विश्वकर्मा कवच
विश्वकर्मा कवच
विश्वकर्मा साहित्य भारत
श्री विरमदेवजी ने लिखा है कि यह कवच यजुर्वेद के एक मंत्र मे दर्शाया गया है और इस कवच का मूल मंत्र यही है।
कवच दोहा
प्रथम हाथ्मे गज लहै दूजे सूत्र प्रमान ।
तिजी मे जलपात्र है चौथा पुस्तक ज्ञान।।
हंस सवारी जो लहै तीन नेत्र है जासु।
मस्तक सौहे मुकुट शुचि शैया शेष है तासु।।
सकल सृष्टि ब्रह्माण्ड के कारणकाज करन्न।
सोई विराट विश्वकर्म प्रभु भक्तोविध्न हरन्न ।।
चौपाई
ओम नमोः विशरुप आदेशा तोथ निज मन्त्र शक्ति बसो तोय ।
जेहि निरविकार निंरजन रुप विश्वकर्मा सुरासुर जान भूप ।
जो सकल सृष्टि के परम धाम तटवो कर या सु अष्ट याम ।
चेतन सु ब्रह्म सर्वज्ञ सार, रम रहयो आप घट घट मंझार ।
जिन शेष महेश गणेश होय, सुक सारदा म नारदा म जोय ।
नहीं करे पार किरतार कोय, भुज बेर बेर रक्षा जु करत वो पिडं पिंड ।
नख शिख आंगली रुम रुम रक्षा जु करत रंकार झुम ।
काबो जु तक एडी विराम, रिच्छपाल रम परसो जु बाम्मल।
मूत्र द्वार इम्रखे ऐन, चंद्र सूर रखे कटि नैन बैन।
षट आदिनाथ जिन रिच्छपाल, करण धुराज मस्तक कपाल।
पिंडी सो जु कृष्ण गोडो पाल, जगदिश जांग राखे कपाल।
जिन पेट पूत लक्ष्मी जु कंत म, रिच्छपाल हिये हेत हर केत संत।
कुच हाथ केशव रखेत, भुज खंक हाथ कोहनी समेत।
रिच्छपाल राम प्रभु वेहू पाणी, दशों आंगली नखशिख पिछाडी।
ग्रीवा ग्रीवी चुबुक ग्राय, मुख दंत माधवे करत सहाय।
रसना जु होत कपोल भाल जिन शिखा सहित ब्यापे न काल।
द्रष्टि करत नहीं कौन फेर, डंकनी शंखनी लहैन धेर ।
भय भूत छल छेद्र सोय दिष्ट मुष्ट व्यापे न कोय।
रोग दोग उन्न ताप रक्षा जु करत नरसिंहाय।
जिन्ह चोर ढोर नव ग्रह अग, विष्णु अर सपॅ टल जात भाग।
जीव जन्त डंक लगे न कोय जल शस्त्र घाट टल जाय सोय।
जिण घाट बाट नगर ग्राम, रिच्छपाल रहै हर कैत श्याम। यह मंत्र पढै त्रिकाल साध, नासै अति दुष्कर विध्न बाध।
मिक्ति चहे तो मुक्ति देत, मन को जु अथॅ धमोॅजु समेत।
भजै विश्वकर्म जप जाप शुद्ध, भक्ति भाव धिर रहे बुद्ध।
जो विश्वकर्म का पहरे बख्तर टोप।
ब्रम्हादेव ता उतरे कर न सको कोय कोप।
विश्वकर्मा साहित्य भारत द्वारा प्रचार प्रसार
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