मेरे आविष्कार, मेरे विश्वकर्मा
मेरे आविष्कार, मेरे विश्वकर्मा
पृथ्वी की मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास का वर्णन और ग्रंथो मे दर्शाया गया चीख चीख के कह रहा हैं कि विश्वकर्मिय ब्राह्मण जाति ही तकनीक , शिल्प, सभ्यता, निर्माण, विज्ञान, वास्तुशास्त्र जैसे अनेक परम्परागत कार्यो में निपुण रही है। ज्यादातर शिल्पकारों के काम का उल्लेख मह्त्वपूर्ण रहा है। क्योंकि परम्परागत शिल्पकार के बिना मानव सभ्यता, संस्कृति तथा विकास की बात सिर्फ कल्पना ही लगती हैं।
विश्वकर्मिय शिल्पकारों ने प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न कला सभ्यता के स्वरुपों में लोहकार, रथकार, सोनार, ताम्रकार, शिल्पकार, वास्तुविद अपने कौशल से भारतीय एवं दुनिया की अनेक धरती को सजाने में कोई भी कसर छोड़ी नहीं है । समस्त धारणा से उपर सोचे तो सृजनात्मक की तरह परम्परागत शिल्पकार अपने औजारों के उपयोग से मानव सभ्यता को सरल, सहज और सुंदर बनाने का तकनीकी विकास कर रहे हैं।
आज समस्त सृष्टि जो हमे सुवर्ण रुप में दृष्टिगोचर हो रही है वह हमारे परम्परागत शिल्पकारों के खून पसीने और कड़े श्रम की ही देन है। यह बात हम गर्व से कह सकते हैं कि हम विश्वकर्मा हे।
मनुष्य के सामाजिक एवं आर्थिक विकास का प्रथम चरण वैदिक काल से ही प्रारंभ होता है। इस वैदिक काल में अग्नि का अविष्कार था जिससे मनुष्य के जीवन में मूलभूत परिवर्तन किया। जानवर जैसी जिंदगी से मनुष्य की ओर हमे सिर्फ हमारा आविष्कार ही लेकर आया है। यह अविष्कार और तकनीक ज्ञान मनुष्य को सभ्यता की ओर बढता हुआ क्रांतिकारी कदम साबित हुआ था।
आज इस महान अविष्कार के महत्व को नहीं समझ सकते। जब जंगल की आग सब कुछ निगल जाती थी, उसे काबू में करके प्रतिकूल से अनुकूल बनाने का कार्य मानव सभ्यता के लिए क्रांतिकारी अविष्कार था। यह छोटी बात नहीं है।
सभी सृष्टि के मनुष्यों के लिए तकनीक और उपकरणों का निर्माण विकास का दूसरा चरण था। वंशागत शिल्पकारों ने कई चक्रवर्ती राजाओ और सम्राटों से लेकर साधारण मजदूर और किसान तक के लिए उपकरणों का विकास किया है।
यज्ञों के लिए यज्ञपात्रों जो मिट्टी, काष्ठ, तांबा, कांसा, सोना एवं चांदी के हुआ करते थे। से लेकर यज्ञ मंडप का निर्माण, राजाओं महाराजाओं और उनकी सेना के लिए कोठी, महल, दुर्ग, अस्त्र-शस्त्र, शकट, रथ निर्माण, किसानो और मजदूरों के लिए हल, फ़ाल, कुदाल, कुटने, पीसने, काटने के उपकरण बनाए गए।
जिसे हम आज की टेक्निकल इंडस्ट्री कहते हैं किसी काल में उसे शिल्पशास्त्र कहा जाता था। वायुयान, महल, किले, दुर्ग। वायु पंखे, थर्मामीटर, बैरोमीटर, चुम्बकीय सुई, बारुद, शतघ्नी (तोप), भुसुंडि (बंदुक), एवं एश्वर्य की अन्य भौतिक सुविधायुक्त वस्तुओं का वर्णन संक्षेप में ही करूंगा नहीं पुन: कई ग्रंथ लिखे जा सकते हैं।
भारत में समस्त तकनीकि ज्ञान एवं शिल्पज्ञान के प्रवर्तक भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा जी को माना गया है। भगवान विश्वकर्मा जी के अविष्कारों का वर्णन करते हुए वेद और पुराण नहीं थकते। ॠग्वेद के मंत्र दृष्टा ॠषि भगवान विश्वकर्मा जी भी हैं।
*यो विश्वजगतं करोत्य: स: विश्वकर्मा* अर्थात - वह समस्त जड़ चेतन, पशु पक्षी, सभी के परमपिता है, रचनाकार हैं। महर्षि दयानंद भी कहते हैं – विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स: विश्वकर्मा सम्पूर्ण सृष्टि का सृजन कर्म जिसकी क्रिया है, वह विश्वकर्मा है। प्राचीन काल से ही सृष्टि के रचियिता भगवान विश्वकर्मा जी के अनुयायी विश्वकर्मावंशी अपने तकनीकि कौशल से सम्पूर्ण सृष्टि को कहीं न कहीं छोटे से योगदान से रचने में लगे हैं।
मानव सभ्यता को नया आयाम परम्परागत शिल्पकारों ने ही किया, सभ्यता, प्रमाण और रूबरू दर्शन से इसमें कोई संदेह नहीं है। स्थानीय राजाओं के साथ-साथ हजारों वर्षों तक भारत में शासन करने वाले विदेशियों ने भी शिल्पकार और शिल्पकर्म को बढावा दिया। परन्तु अंग्रेजों के शासन काल में औद्यौगिकरण के नाम पर कुटीर उद्योगों की बलि चढा दी गयी।अंग्रेजों ने देखा कि भारत में शिल्पकला का स्तर बहुत ही ऊंचा है और यहाँ के शिल्पकार उन्नत शिल्प गढते हैं। तकनीकि ज्ञान से शिल्पकार अगर विरोधी हो गए तो उनके शासन को खतरा हो जाएगा क्योंकि विश्व में जितने भी सत्ता परिवर्तन हुए वे श्रमिकों एवं शिल्पकारों के आन्दोलनों के द्वारा ही हुए। इसलिए साजिश करके अंग्रेजों ने मशीनीकरण किया और परम्परागत शिल्पकारों के हाथ से उनका वंशागत व्यवसाय छीन कर बेरोजगारी बढाने का कार्य शुरू किया। क्यूंकि अंग्रेजो ने भारतीयों को गुलाम बना रखा था। इसी बीच भारत को आजाद कराने के लिए विश्वकर्मा शिल्पकारो और श्रमिकों ने आंदोलन में हिस्सेदारी दिखाई। कई लोगों के प्रयास से आजादी मिली लेकिन शिल्पकारो को अपना स्थान नहीं मिला न ही कोई उनके लिए विकास का कार्य हुआ। आज आजादी के अनेक साल हुए किन्तु विश्वकर्मा जाती और शिल्पकारों को कोई स्थान नहीं मिला। असलीयत मे विश्वकर्मा जाती और उसकी तकनीकी सभ्यता को आजादी नहीं मिली है। आज परम्परागत शिल्पकार और विश्वकर्मा समाज राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक रुप से अत्यंत ही पिछड़ गया। जो वस्तु अपने विश्वकर्मा समाज वंशागत कला से कुशलता पूर्वक बनाते हैं उनके साथ अन्य कई छोटी मोटी चीज़ वस्तुओ का आज अन्य देश से आयात हो रहा है इसका सीधा असर हमारे विश्वकर्मा समाज और उनके परिवार पर हो रहा है।
यह बातों का सबसे बड़ा उदाहरण लोहकारों, सोनारों, ताम्रकारों के धातु संवर्धन एवं गलाई के कारखानों का बंद होना और विदेशी एवं देशी कम्पनियों ने इनके कार्यक्षेत्र पर कब्जा जमा लिया है। वनों से ईमारती लकड़ियों का निकास लगभग न्यून ही हो गया है जिससे लकड़ी के निर्माण के कच्चे माल में बेतहाशा मूल्य वृद्धि हुई है।
बढईयों और लोहारो के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी है वे आर्थिक रूप जूझ रहे हैं। सरकार बड़े उद्योगों के लिए सब्सिडी एवं टैक्सों में छूट देकर इनकी सुविधा कर रही है। वहीं दुसरी ओर परम्पराग्त शिल्पकार कच्चे माल की कमी से जुझते हुए मंदी की मार झेल रहे हैं। यह अत्यंत प्रभावित और चिंतनीय विषय है। इन्हीं योजनाओं में से उसका 5% भी परम्परागत शिल्पकारों और विश्वकर्मा वंशागत कारीगरों की दशा सुधारने में लगाया होता तो आज भारत विकसित राष्ट्रों की कतार में महाशक्ति बनकर खड़ा होता। परम्परागत कारीगरो और शिल्पकारों के संरक्षण का सीधा लाभ भारत की अर्थ व्यवस्था को होगा क्योंकि यंत्रों एवं उपरकणों के निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा से मुद्रा भंडार समृद्ध होगा।
अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूं कि हमें देश के विश्वकर्मा लोहकारो, काष्ठकारो, शिल्पकारों, ताम्रकारो, और स्वणॅकारो को आगे लाना होगा और कुटीर उद्योगों की ओर वापस जाना होगा। जिससे परम्परागत विश्वकर्मिय कला शिल्प समृद्ध होगा। जिससे प्रतिरक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग मशीनरी, विद्युत उत्पादन, उच्च शिक्षा, कृषि, स्थापत्य, निर्माण, कला विज्ञान आदि क्षेत्रों में उन्नति का मार्ग खुलेगा।
*©️लेखक - मयुरकुमार मिस्त्री*
*श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति*
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