ॐ कार ही प्रणव

सम्पूर्ण वेदों में ओंकार मैं हूं। ओम् की इसी महिमा को दृष्टि में रखते हुए हमारे धर्म ग्रंथों में इसकी अत्याधिक उत्कृष्टता स्वीकार की गई है। जाप-पूजा पाठ करने से पूर्व ओम् का उच्चारण जीवन में अत्यंत लाभदायक है। सभी वेदों का निष्कर्ष, तपस्वियों का तप एवं ज्ञानियों का ज्ञान इस एकाक्षर स्वरूप ओंकार में समाहित है। यही विराट विश्वकर्मा जो निराकार स्वरूप में स्वयम स्थान है। 
ओम् ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है। मुख्यत: यह समस्त ब्रह्मांड ईश्वर का विस्तृत रूप है। दृश्य ब्रह्मांड ईश्वर के कातिपय गुणों को प्रदर्शित करता है। जगत का प्रत्येक पदार्थ उस ईश्वर की रचना है। ओम् जो यह अक्षर है, यह सब उस ओम् का विस्तार है जिसे ब्रह्मांड  कहते हैं।

भूत, वर्तमान और भविष्य में सब ओंकार ही है और जो इसके अतिरिक्त तीन काल से बाहर है, वह भी ओंकार है। समय और काल में भेद है। समय सादि और सान्त होता है परन्तु काल, अनादि और अनंत होता है। समय की उत्पत्ति सूर्य की उत्पत्ति से आरंभ होती है। वर्ष, महीने, दिन, भूत, वर्तमान और भविष्य आदि ये विभाग समय के हैं जबकि काल इससे भी पहले रहता है। प्रकृति का विकृत रूप तीन काल के अंदर समझा जाता है। प्रकृति तीन कालों से परे की अवस्था है, अत: उसे त्रिकालातीत कहा गया है। वह यह आत्मा अक्षर में अधिष्ठित है और वह अक्षर है ओंकार है और वह ओंकार मात्राओं में अधिष्ठित है।

एतदालम्बनं श्रेष्ठां एतदालम्बनं परम्।
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥

यह ॐ प्रणव आलम्बन आश्रय ही श्रेष्ठ है। यह आश्रय सर्वोपरि है। इस आलम्बन को जान कर ब्रह्म लोक में आनन्दित है। यह ओंकार शब्द ईश्वर का सर्वोत्तम नाम है क्योंकि इसमें जो अ उ और म् तीन अक्षरों का मिश्रित रूप है। इस एक नाम से परमात्मा के बहुत नाम आते हैं जैसे-अकार से विराट, अग्रि और विश्वादि। उकार से हिरण्यगर्भ, वायु और तेजसादि। मकाट से ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञादि नामों का वाचक है।

ओम् (ॐ) परमपिता परमात्मा का वेदोक्त एवं शास्त्रोक्त नाम है। समस्त वेद-शास्त्र ओम् की ही उपासना करते हैं। अत: ओम् का ज्ञान ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। ईश्वर के सभी स्वरूपों की उपासना के मंत्र ओम से ही प्रारंभ होते हैं। ईश्वर के इस नाम को ओंकार एवं प्रणव आदि नामों से ही संबोधित किया जाता है।

‘‘ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्ण मेवा: शिष्यते॥’’

वे ओंकार स्वरूप परमात्मा पूर्ण हैं। पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और पूर्ण में से पूर्ण निकल जाने पर पूर्ण ही शेष रह जाता है। ॐ तत् , सत्-ऐसे यह तीन प्रकार के सच्तिदानंदघन ब्रह्म का नाम है। उसी से दृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण वेद तथा यज्ञादि रचे गए।

‘अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोज्ध्यात्मुच्यते।’

परम अक्षर अर्थात ॐ ब्रह्म है, अपना स्वरूप अर्थात् जीवात्मा अध्यात्म नाम से कहा जाता है।

श्रीमद भगवद् गीता में वर्णित है कि ‘ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ॐ इति एकाक्षरं (एक अक्षर)ब्रह्म’ अर्थात एक अक्षर शब्द ही ब्रह्म है। तीन अक्षरों अ+उ+म का यह शब्द सम्पूर्ण जगत एवं सभी के हृदय में वास करता है।

हृदय-आकाश में बसा यह शब्द ‘अ’ से आदि कर्ता ब्रह्म, उ से विष्णु एवं म से महेश का बोध करा देता है। यह उस अविनाशी का शाश्वत स्वरूप है जिसमें सभी देवता वास करते हैं। ओम् का नाद सम्पूर्ण जगत में उस समय दसों दिशाओं में व्याप्त हुआ था जब युगों-पूर्व इस सृष्टि का प्रारंभ हुआ था। उस समय इस सृष्टि की रचना हुई थी।

‘प्रजा पति समवर्तताग्रे, भूतस्य जातस्य पतिरेकासीत’ 

अर्थात सृष्टि के प्रारंभ होने के समय यह एक ब्रह्मनाद था। मनुष्य शरीर पांच तत्वों से बना है। पृथ्वी, जल, अग्रि, वायु तथा आकाश। यही आकाश तत्व ही जीवों में शब्द के रूप में विद्यमान है।

‘ओंकारों यस्य मूलम’ वेदों का मूल भी यही ओम् है। ऋग्वेद पत्र है, सामवेद पुष्प है और यजुर्वेद इसका इच्छित फल है। तभी इसे प्रणव नाम दिया गया है जिसे बीज मंत्र माना गया है। इस ओम् के उच्चारण में केवल पंद्रह सैकंड का समय लगता है जिसका आधार 8, 4, 3 सैकेंड के अनुपात पर माना गया है। अक्षर ‘अ’ का उच्चारण स्थान कंठ है और ‘उ’ एवं ‘म’ का उच्चारण स्थान ओष्ठ माना गया है। नाभि के समान प्राणवायु से एक ही क्रम में श्वास प्रारंभ करके ओष्ठों तक आट सैकंड का समय और फिर मस्तक तक उ एवं म् का उच्चारण करके 4, 3 के अनुपात का समय लगता है और यह प्रक्रिया केवल 15 सैकंड में समाप्त होती है।

ओइमकारं बिंदु संयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिन :।
कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नम:॥

योगी पुरुष ओंकार का नाद बिंदू सहित सदा ध्यान करते हैं और इसका स्मरण करने से सभी प्रकार की कामनाएं पूर्ण होती है। इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। उपरोक्त मंत्र से ओंकार पूजा की जाती है। प्रणव का मन में स्मरण करके भक्त भगवान के किसी भी रूप में भगवद्मय में हो जाता है।

ॐ की ध्वनि से विकृत शारीरिक-मानसिक विचार निरस्त हो जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-‘‘प्रणव: सर्ववेदषु’

ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामान्तर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव सम्बन्ध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक सम्बन्ध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनन्तर सात करोड़ मन्त्रों का आविर्भाव होता है। इन मन्त्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियन्त्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्माण्ड का सार माना जाता है, 16 श्लोकों में इसकी महिमा वर्णित है।

ब्रह्मप्राप्ति के लिए निर्दिष्ट विभिन्न साधनों में प्रणवोपासना मुख्य है। मुण्डकोपनिषद् मे लिखा है। 

प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है। माण्डूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।

वैदिक वाङ्मय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध पन्थ तथा जैन सम्प्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है। प्रणव शब्द का अर्थ है– प्रकर्षेणनूयते स्तूयते अनेन इति, नौति स्तौति इति वा प्रणव:।

प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचन्द्र रोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना। इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारान्तर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अन्त में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है। विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है। एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरान्त क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनन्तर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास माण्डूक्य उपनिषद् में मिलता है।

बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरन्तर प्रकाशमान रहता है।

योगी सम्प्रदाय में स्वच्छन्द तन्त्र के अनुसार ओंकार साधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनन्तर मात्रातीत की ओर गति होती है। म पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिन्दु से ही प्रारम्भ हो जाती है।

तन्त्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियाँ के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिन्दु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिन्दुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है। अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादान्त तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही सिद्ध है।

इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। स्वच्छन्द तन्त्र में यह दिखाया गया है कि ऊर्ध्व गति में किस प्रकार कारणों का परित्याग होते होते अखण्ड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है। "अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कण्ठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि का छेदन हो जाता है। तदनन्तर बिन्दु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिन्दु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिन्दु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनन्तर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है। इसके उपरान्त कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनन्तर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।

इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखण्ड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।

गुरु नानक जी का शब्द एक ओंकार सतनाम बहुत प्रचलित तथा शत्प्रतिशत सत्य है। एक ओंकार ही सत्य नाम है। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।

छान्दोग्योपनिषद् में ऋषियों द्वारा -

ॐ इत्येतत् अक्षरः (अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरण रहित है।)
ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली। कोशीतकी ऋषि निस्संतान थे, संतान प्राप्तिके लिए उन्होंने सूर्यका ध्यान कर ॐ का जाप किया तो उन्हे पुत्र प्राप्ति हो गई।

गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ
गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में उल्लेख है कि जो "कुश" के आसन पर पूर्व की ओर मुख कर एक हज़ार बार ॐ रूपी मंत्र का जाप करता है, उसके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।

सिद्धयन्ति अस्य अर्थाः सर्वकर्माणि च

श्रीमद्भागवत् में ॐ के महत्व को कई बार रेखांकित किया गया है। इसके आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।

ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है। अ उ म्। "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है। अंग्रजी में एक उक्ति है — "साइलेंस इज़ सिल्वर ऍण्ड ऍब्सल्यूट साइलेंस इज़ गोल्ड"। श्री गीता जी में परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौनका ही पर्याय बताया है —

मौनं चैवास्मि गुह्यानां

ध्यान बिन्दुपनिषद्
"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।

तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली अष्टमोऽनुवाकः 

ओमिति ब्रह्म । ओमितीदँसर्वम् । ओमित्येतदनुकृतिर्हस्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति सामानि गायन्ति ।
ओँशोमिति शस्त्राणि शँसन्ति । ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति । ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति ।
ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥ १ ॥

अर्थातः- ॐ ही ब्रह्म है। ॐ ही यह प्रत्यक्ष जगत् है। ॐ ही यह जगत की अनुकृति है। आचार्य द्वारा ॐ से प्रारम्भ करके साम गायक सामगान करते हैं। ॐ-ॐ कहते हुए ही शस्त्र रूप मन्त्र पढ़े जाते हैं। ॐ से ही अध्वर्यु प्रतिगर मन्त्रों का उच्चारण करता है। ॐ कहकर ही अग्निहोत्र प्रारम्भ किया जाता है। अध्ययन के समय ब्राह्मण ॐ कहकर ही ब्रह्म को प्राप्त करने की बात करता है। ॐ के द्वारा ही वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति
तपाँसि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदँ संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥ १५ ॥ (कठोपनिषद, अध्याय १, वल्ली २),
अर्थातः- सारे वेद जिस पद का वर्णन करते हैं, समस्त तपों को जिसकी प्राप्ति के साधक कहते हैं, जिसकी इक्षा से (मुमुक्षुजन) ब्रह्मचर्य का पालन करते है, उस पद को मैं तुमसे संक्षेप में कहता हूँ। ॐ यही वह पद है।

ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।
तमोंकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति॥ ७॥ 
 ( प्रश्नोपनिषद प्रश्न ५, श्लोक ७),
अर्थातः- साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा आन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विद्वजन जानते हैं। तथा उस ओंंकाररूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे उपर श्रेष्ठ है।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥ 
( मुण्डकोपनिषद्, मुनण्डक २, खण्ड २, श्लोक-४)
अर्थातः- प्रणव धनुषहै, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।। ४।।

ओमित्येतदक्षरमिदंसर्व तस्योपव्याख्यानं भूत,
भवभ्दविष्यदिति सर्वमोंंकार एव।
यच्चान्यत्त्रिकालातीतं तदप्योंकार एव॥ १॥  
(माण्डूक्योपनिषद, गौ० का० श्लोक १)
अर्थातः-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।

सोऽयमात्माध्यक्षरमोंकारोऽधिमात्रं पादा मात्रा मात्राश्च पादा अकार उकारो मकार इति।। ८।। 
(माण्डूक्योपनिषद् आ०प्र० गौ०का० श्लोक ८)
वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंंकार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं।

सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है। महात्मा कबीर र्निगुण सन्त एवं कवि थे। उन्होंने भी ॐ के महत्व को स्वीकारा और इस पर "साखियाँ" भी लिखीं हुयी है 

ओ ओंकार आदि मैं जाना।
लिखि औ मेटें ताहि ना माना ॥
ओ ओंकार लिखे जो कोई।
सोई लिखि मेटणा न होई ॥

महर्षि पतंजलि प्रणीत ʹयोगदर्शनʹ के अनुसार 

तस्य वाचक प्रणवः। तज्जपस्तदर्धभावनम्। (समाधिपाद, सूत्रः27-28)

ʹईश्वर का वाचक प्रणव (ૐकार) है। उस ૐकार का जप, उसके अर्थस्वरूप परमेश्वर का पुनः पुनः स्मरण-चिंतन करना चाहिए।ʹ

महर्षि वेदव्यासजी कहते हैं

मन्त्राणां प्रणवः सेतुः….

ૐ मंत्रों को पार करने के लिए अर्थात् सिद्धि के लिए पुल के सदृश है।

बौद्ध धर्म का परम पवित्र मंत्र हैः-

ओं मणि पदमे हुँ।

ʹप्रश्नोपनिषद्ʹ में महर्षि पिप्पलाद कहते है

ʹहे सत्यकाम ! निश्चय ही यह जो ૐकार है वही परब्रह्म और अपर ब्रह्म भी है।ʹ (प्रश्नोपनिषद् 5.2)

ʹश्रीमद् भगवद् गीताʹ में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा 

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमं गतिम्।।

 ʹजो पुरुष ʹૐʹ इस एक अक्षररूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर का त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है।ʹ

‘ॐ’ का परिचय 

वास्तव में हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों में ओम शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की गई है  तथा दोनों ही परब्रह्म के वाचक तथा सर्वव्यापी कहे गए हैं।

इसका वर्णन वेद, उपनिषद विशेषकर माण्डूक्योपनिषद में मिलता है। इसके 12 मन्त्रों में केवल ‘ॐ’ के विभिन्न पदों, उसके स्वरूप, उसकी विभिन्न मात्राओं तथा तन्मात्रों आदि का वर्णन है।

चंदोग्य उपनिषद

चंदोग्य उपनिषद हिंदू धर्म की सबसे पुरानी उपनिषदों में से एक है। यह सिफारिश के साथ खुलता है कि “कोई व्यक्ति ओम पर ध्यान दें”। यह ओम  को उदगीथ (उत्पत्ति, गीत, मंत्र) के रूप में वर्णित करता है, और इस बात का दावा करता है कि इस प्रकार के उच्चारण का महत्व है: सभी प्राणियों का सार पृथ्वी है, पृथ्वी का सार पानी है, पानी का सार है पौधों का सार पुरुष है, मनुष्य का सार भाषण है, भाषण का सार ऋग्वेद है, ऋग वेद का सार सम वेद है, और सम वेद का सार उदगीथ ओम है, ।

कठो उपनिषद

कठो उपनिषद एक छोटे लड़के नचिकेता की महान कहानी है, नचिकेता – ऋषि वजसराव के पुत्र – जो यम से मिलता है। उनकी बातचीत मनुष्य, ज्ञान, आत्मा (आत्मा, स्व) और मोक्ष की प्रकृति (मुक्ति) की चर्चा के लिए होती है। खंड 1.2 में, कठो उपनिषद ने ज्ञान / बुद्धि को अच्छाई की खोज, और अज्ञानता / भ्रम को सुखद की खोज के रूप में वर्णित किया है, कि वेद का सार मनुष्य को स्वतंत्र और स्वतंत्र बना देता है, जो कुछ हुआ है उसे पीछे देखो क्या हुआ नहीं है, जो अतीत और भविष्य से मुक्त है, अच्छे और बुरे से परे है, और इस सार के लिए एक शब्द ओम शब्द है।

कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है।

मैत्री उपनिषद

छठी अध्यायों  में मैत्रेयण्य  उपनिषद ,ओम के अर्थ और महत्व की चर्चा करता है। दुनिया ओम है, इसका प्रकाश सूर्य है, और सूर्य भी ओम के प्रकाश है

मंडुक्य उपनिषद

मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।

दूसरे मुंडकाम (भाग) में मंडुक्य उपनिषद , स्वयं तथा ब्रह्म को ध्यान, आत्म-प्रतिबिंब और आत्मनिरीक्षण करने के साधनों का सुझाव देता है, जिसे ओम के प्रतीक के रूप में सहायता मिल सकती है।

प्रणवो धनु:शरोह्यात्मा ब्रह्मतल्लक्ष्यमुच्यते।

अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥

(मंडुक्य उपनिषद , 2.2.2 – 2.2.4) 

आदि शंकर , मंडुक्य उपनिषद की अपनी समीक्षा में, ओम को आत्मा (आत्मा, स्व) के प्रतीक चिन्ह के रूप में कहते हैं।

मंडुक्य उपनिषद ने घोषणा की, “ओम! यह पूरी दुनिया है” ।

श्वेताश्वर उपनिषद

1.14 से 1.16 के छंदों में श्वेतशक्ति उपनिषद , ओम  की मदद से ध्यान देने का सुझाव देता है,

पाठ ने दावा किया कि ओम  ध्यान का एक साधन है, जिससे एक को स्वयं को भीतर से भगवान को जानने के लिए सशक्त बनाया जा सकता है, ताकि एक के आत्मज्ञान (आत्मा, स्व) का पता लगा सके।

जैन धर्म

ओम एकेरी पन्छचरमहरिनमादिपम तत्कथिति चेत “अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झाया मुनिआ”

अनुवाद: अरिहंत को पुण्य, आदर्श लोगों की पूजा, स्वामी से पूजना, शिक्षकों की पूजा, दुनिया के सभी भिक्षुओं को पूजा।

एएयूयूएम (या सिर्फ “ओम”) पांच पार्मथिस के एक अक्षर का संक्षिप्त रूप है: ” अरिहंत , आशिरी , आचार्य , उपजजय , मुनी “।

ओं नमः सिद्धानम, ओम नाही और सिर्फ ओम परमार्थी-मंत्र के लघु रूप हैं, जिसे ननोकार मंत्र या जैन धर्म में नवकार मंत्र भी कहते हैं।

तिब्बती बौद्ध धर्म (वजराया)

तिब्बती बौद्ध धर्म में , ओम अक्सर मंत्रों और धरणियों की शुरुआत में रखा जाता है। संभवत: सबसे प्रसिद्ध ज्ञात मंत्र ” ओम मणि पद्म हुं  ” है इसके अलावा, एक बीज के रूप में ( बीजगण मंत्र ), ओम बौद्ध धर्म में पवित्र माना जाता है।

विद्वान मंत्र के पहले शब्द “ओम मणि पद्मी हुं ” को अउम कहते हैं , जिसका अर्थ हिंदू धर्म के समान है – ध्वनि, अस्तित्व और चेतना की संपूर्णता।

ओम को 14 वें दलाई लामा द्वारा वर्णित किया गया है, “तीन शुद्ध अक्षरों, अउम से बना है, ये एक चिकित्सक के रोजमर्रा की अनजान जीवन के अशुद्ध शरीर, भाषण और मन का प्रतीक हैं, वे शुद्ध ऊंचा शरीर का भी प्रतीक हैं, एक प्रबुद्ध बुद्ध का भाषण और मन। ”

सिख धर्म

एक ओकर (एक सतनाम)

आईके ओनकर , श्री ग्रन्थ साहिब में प्रतिष्ठित रूप से ੴ के रूप में प्रतिनिधित्व करते हैं सिख धर्म का ओनकर हिंदू धर्म में ओम से संबंधित है। आईके ओन्कर सिख शिक्षाओं में “मूल मंत्र” का हिस्सा हैं और “एक भगवान” का प्रतिनिधित्व करते हैं, , जहां “आईक” का अर्थ है एक और ओन्कर “हिंदू” के बराबर “ओम” है। गुरू नानक ने ओनकर नामक एक कविता लिखी जिसमें, उन्होंने “देवत्व को उत्पत्ति और भाषण की भावना को जिम्मेदार ठहराया, जो इस प्रकार ओम निर्माता है”।

ओनकर ने ब्रह्मा को बनाया, ओनकर ने चेतना की,
ओनकर से पहाड़ों और उम्र आए, ओनकर ने वेदों का उत्पादन किया,
ओनकर की कृपा से, लोगों को दिव्य शब्द के माध्यम से बचाया गया था,
ओनकर की कृपा से, वे गुरु की शिक्षाओं के माध्यम से मुक्त हुए।

– रमाकली दक्षखानी, आदि ग्रंथ 9 2 9-9 30, पशौरा सिंह द्वारा अनुवादित

आईक औमकारा मूल मंत्र की शुरुआत में प्रकट होता है और यह उपनिषदों में ” औ” और गुरुनी में होता है

अलग-अलग उपनिषद मंत्रों ग्रंथो द्वारा यह लेख जानकारी सभर संकलन किया गया है हमारा उपदेश मात्र समाज में ज्ञान विज्ञान और साहित्य द्वारा प्रचार प्रसार किया जाए जो समाज में बहुत अत्यंत जरूरी है धन्यवाद।

मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत 

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