महात्मा "अलख" भूरी बाई सुथार

महात्मा "अलख" भूरी बाई सुथार

विश्वकर्मा साहित्य भारत के माध्यम से अनेक विश्वकर्मा प्रतिभा को समाज में उत्तम स्थान प्राप्त मिले और उन्हें हर संभव सभी विश्वकर्मा वंशी बंधुओं समस्त कार्यक्रमों में उनको सम्मान मिले उनके नाम पर सम्मान पत्र, कार्यक्रमों के नाम, उनकी जन्म जयंती, उनके नाम पर पत्रिकाएं, अवार्ड, और बहुत इस तरह के कार्य द्वारा विश्वकर्मा समाज के महात्माओ, प्रतिभाओ को सम्मानित करना चाहिए यही प्रयास के साथ हम विश्वकर्मा साहित्य भारत के द्वारा अनेक सामाजिक विकास के प्रचार प्रसार अभियान कर रहे हैं। 
आज आपको हम एक ऐसी प्रतिभा जो समस्त विश्वकर्मा समाज के लिए गौरव और धार्मिक महत्व से जुड़ी हुई है। विश्वकर्मा सुथार वंश के गौरव और महान संत महात्मा भूरी बाई सुथार जिन्हें अलख उपाधि से जाना जाता है। महात्मा श्री भूरी बाई को ‘अलख’ नाम किसी अन्य सन्त महात्मा ने अभिभूत होकर दिया था। “महात्मा भूरी बाई अलख” का जन्म राजसमन्द जिले के लावा सरदारगढ़ गाँव में संवत् 1949 में आषाढ़ शुक्ला 14 को एक सुथार परिवार में हुआ। माता का नाम केसर बाई और पिता का नाम रूपा जी सुथार है। उनके पति का नाम श्री फतहलाल जी सुथार उनका देहावसान:- 3 मई 1979 (वैशाख शुक्ल 7, विस्. 2036) को हुआ था। 

घर परिवार 
माता पिता दोनों धार्मिक प्रवृत्ति के होने से व नीति नियम और संस्कार, व्रत उपासना का वातावरण घर में रहा! बचपन से ही भूरी बाई की आस्था ईश्वर स्वरूप में रही। उनकी जीवन शैली धार्मिकता का पर्याय बन उनके जीवन का अंग बन गई थी। 
पुराने जमाने में बाल विवाह का चलन रीति रिवाज़ में रहा जिस वजह से भूरी बाई का विवाह 13 वर्ष की आयु में उनसे अधिक उम्र के नाथद्वारा निवासी श्री  फतेह लाल जी सुथार से हुआ जो धनी परिवार के थे और नामी चित्रकार थे। 
उनकी भक्ति का पर्याय 
कहा गया है कि देवगढ की मुस्लिम योगिनी नूराबाई से मिलने पर उन्हें वैराग्य प्राप्त हुआ। 
धार्मिक साधना और ईश्वरीय भक्ति के क्षेत्र में आगे बढ़ने की पहला चरण स्व-प्रयत्न होता है। इसके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। मां के पेट से जन्म लेते ही बच्चे को अपनी उदर-पूर्ति के लिए दूध पीने की स्वयं कोशिश करनी पड़ती है। प्रयत्न का कोई विकल्प नहीं। इस प्रयत्न के पीछे का मूल आधार है लगन और श्रद्धा । ऐसी तीव्र लगन हरेक को नहीं हो सकती, जो भक्तिमती मीरा या महात्मा भूरी बाई में थी। यही लगन लक्ष्य तक पहुंचाती है। और उनको भक्तिमय बनाने मे वहीं काम आया। 

ईश्वरीय साधना और धार्मिक भक्ति के क्षेत्र में उनमें एक ऐसी ही तीव्र लगन उत्पन्न हो गई कि कई धर्मपरायण लोग उनसे प्रभावित हुए साथ ही बहुत से लोग उनकी भक्ति मार्ग को साथ लेकर चलना शुरू कर दिया था। तथा उनके पास सत्संग में हिस्सा लेकर भक्ति में जुड़े और सत्संग करने आने लगे। गृहस्थ जीवन में रह कर सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए भी दार्शनिक विचारों व भक्ति भावना के कारण वे महात्मा भूरीबाई के नाम से विख्यात हो गई। महात्मा भूरीबाई विचारों से अद्वैत की परम समर्थक थी। परमहंस की महानुभूति में रची हुई श्री भूरीबाई दार्शनिक चर्चा में ज्यादा विश्वास नहीं करती थीं। उनका अपनी भक्त-मंडली में एक ही निर्देश था- ‘‘चुप’’। बस चुप रहो और मन ही मन उसे भजो, उसमें रमो। बोलो मत। ‘चुप’ शब्द समस्त विधियों का निषेध है। बोलने-कहने से विभ्रम पैदा होता है, बात उलझती है और अधूरी रह जाती है। इसीलिए ब्रह्मानन्द को अनिर्वचनीय माना गया है। उसे अनुभव तो किया जा सकता है, पर कहा नहीं जा सकता। ‘भूरी बाई’ सबको कहती ‘‘चुप’’! बोलो मत, उसे ध्याओ, उसमें रमो, उसको भजो! बाकी सब बेकार।
चुप साधन चुप साध्य है, चुप चुप माहि समाय। 
चुप समज्या री समझ है,समज्या चुप व्हेजाय।। 

गृहस्थ जीवन और अध्यात्म चर्चा 
भूरी बाई अध्यात्म जगत में भक्ति में लीन रहते थे। महात्मा भूरीबाई कोई मामूली हस्ती नहीं थी। अध्यात्म जगत में भूरीबाई के नाम, उनकी भक्ति और ज्ञान की प्रसिद्धि पाकर ओशो रजनीश जैसे विश्व प्रसिद्ध चिंतक व दार्शनिक भी उनसे मिलने आए थे और भूरीबाई की भक्ति व दर्शन की मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। विख्यात सन्त सनातन देव जी और अनेक दार्शनिक, ज्ञानी, भक्त, महात्मा, कई रियासतों के ठाकुर, अन्य खास व आम लोग बिना बुलाए इस साधारण सी अल्पशिक्षित विधवा से बार-बार सान्निध्य पाकर मार्गदर्शन हेतु आते रहते थे। बहुत से लोग भी उनकी प्रेरणा लेकर आध्यात्मिक बने थे। 

मेवाड़ के महान् तत्त्वज्ञानी सन्त बावजी चतुरसिंह जी भी भूरीबाई से चर्चा हेतु आया करते थे। महात्मा भूरीबाई भजन पर जोर देती थी तथा सांसारिक बातों से बचने की सलाह देतीं, लेकिन संसार के सभी कर्तव्यों को पूरा करने का भी आग्रह करती।

मेवाड़ प्रदेश के हिसाब से उनकी चर्चा का माध्यम मुख्यतः मेवाड़ी बोली ही रहती थी। मेवाड़ी में ही सहज बातचीत व वार्तालाप करते हुए ही वे ऊंची से ऊंची तत्त्व ज्ञान की बात कह देती थी। अध्यात्म की परिभाषा उनके हर बात में रहती थी।

इसके विपरीत चैतन्य हो,भवसागर पार करने के लिये साधना करते है, वहीं संत है। सन्त का अर्थ ही सज्जनता से शुद्धता से जो मन वचन कर्म से शुद्ध है। वास्तव में संत ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनका अहं अत्यल्प होता है, क्योंकि वे स्वयं में विद्यमान ईश्वर को अनुभव करते हैं तथा अन्यों में विद्यमान ईश्वरीय तत्व को देखते हैं!, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने भी कहा है कि संत वह है जिसने छः विकारो (काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर, आदि) पर विजय प्राप्त करली हो, जो निष्पाप और निष्काम हो, सांसारिक वैभव से विरक्त इच्छा रहित और नियोगी हो, सभी प्राणियों में प्रेम भाव रखता हो श्रद्धा, क्षमा,दया, विरक्ति, विवेक आदि का पुंज हो,,जो तत्वज्ञान से परमात्मा की अनुभूति कर लेता है वो सच्चा संत है, मीरा बाई के बाद अगर  मेवाड़ में किसी  महिला संत का नाम लिया जाता है तो वो भूरी बाई है। मीराबाई ने तो परिस्थितिवश अपना घर-बार, राजमहल सब छोड़ दिया था। उनके भी पति भोजराज का निधन हो चुका था और भूरी बाई के पति फतहलाल भी दिवंगत हो चुके थे। फिर भी भूरी बाई ने अपनी गृहस्थी का मोर्चा नहीं छोड़ा और अंतिम समय तक प्राण रहते घर-गृहस्थी के सारे काम और अतिथि-सत्कार अनवरत करती रहीं। स्त्री-शरीर में होने से बाई ने किसी महात्मा के प्रेरित करने पर भी संन्यास लेना उचित नहीं समझा। वे महाराज जनक की तरह अपने घर में ही देह पाकर भी ‘विदेह’ बनीं रहीं और इस बात को झुठला दिया कि भगवद् प्राप्ति के लिए गृहत्याग और संन्यास आवश्यक है। उन्होंने अपनी गतिशील भक्ति को कभी रुकने नहीं दिया। 

देहावसान के बाद 
इस विभूति का देहावसान 3 मई 1979 ई., वैशाख शुक्ला 7 संवत् 2036 को हुआ। अध्यात्म जगत में वे आज भी लोकप्रिय है। उनके देहावसान के बाद भी नाथद्वारा स्थित उनके छोटे से आश्रम पर प्रति सप्ताह लोग सत्संग करने आया करते हैं। उनके बारे में विस्तृत विवरण, कुछ जागरूक और समझदार लोगों ने लिखकर रख लिया था, जो पुस्तक के रूप में स्व.श्री लक्ष्मीलाल जोशी के द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हो चुका है और उसके भी एकाधिक संस्करण छप चुके हैं। इसके साथ ही उदयपुर के डॉ. लक्ष्मी झाला ने महात्मा भूरीबाई के जीवन-दर्शन पर ‘‘सहज साधना सन्त परंपरा के परिप्रेक्ष्य में मेवाड़ की महात्मा भूरी बाई का दार्शनिक विवेचन’’ शीर्षक से शोध करके पुस्तक लिखी है तथा पीएच.डी. प्राप्त की है। 

अलख की ज्योत 

राजस्थान के उदयपुर में महात्मा भूरी बाई से प्रभावित होकर उनके नाम से नि:शुल्क आंखों का अस्पताल अलख नयन मन्दिर नाम से संचालित है।  प्रतापनगर विस्तार स्थित अलख नयन मंदिर के नव परिसर के उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप् में उपस्थित हुए महान राष्ट्रीय संत मुरारी बापू ने अपने सम्बोधन में कहा कि महात्मा भूरी बाई की प्रेरणा से किस तरह एक परिवार ने अपनी संपदा ट्रस्ट को अर्पित कर दी और आज सैकड़ों, हजारों मरीजों का निशुल्क उपचार कर रहा है। यह उस महात्मा की ही देन है। इस नेत्र चिकित्सालय को उस परम चेतना का आशीर्वाद प्राप्त है। प्रसिद्धि और अनुभूति दोनों अलग अलग है। महात्मा भूरी बाई प्रसिद्ध नहीं थीं लेकिन अनुभूत थीं। मेरी दृष्टि में भूरीबाई बुद्ध महिला थीं। ऐसे बुद्ध विद्वजनों को सपने नहीं आते लेकिन कभी न कभी चैतसिक अवस्था में उन्हें इसका आभास अवश्य हुआ होगा जिसकी प्रेरणा से उदयपुर में यह परिवार उनके नाम अलख नयन मंदिर से सेवा-सुश्रुषा कर रहा है।

समस्त विश्वकर्मा समाज और धर्म संस्कृति के लिए बहुत ही सोचने जैसा विषय है कि आज हम इस विभूति के लिए उनकी भक्ति के प्रचार प्रसार अभियान को आगे बढ़ाया जा सकता है। यह हमारी संस्कृति की विडंबना और दुर्भाग्य ही है कि ऐसी संत महात्मा को विश्वकर्मा समाज, देश के विभिन्न क्षेत्रों के धार्मिक आध्यात्मिक संस्थाओ और साथ ही मेवाड़ के बहुत कम लोगों को महात्मा भूरी बाई के बारे में जानकारी है। महात्मा भूरी बाई ने विश्वकर्मा वंश के सुथार कुल में जन्म लिया और मेवाड़ ही नही पूरे राजस्थान और देश मे अपनी भक्ति से एक अलग छवि बनाई और दुनिया भर में प्रसिद्ध हुई। यह हमारा दुर्भाग्य और प्रमाद है कि हम अपने ही अंचल के ऐसे परमहंस व्यक्तित्व से अनभिज्ञप्राय हैं। महात्मा भूरी बाई के स:सम्मान में महान् दार्शनिक ओशो रजनीश ने जिन्हें राबिया, मीरां, सहजो बाई आदि की श्रेणी की सन्त और भक्त घोषित किया हो, उन बाई के प्रति हमारी उदासीनता व उपेक्षा चिन्ता का विषय है।

आज पूर्ण विश्वकर्मा समाज का सौभाग्य है कि राजस्थान मेवाड़ की महान संत महात्मा भूरी बाई के आध्यात्मिक जीवन पर कलम के माध्यम से अपने समाज में प्रचार प्रसार से अलख जगाने का विश्वकर्मा प्रभु ने आशिर्वाद रूप में अवसर दिया है ऐसे महान विभूति संत श्री भूरी बाई को श्रद्धाभाव से कोटि - कोटि नमन करता हूँ और पूर्ण विश्वकर्मा समाज को बिनती है कि अपने समाज के संतों महात्मा को सर्वोच्च सम्मान मिले उनको सामाजिक कार्यक्रमों दौरान उनको याद किया जाए।

लेख सन्दर्भ -

महात्मा भूरी बाई का दार्शनिक विवेचन

भूरीबाई का अनोखा प्रयोग 

संकलनकर्ता -

मयूर मिस्त्री

विश्वकर्मा साहित्य भारत 

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