Posts

Showing posts from July, 2021

27 नक्षत्रों के वेद मंत्र

Image
27 नक्षत्रों के वेद मंत्र वैदिक ज्योतिष में महत्वपूर्ण माने जाने वाले 27 नक्षत्रों के वेद मंत्र निम्नलिखित हैं  अश्विनी नक्षत्र वेद मंत्र ॐ अश्विनौ तेजसाचक्षु: प्राणेन सरस्वती वीर्य्यम वाचेन्द्रो बलेनेन्द्राय दधुरिन्द्रियम । ॐ अश्विनी कुमाराभ्यो नम: । भरणी नक्षत्र वेद मंत्र ॐ यमायत्वा मखायत्वा सूर्य्यस्यत्वा तपसे देवस्यत्वा सवितामध्वा नक्तु पृथ्विया स गवं स्पृशस्पाहिअर्चिरसि शोचिरसि तपोसी। कृतिका नक्षत्र वेद मंत्र ॐ अयमग्नि सहत्रिणो वाजस्य शांति गवं वनस्पति: मूर्द्धा कबोरीणाम । ॐ अग्नये नम: । रोहिणी नक्षत्र वेद मंत्र ॐ ब्रहमजज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमत: सूरुचोवेन आव: सबुधन्या उपमा अस्यविष्टा: स्तश्चयोनिम मतश्चविवाह ( सतश्चयोनिमस्तश्चविध: ) ॐ ब्रहमणे नम: । मृगशिरा नक्षत्र वेद मंत्र ॐ सोमधेनु गवं सोमाअवन्तुमाशु गवं सोमोवीर: कर्मणयन्ददाति यदत्यविदध्य गवं सभेयम्पितृ श्रवणयोम । ॐ चन्द्रमसे नम: । आर्द्रा नक्षत्र वेद मंत्र ॐ नमस्ते रूद्र मन्यवSउतोत इषवे नम: बाहुभ्यां मुतते नम: । ॐ रुद्राय नम: । पुनर्वसु नक्षत्र वेद मंत्र ॐ अदितिद्योरदितिरन्तरिक्षमदिति र्माता: स पिता स पुत्र: विश

सूर्य नमस्कार

Image
सूर्य नमस्कार सूर्य नमस्कार ऐसा योग है जिसको करने के बाद अगर आप कुछ और व्यायाम ना भी करें, तो भी काम चल जाएगा। सूर्य नमस्कार ऐसा योग है जो आपको शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखता है। पौराणिक ग्रंथो में भी सूर्य नमस्कार को सर्वप्रथम बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीराम ने भी युद्ध में उतरने से पहले सूर्य नमस्कार किया था। कहते है यह रामायण काल युद्ध आरंभ हो चुका था और अनगिनत शत्रुओं के साथ श्रीराम की वानर सेना के भी कई महारथी शहीद हो गए थे। भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम अपनी आंखों के सामने युद्ध का सारा दृश्य देख रहे थे। तभी उन्होंने सोचा कि यह वही घड़ी है जब वे स्वयं युद्ध के मैदान में उतरकर दुष्ट रावण का सर्वनाश करेंगे। तभी ऋषि अगस्त्य द्वारा श्रीराम को युद्ध भूमि में जाने से पहले ‘सूर्य नमस्कार’ करने की सलाह दी गई। मान्यता है कि पौराणिक इतिहास में यह पहला सूर्य नमस्कार था, जिसे रामायण ग्रंथ के युद्ध कांड में भी शामिल किया गया है। सम्पूर्ण रूप से सूर्य नमस्कार करने के पश्चात ही श्रीराम दैत्य रावण का वध करने के लिए युद्ध भूमि में उतरे थे। सूर्य नमस्कार द्वारा सूर

ॐ कार ही प्रणव

Image
सम्पूर्ण वेदों में ओंकार मैं हूं। ओम् की इसी महिमा को दृष्टि में रखते हुए हमारे धर्म ग्रंथों में इसकी अत्याधिक उत्कृष्टता स्वीकार की गई है। जाप-पूजा पाठ करने से पूर्व ओम् का उच्चारण जीवन में अत्यंत लाभदायक है। सभी वेदों का निष्कर्ष, तपस्वियों का तप एवं ज्ञानियों का ज्ञान इस एकाक्षर स्वरूप ओंकार में समाहित है। यही विराट विश्वकर्मा जो निराकार स्वरूप में स्वयम स्थान है।  ओम् ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है। मुख्यत: यह समस्त ब्रह्मांड ईश्वर का विस्तृत रूप है। दृश्य ब्रह्मांड ईश्वर के कातिपय गुणों को प्रदर्शित करता है। जगत का प्रत्येक पदार्थ उस ईश्वर की रचना है। ओम् जो यह अक्षर है, यह सब उस ओम् का विस्तार है जिसे ब्रह्मांड  कहते हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य में सब ओंकार ही है और जो इसके अतिरिक्त तीन काल से बाहर है, वह भी ओंकार है। समय और काल में भेद है। समय सादि और सान्त होता है परन्तु काल, अनादि और अनंत होता है। समय की उत्पत्ति सूर्य की उत्पत्ति से आरंभ होती है। वर्ष, महीने, दिन, भूत, वर्तमान और भविष्य आदि ये विभाग समय के हैं जबकि काल इससे भी पहले रहता है। प्रकृति का विकृत रूप तीन क

जम्बूद्वीप

Image
जम्बूद्वीप प्रियव्रत और जम्बूद्वीप स्वयंभूव मनु की संतति अधिकतम पुराणों के अनुसार स्वयंभूव मनु के शतरुपा से प्रियव्रत तथा उत्तानपाद दो पुत्र तथा आकृति एवं प्रसूती दो पुत्रियाँ हुयी। प्रियव्रत समस्त सृष्टि के प्रजापति थे। इनके सात पुत्र थे। उनमे पृथ्वी के सात महाद्वीप बांट दिए गए। ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप (एशिया) का राज्य मिला। शेष पुत्रों को शेष महाद्वीपो के राज्य मिले। आग्नीध्र ने अपने पुत्रो मे जम्बूद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया। स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत- ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए।   महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी,    प्रियव्रत का कुल देखे तो राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र जम्बूद्वीप के अधिपति हुए। अग्नीघ्र के 9 पुत्र जम्बूद्वी

त्रिपुर धान के आरंभ में रूद्र के रथ के निर्माण का वर्णन

Image
त्रिपुर धान के आरंभ में रूद्र के रथ के निर्माण का वर्णन भगवान विश्वकर्मा ने रूद्र भगवान का सवॅलोकमय दिव्य रथ का निर्माण किया। जिसमें दाई ओर का पहिया सूर्य और वायु ओर का पहिया चंद्र था। दक्षिण में बारह तथा उत्तर में(बाई ओर) सोलह अरा थे। अराओं मैं एक तरफ बारह आदित्य तथा दूसरी तरफ सोलह चंद्रमा की कला थी। सब नक्षत्र बाई तरफ भूषण थे तथा छह ऋतु नेमी थी। पुष्कर, अंतरिक्ष, नील, मंदराचल, रथ, धा, अस्ताचल और उदयाचल दोनों उसके जुआ थे। सुमेर उसका अधिष्ठान था। संवत्सर उसका एक स्थान था। उत्तरायण और दक्षिणायन उसके संगम थे। स्वर्गीय तथा ध्वजा दोनों मोक्ष थे। धर्म और विराट दोनों दण्ड थे। यमुना दंड का आश्रय दक्षिण संधि पचास आदमी उसके लोहे के स्थान पर थी। सभी इंद्रियां उसमें भूषण थी। श्रद्धा गति थी, वेद उस रथ के घोड़ा थे, पद्म भूषण थे, छै उपभूषण थे, पुराण, मीमांस, धर्म, शास्त्र, इत्यादिक उसके वस्त्र थे। दिशाएं पैर थी, वह रथ सभी प्रकार के राहत और स्वर्ण से भूषित था। चारों समुद्र उसके चारों ओर के कम्बल थे। सरस्वती देवी घंण्टा थी। विष्णु भगवान बाण थे।सोम शल्य थे। इस प्रकार दिव्य रथ और धनुष्य को तैयार करके ब्

विश्वकर्मा कवच

Image
विश्वकर्मा कवच विश्वकर्मा साहित्य भारत  श्री विरमदेवजी ने लिखा है कि यह कवच यजुर्वेद के एक मंत्र मे दर्शाया गया है और इस कवच का मूल मंत्र यही है। कवच दोहा प्रथम हाथ्मे गज लहै दूजे सूत्र प्रमान । तिजी मे जलपात्र है चौथा पुस्तक ज्ञान।। हंस सवारी जो लहै तीन नेत्र है जासु। मस्तक सौहे मुकुट शुचि शैया शेष है तासु।। सकल सृष्टि ब्रह्माण्ड के कारणकाज करन्न। सोई विराट विश्वकर्म प्रभु भक्तोविध्न हरन्न ।। चौपाई ओम नमोः विशरुप आदेशा तोथ निज मन्त्र शक्ति बसो तोय । जेहि निरविकार निंरजन रुप विश्वकर्मा सुरासुर जान भूप । जो सकल सृष्टि के परम धाम तटवो कर या सु अष्ट याम । चेतन सु ब्रह्म सर्वज्ञ सार, रम रहयो आप घट घट मंझार । जिन शेष महेश गणेश होय, सुक सारदा म नारदा म जोय । नहीं करे पार किरतार कोय, भुज बेर बेर रक्षा जु करत वो पिडं पिंड । नख शिख आंगली रुम रुम रक्षा जु करत रंकार झुम । काबो जु तक एडी विराम, रिच्छपाल रम परसो जु बाम्मल। मूत्र द्वार इम्रखे ऐन, चंद्र सूर रखे कटि नैन बैन। षट आदिनाथ जिन रिच्छपाल, करण धुराज मस्तक कपाल। पिंडी सो जु कृष्ण गोडो पाल, जगदिश जांग राखे कपाल। जिन पेट पूत लक्ष्मी

त्वाष्ट्र अस्त्र का सर्जन

Image
त्वाष्ट्र अस्त्र का सर्जन भगवान विश्वकर्मा द्वारा अनेक निर्माण और रचनाओ की कथाएं मिल चुकी है एक ओर निर्माण की पौराणिक कथा को आपके लिए विश्वकर्मा साहित्य भारत द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।  यह निर्माण कथा प्राचीन काल की है और राजा ऋतुध्वज से जुड़ी हुई है। प्राचीन काल में एक शत्रुजीत नाम का एक राजा था। वे बहुत ही पराक्रमी और परम वीर था। अपने राज्य की प्रजा और ऋषि मुनियों को सुख देने के हर प्रयास करता था। उसने अनेक यज्ञ विधानो द्वारा देवो को प्रसन्न किया था। उन्हें एक ऋतुध्वज नामक पुत्र हुआ। वह भी अपने पिता की तरह गुणवान और संस्कारी था। संस्कार के साथ साथ वह हरएक विद्याभूषण मे निपुण था।  एक दिन गालव मुनि उनके वहां आए उन्होंने राजा शत्रुजित से फ़रियाद की के हम ऋषिमुनियों को कहीं पर शांति से नित्य कर्म यज्ञ करने नहीं मिल रहा है एक अधम राक्षस आश्रम में आकर हम सभी को बहुत परेशान कर रहा है साथ ही वह हमारे यज्ञ - यज्ञादि और आश्रम को नुकसान पहुंचा रहा है। यज्ञो का विध्वंस यह राज्य और प्रजा के लिए अच्छे संकेत नहीं है राजा आपको यह मुनि आग्रह के साथ कहते हैं कि कुछ करे। मुनि ओ ने कहा कि ह