जम्बूद्वीप

जम्बूद्वीप

प्रियव्रत और जम्बूद्वीप
स्वयंभूव मनु की संतति अधिकतम पुराणों के अनुसार स्वयंभूव मनु के शतरुपा से प्रियव्रत तथा उत्तानपाद दो पुत्र तथा आकृति एवं प्रसूती दो पुत्रियाँ हुयी। प्रियव्रत समस्त सृष्टि के प्रजापति थे। इनके सात पुत्र थे। उनमे पृथ्वी के सात महाद्वीप बांट दिए गए। ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप (एशिया) का राज्य मिला। शेष पुत्रों को शेष महाद्वीपो के राज्य मिले। आग्नीध्र ने अपने पुत्रो मे जम्बूद्वीप का राज्य विभक्त कर दिया।
स्वायंभुव मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिनसे आग्नीध्र, यज्ञबाहु, मेधातिथि आदि 10 पुत्र उत्पन्न हुए। प्रियव्रत की दूसरी पत्नी से उत्तम, तामस और रैवत- ये 3 पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वंतरों के अधिपति हुए। 
 महाराज मनु ने बहुत दिनों तक इस सप्तद्वीपवती पृथ्वी पर राज्य किया। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। इन्हीं ने 'मनु स्मृति' की रचना की थी, 
 
प्रियव्रत का कुल देखे तो राजा प्रियव्रत के ज्येष्ठ पुत्र आग्नीध्र जम्बूद्वीप के अधिपति हुए। अग्नीघ्र के 9 पुत्र जम्बूद्वीप के 9 खंडों के स्वामी माने गए हैं जिनके नाम उन्हीं के नामों के अनुसार इलावृत वर्ष, भद्राश्व वर्ष, केतुमाल वर्ष, कुरु वर्ष, हिरण्यमय वर्ष, रम्यक वर्ष, हरि वर्ष, किंपुरुष वर्ष और हिमालय से लेकर समुद्र के भू-भाग को नाभि खंड कहते हैं। नाभि और कुरु ये दोनों वर्ष धनुष की आकृति वाले बताए गए हैं। नाभि के पुत्र ऋषभ हुए और ऋषभ से 'भरत' एवं बाहुबली का जन्म हुआ। भरत के नाम पर ही बाद में इस नाभि खंड को 'भारतवर्ष' कहा जाने लगा। बाहुबली को वैराग्य प्राप्त हुआ तो ऋषभ ने भरत को चक्रवर्ती सम्राट बनाया।
जम्बूद्वीप विस्तार
सबसे पहले जम्बूद्वीप में ६ पर्वत और ७ क्षेत्र हैं। यद्यपि हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप में प्रवेश करते समय सबसे पहले विदेह क्षेत्र आता है। विदेह क्षेत्र से होते हुए सभी लोग सुमेरु पर्वत पर चढ़ते हैं लेकिन आप इसे दक्षिण से समझेंगे, तो आपको ज्यादा स्पष्ट समझ में आएगा। जम्बूद्वीप के बाहर चारों तरफ घेर करके लवण समुद्र है। जम्बूद्वीप में दक्षिण से पूर्व पश्चिम समुद्र का स्पर्श करते हुए हिमवन, महाहिमवन, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ये छह पर्वत हैं। हिमवन आदि ६ पर्वतों से जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र हो जाते हैं। सबसे पहले हिमवन पर्वत के दक्षिण में भरत क्षेत्र है। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत, ऐसे ७ क्षेत्र हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में आप सभी पढ़ते हैं कि हिमवन आदि छ: पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केशरी, पुण्डरीक, महापुण्डरीक ऐसे छ: सरोवर बने हुए हैं। इन सरोवरों पर बहुत ही सुन्दर कमल खिले हुए हैं। हिमवन पर्वत के पद्मसरोवर में १ लाख ४० हजार से अधिक कमल हैं लेकिन एक मुख्य कमल बहुत सुन्दर और विस्तृत है। उस कमल की कर्णिका पर भवन बने हैं। छ: मुख्य कमल की कर्णिका पर छ: भवनों में श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये छ: देवियाँ रहती हैं और मुख्य कमल के चारों तरफ जो कमल खिले हुए हैं, उनमें देवी के परिवार कमल, जो कि मुख्य कमल से आधे-आधे प्रमाण वाले हैं, उनमें भी भवन बने हुए हैं, उनमें परिवार देवियाँ रहती हैं। ये देवियाँ हमेशा भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में जब तीर्थंकर भगवान माता के गर्भ में आते हैं, तब माता की सेवा के लिए आती हैं।

जम्बूद्वीप पृथ्वी के केन्द्र में स्थित है तथा खारे जल के समुद्र से घिरा है। इसका आकार एक लाख योजन है। यहाँ ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। यहीं पर्वतराज मेरु स्थित है।

जम्बूद्वीप के उपद्वीप सात द्वीप हैं

स्वर्णप्रस्थ
चन्द्रशुक्ल
आवर्तन
रमणक
मनदहरिण
पाञ्चजन्य
सिंहल
लंका

यहाँ के वर्ष नौं वर्ष हैं

इलावृतवर्ष के मध्य में ही मर्यादापर्वत सुमेरु स्थित है।

 भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य वर्षों का वर्णन इस प्रकार है

 भद्राश्चवर्ष में धर्मराज के पुत्र भद्रश्रवा का राज्य है। वहाँ पर भगवान हयग्रीव की पूजा होती है।
हरिवर्ष में दैत्यकुलभूषण भक्तवर प्रह्लाद जी रहते हैं। वहाँ पर भगवान नृसिंह की पूजा होती है।
 केतुमालवर्ष वर्ष में लक्ष्मी जी संवत्सर नाम के प्रजापति के पुत्र तथा कन्याओं के साथ भगवान कामदेव की आराधना करती हैं।
 रम्यकवर्ष के अधिपति मनु जी हैं। वहाँ पर भगवान मत्स्य की पूजा होती है।
 हिरण्यमयवर्ष के अधिपति अर्यमा हैं। वहाँ पर भगवान कच्छप की पूजा होती है।
  उत्तरकुरुवर्ष में भगवान वाराह की पूजा होती है।
 किम्पुरुषवर्ष के स्वामी श्री हनुमान जी हैं। वहाँ पर भगवान श्रीरामचन्द्र जी की पूजा होती है।

सभी द्वीपों के मध्य में जम्बुद्वीप स्थित है। वर्तमान एशिया खंड। 

सुमेरु पर्वत
इस द्वीप के मध्य में सुवर्णमय सुमेरु पर्वत स्थित है। इसकी ऊंचाई चौरासी हजार योजन है। और नीचे काई ओर यह सोलह हजार योजन पृथ्वी के अन्दर घुसा हुआ है। इसका विस्तार, ऊपरी भाग में बत्तीस हजार योजन है, तथा नीचे तलहटी में केवल सोलह हजार योजन है। इस प्रकार यह पर्वत कमल रूपी पृथ्वी की कर्णिका के समान है।

सुमेरु के दक्षिण में
हिमवान, हेमकूट तथा निषध नामक वर्षपर्वत हैं, जो भिन्न भिन्न वर्षों का भाग करते हैं।

सुमेरु के उत्तर में
नील, श्वेत और शृंगी वर्षपर्वत हैं।

इनमें निषध और नील एक एक लाख योजन तक फ़ैले हुए हैं।
हेमकूट और श्वेत पर्वत नब्बे नब्बे हजार योजन फ़ैले हुए हैं।
हिमवान और शृंगी अस्सी अस्सी हजार योजन फ़ैले हुए हैं।

हिन्दू सनातन ग्रन्थों में वर्णन

श्री दुर्गा पूजन में जम्बूद्वीप का उल्लेख

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, ॐ अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे------- जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे ---------(अपने नगर/गांव का नाम) पुण्य क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते : विक्रम संवत , तमेऽब्दे क्रोधी नाम संवत्सरे उत्तरायणे बसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे चैत्र मासे शुक्ल पक्षे प्रतिपदायां तिथौ सोम वासरे (गोत्र का नाम लें) गोत्रोत्पन्नोऽहं अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं श्री दुर्गा पूजनं च अहं करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे गणपति पूजनं करिष्ये।
(ब्रह्म पुराण, अध्याय 18, श्लोक 21, 22, 23)
यज्ञों द्वारा जम्बूद्वीप के महान होने का ब्रम्हपुराण मे प्रतिपादन है

तपस्तप्यन्ति यताये जुह्वते चात्र याज्विन।। 
दानाभि चात्र दीयन्ते परलोकार्थ मादरात्॥ 21॥
पुरुषैयज्ञ पुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते।। 
यज्ञोर्यज्ञमयोविष्णु रम्य द्वीपेसु चान्यथा॥ 22॥
अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने।। 
यतो कर्म भूरेषा यधाऽन्या भोग भूमयः॥23॥
अर्थ- भारत भूमि में लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिए आदरपूर्वक दान भी देते हैं। जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान् का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान् जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) को कर्मभूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग- भूमि कहते हैं।

सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।

नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। 
(वायु 31-37, 38)

जम्बूद्वीप वह क्षेत्र है जहाँ मनुष्य रहते हैं और एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ मनुष्य के रूप में जन्म लेने से वह प्रबुद्ध हो सकता है। यह जम्बूद्वीप में है कि कोई व्यक्ति धर्म का उपहार प्राप्त कर सकता है और चार महान सत्य , कुलीन आठ गुना पथ को समझने के लिए आ सकता है और अंततः मुक्ति से एहसास कर सकता है। जीवन और मृत्यु का चक्र । एक अन्य संदर्भ बौद्ध ग्रन्थ महावमसा से है, जहाँ सम्राट अशोक का पुत्र महिंद्रा श्री लंका राजा 127 में अपना परिचय देता है।जम्बूद्वीप से देवानामपियतिसा , जो अब भारतीय उपमहाद्वीप है। यह कत्तिगर्भा स्तोत्र में महायान दिया है।

पुराणिक ब्रह्मांड विज्ञान के अनुसार
दुनिया सात सांद्रिक द्वीप महाद्वीपों में विभाजित है (सप्त-द्विप वसुमती) सात समीपवर्ती महासागरों से अलग होती है, प्रत्येक पूर्ववर्ती के आकार का दोगुना होता है। पुराणों के सात महाद्वीपों को जम्बूद्वीप , प्लक्षद्वीप और कहा जाता है। सात मध्यवर्ती महासागरों में क्रमशः नमक-पानी, गन्ने का रस, शराब, घी , दही , दूध और पानी शामिल हैं। पर्वत श्रृंखला लोकलोक , जिसका अर्थ है "दुनिया-कोई-दुनिया", इस अंतिम समुद्र में फैला हुआ है, ज्ञात दुनिया को अंधेरे शून्य से अलग करता है।

महाद्वीप जम्बूद्वीप (भारतीय ब्लैकबेरी) द्वीप, जिसे सुदर्शनद्वीप के रूप में भी जाना जाता है, उपरोक्त योजना में अंतरतम संकेंद्रित द्वीप बनाता है। इसका नाम एक जम्बू वृक्ष से लिया गया है। जम्बू वृक्ष के फलों को कहा जाता है, विष्णुपुराण (0.2) में हाथी जितने बड़े होते हैं और जब वे सड़े हुए हो जाते हैं और पहाड़ों के शिखर पर गिरते हैं, तो रस की एक नदी बनती है उनका व्यक्त रस। इस प्रकार बनी नदी को जम्बुदादी (जम्बू नदी) कहा जाता है और जम्बूद्वीप से होकर बहती है, जिसके निवासी अपना पानी पीते हैं। कहा जाता है कि द्वीपीय महाद्वीप जम्बूद्वीप में नौ वर (क्षेत्र) और आठ महत्वपूर्ण पर्वत (पर्वत) हैं।

मार्कंडेय पुराण जंबूद्वीप को उसके दक्षिण और उत्तर की ओर उदासीन होने और बीच में ऊंचा और चौड़ा होने का चित्रण करता है। ऊंचा क्षेत्र इला वृत्ता या मेरुवर्षा नाम का संस्करण बनाता है। इला-वृत्ता के केंद्र में पहाड़ों का राजा स्वर्ण पर्वत मेरु स्थित है। मेरु पर्वत के शिखर पर, भगवान का विशाल शहर ब्रह्म है, जिसे ब्रह्मपुरी के नाम से जाना जाता है। चारों ओर से ब्रह्मपुरी 8 शहर हैं - एक भगवान इंद्र और सात अन्य देवता।

मार्कंडेय पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण चार विशाल पंखुड़ियों के आकार वाले जंबूद्वीप को विभाजित करते हुए कमल माउंट मेरु के साथ एक पेरिकारप की तरह केंद्र में स्थित है। ब्रह्मपुरी शहर को एक नदी से घिरा हुआ कहा जाता है, जिसे आकाश गंगा के नाम से जाना जाता है। आकाश गंगा को भगवान विष्णु के पैर से जारी करने के लिए कहा जाता है और चंद्र क्षेत्र धोने के बाद "आसमान के माध्यम से" गिर जाता है और ब्रह्मपुरी को घेरने के बाद "चार शक्तिशाली धाराओं में विभाजित होता है, जो प्रवाह के लिए कहा जाता है" मेरु पर्वत के परिदृश्य से चार विपरीत दिशाओं में और जम्बूद्वीप की विशाल भूमि को सिंचित करते हैं।

द्वीप के सामान्य नाम, उनके वरुण (जंतु-द्वीप के लिए 9, एक द्वीप के साथ अन्य पर्वत के लिए 7)। और प्रत्येक वरुणा में एक नदी, कई पुराणों में दी गई है। हालाँकि, अन्य पुराणों में नामों का एक अलग पहचान है। सबसे विस्तृत भूगोल वायु पुराण मे दर्शाया गया है ।

ऋग्वेद के अनुसार 
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरंनृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत।

ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को ‘सप्तसिंधु’ प्रदेश कहा गया है। ऋग्वेद के नदी सूक्त (10.75) में आर्य निवास में प्रवाहित होने वाली नदियों का वर्णन मिलता है, जो मुख्‍य हैं:- कुभा (काबुल नदी), क्रुगु (कुर्रम), गोमती (गोमल), सिंधु, परुष्णी (रावी), शुतुद्री (सतलज), वितस्ता (झेलम), सरस्वती, यमुना तथा गंगा। उक्त संपूर्ण नदियों के आसपास और इसके विस्तार क्षेत्र तक आर्य रहते थे।

महाभारत के अनुसार
महाभारत में पृथ्वी का वर्णन आता है।

‘सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।।

-वेदव्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

हिन्दी अर्थ : हे कुरुनन्दन! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भांति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखाई देता है। इसके दो अंशों में पिप्पल और दो अंशों में महान शश (खरगोश) दिखाई देता है।

अर्थात : दो अंशों में पिप्पल का अर्थ पीपल के दो पत्तों और दो अंशों में शश अर्थात खरगोश की आकृति के समान दिखाई देता है। आप कागज पर पीपल के दो पत्तों और दो खरगोश की आकृति बनाइए और फिर उसे उल्टा करके देखिए, आपको धरती का मानचित्र दिखाई देखा।

तपस्तप्यन्ति यताये जुह्वते चात्र याज्विन।।
दानाभि चात्र दीयन्ते परलोकार्थ मादरात्॥ 21॥
पुरुषैयज्ञ पुरुषो जम्बूद्वीपे सदेज्यते।।
यज्ञोर्यज्ञमयोविष्णु रम्य द्वीपेसु चान्यथा॥ 22॥
अत्रापि भारतश्रेष्ठ जम्बूद्वीपे महामुने।।
यतो कर्म भूरेषा यधाऽन्या भोग भूमयः॥23॥

अर्थात भारत भूमि में लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिए आदरपूर्वक दान भी देते हैं। जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान् का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान् जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) को कर्मभूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग- भूमि कहते हैं।

इसी तरह अगर शक्तिपीठों का भौगोलिक स्थिति देखे तो वे बलूचिस्तान से लेकर त्रिपुरा, कश्मीर से कन्याकुमारी / जाफना तक फैले हुए हैं।

विष्णु पुराण के अनुसार
विष्णु पुराण (२/८)-मानसोत्तर शैलस्य पूर्वतो वासवी पुरी।
दक्षिणे तु यमस्यान्या प्रतीच्यां वारुणस्य च। उत्तरेण च सोमस्य तासां नामानि मे शृणु॥८॥
वस्वौकसारा शक्रस्य याम्या संयमनी तथा। पुरी सुखा जलेशस्य सोमस्य च विभावरी।९।
शक्रादीनां पुरे तिष्ठन्स्पृशत्येष पुर त्रयम्। विकोणौ द्वौ विकोणस्थस्त्रीन् कोणान् द्वे पुरे तथा।॥१६॥
उदितो वर्द्धमानाभिरामध्याह्नात्तपन् रविः। ततः परं ह्रसन्ती भिर्गोभिरस्तं नियच्छति॥१७॥
एवं पुष्कर मध्येन यदा याति दिवाकरः। त्रिंशद्भागं तु मेदिन्याः तदा मौहूर्तिकी गतिः।२६॥
सूर्यो द्वादशभिः शैघ्र्यान् मुहूर्तैर्दक्षिणायने। त्रयोदशार्द्धमृक्षाणामह्ना तु चरति द्विज।
मुहूर्तैस्तावद् ऋक्षाणि नक्तमष्टादशैश्चरन्॥३४॥
सूर्य सिद्धान्त (१२/३८-४२)-भू-वृत्त-पादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्व वर्षे नगरी स्वर्ण प्राकार तोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता (४०) भू-वृत्त-पाद विवरास्ताश्चान्योऽन्यं प्रतिष्ठिता (४१)
तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः। नतासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते॥४२॥

भारत भाग में आकाश के ७ लोकों की तरह ७ लोक थे। बाकी ७ खण्ड ७ तल थे-अतल, सुतल, वितल, तलातल, महातल, पाताल, रसातल। अतल = भारत के पश्चिम उत्तर गोल। तलातल = अतल के तल या दक्षिण में।
सुतल = भारत के पूर्व, उत्तर में। वितल = सुतल के दक्षिण।
पाताल = सुतल के पूर्व, भारत के विपरीत, उत्तर गोल। रसातल = पाताल के दक्षिण (उत्तर और दक्षिण अमेरिका मुख्यतः)
महातल = भारत के दक्षिण, कुमारिका खण्ड समुद्र।

विष्णु पुराण (२/५)-दशसाहस्रमेकैकं पातालं मुनिसत्तम।
अतलं वितलं चैव नितलं च गभस्तिमत्। महाख्यं सुतलं चाग्र्यं पातालं चापि सप्तमम्॥२॥
शुक्लकृष्णाख्याः पीताः शर्कराः शैल काञ्चनाः। भूमयो यत्र मैत्रेय वरप्रासादमण्डिताः॥३॥
पातालानामधश्चास्ते विष्णोर्या तामसी तनुः। शेषाख्या यद्गुणान्वक्तुं न शक्ता दैत्यदानवाः॥१३॥
योऽनन्तः पठ्यते सिद्धैर्देवो देवर्षि पूजितः। स सहस्रशिरा व्यक्तस्वस्तिकामलभूषणः॥१४॥
नीलवासा मदोत्सिक्तः श्वेतहारोपशोभितः। साभ्रगङ्गाप्रवाहोऽसौ कैलासाद्रिरिवापरः॥१७॥
कल्पान्ते यस्य वक्त्रेभ्यो विषानलशिखोज्ज्वलः। सङ्कर्षणात्मको रुद्रो निष्क्रामयात्ति जगत्त्रयम्॥१९॥
यस्यैषा सकला पृथ्वी फणामणिशिखारुणा। आस्ते कुसुममालेव कस्तद्वीर्यं वदिष्यति॥२२॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२०)-परस्परैः सोपचिता भूमिश्चैव निबोधत॥९॥
स्थितिरेषा तु विख्याता सप्तमेऽस्मिन् रसातले। दशयोजन साहस्रमेकं भौमं रसातलम्॥१०॥
प्रथमः तत्वलं नाम सुतलं तु ततः परम्॥११॥
ततस्तलातलं विद्यादतलं बहुविस्तृतम्। ततोऽर्वाक् च तलं नाम परतश्च रसातलम्॥१२॥
एतेषमप्यधो भागे पातालं सप्तमं स्मृतम्।
भागवत पुराण (५/२४/७)- उपवर्णितं भूमेर्यथा संनिवेशावस्थानं अवनेरत्यधस्तात् सप्त भूविवरा एकैकशो योजनायुतान्तरेणायामं विस्तारेणोपक्लृप्ता-अतलं वितलं सुतलं तलातलं महातलं रसातलं पातालमिति॥७॥
भागवत पुराण (५/२५)-अस्य मूलदेशे त्रिंशद् योजन सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी
समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृ दृश्ययोःसङ्कर्षणमहमित्यभिमान लक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्ष्यते॥१॥
यस्येदं क्षितिमण्डलं भगवतोऽनन्तमूर्तेः सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते॥२॥
वास्तविक भूखण्डों के हिसाब से ७ द्वीप थे-जम्बू (एसिया), शक (अंग द्वीप, आस्ट्रेलिया), कुश (उत्तर अफ्रीका), शाल्मलि (विषुव के दक्षिण अफ्रीका), प्लक्ष (यूरोप), क्रौञ्च (उत्तर अमेरिका), पुष्कर (दक्षिण अमेरिका)। इनके विभाजक ७ समुद्र हैं।
यह लेख को अनेक ग्रंथ और प्रमाण के अनुसार लिखा गया है विश्वकर्मा साहित्य भारत का तात्पर्य यह है कि विश्वकर्मा समाज में साहित्य का प्रचार प्रसार कर समाज को योग्य जानकारी प्राप्त करा सके।
संकलन - मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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