यज्ञोपवीतं

विश्वकर्मा ब्राह्मण सबसे ऊंच ब्राह्मण है ब्रह्मांड पुराण स्कंद पुराण विश्वकर्मा पुराण तथा वेदो आदि आदि पुराणों में वर्णित इतिहासिक ज्ञान के अनुसार विश्वकर्मा ब्राह्मण उच्च ब्राह्मण हैं ।

जनेऊ अधिकार मे सबसे उच्च ब्राह्मण विश्वकर्मा ब्राह्मण हैं जो वेदों में भी वर्णित है तथा अन्य सारे प्रमुख पुराणों में भी वर्णित है। 

नये जीवन की ओर पहला कदम त्याग, पवित्रता, तेजस्विता एवं परमार्थ के प्रतीक व्रतबन्ध स्वरूप यज्ञोपवीत का नवीनीकरण किया जाता है। यज्ञोपवीत का सिंचन करके पाँच देव शक्तियों के आवाहन स्थापन के उपरान्त उसे धारण कर लिया जाता है, पुराना उतार दिया जाता है। यह क्रम यज्ञोपवीत संस्कार प्रकरण में भी दिया गया है।

यज्ञोपवीत सिंचन
मन्त्र बोलते हुए यज्ञोपवीत पर जल छिड़कें, पवित्र करें, नमस्कार करें- ॐ प्रजापतेयर्त्सहजं पवित्रं, कापार्ससूत्रोद्भवब्रह्मसूत्रम्॥ ब्रह्मत्वसिद्ध्यै च यशः प्रकाशं, जपस्य सिद्धिं कुरु ब्रह्मसूत्र॥

पंचदेवावाहन
निम्नस्थ मन्त्रों के साथ यज्ञोपवीत में विभिन्न देवताओं का आवाहन करें-

(१) ब्रह्मा- ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्, विसीमतः सुरुचो वेन आवः। स बुध्न्याऽउपमाऽ अस्यविष्ठाः, सतश्चयोनिमसतश्च विवः॥ ॐ ब्रह्मणे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१३.३

(२) विष्णु - ॐ इदं विष्णुविर्चक्रमे, त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पा सुरे स्वाहा॥ ॐ विष्णवे नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -५.१५

(३) शिव - ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽ, उतो तऽइषवे नमः। बाहुभ्यामुत ते नमः॥ ॐ रुद्राय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -१६.१

(४) यज्ञपुरुष - यज्ञोपवीत खोल लें। दोनों हाथों की कनिष्ठा और अँगूठे से फँसाकर सीने की सीध में करें, फिर यज्ञ भगवान का आवाहन मन्त्र बोलते हुए यज्ञ पुरुष का पूजन करें।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः, तानि धमार्णि प्रथमान्यासन्। तेह नाकं महिमानः सचन्त, यत्र पूवेर् साध्याः सन्ति देवाः॥ ॐ यज्ञपुरुषाय नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि॥ -३१.१६

(५) सूर्य - फिर दोनों हाथ ऊपर उठाकर सूयर्देव का आवाहन करें-

ॐ आकृष्णेन रजसा वत्तर्मानो, निवेशयन्नमृतं मत्यर्ं च। हिरण्ययेन सविता रथेना, देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ ॐ सूयार्य नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि। -३३.४३

यज्ञोपवीतधारण
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुंच शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार०गृ०सू० २.२.११

जीणोर्पवीत विसजर्न
ॐ एतावद्दिन पयर्न्तं, ब्रह्म त्वं धारितं मया। जीणर्त्वात्ते परित्यागो, गच्छ सूत्र यथासुखम्॥

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