सामाजिक कार्यकर्ता मे होनी चाहिए सहनशीलता


सामाजिक कार्यकर्ता मे होनी चाहिए सहनशीलता

एक मंदिर बन रहा था जो हिंदू संस्कृति के हिसाब से ही पुरातन काल की नकशीकाम और पत्थर के हिस्सों को जोड़कर एक से बढ़कर एक मूर्ति दीवार और मंदिर का कार्य होना था। 

जो काम करने के लिए सलाट और शिल्पी जो पत्थर को तराषके नक्शीकाम करने के लिए तैयार थे। एक बड़ा सा पत्थर की शिला को शिल्पी और सलाट ने लिया और सभी हथियार को लेकर तैयार हुए।  

जब पत्थर की शिला को जब शिल्पी ने टान्चने के लिए फटका लगाया तब एक ही फटके से शिला के दो हिस्से हो गये.।

तब सलाट (शिल्पी) ने कारीगरी दिमाग लगाकर एक हिस्से को मूर्ति और दूसरे हिस्से को मंदिर के बाहर के सीढ़ी के पथ के लिए बनाया।

मूर्ति इतनी शानदार बनी और मंदिर को प्रतिष्ठित कर सभी समाज के लिए खुला किया ।

जब जब मंदिर पुराना होता गया वैसे ही भगवान और मंदिर की श्रद्धा बढ़ती जा रही थी। लोग आँख बंदकर  रुपए, पैसे, चढ़ावा, फूल, और सोना चांदी के आभूषण भी मूर्ति को चढ़ाने लगे।

और दूसरी तरफ वो पत्थर जो एक ही पहाड़ एक ही शिला का दूसरा हिस्सा था जो मंदिर के बाहर पथ पर जड़ा हुआ था। उस पत्थर के ऊपर से पैर रखकर लाखो - करोड़ो श्रध्दालु आते जाते हुए पैरो के नीचे आता था।

तभी उस पथ के पत्थर को आभाष हुआ और मन ही मन परेशानी का सामना करते हुए दूसरे पत्थर याने मूर्ति को सवाल कर बैठा की ए पत्थर तू भी मेरा ही हिस्सा है और इतना भेदभाव तेरे और मेरे बीच क्यू हो रहा है।
तू मूर्ति बन भगवान बन गया है और मे यहा लोगो के पैरो के नीचे रोज कुचला जाता हूँ

तभी उस दूसरे पत्थर (मूर्ति) ने कहा कि जब शिल्पी ने पहला फटका लगाया तब उसे फटके पर तूने मेरा साथ छोड़ दिया था। और तो और तुझे बिना फटके खाए जगह मिली है और मे यहा हज़ारों फटके खाके बड़ा दुख सहने के बाद मूर्ति बना हू ।
 तब उस सीढ़ी के पत्थर को एहसास हुआ कि साथ मिलकर रहना और एकजुट होकर रहना चाहिए और कभी भी कितनी भी मुस्किल आए लेकिन कमजोर नहीं होना चाहिए।

समाज के कार्यकर्ताओं को सफलता और सन्मान तब मिलता है जब वो कुछ सहने की ताकत रखता है

लेख - मयूर मिस्त्री - मोड़ासा
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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