त्वाष्ट्र अस्त्र का सर्जन

त्वाष्ट्र अस्त्र का सर्जन

भगवान विश्वकर्मा द्वारा अनेक निर्माण और रचनाओ की कथाएं मिल चुकी है एक ओर निर्माण की पौराणिक कथा को आपके लिए विश्वकर्मा साहित्य भारत द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं। 

यह निर्माण कथा प्राचीन काल की है और राजा ऋतुध्वज से जुड़ी हुई है। प्राचीन काल में एक शत्रुजीत नाम का एक राजा था। वे बहुत ही पराक्रमी और परम वीर था। अपने राज्य की प्रजा और ऋषि मुनियों को सुख देने के हर प्रयास करता था। उसने अनेक यज्ञ विधानो द्वारा देवो को प्रसन्न किया था। उन्हें एक ऋतुध्वज नामक पुत्र हुआ। वह भी अपने पिता की तरह गुणवान और संस्कारी था। संस्कार के साथ साथ वह हरएक विद्याभूषण मे निपुण था। 

एक दिन गालव मुनि उनके वहां आए उन्होंने राजा शत्रुजित से फ़रियाद की के हम ऋषिमुनियों को कहीं पर शांति से नित्य कर्म यज्ञ करने नहीं मिल रहा है एक अधम राक्षस आश्रम में आकर हम सभी को बहुत परेशान कर रहा है साथ ही वह हमारे यज्ञ - यज्ञादि और आश्रम को नुकसान पहुंचा रहा है। यज्ञो का विध्वंस यह राज्य और प्रजा के लिए अच्छे संकेत नहीं है राजा आपको यह मुनि आग्रह के साथ कहते हैं कि कुछ करे। मुनि ओ ने कहा कि हम अपने तपोबल से उसका नाश करने की क्षमता जरूर रखते हैं किन्तु हम अपने जप - तप से प्राप्त किए गए तपोबल को व्यय नहीं करना चाहते हैं। राजा आप उन दुष्टों का नाश कर हमारी रक्षा करें। 

इतना बोलने के बाद मुनि ने आकाश की तरफ दृश्यमान किया दृश्यमान करते ही आकाश से एक अश्व उतर आया और साथ ही एक आकाशवाणी हुयी की हे द्रिजोत्तम! यह अश्व रत्न की गति सभी स्थलों में अबाधित रहेगी। और राजा शत्रुजित के पुत्र ऋतुध्वज इस अश्व पर बैठकर दैत्य का संहार करेंगे। धर्मात्मा राजा ने मुनि का कथन सुनकर उनका यह वचन स्वीकार किया। राजा शत्रुजित ने अपने पुत्र ऋतुध्वज को आश्रम जाने की आज्ञा दी और आश्रम मुनियों की रक्षा का विशेष ध्यान रखा जाए साथ ही दृष्ट राक्षस का सर्वनाश कर के ही वापसी करना ही तुम्हारा संकल्प होगा। पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए पुत्र ऋतुध्वज आश्रम के लिए निकल गया। अवकाश मार्ग से आए हुए अश्व का नाम कुवलय था। इसीलिए ऋतुध्वज को दूसरे नाम कुवलयाश्र्व से जाना जाता है।

आश्रम में एक दिन दैत्य शूकर का रूप धारण कर के आया गालव मुनि को साथ ले जाने के लिए उसकी तरफ खिंचने लगा तब मुनि शिष्यों ने कोलाहल कर ऋतुध्वज को बुलाया।

तभी तुरंत ऋतुध्वज आश्रम आए और तुरंत ही शूकर की तरफ तेज नुकीले बाण द्वारा प्रहार करने लगा। शूकर को बाण लगते ही वह मृग रूप धारण कर भागने लगा भागते भागते वह एक गुफा में जा घुसा राजपुत्र ऋतुध्वज भी दैत्य के पीछे पीछे उस गुफा में अश्व के साथ जा पहुंचा। यह गुफा का मुह पाताल की ओर था। राजपुत्र ऋतुध्वज अश्व के साथ पाताल में जा पहुंचे वहां उसने एक सुवर्ण नगरी को सामने पाया लेकिन वहा पर कोई मनुष्य नजर नहीं आ रहे थे। 

ऋतुध्वज ने वहां पर एक स्त्री को देखा जो जल्दी-जल्दी महल की तरफ जा रही है ऋतुध्वज ने उस स्त्री को पुकारा लेकिन स्त्री बिना जवाब दिए महल के अंदर चली गई। राजपूत्र ने अश्व को महल के बाहर बांध दिया बाद में राजपूत्र ने महल के अंदर प्रवेश किया। राजपूत्र ऋतुध्वज महल के अंदर प्रवेश करते ही सामने एक विशाल खंड में सुंदर मनमोहक झूले पर बैठी हुई स्त्री नजर आई जो जल्दी से चली गई थी वह स्त्री सामने खड़ी थी राज पुत्र ने फिर से उन्हें प्रश्न किया कि जल्दी से जाने का कारण क्या है उसने जवाब दिया कि मैं इस बाला की सखा कुंडला हू। मे विध्यवान की पुत्री हू। और पुष्करमाली की पत्नी हू। मेरे पति को शुंभ दैत्य ने मार डाला है उसके बाद से मे तीथाॅटन कर रही हू। यह मेरी सखी मदालसा विश्वावसु गंधवॅराज की पुत्री हे। पाताल केतु नाम का राक्षस दैत्य इसे एक उद्यान से हरण कर यहा ले आया है और आने वाली त्रयोदशी को इसके साथ दैत्य विवाह करने वाला है।

अभी यह पाताल केतु वाराह का रूप धारण कर पृथ्वी पर गया था वहां किसी योद्धा द्वारा इस दैत्य को बाण द्वारा घायल किया है। यह समाचार सुनकर मे अपनी सखी के पास दौड़कर आई हू लेकिन आप कौन हे और कहा से आए हैं यह हमे बताने का कष्ट करें। ऋतुध्वज ने अपनी पहचान बताइ और कहां की जिस दैत्य को आप घायल देखा है बस उसी के संहार के लिए मैं उसके पीछे आया हूं। कुंडला ने कहा कि हे राजकुमार! आप किस राक्षस का वध करेंगे तो मेरी सखी आपके साथ विवाह करेगी मेरी सखी का ह्रदय आपके दर्शन से स्थिर हुआ है मैं चाहती हूं कि इस विधान को अनमोल मुलाकात को हमेशा के लिए एक किया जाए।

ऋतुध्वज ने कहा कि मे इस गंधर्व कन्या से विवाह विधि पूर्वक करूंगा लेकिन मेरा यह कार्य पूर्ण होने दो उसके बाद विवाह होगा। मदालसा ने उत्तर दिया कि मे मेरे गुरु तुंबरू का आह्वान कर रही हू उनकी आज्ञा अनुसार ही अपना विवाह योग्य होगा। मदालसा ने आह्वान करते ही गुरु तुंबरू प्रकट हुए और उनके श्रेष्ट मार्गदर्शन द्वारा दोनों के विवाह संपन्न हुए। अपनी सखी के लिए योग्य वर को पाना बहुत खुशी की बात है कुंडला अपने मार्ग पर निकल पडी। गुरु तुंबरू भी गंधवॅ नगरी तरफ प्रयाण समाचार देने चले गए। राजकुमार ऋतुध्वज मदालसा को अपने कुवलय अश्व पर बैठाते हुए पाताल से पृथ्वी की तरफ प्रयाण किया उस समय वहां पर गुरु तुंबरू पुनः प्रगट हुए और राजकुमार ऋतुध्वज को रोक कर एक दिव्य अस्त्र प्रदान किया और कहा कि हे राजकुमार!  यह दिव्य अस्त्र का नाम त्वाष्ट्र अस्त्र हैं। यह देवाधिदेव देवो के स्थपति त्वष्टा विश्वकर्मा ने इसे निर्मित किया है। यह अस्त्र मदालसा के पिता विश्वावसु को दिया था उन्होंने खास आपके लिए यह भेजा है। यह अस्त्र का प्रभाव ब्रह्मास्त्र जितना प्रबल और शक्तिशाली है इसके प्रयोग से आप राक्षस दैत्य पाताल केतु वध कर सहकुशल आप दोनों पृथ्वी पर जा सकते हैं। ऋतुध्वज ने पूर्ण विधि विधान द्वारा यह अस्त्र को ग्रहण किया। 

ऋतुध्वज निर्भयता से शत्रु की तरफ आगे बढ़ा। परिघ, खडक, गदा, शूल, भाले, तलवार, आदि प्रकार के आयुधो से सज्ज दैत्यों की सेना थी। ऋतुध्वज को मारने के लिए सेना ने चारो ओर से घेर लिया था। महाबली दैत्य पाताल केतु की सेना प्रबल शक्तिशाली थी। अनेक प्रकार के आयुध उनके पास थे। राजकुमार ऋतुध्वज और मदालसा चारो ओर से घेरे में आ चुके थे। पाताल की भूमि असूरी शक्ति और बाणों से छाई हुई थी। राजपुत्र ऋतुध्वज ने गुरु तुंबरू द्वारा दिए गए त्वाष्ट्र अस्त्र का प्रयोग कर दानवों की तरफ प्रहार किया अनेक दैत्य और दानवों को भस्मीभुत कर दिया था। साथ ही महाबली पाताल केतु का वध किया और विजय घोष प्राप्त किया। प्रबल पुरुषार्थ के साथ युद्ध लड़कर राजकुमार ऋतुध्वज ने मदालसा को अश्व पर बैठाकर पृथ्वी की तरफ प्रयाण किया। वापस आए विजयी पुत्र को देखकर पिता बहुत हर्षित हुए। विजय तिलक के साथ उन दोनों का भव्य स्वागत किया गया। ऋतुध्वज ने सारा वृतांत बताया और किस तरह युद्ध किया यह सारी बाते पिता को सुनाई। प्रसन्न पिता ने भव्य भेट देकर आशीर्वाद दिया। राजा शत्रुजित ने विशिष्ट प्रसिद्धी के आशीष दिए।

ऋतुध्वज को प्राप्त हुआ त्वाष्ट्र अस्त्र और प्रभु विश्वकर्मा जी का यज्ञ विधि विधान द्वारा पूजा की गई समग्र राज्य की प्रजा को विश्वकर्मा जी के महत्व और अद्भुत निर्माण की कथा सुनाई गई यह प्रचार प्रसार कर राजा और पुत्र की गुणवत्ता में बढ़ोतरी के संस्कार भगवान विश्वकर्मा से प्राप्त हुआ।

विश्वकर्मा साहित्य भारत के द्वारा यह त्वाष्ट्र अस्त्र की कथा पौराणिक कथाओं के अनुसार और ग्रंथो के माध्यम से प्राप्त की है जिसे हमारे द्वारा विश्वकर्मा वंशी ओ तक विश्वकर्मा जी का महत्व बढ़े इस उद्देश्यों के साथ विश्वकर्मा साहित्य भारत हमेशा प्रचार प्रसार करने मे आपके और समस्त समाज साथ हे।

मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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