विश्वकर्मिय काष्ठ शिल्पकारों की मेहनत से बनता है जगन्नाथपुरी का रथ

विश्वकर्मिय काष्ठ शिल्पकारों की मेहनत से बनता है जगन्नाथपुरी का रथ
भारत में यह यात्रा मुख्य रूप से ओडिशा में जुलाई माह में आयोजित की जाती है। जगन्नाथ रथ यात्रा के मुख्य आकर्षण मंदिर के आकार के विशाल रथ होते हैं, जो जगन्नाथ मंदिर से तीन देवताओं को ले जाते हैं। श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति के द्वारा आपको विश्वकर्मा समाज और उनसे जुड़े साहित्य की सबसे बड़ी मात्रा में जानकारी आप सभी को मिलती रही है आज आप सभी के लिए जगन्नाथ प्रभु की रथयात्रा और रथ निर्माण के बारे में विस्तृत जानकारी दे रहे हैं। यह रथ वास्तुशिल्प के चमत्कार माने जाते हैं, अतः निश्चित रूप से इन शानदार रथों के निर्माण की प्रक्रिया भी जटिल और विस्तृत होती है।
हर साल नए रथों का निर्माण किया जाता है, और इन रथों को विशालता तथा भव्यता प्रदान करने के लिए लगभग 200 बढ़ई, सहायक, लोहार, दर्जी और चित्रकारों का कठिन परिश्रम और ईश्वर के प्रति अथाह समर्पण की आवश्यकता होती है। ये सभी 58 दिनों की सख्त समय सीमा के अनुसार अथक परिश्रम करते हैं तथा इन अजूबों का निर्माण करते हैं।

यह बेहद दिलचस्प है की, विश्वकर्मिय शिल्पकार इन रथों के निर्माण के लिए आज भी लिखित निर्देशों का पालन नहीं करते हैं। इसके बजाय, वह सारा ज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने वंशजों को सौंपते हैं, जो उन्हें अपने पूर्वजों से मिला था। आज भी विश्वकर्मा ब्राह्मण बढ़ई के केवल एक ही परिवार के पास, रथों के निर्माण का वंशानुगत अधिकार है।निर्माण की यह प्रक्रिया विभिन्न चरणों में होती है, जिसे प्रत्येक हिंदू कैलेंडर पर एक शुभ त्योहार के साथ मेल खाना चाहिए।
इन अद्भुत और विशालकाय रथों के निर्माण के कुछ प्रमुख चरण इस प्रकार हैं,
 लकड़ी के टुकड़ों की आपूर्ति ओडिशा की राज्य सरकार द्वारा मुफ्त में की जाती है। उन्हें ज्ञान की देवी सरस्वती के जन्मदिन वसंत पंचमी (जिसे सरस्वती पूजा भी कहा जाता है) पर जगन्नाथ मंदिर कार्यालय के बाहर के क्षेत्र में पहुंचाया जाता है। यह सब जनवरी या फरवरी माह में होता है। वैसे तो रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से शुरू होता है लेकिन, इसकी प्रक्रिया वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है। मंदिर समिति का एक दल वसंत पंचमी से ही रथ के लिए पेड़ों का चयन शुरू कर देता है। इस दल को महाराणा भी कहा जाता है। ये रथ निर्माण में पुरी से लगे हुए दसपल्ला जिले के जंगलों से ही ज्यादातर नारियल और नीम के पेड़ काटकर लाए जाते हैं। नारियर के तने लंबे होते हैं और इनकी लकड़ी हल्की होती है। पेड़ों को काटकर लाने की भी पूरी विधि निर्धारित है। उस जंगल के गांव की देवी की अनुमति के बाद ही लकड़ियां लाई जाती हैं। पहला पेड़ काटने के बाद पूजा होती है। फिर गांव के मंदिर में पूजा के बाद ही लकड़ियां पुरी लाई जाती हैं। 
रथ बनाने के लिए लकड़ी के 4,000 से अधिक टुकड़ों की आवश्यकता होती है, और सरकार ने 1999 में जंगलों को बचाए रखने के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम भी शुरू किया। मार्च या अप्रैल में (भगवान राम के जन्मदिन) राम नवमी के अवसर पर चीरघरों में आवश्यक आकार के लट्ठों को काटने का काम शुरू हो जाता है। मंदिर समिति और रथ निर्माण से जुड़े लोगों के मुताबिक, रथ निर्माण के लिए सभी विश्वकर्मा सेवकों के काम निश्चित हैं, वे अपनी जिम्मेदारियों के हिसाब से काम में जुटे हुए हैं। रथ निर्माण शास्त्रोक्त तरीकों से किया जाता है। रथ निर्माण की विधि विश्वकर्मिया रथ निर्माण पद्धति, गृह कर्णिका और शिल्प सार संग्रह जैसे ग्रंथों में है, लेकिन विश्वकर्मा सेवक अपने पारंपरिक ज्ञान से ही इनका निर्माण करते हैं। ये परंपरा बरसों से चली आ रही है। श्री जगन्नाथ मंदिर प्रबंधन समिति के मुख्य प्रशासक के मुताबिक, सभी विश्वकर्मा सेवकों को मंदिर के रेस्टहाउस आदि में ठहराया गया है। सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए ही सारा काम किया जा रहा है।  
8 तरह के कारीगर बनाते हैं रथ
भगवान जगन्नाथ का रथ बनाने का काम आमतौर पर पुश्तैनी काम जैसा ही है। इन कलाकारों के पूर्वज भी यही करते रहे हैं। इस कारण रथ निर्माण में इन लोगों की विशेष योग्यता है। इन्हें बिना किसी किताबी ज्ञान के परंपराओं के आधार पर ही रथ निर्माण की बारीकियां पता हैं। रथ निर्माण में 8 तरह के अलग-अलग कला के जानकार होते हैं। इनके अलग-अलग नाम भी होते हैं। 
गुणकार- ये रथ के आकार के मुताबिक लकड़ियों की साइज तय करते हैं। 
पहि महाराणा- रथ के पहियों से जुड़ा काम इनका होता है। 
कमर कंट नायक/ओझा महाराणा- रथ में कील से लेकर एंगल तक लोहे के जो काम होते हैं वो इनके सुपुर्द होते हैं। 
चंदाकार- इनका काम रथों के अलग-अलग बन रहे हिस्सों को असेंबल करने का होता है। 
रूपकार और मूर्तिकार- रथ में लगने वाली लकड़ियों को काटने का काम इनका होता है। 
चित्रकार- रथ पर रंग-रोगन से लेकर चित्रकारी तक का सारा काम इनके जिम्मे होता है। 
सुचिकार/ दरजी सेवक- रथ की सजावट के लिए कपड़ों के सिलने और डिजाइन का काम इनका होता है। 
रथ भोई- ये मूलतः कारीगरों के सहायक और मजदूर होते हैं।
सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ यानी लकड़ियों से बनाये जाते है। जिसे दारु कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है। जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है।
इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। ये रथ तीन रंगो में रंगे जाते हैं। मान्यता है कि श्रीकृष्ण जगन्नाथ जी की कला का ही एक रूप हैं। 
पुरी में जगन्नाथ मंदिर के पास शाही महल के सामने रथ निर्माण होता है। यह सब विशेष रूप से अप्रैल या मई में शुभ अवसर अर्थात अक्षय तृतीया पर शुरू होता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन शुरू किया गया कोई भी कार्य फलदायी होता है। यह जगन्नाथ मंदिर में 42 दिवसीय चंदन उत्सव चंदन यात्रा की शुरुआत का भी प्रतीक होता है।
रथों का निर्माण शुरू करने से पहले, मंदिर के पुजारी पवित्र अग्नि अनुष्ठान करने के लिए एकत्र होते हैं। पुजारी, उज्ज्वल पोशाक पहने हुए, गाते हैं और मुख्य बढ़ई को देने के लिए फूलों की माला भी साथ में ले जाते हैं। तीनों रथों पर काम एक साथ शुरू और खत्म किया जाता है। रथों का निर्माण भगवान जगन्नाथ की बड़ी, गोल आंखों के साथ शुरू होता है। सभी तीन रथों के लिए कुल 42 पहियों की आवश्यकता होती है। चंदन यात्रा के अंतिम दिन पहियों को मुख्य धुरों से जोड़ा जाता है। जब ये तीनों रथ तैयार हो जाते हैं तब छर पहनरा नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं। इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं। सोने की झाड़ू से रथ मण्डप और रास्ते को साफ़ करते हैं। 
आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरम्भ होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है वह महाभाग्यवान माना जाता है।
ओडिशा के कारीगरों की शानदार शिल्प कौशल को उजागर करते हुए रथों की सजावट पर बहुत ध्यान दिया जाता है। लकड़ी को ओडिशा मंदिर वास्तुकला की डिजाइनों से प्रेरणा लेकर उकेरा जाता है। रथों के फ्रेम और पहियों को भी पारंपरिक डिजाइनों से रंगा जाता है। रथों की छतरियां लगभग 1,250 मीटर की बारीक कढ़ाई वाले हरे, काले, पीले और लाल कपड़े से ढकी होती हैं। रथों की यह ड्रेसिंग दर्जी की एक टीम द्वारा की जाती है, जो देवताओं के आराम करने के लिए कुशन का निर्माण भी करती है।
त्योहार शुरू होने से एक दिन पहले, दोपहर में, रथों को जगन्नाथ मंदिर के लायंस गेट के प्रवेश द्वार तक खींच लिया जाता है। अगली सुबह, त्योहार के पहले दिन (श्री गुंडिचा के रूप में जाना जाता है), देवताओं को मंदिर से बाहर निकाला जाता है और रथों में स्थापित किया जाता है। 
रथों की पहचान
भगवान जगन्नाथ का रथ- इसके कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। 16 पहियों वाला ये रथ 13 मीटर ऊंचा होता है। रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है। ये सफेद रंग के होते है। सारथी का नाम दारुक है। रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। रथ पर रक्षा का प्रतीक सुदर्शन स्तंभ भी होता है। इस रथ के रक्षक गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाती है। रथ की रस्सी को शंखचूड़ कहते हैं। इसे सजाने में लगभग 1100 मीटर कपड़ा लगता है। 
बलभद्र का रथ- इनके रथ का नाम तालध्वज है। रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। इसके रक्षक वासुदेव और सारथी मातलि हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा और 14 पहियों का होता है। लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। रथ के घोड़े नीले रंग के होते हैं। 
सुभद्रा का रथ- इनके रथ का नाम देवदलन है। रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। इसकी रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जीता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचूड़ा कहते हैं। ये 12.9 मीटर ऊंचा और 12 पहियों वाला रथ लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों से बनता है। रथ के घोड़े कॉफी कलर के होते हैं।
रथ यात्रा समाप्त होने के बाद रथों का क्या होता है?
रथ यात्रा के बाद इन रथों को तोड़ दिया जाता है और लकड़ी का उपयोग जगन्नाथ मंदिर की रसोई में किया जाता है। इसे दुनिया की सबसे बड़ी रसोई में से एक माना जाता है। भगवान जगन्नाथ को अर्पित करने के लिए, एक उल्लेखनीय 56 प्रकार के महाप्रसाद (भक्ति भोजन) आग पर मिट्टी के बर्तनों में तैयार किए जाते हैं। यहां के मंदिर की रसोई में प्रतिदिन 100,000 भक्तों के लिए खाना पकाने की क्षमता है। पुरी रथ यात्रा उत्सव में मंदिर के आकार के रथों का विशेष महत्व है। रथों की अवधारणा को पवित्र पाठ, कथा उपनिषद में बेहतर समझाया गया है। रथ शरीर का प्रतिनिधित्व करता है, और रथ के देवता, आत्मा का प्रतिनिधित्व करते है। बुद्धि उस सारथी के रूप में कार्य करती है जो मन और उसके विचारों को नियंत्रित करती है।
लेखक - संकलनकर्ता
मयुरकुमार मिस्त्री
विश्वकर्मा धर्म प्रचारक
श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति

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