"स्तम्भराज" विजय के प्रतीक हैं पाषाण स्‍तंभ

"स्तम्भराज" विजय के प्रतीक हैं पाषाण स्‍तंभ

शिल्प की दृष्टि बहुत दूर तक फैली हुई है अनेक दरवाजे शिल्प, स्थापत्य, कला, वैभव, रचना, मूर्ति जैसे विषयो के खुले हैं। आज एक ओर द्वार स्तंभों की ओर भी खुलता है। स्तंभ यानी लोह काष्ठ शीला धातु से बने खंभे । काष्ठ से लेकर पाषाण तक के खंभे हमारी संस्कृति की झलक मिलती है । अनेक प्रमाणित ग्रंथो वेदों से लेकर पुराणों और शिल्पशास्त्रों में उल्लेख मिलता आया है। शासकों ने यदि विजय के घोषणा के रूप में करवाए तो आराधकों ने देवताओं के यशवर्धन के उद्देश्य से स्तंभों का निर्माण करवाया था । यू कहे तो मीनार भी उसका एक रूप है। अशोक के स्तंभ,जीजाक का कीर्तिस्तंभ, कुंभा का विजय स्तंभ हेलियोडोरस का विष्णु ध्वज भारत में सबसे कलात्मक स्तंभ है, साथ ही कैलास मंदिर ईलोरा का स्तम्भ जब देखो तब अपनी कला के कौशल का स्मारक जैसा लगता है।
इन स्तंभों का निर्माण हमेशा शासकों द्वारा होता रहा है, आज के युग में भी अहमदाबाद में भी एक विजयस्तंभ बना है। अन्य जगह की बात करे तो रोम की तर्ज पर क्लॉक (घड़ी) टावर भी बनाए गए हैं । इनका उदय या उन्नत स्वरूप संस्कृति गौरव के विस्तार का सूचक है। ऐसे देव स्तंभों के निर्माण का प्रारंभिक उल्लेख अल्पज्ञात वह्निपुराण में मिलता है, जिसमें भगवान विष्णु को समर्पित गरुड़ और वराह ध्वज बनाने की विधि विधान बताये गये है। अन्य ग्रंथ दीपार्णव, वास्तुविद्या आदि बाद में प्रकाशित हुए हैं। विश्वकर्मिय स्थापत्य का महान ग्रंथ अपराजितपृच्छा में भी अनेक देवस्तंभों के निर्माण का संक्षिप्त विवरण दिया गया है।
राजस्थान के शाशक योद्धा महाराणा कुंभा (सन 1433-68 ई.) ने ऐसे स्तंभों के निर्माण पर एक पुस्तक लिखी थी। इसको भगवान विश्वकर्मा और जय के संवाद के रूप में लिखा गया। पाषाण ग्रंथ का नाम था स्तम्भराज। जो यह दुनिया का कदाचित पहला शिल्पशास्त्र माना जाता है। जिसको पाषाण पर तराश कर उत्कीर्ण करवाया गया था। वैसे अनेक प्रमाण के अनुसार इससे पहले नाटक, काव्यशास्त्र जैसे ग्रंथ पाषाणों पर उत्कीर्ण करवाए गए थे। राज वंशो की बात करे तो परमारों के शासनकाल में मध्यप्रदेश के धार में और चौहानों के शासनकाल में राजस्थान के अजमेर में बनाया गया था। 
महाराणा कुंभा के शासनकाल में स्तंभराज को पाषाण पर उत्कीर्ण करने का श्रेय सूत्रधार जय को जाता है, उसी ने चित्तौड दुर्ग पर विष्णुध्वज का निर्माण किया था, जिसे विजय स्तंभ या फिर कीर्तिस्तंभ के नाम से विख्यात हुए हैं।  इसमें इन्द्रध्वज, ब्रह्मस्तंभ, विष्णुस्तंभ आदि की ऊंचाई और उनमें तराशी जाने वाली मूर्तियों का विवरण था, लिखा गया था - 
श्रीविश्वकर्माख्य महार्यवर्यमाचार्य
गुत्पत्ति विधावुपास्य।
स्तम्भस्य लक्ष्मातनुते नृपाल:
श्रीकुंभकर्णे जय भाषितेन।। 3।।
यह ग्रंथ आज लुप्त होने के कारण उपलब्ध नहीं हैं, इसकी एक शिला मौजूद है जिसमें इसका संक्षिप्त संकेतित किया गया है। जिस महाराणा कुंभा ने इस कला को संभालकर रखने का प्रयत्न कर शिलोत्कीर्ण करवाया, वे शिलाएं ही पूरी तरह लुप्त है। लेकिन, केवल स्थापत्य अवशेष बता रहे हैं कि यह कला बहुत ही उम्दा और उत्तम थी और अनेक प्रकार के लक्षणों वाले स्तंभों का निर्माण होता था। कवि कालिदास ने जिस तरह बिखरी हुई अयोध्यापुरी में खण्डित हुए जयस्तम्भ का जिक्र किया है, अब वहां कोई अवशेष है या नहीं। आज भी एक संकेत है कि पुराने वहा के क्षेत्र की पहचान स्तम्भ से होती है। स्तम्भ के आधार से किसी वावडी़, वापी, कूप, तालाब, कुएं के पुरातन प्रमाणों को भी खोजा जा सकता है।
भगवान विश्वकर्मा के साहित्य, स्थापत्य, धरोहर की जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का प्रयास श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति द्वारा मयुरकुमार मिस्त्री करते आए हैं। इस तरह के प्रमाणित संशोधन, शोध, साहित्य को हमे हमारे विश्वकर्मा ब्राह्मण समाज को समर्पित करने ही होंगे जिससे हम हमारी संस्कृति को नजदीक से परिचित होकर ज्ञान और सामाजिक उन्नति से वाकिफ हो सके। 

संकलनकर्ता - मयुरकुमार मिस्त्री
श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति

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