वैदिक यज्ञ वेदी और शिल्प विद्या

वैदिक यज्ञ वेदी और शिल्प विद्या
विश्वकर्मिय शिल्प कला एक बहुत ही बड़ा विषय है। स्थापत्य निर्माण क्रिया तकनीक विज्ञान और मन्त्रों से आभूषित है शिल्प विद्या। शिल्प विद्या को स्थाप्त्य विद्या भी कहते हैं। इसका प्रयोग विज्ञान, तकनीक और नित्य् काम आने वाले साधनों में होता है। शिल्प विद्या के द्वारा ही सुन्दर किले, मुर्तियाँ, सेतु, वाद्य यंत्र, आभूषण और अध्ययन सामग्री, नित्य कार्य के साधन, खिलौने, यातायात और संचार के साधन निर्मित होते है। इस प्रकार हम देखते है कि शिल्प विद्या हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है।

इस विज्ञान के बारे में वेदों और वैदिक वाङ्मय में विस्तार से अनेकों निर्देश और उपदेश सङ्कलित है। इस शिल्प विद्या का मूल वेद ही है, वेदों में अनेकों मन्त्रों द्वारा शिल्प विद्या का उपदेश किया है।
शिल्प वैश्वदेव्यो रोहिण्यत्र्यवयो वाचेsविज्ञाताsअदित्यै सरूपा धात्रे वत्सतर्यो देवानां पत्नीभ्य 
(यजु. 24.5) 
इसके भावार्थ में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि वे विद्वान शिल्प विद्या से अनेकों यानादि बनाएं ।

वेदों से पृथक् व्याकरण, ज्योतिष, कल्प और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी शिल्प और शिल्पविद्या के उल्लेख प्राप्त होते है पाणिनी व्याकरण और महाभाष्य में शिल्प सम्बन्धित शब्दों और प्रयोगों से उस काल में उपस्थित शिल्प विद्या का ज्ञान होता है।

अष्टाध्यायी में अनेकों स्थान पर शिल्पि पद पठित है
शिल्पिनः
(अ.6.2.62) इत्यादि
महाभाष्यकार अपने समय में प्रचलित शिल्प विद्या का उदाहरण देकर सुवर्ण अर्थात् सोने से निर्मित आभुूषणों का निर्देश करते हुए लिखते है।

तथा सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो कटकाकृतिनुपमुद्य रूचकाः कियन्ते।
रूचकाकृतिमुपमुद्य कटकाः क्रियन्ते।
कटकाकृतिमुपमुद्य स्वस्तिकाः कियन्ते।
पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाकृत्या युक्तः खदिराङ्गारसवर्णे कुण्डले भवतः।
(महाभाष्य 1.1.1) 
अर्थात् सुवर्ण के पिण्ड को नष्ट करके रूचक बनाए जाते हैं। रूचकों को नष्ट करके कडे बनाए जाते हैं। कडों को नष्ट करके स्वस्तिक बनाए जाते है और स्वस्तिक को नष्ट करके कुण्डल बनाए जाते है। इस प्रकार महाभाष्य द्वारा तत्कालीन आभूषणों के माध्यम से उस काल में प्रचलित शिल्प विद्या का हमें पता चलता है।

शिल्प विद्या के महत्त्व को देखते हुए ही शांखाय्यन ब्राह्मण में कहा गया है

"तस्मादवशिल्पानि शस्यन्ते नेच्छिल्पेभ्यो गामेति 
(शांख्यायन ब्राह्मण 30.3)
अर्थात् हम कभी शिल्पों से पृथक् न हों ।

इसमें स्थाप्त्य एवं वास्तु से पृथक् नृत्य, संगीत और वाद्ययंत्र निर्माण को भी शिल्प विद्या के अन्तर्गत स्वीकार किया है

"त्रिवृद्वै शिल्पं नृत्यं गीतं वादितमिति"
(शाख्यायन ब्राह्मण 29.5)
अर्थात् शिल्प त्रिविद है - नृत्य, गीत और वाद्य।

इन तीनों में वाद्य यंत्र शिल्प विद्या से ही निर्मित होते है, वाद्य यंत्रों के विषय में विस्तार से भरतमुनि के नाट्य शास्त्र और मतंग मुनि के बृहद्देशी में पढ़ना चाहिए। इनमें से वीणा के बारें में ऐतरेयारण्यक में लिखा है, जिसमें बताया है कि मनुष्य शरीर के आधार पर वीणा का निर्माण हुआ है

"अथ खल्वियं दैवी वीणा भवति तदनुकृतिरसौ मानुषी वीणा भवति"
(ऐत.आ. 5.3) 
अर्थात् जैसे शरीर सम्बन्धित दैव निर्मित वीणा है उसी प्रकार यह मनुष्य निर्मित वीणा है।

ब्राह्मण ग्रन्थों में न केवल संगीत में शिल्प विद्या का प्रयोग दिखाया है, साथ ही यज्ञ आदि कार्यों में भी शिल्प विद्या का प्रयोग दिखाया है, साथ ही मिट्टी के खिलौने और मुर्तियों के निर्माण का भी उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों में प्राप्त होता है। 

मिट्टी के पशु - "मृन्मयान्यु हैके कुर्वन्ति" -
(शत.ब्रा. 6-10-38)

चमकीले बर्तन और हाथी आदि
यत् एव शिल्पानि, एतेषां शिल्पानां ..... हस्ती,कंस, रथशिल्पं  (गोपथ.ब्रा. 5-8-7) 

वेदों उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रन्थों में ये शिल्प विद्या के कुछ उदाहरण यज्ञों के माध्यम से दिए गये है, यज्ञों को आधार बनाकर ही अनेकों विद्याओं का उपदेश ऋषियों द्वारा किया जाता है, जिसमें शिल्प विद्या भी प्रमुख है, इस शिल्प विद्या के अन्तर्गत यज्ञ वेदी निर्माण के माध्यम से मिट्टी की ईटों से निर्माण, ईटों के सांचों का निर्माण और ईटों के जोड़ के लिए लेप और ज्योमितीय गणित, ईटों के चिनाई की विधि ऋषियों ने बताई है।

जैसे कि हमे आपस्तम्ब शुल्बसूत्र में ईटों के सांचों का वर्णन प्राप्त होता है।

"करणानीष्टकानां पुरूषस्य पञ्चमेन कारयेत्"
(आप. शुल्ब. 9.13)
अर्थात् ईटों के सांचों का नाप पुरूष के एक पंचमांश लीजिए ।

मानव शुल्बसूत्र में बताया है कि ईटों के सांचों का नाप ईटों से 1/30 भाग ज्यादा लेना चाहिए।

"सदा च त्रिशक भागमिष्टका ह्रसते कृता।
तावत्समधिकं कार्यं करणँ सममिछता।।
(मानव शुल्ब. 10.2.2) 
अर्थात् शुद्ध नापों की ईटों के लिए सांचों को 1/30 भाग बडा बनाना चाहिए।

शुल्बसूत्रकार ऋषि मिट्टी से निर्मित ही ईटों को श्रेष्ठ मानते है और उसी का उपदेश करते हुए लिखते है।

"अमृन्मयीभिरनिष्टकाभिर्न संख्या पूरयेत्"-
(बौधा.शुल्ब. 2.38)
अर्थात् बिना मिट्टी के बनाई ईंटों से विभिन्न पदार्थों की संख्या पूरी न करें।

ईटों के चिनने की भी विधि इन ग्रन्थों में बताई गयी है -
"भेदान्वर्जयेत्"
(बौ.शु. 2.22)
अर्थात् चिनाई में ईटों के भेदों को टालें।

अधरोत्तरयोः पार्श्वसंधान भेदा इति उपदिशन्ति 
(बौ.शु. 2.23)
अर्थात् नीचे और ऊपर की तह मे होने वाली ईटों को जोडें।

आज भी ईटों की चिनाई में यह शिल्प विधि प्रयुक्त होती है।
चिनाई में जोडों को भरने के लिए और मजबूत पकड के लिए कई मिश्रणों का प्रयोग होता था, जिनमें से एक मिश्रण की विधि हमें शतपथ ब्राह्मण में वर्णित प्राप्त होती है।

"पर्णकषायनिष्पक्वाSएता आपो भवन्ति"
(शत.ब्रा6.5.1.1)
अर्थात् पलाश की गोंद, पानी में डालकर पानी को पकाए ।

"अथाजरोमैः संजुयति"
(श.ब्रा. 6.5.1.4)
अर्थात् इसमें फिर बकरें के लोमं मिलाये।

शर्कराश्मायोरसः तेन संयुजति स्थेम्ने
(शं.ब्रा. 6.5.1.6)
अर्थात् फिर इसमें रेत, बजरी और लोह के चूर्ण मिलावें और अच्छी तरह गुंथे।

इस तरह के मिश्रण का जोड़ सीमेण्ट से भी अधिक मजबूत होता है। इस तरह प्राप्त ईटों और मिश्रण से भवन और शालादि का निर्माण किया जाता था तथा यज्ञ में यज्ञवेदी और चैत्य आदि का।
भवन एवं यज्ञवेदी के निर्माण के अलावा शिल्प का प्रयोग प्राचीनकाल में सेतु निर्माण में भी होता था, रामायण में नल-नील नामक शिल्प विशेषज्ञों और उनके द्वारा निर्मित सेतु का वर्णन प्राप्त होता है।

ते नगान् नग सम्काशाः शाखा मृग गण ऋषभाः | २-२२-५३
बभन्जुर् वानरास् तत्र प्रचकर्षुः च सागरम् |
अर्थात - ये वानर युयपति पर्वतशिखरों और वृक्षों को उखाड़ उखाड़ कर समुद्र तट पर ला ला कर ढेर लगाने लगे |

ते सालैः च अश्व कर्णैः च धवैर् वंशैः च वानराः || २-२२-५४
कुटजैर् अर्जुनैस् तालैस् तिकलैस् तिमिशैर् अपि |
बिल्वकैः सप्तपर्णैश्च कर्णिकारैश्च पुष्पितैः | २-२२-५५
चूतैः च अशोक वृक्षैः च सागरम् समपूरयन् |
अर्थात -क्रियापद लोगो ने साखू ,अश्वकर्ण ,धब ,बांस ,कौरेया ,अर्जुन ,ताल ,तिलक ,तिमिश .बैल ,सप्तवर्णा ,फुले हुए कुनैर ,आम और अशोक के पदों से समुद्र को पाट दिया |

तालान् दाडिमगुल्मांश्च नारिकेलविभीतकान् | २-२२-५७
करीरान् बकुलान्निम्बान् समाजह्रुरितस्ततः |
अर्थात - वे ताड़ ,अनार ,नारियल ,कत्था ,बेहडा ,मोलसिटी ,खदिर और नीम के पेड़ो को इधर उधर से लाकर वहा डालने लगे |

हस्तिमात्रान् महाकायाः पाषाणांश्च महाबलाः | २-२२-५८
पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रैः परिवहन्ति च |
अर्थात - हाथी के समान ,शक्तिशाली , दीर्घकाय यंत्र से  बड़े बड़े पर्वतों से पत्थरों को को  उखाड़ कर वहा पहुचाने लगे |

प्रक्षिप्यमाणैर् अचलैः सहसा जलम् उद्धतम् | २-२२-५९
समुत्पतितम् आकाशम् अपासर्पत् ततस् ततः |
अर्थात -उन पत्थरों के बड़े बड़े टुकड़े को जल में डालने पर जल आकाश की तरफ उछलता और फिर नीचे गिर जाता है |

समुद्रम् क्षोभयामासुर्निपतन्तः समन्ततः | २-२२-६०
सूत्राण्यन्ये प्रगृह्णन्ति ह्यायतम् शतयोजनम् |
अर्थात - इस प्रकार चारो तरफ से पत्थर ,लकड़ी गिरा गिरा कर वानरों ने समुद्र जल को खलबला दिया ,वहा कितने ही वानर १०० योजन लम्बे सूत से पुल की सिधाई को ठीक करते थे |

नलः चक्रे महासेतुम् मध्ये नद नदी पतेः | २-२२-६१
स तदा क्रियते सेतुर्वानरै र्घोरकर्मभिः |
अर्थात -इस प्रकार नल के घोरकरमा वानरों की साहयता से समुद्र के ऊपर पुल बाँधा गया |

यह उत्कृष्ट अद्भुत शिल्प का नमूना है यह पुल कितना मजबूत होगा कि आज भी लाखों वर्षों के बाद इसका अस्तित्व देखा जा सकता है।

शिल्पविद्या के प्रयोग ज्योतिषी में सहायक यंत्रों और वेधशाला निर्माण में भी होता था। लगध मुनि के वेदांग ज्योतिष में वेधशाला का उल्लेख प्राप्त होता है।

"इत्युपायसमुद्देशो भूयोेेेsप्यह्नः प्रकल्पयेत्।
ज्ञेयराशिं गताभ्यस्तं विभजेज्ञानराशिना।
(वेदांग यजु.41) 
अर्थात् ग्रन्थ में बताए गए सभी तथ्यों को सदैव प्रत्यक्ष वेध उपाय द्वारा शुद्ध एवं प्रमाणित करना चाहिए।

यहाँ उपाय शब्द वेधोपाय का संक्षिप्त रूप है। 
यातायात में नौका और विमान,रथादि निर्माण भी शिल्प विद्या के कारण ही सम्भव है, इसमें विमानशास्त्र में विमानशिल्प के रहस्य का उद्घाटन करते हुए, महर्षि भरद्वाज लिखते है।

"वेगसाम्याद् विमानोण्डजानामिति"
(विमानशास्त्र 1.1)
अर्थात् पक्षियों के गतिसाम्य से विमान कहलाते है अर्थात् पक्षियों के तुल्याधार से विमान निर्माण होता है।

इस प्रकार वैदिक वाङ्मय में शिल्प विद्या द्वारा आभूषण, वाद्य यंत्र, ईटों और ईटों से भवन, शालादि निर्माण, मुर्ति एवं खिलौनों का निर्माण एवं सेतु, विमान आदि निर्माण का उल्लेख प्राप्त होता है। सिंधू सभ्यता, बेबीलोन, मिस्त्र, तुर्क आदि सभ्यताओं और भारतीय मंदिरादि निर्माण में इनहीं शुल्बसूत्रों का पर्याप्त प्रभाव देखा जा सकता है। इनहीं की शिल्प विद्या और ज्योमितीय विद्या से यह सब निर्माण सम्भव हुआ है।

अनेक प्रमाणो से सज्जित ग्रंथो की बात करे तो शिल्प शास्त्र और विश्वकर्मा वास्तु विज्ञान से संबंधित निराकरण युक्त प्रमाण युक्त ग्रंथ मौजूद हैं। दक्षिणी परम्परा के मुख्य ग्रंथ हैं: शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रिसहिता, वैखानसागम, दीप्ति-तन्त्र; तत्र-समुच्चय आदि / उत्तरी परम्परा के प्रमुख है: मत्स्य-पुराण, अग्नि-पुराण, भविष्य-पुराण, बृहत्-संहिता (ज्योतिष ग्रंथ); किरण-तत्र, हयशीर्ष-पचरात्र, विष्णुधर्मोत्तर-पुराण (चित्र-कला के लिए विशेष), और हेमाद्रि, रघुनंदन आदि के प्रतिष्ठा-प्रथ। वास्तु-विद्या पर स्वतत्ररूप से लिखे गए वैदिक ग्रंथों में विशेष उल्लेखनीय हैं: विश्वकर्मा का शिल्प-शास्त्र, मय-मत, मानसार, काश्यप-शिल्प (अंशुमद-भेद), अगस्त्यसकलाधिकार, सनत्कुमार-वास्तुशास्त्र, शिल्पसग्रह, शिल्परत्न, चित्र-लक्षण दक्षिणी परपरा मे; और विश्वकर्म-प्रकाश, समरागण-सूत्रधार-मंडन, वास्तु. रत्नावली, वास्तु-प्रदीप आदि / करणानुयोग के ग्रंथों में वास्तु-विद्या जैनपुराणो तथा करणानुयोग के प्रायः सभी ग्रथों से वास्तु-विद्या और शिल्पशास्त्र पर विशद प्रकाश पड़ता है। त्रिलोकी, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, भेरु, समवसरण आदि की रचना पर सहस्रो गाथाएँ और श्लोक हैं।

संकलन - मयूर मिस्त्री 
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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