नारदजी की वीणा

नारदजी की वीणा 

मुनियों की सभा में सूत कथा कह रहे थे नए-नए प्रश्नों में नहीं कथा के बारे में कुलपति मुनि शौनक नई नई चर्चाऐ सुनते रहते थे और सभी को सुनने में तल्लीन भी कर रहे थे तभी वहां पर वीणा का मधुर स्वर सुनाई दिया।खा
सभी ने आकाश मठ की तरफ देखा तो देवश्री नारद आ रहे थे। उनकी देवी वीणा पर उनकी उंगलियां फिरते मधुर ध्वनि उत्पन्न हो रही थी और उस ध्वनि ऑन के साथ नारायण नारायण नाम का उच्चार भक्ति मार्ग सहीत नारद जी आ रहे थे। श्रोता वक्ताओं और सभी ने खड़े होकर देवर्षि नारद जी का अभिवादन किया और उनको उचित आसन देकर मुनि शौनक मैं उनका अध्यॅ पाद्य आदि अर्पण कर के पूजन किया।

सदा में देवर्षि विराजे और मुनि शौनक ने प्रश्न किया हे देवर्षि आपके जैसे महापुरुष के दर्शन निरथॅक नहीं होते। आज हम सबको आपके दर्शन हुए हैं वही हमारा अहोभाग्य है आपका आगमन का कोई शुभ है तू है वह तो हमें कहिए और साथ ही आपके सत्संग का हमें भी लाभ दीजिए।

देवर्षि बोले है - हे मुनिओ आपको धन्य है की आप सभी इस तरह के ज्ञानसत्रो की योजना कर नित्य ज्ञानचर्चा के द्वारा परमात्मा की भक्ति कर रहे हो। मैं आकाश मार्ग पर स्वर्ग गंगा के किनारे विहार कर रहा था। भक्ति में पूर्ण तरह से लिन था तभी अचानक मेरे हाथ से वीणा सरक कर नीचे पडी। उसका ध्यान नहीं रहा। वीणा की ध्वनि की  गुंजे आवाजें सुनाई दी पर मैं पूर्ण रूप से भक्ति लिन था इसलिए वीणा को देख नहीं पाया। बाद में जब ध्यान रहा तभी ना दिखाई नहीं दी मैं आपको व्याकुल हो गया वीणा के बिना मुझे एक पल भी अच्छा नहीं लगता है वीणा को फिर से बनाने के लिए मैं भगवान विश्वकर्मा के पास गया।
लक्ष्यदेव सूत्रधार का प्रसंग
मैंने विश्वकर्मा भगवान को नई वीणा बनाकर देने के लिए विनंती की है। उन्होंने मुझसे कहां आप श्रावस्ती नगरी जाओ वहां पर आप लक्ष्य देव सूत्रधार रहते हैं उनको कहना। वह आपको सुंदर वीणा बनाकर जरूर देंगे मैंने उनकी कलाकृति कारीगरी को देखते हुए प्रसन्न होकर नए प्रकार की वीणा बनाने का ज्ञान दिया है।

मैं तुरंत श्रावस्ती नगरी गया और लक्ष्यदेव के घर के बाहर नारायण बोल कर खड़ा रह गया लक्ष्यदेव ने तुरंत अपनी कार्यशाला में से बाहर आकर मुझे नमस्कार किए मुझसे पूछने लगे कि हे भगवान आपका क्या काम मैं आ सकता हूं आप मुझे आज्ञा करें, फिर मैंने विश्वकर्मा प्रभु का संदेश सुनाया।

वह सुनकर लक्ष्य देव ने कहां आज रात्रि मुझे स्वप्न में प्रभु ने प्रेरणा दी थी नए प्रकार की वीणा विद्या मुझे दी है। उनकी आज्ञा से कार्य कर रहा हूं आप कृपा कर थोड़ी देर बैठे कीर्तन करें तब तक मैं वीणा बनाकर आपको दे रहा हूं ऐसा कह कर करताल की जोड़ी मेरे हाथों में दे दी ।
एक पहोर का समय बीत गया मुझे पता भी नहीं चला मैं तो भजन में लीन था। तभी नारायण नाम का झंकार मुझे सुनाई दिया, मैंने देखा की एक अद्भुत सौंदर्य वान वीणा लेकर लक्ष्यदेव मेरे सम्मुख खड़े थे। वीणा उनकी मर्जी से झंकार कर रही थी। मैंने यह वीणा की विशेषता पूछी तब लक्ष्यदेव ने कहां वीणा में दो तुंबड़े है और सात तार हे। ऊपर के तुंबड़े के पास तारो की खूंटीया है वहा पोले बांस मे आप नारायण का उच्चारण करेंगे तब ऊपर के तुंबड़े के तारों द्वारा झंकार करते हुए वहीं उच्चारण नीचे के तुंबड़े तक पहुंचेगा और वहीं से प्रति ध्वनि होगी। धीरे धीरे मंद होता हुआ सात बार सुनाई देगा। मुझे भगवान विश्वकर्मा ने जैसे प्रेरणा दी वैसे मैंने वीणा बनाई है। आप खुश होकर लेकर जाए ऐसा कहकर लक्ष्य देव सूत्रधार ने मुझे वीणा दी। मेरा पूजन किया पूरे परिवार सहित मेरी प्रदक्षिणा कर स्तुति वंदना कर विदा किया।

मुझे नई झंकार करती हुई वीणा मिल गई वह लेकर मैं सृष्टि पर विहार करता हूं और आज यहां पर आप सभी को एकत्रित होकर हुए देख रहा हूं यह दिव्य वीणा माधुयॅ सुनाने आया हूं ऐसा कहकर देवर्षि नारद ने वीणा को सुरताल में रख दिया। समग्र सभा नारायण नाम की एक ताल में नाम स्मरण में एकतान बन गई।

देवर्षि नारद द्वारा विश्वकर्मा की महिमा
शौनक मुनि ने पूछा कि है देवषिॅ, आपके पास से हम भगवान विश्वकर्मा की भक्ति की महिमा जानना चाहते हैं हमारे लिए ज्ञान सूत्र में हमने विश्वकर्मा प्रभु की कथाएं सुनी है, इसलिए आप हमारी भव्क्ति की दृढता में वृद्धि करने के लिए आप कुछ कहे। नारद बोले हे मुनिओ, आप धन्य है कि कर्म योग के महान प्रणिता भगवान विश्वकर्मा का आप स्मरण करते हैं।

मैं जब विश्वकर्मा प्रभु के पास गया तब वहा तपकार्यों में प्रवृत्त थे, उन्होंने मुझे कहां है नारद - आप नित्य प्रवासी है और भक्तिमार्ग के प्रणिता है आप मेरे परिवार को मेरी अचल भक्ति को हमेशा याद रखने का ध्यान जरूर देते रहिए। कलिकाल मे भक्ति का प्रभाव बढ़ने वाला है इसीलिये जो अगर मेरे परिवार में मेरी भक्ति भूलेगा नहीं उनका कल्याण होगा। परंतु कलयुग के झंझावात मे उनको जागृत रखना चाहिए। देवश्री बोले - फिर मेने भगवान विश्वकर्मा से पूछा कि आपके परिवार को कौन कौन से आदेशों का पाठ देना है वह मुझे बताये। उनकी आजीविका कलयुग में भी निर्विघ्न चलती रहे। परंतु जो मैंने औजार और आयुध जो उनको दिए हैं उनके प्रति भक्ति भावना कम ना हो पाए उसके लिए एक साल में एक दिन का निर्माण किया है विजयादशमी के दिन हर एक व्यक्ति पवित्र होकर अपने-अपने औजारों हथियारों  का भाव पूर्वक पूजन करना चाहिए। जो इस तरह से पूजन विधि पूर्वक नहीं करेगा वह कारीगर के आयुध का बल नष्ट होता जाएगा। और साथ ही हर अमावस को एक दिन का विराम लेकर मेरी भक्ति करनी चाहिए माध शुक्ल तेरस के दिन आकर मेरे मूर्ति प्रतिमा का भाव पूर्वक पूजन करना चाहिए उस दिन सभी को समूह में बैठकर प्रसाद ग्रहण करना चाहिए। बाद में प्रभु ने कहा कि हे नारद, मेरे चरित्र का गुणगान वर्णित पुस्तक जो आगे चलकर पुराण के अनुसार जाना जाएगा वहीं अनेकों नाम से प्रसिद्ध होगा उसे मेरे परिवार के हरएक घर में रखने का उपदेश जरूर देते रहे।
बाद में नारदजी वहा पर विश्वकर्मा जी की स्तुति कर नमस्कार किए और अपनी वीणा लेकर नारायण नाम तल्लीन होकर चलते हुए आगे बढ़ते गए।

नारदजी का वर्णन 
शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के छः पुत्रों में से छठे है। उन्होने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया । वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है।
नारदजी कीर्तन के परमाचार्य व भागवत-धर्म के प्रधान बारह आचार्यों (ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वायम्भुव मनु, भक्त प्रहलाद, राजा जनक, भीष्मपितामह, राजा बलि, शुकदेवजी, श्रीयमराज) में से एक हैं। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर घर-घर में भक्ति की स्थापना करने की प्रतिज्ञा की है। जीवों पर कृपा करने के लिए वे निरन्तर त्रिलोकी में घूमा करते हैं। वे कभी भी कहीं भी आ-जा सकते हैं। सभी युगों में, सभी लोकों में, सभी शास्त्रों में, सभी समाजों में और सभी कार्यों में नारदजी का प्रवेश है।
देवर्षि नारद भगवान के ‘मन’ अवतार है
देवर्षि नारद ब्रह्मतेज से सम्पन्न व अत्यन्त सुन्दर हैं। वे शांत, मृदु और सरल स्वभाव के हैं। उनका शुक्ल वर्ण है। उनके सिर पर शिखा शोभित है। उनके शरीर से दिव्य कांति निकलती रहती है। वे देवराज इन्द्र द्वारा प्राप्त दो उज्जवल, श्वेत, महीन और बहुमूल्य दिव्य वस्त्र धारण किए रहते हैं। भगवान द्वारा प्रदत्त वीणा सदैव उनके पास रहती है। इनकी वीणा ‘भगवज्जपमहती’ के नाम से विख्यात है, उससे अनाहत नाद के रूप में ‘नारायण’ की ध्वनि निकलती रहती है। अपनी वीणा पर तान छेड़कर भगवान की लीलाओं का गान करते हुए ये सारे संसार में विचरते रहते हैं। कब किसका क्या कर्तव्य है, इसका उन्हें पूर्ण ज्ञान है। ये ब्राह्ममुहुर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और सभी जीवों के कर्मों के साक्षी हैं। वे आज भी अजर-अमर हैं।

विभिन्न धर्म ग्रंथो मे उल्लेख 

नारद मुनि को देवर्षि कहा गया है। विभिन्न धर्मग्रन्थों में इनका उल्लेख आता है। कुछ उल्लेख निम्न हैं:

अथवॅवेद के अनुसार नारद नाम के एक ऋषि हुए हैं।

तरेय ब्राह्मण के कथन के अनुसार हरिशचंद्र के पुरोहित सोमक, साहदेव्य के शिक्षक तथा आग्वष्टय एवं युधाश्रौष्ठि को अभिशप्त करने वाले भी नारद थे।

मैत्रायणी संहिता में नारद नाम के एक आचार्य हुए हैं।

सामविधान ब्राह्मण में बृहस्पति के शिष्य के रूप में नारद का वर्णन मिलता है।

छान्दोग्यपनिषद् में नारद का नाम सनत्कुमारों के साथ लिखा गया है।

महाभारत में मोक्ष धर्म के नारायणी आख्यान में नारद की उत्तरदेशीय यात्रा का विवरण मिलता है। इसके अनुसार उन्होंने नर-नारायण ऋषियों की तपश्चर्या देखकर उनसे प्रश्न किया और बाद में उन्होंने नारद को पांचरात्र धर्म का श्रवण कराया।

नारद पंचरात्र के नाम से एक प्रसिद्ध वैष्णव ग्रन्थ भी है जिसमें दस महाविद्याओं की कथा विस्तार से कही गई है। इस कथा के अनुसार हरी का भजन ही मुक्ति का परम कारण माना गया है।

नारद पुराण के नाम से एक ग्रन्थ मिलता है। इस ग्रन्थ के पूर्वखंड में 125 अघ्याय और उत्तरखण्ड में 182 अघ्याय हैं।

कुछ स्मृतिकारों ने नारद का नाम सर्वप्रथम स्मृतिकार के रूप में माना है।

नारद स्मृति में व्यवहार मातृका यानी अदालती कार्रवाई और सभा अर्थात न्यायालय सर्वोपरि माना गया है। इसके अलावा इस स्मृति में ऋणाधान ऋण वापस प्राप्त करना, उपनिधि यानी जमानत, संभुय, समुत्थान यानी सहकारिता, दत्ताप्रदानिक यानी करार करके भी उसे नहीं मानने, अभ्युपेत्य-असुश्रुषा यानी सेवा अनुबंध को तोड़ना है। वेतनस्य अनपाकर्म यानी काम करवाके भी वेतन का भुगतान नहीं करना शामिल है। नारद स्मृति में अस्वामी विक्रय यानी बिना स्वामित्व के किसी चीज का विक्रय कर देने को दंडनीय अपराध माना है। विक्रिया संप्रदान यानी बेच कर सामान न देना भी अपराध की कोटि में है। इसके अतिरिक्त क्रितानुशय यानी खरीदकर भी सामान न लेना, समस्यानपाकर्म यानी निगम श्रेणी आदि के नियमों का भंग करना, सीमाबंद यानी सीमा का विवाद और स्त्रीपुंश योग यानी वैवाहिक संबंध के बारे में भी नियम-कायदों की चर्चा मिलती है। नारद स्मृति में दायभाग यानी पैतृक संपत्ति के उत्तराधिकार और विभाजन की चर्चा भी मिलती है। इसमें साहस यानी बल प्रयोग द्वारा अपराधी को दंडित करने का विधान भी है। नारद स्मृति वाक्पारूष्य यानी मानहानि करने, गाली देने और दण्ड पारूष्य यानी चोट और क्षति पहुँचाने का वर्णन भी करती है। नारद स्मृति के प्रकीर्णक में विविध अपराधों और परिशिष्ट में चौर्य एवं दिव्य परिणाम का निरू पण किया गया है। नारद स्मृति की इन व्यवस्थाओं पर मनु स्मृति का पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है।

श्रीमद्भागवत और वायुपुराण के अनुसार देवर्षि नारद का नाम दिव्य ऋषि के रू प में भी वर्णित है। ये ब्रह्मधा के मानस पुत्र थे। नारद का जन्म ब्रह्मधा की जंघा से हुआ था। इन्हें वेदों के संदेशवाहक के रू प में और देवताओं के संवाद वाहक के रू प में भी चित्रित किया गया है। नारद देवताओं और मनुष्यों में कलह के बीज बोने से कलिप्रिय अथवा कलहप्रिय कहलाते हैं। मान्यता के अनुसार वीणा का आविष्कार भी नारद ने ही किया था।

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार मेरू के चारों ओर स्थित बीस पर्वतों में से एक का नाम नारद है।

मत्स्य पुराण के अनुसार वास्तुकला विशारद अठारह आचार्यो में से एक का नाम भी नारद है। चार शक्ति देवियों में से एक शक्ति देवी का नाम नारदा है।

रघुवंश के अनुसार लोहे के बाण को नाराच कहते हैं। जल के हाथी को भी नाराच कहा जाता है। स्वर्णकार की तराजू अथवा कसौटी का नाम नाराचिका अथवा नाराची है।

मनुस्मृति के अनुसार एक प्राचीन ऋषि का नाम नारायण है जो नर के साथी थे। नारायण ने ही अपनी जंघा से उर्वशी को उत्पन्न किया था। विष्णु के एक विशेषण के रू प में भी नारायण शब्द का प्रयोग किया जाता है।

यह कथा ग्रंथो और पुराणोक्त है सृष्टि की हर कला वैभव वास्तु को प्रभु विश्वकर्मा जी ने ही सृजन किया है इसीलिये यह कथा को भक्ति पाठ की श्रेष्ठ कथा कह सकते हैं।

संकलनकर्ता
मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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