशेषता और पुष्पक विमान चलने का वर्णन

ददर्श युक्तीकृतमेघचित्रं विमानरत्नं बहुरत्नचित्रम् ॥ ८॥ 

 जैसे अनेक धातुओं से रंग बिरंगे पर्वतशिखर की शोभा होती है अथवा जैसे चन्द्रमा और ग्रहों से भूषित आकाश और जैसे नाना रंगों से युक्त मेघों की घटा शोभित जान पड़ती है, वैसे ही रत्नजटित रावण का विचित्र पुष्पक नामक विमान हनुमान जी ने देखा ॥८॥   


मही कृतापर्वतराजिपूर्णा शैलाः कृता वृक्षवितानपूर्णाः। 
वृक्षाः कृताः पुष्पवितानपूर्णाः पुष कृतं केसरपत्रपूर्णम् ॥ ९॥ 

इस विमान में अनेक जनों के बैठने की जो जगह डेक थी वह चित्र विचित्र चित्रकारी से चित्रित थी। उसमें नकली बैठके, पर्वतों पर बनायी गयी थीं। उन पर्वतों के ऊपर नकली वृक्षों की छाया की हुई थी। वे वृक्ष खिले हुए फूलों से लदे हुए थे और उन पुष्पों से पराग झरा करता या ॥६॥   


कृतानि वेश्मानि च पाण्डुराणि तथा सुपुष्पाण्यपि पुष्कराणि । 
पुनश्च पद्मानि सकेसराणि धन्यानि चित्राणि तथा वनानि ॥ १०॥ 

उस विमान में सफेद रंग के बहुत से घर भी बने हुए थे। उन घरों में सुन्दर पुष्पयुक्त पुष्करिणी भी थीं। उन पुष्करिणियों में पराग सहित कमल के फूल खिल रहे थे। उन घरों में ऐसी चित्रकारियां की गयो थीं जो सराहने योग्य थीं, तथा जो उपवन बनाये गये थे वे भी देखते ही बन पाते थे ॥ १० ॥   

पुष्पाह्वयं नाम विराजमानं जाणार रत्नप्रभाभिश्च विवर्धमानम् । 
वेश्मोत्तमानामपि चोच्चमानं महाकपिस्तत्र महाविमानम् ।। ११ ॥ 

हनुमान जी ने वहाँ ऐसा बड़ा पुष्पक नामक विमान देखा, जो रत्नों को प्रभा से दमक रहा था और ऊँचे से ऊँचे भवनों से भी बढ़ कर ऊँचा था ॥ १२॥   

कृताश्च वैडूर्यमया विहङ्गा रूप्यमवालैश्च तथा विहङ्गाः । 
चित्राश्च नानावसुभिर्भुजङ्गा जात्यानुरूपास्तुरगाः शुभाङ्गाः ॥ १२ ॥ 

उस विमान में पन्नों के, चाँदी के और मूगों के पक्षी और रंग बिरंगी धातुओं के बने हुए सर्प तथा उत्तम जाति के उत्तम अंगों वाले घोड़े भी बनाये गये थे ॥ १२॥   

प्रवालजाम्बूनदपुष्पपक्षाः सलीलमावर्जितजिह्मपक्षाः । 
कामस्य साक्षादिव भान्ति पक्षाः कृता विहङ्गाः सुमुखाः सुपक्षाः॥१३॥ 

पक्षियों के परों पर मगे और सौने के फूल बने हुए थे। वे पक्षी अपने आप अपने पंखों को समेटते और पसारते थे। उन पक्षियों के पर व चोंचें बड़ी सुन्दर थीं। पंख तो उनके कामदेव के पंखों की तरह सुन्दर थे ॥ १३ ॥   

वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड मै वर्णित है पुष्पक विमान का रहस्य

नियुज्यमानास्तु गजाः सुहस्ताः सकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ताः । 
बभूव देवी च कृता सुहस्तान लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पाहस्ता ॥ १४ ॥ 

इनके अतिरिक्त कमलयुक्त तालाब में, कमल के फूल को हाथ में लिये लक्ष्मी जी और उनका अभिषेक करने में नियुक्त सुन्दर लड़ वाले हाथी, जिनको सूड़ों में केसर सहित कमल के पुष्प थे, बने हुए थे ॥ १४ ॥   

इतीव तद्गृहमभिगम्य शोभनं सविस्मयो नगमिव चारुशोभनम् । 
पुनश्च तत्परमसुगन्धि सुन्दरं हिमात्यये नगमिव चारुकन्दरम् ॥ १५ ॥  

हनुमान जी विस्मययुक्त दो सुन्दर कन्दरा की तरह शोभित स्थानों से युक्त उस भवन में गये। फिर यह भवन वसन्त ऋतु होने के कारण सुगंधित खोडर युक्त वृक्ष की तरह सुवासित. हो रहा था ॥ १५ ॥   

ततः स तां कपिरमिपत्य पूजितां चरन्पुरी दशमुखबाहुपालिताम् । 
अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां सुदुःखितः पतिगुणवेगनिर्जिताम् ॥ १६ ॥ 

हनुमान जो उस दसमुख रावण को भुजाओं से रक्षित, लङ्का पुरी में घूमे फिरे । किन्तु सुपूजिता, एवं पति के गुणों पर मुग्धा जानकी जी उनको दिखलाई न पड़ो। अतः वे अत्यन्त दुःखी थे। 

ततस्तदा बहुविधभावितात्मनः । कृतात्मनो जनकसुतां सुवर्त्मनः ।। 
अपश्यतोऽभवदतिदुःखितं मनः सुचक्षुषः प्रविचरतो महात्मनः ॥ १७ ॥ 

तब अनेक चिन्ताओं से युक्त, सुन्दर नीति-भार्ग-वर्ती, एक बार देखने से ही वस्तु का बीजा बकुला तक जान लेने वाले, धैर्य वान् हनुमान जी, अनेक प्रयत्न करने पर भी और बहुत खोजने पर भी, जब सीता को न देख सके, तब वे दुःखी हुए ॥ १७॥

कैलासपर्वतं गत्वा विजित्य नरवाहनम्। विमानं पुष्पकं तस्य कामगं वै जहार यः॥ (वा०रा० अरण्य०3, 11, 14)

कैलास पर्वत पर जाकर वहाँ सवारी के ले जाने वाले पुष्पक नाम के विमान को लाया। 

यस्य तत्पुष्पकं नाम विमानं कामगं शुभम्। वीर्यादावर्जित भद्रे येन यामि विहायसम्॥ (वा०रा० अरण्य० 48, 16) 

रावण सीता से कहता है कि हे सीता! सुन्दर पुष्पक विमान विश्रवण का था जिसे मैं बल से जीतकर लाया हूँ इस से मैं आकाश में जाता हूँ। 

स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थितो महद्विमानं मणिरत्न- चित्रितम्। प्रतप्तजाम्बूनदजालकृत्रिमं ददर्श धीमान् पवनात्मजः कपिः॥ तद्प्रमेयप्रतीकारकृत्रिमं कृतं स्वयं साध्विति विश्वकमर्णा। दिवं गते वायुपथे प्रतिष्ठितं व्यराजतादित्यपथस्य लक्ष्मवत्॥ स पुष्पकं तत्र विमान मुत्तमं ददर्श तद्वानरवीरसत्तमः। (वा० रा० सुन्दर० 8। 1-2, 8)   

जड़ित स्वर्णतारों की जालियाँ जिसमें लगी थीं जिसकी आए थे। उस ऐसे भारी विमान की गति घण्टे में अढ़ाई सौ मील थी। इस तुलना से यदि छोटा-सा विमान होता   हनुमान् ने लंका में रावणनिवास स्थान में मणिरत्नों से तुलना नहीं हो सकती। उसके आकाश में उड़ने पर वायु मार्ग में विराजमान सूर्य पथ में चिह्न की भाँति दिखाई देने वाले पुष्पक विमान को देखा।

जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्फाटिकैरपि। (वा० रा० सुन्दर० 91, 16) 
 
वह पुष्पक विमान सोने की जालियों और स्फटिक मणि की खिड़कियों से युक्त था। 

अह्नां त्वां प्रापयिष्यामि तां पुरीं पार्थिवात्मज। पुष्पकं नाम भद्रं ते विमानं सूर्यसन्निभम्।। (वा० रा० युद्ध० 12, 118-9)   

विभीषण राम को कहता है- हे राम मैं तुम्हें एक दिन में-दिन के अन्दर आठ दस घण्टों में अयोध्या पुष्पक विमान से पहुँचा दूंगा। उक्त कथन में पुष्पक विमान की गति घण्टे में अढाई सौ मील लगभग थी। विदित हो यह पुष्पक विमान एक भारी विमान सैकड़ों सवारी ले जाने वाला था। क्योंकि श्रीराम लक्ष्मण, सीता, विभीषण, सुग्रीव तथा अनेक सैनिक भी बैठकर अयोध्या हो तो उस समय उसकी उड़ान घण्टे में उस से कई गुणा सकती थी। कुछ ज्ञात होता है कि छोटे-छोटे विमान या उड़ने के साधन वहाँ लंका में अधिक थे। विभीषण भी राम के पास उड़कर ही आया था। किन्तु पुष्पक विमान बहुत ही बड़ा था जिसमें सेना भी बैठ सकती थी जैसे आजकल सैनिक विमान होते हैं। पुष्पक विमान में कोई एक हंसयन्त्र या हंसाकार का अग्रभाग लगा था और बीच में रेल के समान डब्बे या बैठने के स्थान होंगे। रामायण की विमानकला भी बढ़ी चढ़ी थी।    

(वाल्मीकि रामायण सुंदरकांड अष्टमः सर्गः आठवां सर्ग श्लोक 1 से 7 तक,) 
हनुमान जी द्वारा पुष्पक वर्णन

स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थित पर महद्विमानं बहुरत्नचित्रितम् ।  प्रतप्तजाम्बूनदजालकृत्रिमं  ददर्श वीरः पवनात्मजः कपिः ॥ १॥ 

रावण के राजभवन में रखे हुए पुष्पक विमान को, जिसमें बढ़िया सुवर्ण के बने झरोखे थे और जिसमें जगह जगह रंग बिरंगे बहुत से रत्न जड़े हुए थे, पवननन्दन वीर हनुमान ने देखा ॥१॥ 

तदप्रमेयाप्रतिकारकृत्रिम कृतं स्वयं साध्विति विश्वकर्मणा। दिवं गतं वायुपथे प्रतिष्ठितं व्यराजतादित्यपथस्य लक्ष्मवत् ॥ २॥ 

वह अनुपम सुन्दरता युक्त था। उसमें कृत्रिम प्रतिमाएँ थीं। उसे विश्वकर्मा ने स्वयं ही बहुत सुन्दर बनाया था। वह आकाश में चलने में प्रसिद्ध था और सूर्य के पथ का एक प्रसिद्ध चिन्हसा था ॥२॥ 

न ते विशेषा नियताः सरेष्वपि । न तत्र किश्चिन्न महाविशेषवत् ॥३॥ 

उस विमान में ऐसी कोई वस्तु न थी जो परिश्रम पूर्वक न बनाई गयी हो और उसका कोई भाग ऐसा न था जो मूल्यवान रत्नों से न बनाया गया हो । उसका एक भी भाग ऐसा न था जिसमें कुछ न कुछ विशेषता न थी। पुष्पक में जैसी कारीगरी की गयी थी, वैसी कारीगरो देवताओं के विमानों में भी देखने में नहीं पाती थी॥३॥

तपःसमाधानपराक्रमार्जितं मनःसमाधानविचारचारिणम् । अनेकसंस्थानविशेषनिर्मितं ततस्ततस्तुल्यविशेषदर्शनम् ॥ ४ ॥ 

रावण ने एकाग्रचित्त हो तप करके जो बल प्राप्त किया था उसीके बल उसने यह पुष्पक विमान सम्पादन किया था। वह विमान सङ्कल्प मात्र ही से यथेच्छ स्थान में पहुँचा देता था। इसमें बहुत सी बैठकें विशेष रूप से बनायो गयी थीं। इसीसे वे उस विमान के अनुरूप विशेष प्रकार की भो थों ॥ ४॥

मनः समाधाय तु शीघ्रगामिनं दुरावरं मारुततुल्यगामिनम् । महात्मनां पुण्यकृतां मनस्विनां यविनामय्यमुदामिवालयम् ॥ ५॥ 

अपने खामी को इच्छा के अनुसार अभीष्ट स्थान पर तुरन्त पहुँच जाता था। इसकी चाल वायु को तरह बड़ी तेज़ थी। चाल में इसको कोई रोक नहीं सकता था। महात्मा, पुण्यात्मा बड़े समृद्धशाली और यशस्वी लोगों के लिये तो यह मानों श्रानन्द का घर ही था ॥ ५॥ 

विशेषमालम्ब्य विशेषसंस्थितं विचित्रकूटं बहुकूटमण्डितम् । मनोभिरामं शरदिन्दुनिर्मलं विचित्रकूटं शिखरं गिरेयथा ।। ६ ॥ 

यह विमान विशेष विशेष चालों के अनुसार, आकाश में घूमता था । उसमें विविध प्रकार की अनेक वस्तुएँ भरी थीं। उसमें बहुत से कमरे थे। अतिशय मनोरम, शरदकालोन चन्द्रमा को तरह निर्मल, विचित्र शिखरों से भूषित, तथा विचित्र शिखर से युक्त पर्वत की तरह वह जान पड़ता था ॥ ६ ॥ 

वायुयान पुष्पक चलने का वर्णन

वहन्ति यं कुण्डलशोभितानना महाशना व्योमचरा निशाचराः। विवृत्तविध्वस्तविशाललोचना महाजवा भूतगणाः सहस्रशः ।। ७॥ 

इस विमान को चलाने वाले विशालकाय आकाशचारी निशाचर थे। उनके मुख कुण्डलों से सुशोभित था। गोल, टेढ़े और विशाल नेत्रों वाले तथा महावेगवान हज़ारों भूतगण थे ॥ ७ ॥

वसन्तपुष्पोत्करचारुदर्शनं वसन्तमासादपि कान्तदर्शनम् । स पुष्पकं तत्र विमानमुत्तमं ददर्श तद्वानरवीरसत्तमः ॥ ८॥  इति अष्टमः सर्गः ॥  

वानरश्रेष्ठ हनुमान जी ने वसन्त कालीन पुष्पों के ढेर से युक्त और वसन्तऋतु से भी अधिक सुन्दर देखने योग्य, श्रेष्ठ पुष्पक विमान देखा ॥ ८॥

आकाश और माप का विज्ञान तो विमान वह है जो आकाश को मापता है क्योंकि यह इसे काटता है। भारतीय किंवदंतियों में विमान के कई उद्धरण हैं। सबसे लोकप्रिय रामायण का 'पुष्पक विमान' है।

पुष्पक विमान में प्रयुक्त प्रौद्योगिकी
पुष्पक विमान लंबी दूरी की यात्रा करने में सक्षम थी। यह सोने, चांदी से बने जानवरों, पक्षियों और फूलों की जटिल नक्काशी के साथ कीमती हीरे, जवाहरात और कोरल से सजाया गया था। हनुमान वाहन को देखकर चकित रह गए।प्रभु विश्वकर्मा ने बड़ी मेहनत के साथ इस विमान को तैयार किया, और इसे क्लास के हीरों और हर परिष्कार में सबसे अच्छा माना। पुष्पक विमान की मुख्य विशेषता यह थी कि "यह उसके मालिक की विचार शक्ति द्वारा संचालित होता था।"

तप: समाधाना पराक्रम चार्जितम् | मन: समधना विचार चारिंम् || कई संस्थान विशेष निर्मिताम् | ततस्त तस्तुल्य विशेष दर्शनम् || 5-8-4

कठोरता और विशेषज्ञता से प्राप्त, यह वह है जो एक एकाग्र मन के विचारों के बारे में चलता है, और विभिन्न महत्वपूर्ण भागों से समान महत्व की उपस्थिति के साथ दुनिया भर से एकत्र किया जाता है।

तत् पुष्पकम् कां गमं विमानम् |
उपस्तिथम् बद्धरा सन्निकाशम् ||
द्रष्ट्वा तदा विस्मयामाजगामा |
रमाहं सोमित्रिरुद्रस्तवः || 6-121-30

लक्ष्मण के साथ राम ने उक्त हवाई जहाज, पुष्पक को देखकर आश्चर्यचकित महसूस किया, जो एक पर्वत से मिलता जुलता था, जो उस समय हर जगह यात्रा कर सकता था। यहाँ महत्वपूर्ण बिंदु "काम गाम विमनम्" है, अर्थात यह कहीं भी यात्रा कर सकता है।

तेष्वारुढेषुस्वेषु कौबेरम्परमासनम् || ६-२२२-२५
राघवेनाभ्यनुज्ञातमुत्प तपविभयम् |

जब वे सभी आरोही, कुबेर से संबंधित उस उत्कृष्ट हवाई जहाज , राम द्वारा विधिवत अधिकृत होने के बाद, आकाश में उड़ गए।

पुष्पक विमान का अनुकरण और गति
रावण का वध करने के बाद युधिष्ठर में, राम ने विभीषण से पूछा कि वे कितनी जल्दी पहुंच सकते हैं
अयोध्या। विभीषण ने उत्तर दिया कि पुष्पक विमना एक दिन में शहर पहुँच सकती है।

अवं उक्तस्तु काकुस्तम् | प्रत्युवाच विभीषणः || अहं त्वं प्रपदश्यामि | तं पुरीं पर्थिवात्मज || 6-121-8

श्रीलंका और अयोध्या के बीच हवाई दूरी लगभग 2110 किमी है। इसका मतलब है कि पुष्पक विमला एक दिन में इतनी दूरी तय कर सकती थी। रामायण में रात के समय यात्रा करने का कोई वर्णन नहीं है इसलिए हम अनुमान लगा सकते हैं कि पुष्पक विमान को अयोध्या पहुँचने के लिए दिन के समय में 6-8 घंटे लग सकते थे।

पुष्पक विमान की बैठने की क्षमता
इसकी विशेष विशेषताओं में से एक समायोज्य बैठने की क्षमता थी। व्यवस्था यात्रियों की संख्या +1 थी। बोर्डिंग यात्रियों की संख्या के बावजूद, पायलट के लिए हमेशा 1 सीट खाली रहेगी।

तेष्ववानरर्क्षश्चराक्षक्षश्चमहाब्लाः || ६-२२२-२७
भुखमसंबाधंडिव्येतस्मिन्नुपाविचार |
उन सभी शक्तिशाली वानर, भालू और राक्षस आराम से और विशाल रूप से उस अद्भुत हवाई कार में बैठे।

भोजप्रबन्ध" तथा "समरांगणसूत्रधार" 
500 ई. तक भी भारत में हवाई जहाज थे
आज से लगभग 1550 वर्ष पूर्व राजा भोज भारत के सम्राट थे। राजा भोज के काल में विद्वानों, शिल्पियों तथा लेखकों का बड़ा मान-सम्मान होता था। महाकवि कालिदास इन्हीं के समय हुए थे। इनके प्राचीन ग्रन्थ "भोजप्रबन्ध" तथा "समरांगणसूत्रधार" मैंने स्वयं पढ़े है। वही महर्षि दयानन्द भी भोजप्रबन्ध का ही प्रमाण देते हुए सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास 11 में लिखते है -

घट्येकया कोशदशैकमश्वः सुकृत्रिमो गच्छति चारूगत्या ।
वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजस्त्रं ।। - भोजप्रबन्ध

अर्थात् राजा भोज के राज्य में और समीप ऐसे ऐसे शिल्पी लोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार का एक यान यन्त्रकलायुक्त बनाया था। वह एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोश और 1 घंटे में साढ़े सत्ताईस कोश जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था। और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था। वह बिना मनुष्य के चलाये कलायंत्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था। ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते, तो यूरोपियन इतने घमंड में न चढ़ जाते।"

वेदों में उल्लेख

इस विषय में इतना विस्तार से वेदों में है कि इस लेख के संक्षिप्त शब्दों में उसको उतारना संभव नहीं है। इस विषय के लिए आपको "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" पुस्तक का अध्याय "नौविमानादिविद्याविषयः" अवश्य पढ़ें।

विमान निर्माण करने की विद्या निम्न वेद मन्त्रों में संक्षेप में बताई गयी है :-
(ऋग्वेद 1.164.48), ( ऋग्वेद 1.34.2), ( ऋग्वेद 1.34.9) आदि आदि।

स्वामी दयानन्द के अनुसार 
विमान का प्रथम आविष्कारक के बारे में स्वामी दयानन्द ने कहा था कि
"कला-कौशल की व्यवस्था करने वाला देव शिल्पी विश्कर्मा नामक एक महा पुरुष हुआ है। विश्वकर्मा परमेश्वर का भी एक नाम है और वह एक महान शिल्पकार भी थे। विश्वकर्मा ने विमान की युक्ति निकाली। फिर इस विमान में बैठकर देवता और आर्य लोग इधर-उधर भ्रमण करने लगे।"
विश्वकर्मा नामके महान शिल्पी का उल्लेख अनेकों इतिहास ग्रंथों में आता है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि वेदों को पढ़कर सर्वप्रथम विमान का आविष्कार विश्वकर्मा ने करोड़ों वर्ष पूर्व ही कर दिया था।

महाभारत में विमान विद्या के साक्ष्य
द्रुपद को लगता था कि लाक्षागृह में पाण्डव जलकर नहीं मरे। वह अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन से करना चाहता था। इसलिए द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद ने स्वयंवर की सुचना एक ऐसे यंत्र से दी जो आकाश में घूमता था ताकि यदि पाण्डव कही हो तो वो उस सुचना को सुन सके। (वैसे बाद में द्रौपदी का विवाह युधिष्ठिर से हुआ था)

यन्त्रं वैहायसं चापि कारयामास कृत्रिमम्  । 
तेन यन्त्रेण समितंराजा लक्ष्यं चकार सः  ।। - महाभारत,आदिपर्व

अर्थात् राजा द्रुपद ने एक कृत्रिम आकाश यन्त्र भी बनाया । 
उस यंत्र के छिद्र के ऊपर उन्होंने उसी के बराबर का लक्ष्य 
तैयार कराकर रखवा दिया।    

वेदों और ग्रंथो में हवाई जहाज
मूल रूप से संसारभर में फैली सभी विद्या वेदों से ही फैली है। वेदों में विस्तार से समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष में शीघ्र चलने के लिए यान विद्या के अनेकों मन्त्र है। हवाई जहाज कैसे होते है? हवाई जहाज की गति कितनी होती है? हवाई जहाज कैसे बनाये जाते है? इस विषय में इतना विस्तार से वेदों में है कि इस लेख के संक्षिप्त शब्दों में उसको उतारना संभव नहीं है। इस विषय के लिए आपको "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" पुस्तक का अध्याय "नौविमानादिविद्याविषयः" अवश्य पढ़ें। 
संक्षेप में वेद के कुछ एक मंत्र जिनमें यह विद्या विस्तार में है
जो नौकाओं से समुद्र में, रथों से पृथ्वी पर और विमानों से 
आकाश में युद्ध करते है, वे सदा ऐश्वर्य को प्राप्त होते है ।    

समुद्र तथा अन्तरिक्ष मार्ग से तीन बार जा सकें। 
               - ऋग्वेद भाष्य, मन्त्र संख्या 1.34.2

यान ऐसे होने चाहिए कि जिनमें बैठकर ग्यारह (11) दिन में ब्रह्माण्ड के चारों ओर जाया जा सके। 
जो राजा शस्त्रास्त्र जानने वाले श्रेष्ठ धार्मिक शूरों, विमान आदि यानों के निर्माता शिल्पियों और विद्युदादि विद्याओं के विद्वानों की सत्कार-पूर्वक रक्षा करता है, उसका यश सूर्य-रश्मियों की भांति फैलता है। 

भांप का इंजन
सारी दुनिया भांप के इंजन के आविष्कार को इस वैज्ञानिक युग की शुरुआत करने वाला मानती है। वह भी सर्वप्रथम वेदों में ही मिलता है। ऋग्वेद 1.34.10 के भावार्थ में वाष्प-निस्सारण के लिए यानों में एक स्थान के निर्माण का निर्देश दिया है। "जब यानों में जल और अग्नि को प्रदीप्त करके चलाते है, तब ये यान स्थानान्तर को शीघ्र प्राप्त करते है। उनमें जल और भांप के निकलने का एक ऐसा स्थान रच लेवें कि जिसमें होकर भाफ के निकलने से वेग (speed) की वृद्धि होवे।

हवाई जहाज से सम्बंधित वेदों में मन्त्र
(यजुर्वेद 21.6, 4.34, 33.73), ( (ऋग्वेद 1.85.4, 1.117.15, 1.116.4, 6.63.7, 1.34.12, 1.164.3, 1.108.1, 1.104.1, 1.34.7, 1.184.5, 1.16.7, 4.45.4, 1.85.7, (१.८७.२, १.८८.१, १.९२.१६, १.१०६.१, १.१०६.२, १.११२.१३, १.११६.५, १.११७.२, १.११९.१, १.१२०.१०, १.१४०.१२, १.१५७.२, १.१६३.६, ११.६७.२, १.१६६.५, १.१८१.३, १.१८२.५, २.१८.१, २.१८.५, २.४०.३, ३.१४.१, ३.२३.१, ३.४१.९, ३.५८.३,८,९, ४.१७.१४, ४.३१.१४, ४.४३.२, ४.४५.७, ४.४६.४, ५.५६.६, ५.६२.४, ५.७७.३, ६.४६.११, ६.५८.३, ६.६०.१२, ७.३२.२७)

भारत में हवाई जहाज के अनेकों उदाहरण
प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ "गयाचिंतामणि" में मयूर (मोर) के आकार के विमानों का वर्णन किया गया है। दूसरी ओर शाल्व का विमान तो भूमि, आकाश, जल, पहाड़ पर आसानी से चलता था।

सलब्ध्वा कामगं यानं तमोधाम दुरासदम् ।
ययौ द्वारवतीं शाल्वो वैरं वृष्णीकृतं स्मरन् ।।
क्वचिद् भूमौ क्वचिद् व्योम्नि गिरिश्रृंगे जले क्वचिद् ।

अभिज्ञान शाकुंतल में भी हवाई जहाज के विषय का स्पष्ट उल्लेख और राजर्षि दुष्यंत के प्रयोग भासित होता है। विमानों के शिल्पी बौद्धकाल तक ही नहीं राजा भोज के काल तक भी थे, यह बात मेरे लेख के प्रमाणों से आप समझ ही गये होंगे। बौधिराज कुमार के महल के कारागार से एक कारीगर विमान लेकर भाग गया था।

ऋग्वेद के श्लोक प्रमाण
यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। 
(ऋग्वेद 6.58.3)
इस विमान का आकार तिमंजिला था। 
(ऋग्वेद 3.14.1)
यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। 
(ऋग्वेद 4.36.1)
रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। 
(ऋग्वेद 5.41.6)
इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। 
(ऋग्वेद 3.14.1)
विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ: विमानिका शास्त्र
1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है।

इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। 

विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।

विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं।

इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया है
अन्तरदेशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। अन्तरराष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते। अन्तीर्क्षय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ: समरांगण सुत्रधार
समरांगण सुत्रधार ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगण सुत्रधार के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों इस प्रकार हैं 

रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे। 
सुन्दरः – सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे। 
त्रिपुरः – त्रिपुर तीन तल वाले थे। 
शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।
सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं

विमानक्षेत्र की जानकारी 
कई प्रकार के अध्ययन एवं शोधकर्त्ताओं के अनुसार, रावण की लंका में इस पुष्पक विमान के अलावा भी कई प्रकार के विमान थे, जिनका प्रयोग वह अपने राज्य के अलग-अलग भागों में तथा राज्य के बाहर आवागमन हेतु किया करता था। इस तथ्य की पुष्टि वाल्मिकी रामायण के श्लोक द्वारा भी होती है, जिसमें लंका विजय उपरान्त राम ने पुष्पक विमान में उड़ते हुए लक्ष्मण से यह कहा था कि कई विमानों के साथ, धरती पर लंका चमक रही है। यदि यह विष्णु जी का वैकुंठधाम होता तो यह पूरी तरह से सफेद बादलों से घिरा होता।

इन विमानों के उड़ने व अवतरण हेतु लंका में छह विमानक्षेत्र थे।
वेरागन्टोटा (वर्त्तमान श्रीलंका के महीयांगना): वेरागन्टोटा एक सिंहली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है विमान के अवतरण का स्थल।
थोटूपोला कांडा (वर्त्तमान होटोन प्लेन्स): 
थोटूपोला का शाब्दिक अर्थ विमानत्तल से ही है, याज़ि ऐसा स्थान, जहां से कोई अपनी यात्रा शुरू करता हो। कांडा का अर्थ है पर्वत। थोटूपोला कांडा सागर तल से छः हजार फीट की ऊंचाई पर एक समतल जमीन थी, जो विमान उत्तरण एवं अवतरण के लिये सटीक स्थान था।
दंडू मोनारा विमान: 
यह विमान रावण के द्वारा प्रयोग किया जाता था। स्थानीय सिंहली भाषा में मोनारा का अर्थ मोर से है, तो दंडू मोनारा का अर्थ मोर जैसा उड़ने वाला।
वारियापोला (मेतेले): 
वारियापोला के कई शब्दों का संधि विच्छेद करने पर वथा-रि-या-पोला बनता है। इसका अर्थ है, ऐसा स्थान जहां से विमान को उड़ने और अवत्तरण करने, दोनों की सुविधा हो। वर्तमान में यहां मेतेले राजपक्षा अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र उपस्थित है।
गुरुलुपोथा (महीयानगाना, मध्य प्रान्त): 
सिंहली भाषा के इस शब्द को पक्षियों के हिस्से कहा जाता है। इस विमानक्षेत्र में विमान घर एवं मरम्मत केन्द्र हुआ करता था।

‘यन्त्रसर्वस्व´ ग्रन्थ’
प्रमाण स्पष्ट है कि ‘यन्त्रसर्वस्व´ ग्रन्थ’ और उसके अन्तर्गत वैमानिक-प्रकरण की रचना वेदमंत्रों के आधार पर ही की गयी है। विमान की तत्कालीन प्रचलित परिभाषाओं का उल्लेख करते हुए भरद्वाज ने बतलाया है कि `वेगसाम्याद् विमानोण्डजजानामिति´ अर्थात् आकाश में पक्षियों के वेग सी जिसकी क्षमता हो, वह विमान कहा गया है। वैमानिक प्रकरण में आठ अध्याय हैं, जो एक सौ अधिकरणों में विभक्त और पाँच सौ सूत्रों में निबद्ध हैं। इस प्रकरण में बतलाया गया है कि विमान के रहस्यों का ज्ञाता ही उसे चलाने का अधिकारी है । इन रहस्यों की संख्या बत्तीस है। यथा-विमान बनाना, उसे आकाश में ले जाना, आगे बढ़ाना, टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना, वेग को कम या अधिक करना, लंघन (लाँघना), सर्पगमन, चपल परशब्दग्राहक, रूपाकर्षण, क्रियारहस्यग्रहण, शब्दप्रसारण, दिक्प्रदर्शन इत्यादि। ये तो हुए विमानों के सामान्य रहस्य है। विभिन्न प्रकार के विमानों में चालकों को उनके विशिश्ट रहस्यों का ज्ञान होना आवश्यक होता था। `रहस्य लहरी´ नामक ग्रंथ में विमानों के इन रहस्यों का विस्तृत वर्णन है।

`वैमानिक प्रकरण´ के अनुसार विमान मुख्यत: तीन प्रकार के होते थे 
1. मान्त्रिक (मंत्रचालित दिव्य विमान), 
2. तांत्रिक-औषधियों तथा शक्तिमय वस्तुओं से संचालित, 
3. कृतक-यन्त्रों द्वारा संचालित।

पुष्पक मांत्रिक विमान था। यह विमान मंत्रों के आधार पर चलता था। कह सकते हैं कि यह रिमोट पद्धति से चलता था। मान्त्रिक विमानों का प्रयोग त्रेता युग तक रहा और तांत्रिक विमानों का द्वापर तक। इस श्रेणी में छप्पन (56) प्रकार के विमानों की गणना की गयी है। तृतीय श्रेणी कृतक के विमान कलियुग में प्रचलित रहे। ये विमान पच्चीस (25) प्रकार के गिनाये गये हैं। इनमें शकुन अर्थात पक्षी के आकार का पंख-पूँछ सहित, सुन्दर अर्थात धुएँ के आधार पर चलने वाला-यथा आज का जेट विमान, रुक्म अर्थात खनिज पदार्थों के योग से रुक्म अर्थात् सोने जैसी आभायुक्त लोहे से बिना विमान, त्रिपुर अर्थात जल, स्थल और आकाश तीनों में चलने, उड़ने में समर्थ आदि का उल्लेख आता है।

वैमानिक-शास्त्र मे दूसरे विमानो का उल्लेख 

वैमानिक-शास्त्र में चार प्रकार के विमानों का वर्णन है। ये काल के आधार पर विभाजित हैं। इन्हें तीन श्रेणियों में रखा गया है। इसमें ‘मंत्रिका’ श्रेणी में वे विमान आते हैं जो सतयुग और त्रेतायुग में मंत्र और सिद्धियों से संचालित व नियंत्रित होते थे। दूसरी श्रेणी ‘तांत्रिका’ है, जिसमें तंत्र शक्ति से उड़ने वाले विमानों का ब्यौरा है। इसमें तीसरी श्रेणी में कलयुग में उड़ने वाले विमानों का ब्यौरा भी है, जो इंजन (यंत्र) की ताकत से उड़ान भरते हैं। यानी भारद्वाज ऋषि ने भविष्य की उड़ान प्रौद्योगिकी क्या होगी, इसका अनुमान भी अपनी दूरदृष्टि से लगा लिया था। इन्हें कृतक विमान कहा गया है। कुल 25 प्रकार के विमानों का इसमें वर्णन है।

तांत्रिक विमानों में ‘भैरव’ और ‘नंदक’ समेत 56 प्रकार के विमानों का उल्लेख है। कृतक विमानों में ‘शकुन’, ‘सुन्दर’ और ‘रूक्म’ सहित 25 प्रकार के विमान दर्ज हैं। ‘रूक्म’ विमान में लोहे पर सोने का पानी चढ़ा होने का प्रयोग भी दिखाया गया है। “त्रिपुर”विमान ऐसा है, जो जल, थल और नभ में तैर-दौड़ व उड़ सकता है।

उड़ान भरते हुए विमानों का करतब दिखाये जाने व युद्ध के समय बचाव के उपाय भी वैमानिकी-शास्त्र में हैं। बतौर उदाहरण यदि शत्रु ने किसी विमान पर प्रक्षेपास्त्र अथवा स्यंदन (रॉकेट) छोड़ दिया है तो उसके प्रहार से बचने के लिए विमान को तियग्गति (तिरछी गति) देने, कृत्रिम बादलों में छिपाने या ‘तामस यंत्र’ से तमः (अंधेरा) अर्थात धुआं छोड़ दो। यही नहीं विमान को नई जगह पर उतारते समय भूमि गत सावधानियां बरतने के उपाय व खतरनाक स्थिति को परखने के यंत्र भी दर्शाए गए हैं। जिससे यदि भूमिगत सुरंगें हैं तो उनकी जानकारी हासिल की जा सके। इसके लिए दूरबीन से समानता रखने वाले यंत्र ‘गुहागर्भादर्श’ का उल्लेख है। यदि शत्रु विमानों से चारों ओर से घेर लिया हो तो विमान में ही लगी ‘द्विचक्र कीली’ को चला देने का उल्लेख है। ऐसा करने से विमान 87 डिग्री की अग्नि-शक्ति निकलेगी। इसी स्थिति में विमान को गोलाकार घुमाने से शत्रु के सभी विमान नष्ट हो जाएंगे।

इस शास्त्र में दूर से आते हुए विमानों को भी नष्ट करने के उपाय बताए गए हैं। विमान से 4087 प्रकार की घातक तरंगें फेंककर शत्रु विमान की तकनीक नष्ट कर दी जाती है। विमानों से ऐसी कर्कश ध्वनियां गुंजाने का भी उल्लेख है, जिसके प्रगट होने से सैनिकों के कान के पर्दे फट जाएंगे। उनका हृदयाघात भी हो सकता है। इस तकनीक को ‘शब्द सघण यंत्र’ कहा गया है। युद्धक विमानों के संचालन के बारे में संकेत दिए हैं कि आकाश में दौड़ते हुए विमान के नष्ट होने की आशंका होने पर सातवीं कीली अर्थात घुंडी चलाकर विमान के अंगों को छोटा-बड़ा भी किया जा सकता है। उस समय की यह तकनीक इतनी महत्वपूर्ण है कि आधुनिक वैमानिक विज्ञान भी अभी उड़ते हुए विमान को इस तरह से संकुचित अथवा विस्तारित करने में समर्थ नहीं हैं।

संहिताओं मे विमान पद
ऋग्वेद मे विमान पद के अनेक रूप उपलब्ध हैं। (यथा - विमान ऋग्वेद 3.26.7, 7.87.6, 9.62.14, 9.86.45, 10.12. 5, 10.139.5) विमानम् ( सोमापूषणारजसो विमानं सप्तचक्र ऋग्वेद 2.40.3). विमानीम् ( ऋग्वेद 10.23.1) विमाने (ऋग्वेद 10.95.17) इत्यादि। यजुर्वेद संहिता मे भी विमान शब्द का प्रयोग मिलता है। (यजुः 17.59, 18. 66, 23. 5. 6, 7.16, 32.6) इसी प्रकार अथर्ववेद मे भी इस शब्द की उपलब्धि मिलती है। (अथर्व 9.3.15) काव्य संहिता में विमान एस दिवो काव्य संहिता 18.5. 10, 29.4. 1, 7.7.10, 7.7.15) इत्यादि रूप से विमान पद का प्रयोग हुआ है। एवमेव जैमिनीय (जैमिनीय संहिता 2. 2. 7, 4.20.9) काठक (काठक संहिता 13,15, 4.3, 18.3, 21.8) मैत्रायणि ( मैत्रायणि संहिता 2.10.5, , 3.3.8) तैत्तिरीय संहिता (तैत्तिरीय संहिता 4.1.8.5, 4.6.3.3, 5.4.6.5) कौथुम संहिता ( कौथुम संहिता 2.66, 3.3, 3.12) कपिष्ठल कठ संहिता (कपिष्ठल कठ संहिता 28.3) आदि में विमान शब्द का प्रयोग मिलता है। इस प्रकार वैदिक संहिता ओं में यत्रतत्र अनेक रूपों में विमान पद का प्रयोग मिलता है। जिससे यह विदित होता है कि उस काल में विमान शब्द से सामान्य जन समुदाय का भी परिचय था। क्यूंकि उस समय यह संहिताओं का व्यापक अध्ययन होता था।

ब्राम्हण ग्रंथो मे विमान पद
ब्राम्हण वेद मन्त्रों की व्याख्या ग्रंथ है अर्थात ब्राम्हण वेदव्याख्यानरूप हे । शतपथ ब्राम्हण मे कई बार विमान शब्द का प्रयोग हुआ है। (शतपथ ब्राम्हण 9.2.3.17, 4.2.1.8-10) इसी प्रकार तैत्तिरीय (तैत्तिरीय ब्राम्हण 2.5.2.4 , 3.7.9.9) काण्विय शतपथ ब्राम्हण (काण्विय शतपथ ब्राम्हण 5.2.1.6.9) तथा जैमिनीय ब्राम्हण (जैमिनीय ब्राम्हण 2.229) मे विमान पद का प्रयोग उपलब्ध है।

आरण्यक, उपनिषद तथा श्रोत ग्रंथो मे विमान पद
ब्राम्हण साहित्य के पश्चात आरण्यक आदि ग्रंथो की स्थिति मानी गई है। आरण्यको, उपनिषदो मे यद्यपि ब्रम्हविधाविषयक विवेचन विस्तृत रुप से किया गया है तथापि कहीं कहीं भौतिक विज्ञान से संबंधित तथ्यों का भी निरूपण किया गया है। तैत्तिरीय आरण्यक मे विमान पद का प्रयोग उपलब्ध है (तैत्तिरीयारण्यक 4.11.7) कई अवाॅचिन उपनिषदों मे विमान पद और कत्र प्रयुक्त हुआ है।
त्रिशिखिब्राम्हणोपनिषद (त्रिशिखिब्राम्हणोपनिषद 7.22) शिवोपनिषद (शिवोपनिषद 6.134, 6.261) राजश्यामलारहस्योपनिषद (राजश्यामलारहस्योपनिषद 423.17) पैंगलोपनिषद (पैंगलोपनिषद. 4.2)

बृहदेवता वेदमन्त्रों के देवता आदि का निदशॅन करने वाला शौनक ऋषि प्रणीत अद्भुत ग्रंथ है। इसमे भी विमान शब्द का विमानानि यह बहुवचनान्त प्रयोग मिलता है।
यश्चैन्द्रो मध्यमंस्थानो गणः सोऽयमतः पर ।
विमानानि च दिव्यानि गणश्चाप्सरसां तथा ।। बृहदेवता 1.121

लेखक के शब्द 
विश्वकर्मा साहित्य भारत के माध्यम से हम विश्वकर्मा समाज में प्रमाण युक्त लेख जानकारी देने का प्रयास कर रहे हैं समाज में ज्ञान प्राप्त करने की रूचि बढ़ी है। किन्तु कही भी इस विषय पर विस्तार से जानकारी तथा विमान शास्त्र आदि जैसे प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध तो है किन्तु आसानी या सहज से प्राप्त नहीं होते हैं । मुनि भारद्वाज रचित वैमानिका शास्त्र और बहुत से ग्रंथो से मुख्य रूप से संकलित किया गया है इस लेख में कोई रटी-रटाई जानकारी नहीं, अपितु अत्यंत विस्तार से इतिहास व पुस्तकें संकलित करके दी गयी है। यह लेख अत्यंत गहन तथ्यों व जानकारियों से लबालब भरा हुआ है। संभवतः इस विषय का इतना विस्तृत लेख संकलित करने की कोशिश लेखक मयूर मिस्त्री द्वारा की गई है। आशा करता हूँ आप इस लेख को अंत तक धैर्य पूर्वक पढ़कर मेरे पुरुषार्थ को सफल बनायेंगे।

लेख संकलनकर्ता 
मयूर मिस्त्री
संस्थापक 
विश्वकर्मा साहित्य भारत

सन्दर्भ
वैमानिका शास्त्र
समरांगण सूत्रधार
बृहद विमान शास्त्र 
ऋग्वेद
वाल्मीकि रामायण 
यंत्र सवॅस्व 

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