वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचायों

वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचायों

शास्त्रबुध्द्रा विभागजः परशास्त्रकुतूहलः ।
शिल्पीभ्यः स्थपतिभ्यश्च आददित मति सदा ।।

वास्तु विज्ञान जीवन आधारित विषय है। वास्तु को जीवन के महत्वपूर्ण लक्ष्य के रूप में माना गया है। इसीलिए विश्वकर्मा, मय, मान, प्रह्यादि ने वास्तु शास्त्र के मह्त्वपूर्ण सिध्दांतों को दिया है। विश्वकर्मा आदि देव शिल्पीओ भी निर्देश करते हैं कि गृह वास्तु सदा सुखी और पुण्य फल की प्राप्ति है। विधि अनुसार गृह निर्माण के कर्ता को देवालय आदि निर्माण में पुण्य फल प्राप्त होता है। वाल्मीकि द्वारा संकेत किया है कि उस समय लक्षणमय स्थापत्य मे विश्वकर्मा का अधिक महत्व होता था। उसके साथ साथ प्रतिमादि और मय कला का महत्व भी उपमेयवत था। 

मत्स्य पुराण और अन्य शिल्प ग्रंथो मे वास्तु शास्त्र के अठारह आचार्यो के नाम दिए गए हैं। वास्तुशास्त्र पर उच्च कोटि के शिल्प ग्रंथो की रचना उन्होंने की है ऐसा कहा गया है। अन्य शास्त्रों पर भी उन्होंने ग्रंथो की रचना की है। प्राचीन काल में ऋषि मुनिओने अरण्य के शांत वातावरण में रहकर विद्या के जिज्ञासुओ को अपने आश्रम में रखकर उन्हें विद्या दान की है। 

भृगुरत्रिवॅशिष्ठश्व विश्वकर्मा मयस्तथा। 
नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः ।।
 ब्रह्मा कुमारो नंदीशः शौनको गगॅ एवं च ।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्र्च तथा शुक्र बृहस्पतिः ।।
अष्टादशैते विख्याताः शिल्पशास्त्रोपदेशकाः ।

हर एक शिल्प में वास्तु शास्त्र का महत्व दुनिया में महत्वपूर्ण माना जाता है इन्हें वास्तु तत्व भी कहा जाता है। इसमें सिद्धांत और व्यवहार दोनों समाविष्ट होते हैं शिल्पीओने स्थपतिओ की स्थिति और देशाचार और व्यावहार को महत्व देते हुए वास्तु का निवेदन किया है। इसके साथ सिद्धांत और व्यवहार भी शामिल है। यह सिद्धांतों मे विश्वकर्मा और मय और आदि अठारह आचार्यो और कभी कभी उनसे भी अधिक आचार्यों के मतो पर दृष्टीगत होता है।
वास्तुशास्त्र के अठारह आचार्यो के नाम इस तरह हे।
(1) भृगु (2) अत्री (3) वशिष्ट (4) विश्वकर्मा (5) मय (6) नारद (7) नग्नजित (8) विशालाक्ष (9) पुरन्दर (10) ब्रह्मा (11) गर्ग (12) नंदीश (13) शौनक (14) कुमार (15) अनिरुध्द (16) बृहस्पति (17) शुक्र (18) वासुदेव

यह शिल्प शास्त्रों के विख्यात प्रवर्तक आचार्यो हे। बृहद संहितादि ग्रंथो मे इसके अलावा दूसरे सात आचार्यों के नाम प्राप्त होते हैं मनु, पराशर, कश्यप, भारद्वाज, प्रहलाद, अगत्स्य, मार्तण्ड के नाम दिए गए हैं।
उपर दर्शाये गए अठारह ऋषि मुनि वास्तु शास्त्र के उपदेशक और आचार्य थे। उनके लिखे गए ग्रंथ प्राप्त होने मुश्किल है। लेकिन उन ग्रंथो के कई अध्याय प्राप्त हुए हैं। अन्य शिल्प ग्रंथो मे ईन आचार्यो के मत का अवतरण दिया गया है। यह अठारह प्रसिद्ध स्मृतिकार आचार्यो के रचे हुए संहिता ग्रंथो मे शिल्प के उल्लेख है। नारदजी, शांडिल्य, शौनक ।और विश्वकर्मा यह तंत्र ग्रंथो और शिल्प ग्रंथो के लेखक थे। किन्तु आज की स्थिति में यह ग्रंथो को पाना मुश्किल है या उपलब्ध नहीं है। परंतु मध्य युग के शिल्प ग्रंथकारो ने यह प्रसिद्ध ऋषि मुनियों के मत दर्शक दिए गए हैं।

बृहद संहिता में शिल्पाचायॅ वराहमिहिर ने गर्ग के मत को प्रमाण के तौर पर दर्शाया है। उसके अलावा मय, नग्नजित और वसिष्ट के नामों को दर्शाया है। पुराणो मे दर्शाये गए स्थापत्य वर्णनो मे तीन मुख्य शिल्प विशारद के नाम मिलते हैं, विश्वकर्मा, मय, पुरोचन। जिनकी आलौकिक शक्ति के वर्णन और देवासुर युद्ध मे उनके द्वारा रचित रथो और अस्त्र शस्त्र के नाम दिए गए हैं। मनुष्यालय चंद्रिका ग्रंथ में विश्वकर्मा और कुमार के नाम दर्शाये गए हैं। नारद, गर्ग, पराशर, वसिष्ठ और अत्रि ईन पांचो के संहिता वर्तमान काल में उपलब्ध है। उसमे ज्योतिष के साथ शिल्प की भी जानकारी दी गई है, उपरोक्त वास्तु शास्त्र के ग्रंथ कर्ता और ऋषि मुनियों के यथाशक्य परिचय नीचे दिए गए हैं।

(1) विश्वकर्मा - रामायण, महाभारत और पुराणों में विश्वकर्मा जी का नाम देव शिल्पी के नाम से उल्लेखनीय है। सबसे पहले वास्तुशास्त्र के साहित्य मे प्रसिद्ध भगवान विश्वकर्मा हे । स्कंध पुराण के प्रभास खण्ड मे उल्लेख किया है कि अष्टम वसु प्रभास के पुत्र विश्वकर्मा हुए। वो भृगु ऋषि के बहन के पुत्र थे। उनके मामा द्वारा शिक्षा ग्रहण किया था। प्रभास क्षेत्र में प्रभास और उनके पुत्र विश्वकर्मा हुए। इसी तरह विश्वकर्मा वंश आगे बढ़ा।

विश्वकर्मा प्रकाश ग्रंथ के प्रारंभ में कहा गया है कि महादेव शिव ने वास्तुशास्त्र पराशर ऋषि को सिखाया है। उन्होंने ब्रह्मद्रथ और विश्वकर्मा जी को और विश्वकर्मा जी ने जगत कल्याण के लिए अनेक प्रवर्तक को शिक्षा प्रदान किया था।  विश्वकर्मा - विश्वकताॅ - प्रजापति -ब्रह्मा - शिल्प यह तीनों भिन्न हैं। बहुत सारे विद्वान निसंदेह मानते हैं कि गुप्त काल के पहले वास्तुशास्त्र को रचने वाले एक श्रेष्ठ विद्वान विश्वकर्मा हुए थे। इसीलिए आर्य शास्त्र में उनके विषय में अनेक जानकारियां मिलती है। आर्य शिल्पि विश्वकर्मा जी का पूजन करते हैं। हेमाद्री ने उनका मूर्ति स्वरुप बताया है। स्कंद पुराण में उल्लेखनीय हे कि विश्वकर्मा प्रभास के पुत्र महान शिल्पी स्थपति और प्रजापति हे।

अग्नि पुराण में विश्वकर्मा जी को अनेक मनुष्यों को अपनी आजीविका देने वाले हज़ारों शिल्प कला के सर्जक के रूप में दर्शाया गया है। गरुड़ पुराण में भी उनका उल्लेख मिलता है, उन्होंने विस्मयकारी कलांयुक्त राज प्रासादो का निर्माण किया है। देवो को युद्ध के लिए अस्त्र सस्त्र और रथों और विमान बनाए थे। देवो के यह सूत्रधार ने लोक कल्याण के लिए ही वास्तुशास्त्र की रचना की थी। कई ग्रंथो मे विश्वकर्मा जी को ब्रह्मा का अवतार रूप बताया है। उनका उदगम ब्रम्हा के मुख से हुआ है यह मानसार ग्रंथ में उल्लेख विधान है। सुवर्ण की लंका, द्वारिकापुरी, और अनेक महानगर की रचना इन्होंने की है। सूर्य, कुबेर, अगत्स्य, इन्द्र के भवन भी इन्होंने बनाए थे। ब्रह्मा जी के लिए पुष्पक रथ विश्वकर्मा जी ने निर्माण किया था। हिमालय की बिनती से सभागृह की विस्मयकारी रचना इन्होंने की थी। सभागृह मे पशु पक्षियों के चित्रों द्वारा अलंकृत किया था। उपरांत भारत नाट्य शास्त्र के अनुसार नाट्य गृह भी उनकी रचना हे। वास्तु शास्त्र के ग्रंथो की रचना विश्वकर्मा जी ने की थी। जैन ग्रंथो मे पांडवों के राजमहल में सभागृह की रचना अर्जुन के मित्र मणिचूड विध्याधर ने की थी। ऐसा उल्लेख है कि विद्या के बल द्वारा इन्द्र की सभा जैसी नई सभा की रचना की थी। उसमे मणिमय स्तम्भो को खड़ा किया था। देवो को प्रिय अप्सरा जैसी रत्नमय पुतलीयां बनाई थी ऐसे अनेक आलौकिक निर्माण के साथ युधिष्ठिर को स्वर्ण सिंहासन पर बिठाकर मणिचूड विध्याधर ने अपनी मित्रता सफल बनाई थी। इसका मतलब है कि जैन ग्रंथो मे विश्वकर्मा जी को मणिचूड विध्याधर के नाम से पहचाना गया है।

जैन ग्रंथो के अनुसार चक्रवर्ती राजा के पास चौदह रत्नों होते थे। शिल्पी, ज्योतिष, रत्न, खड़क, स्त्री आदि रत्नों होते हैं। यह चक्रवर्ती राजा जब इच्छा होती है तब वर्धकीरत्न की त्वरित रचना के लिए शिल्पियों को आदेश करते थे। यह वर्धकीरत्न विश्वकर्मा रूप थे।

छटवे मनु चक्षुष के वंश मे विश्वकर्मा जी का अवतरण हुआ था ऐसा विधान है। तो भी विश्वकर्मा कौन से युग में हुए ये भी बड़ा प्रश्न है। परंतु अनेक ग्रंथो के प्रमाण से साबित होता है कि विश्वकर्मा सभी युगों मे मौजूद थे। अगर उनके अंश स्वरुप अन्य विश्वकर्मा नाम से जाने जाते थे। हाल में द्रविड़ मे सोमपूरा और आचारी जैसे ब्राह्मण जाती के शिल्पियों को विश्वकर्मा से पहचाना जाता है। उसी तरह उड़िसा मे महापात्र शिल्पी अपने को विश्वकर्मा मानते हैं। इसीलिए उनके द्वारा रचित उत्तम वास्तुशास्त्र के ग्रंथो को विश्वकर्मा के ही माने जाते हैं।

विश्वकर्मा जी के मानस पुत्र चार हे जो जय, मय , सिद्धार्थ, अपराजित थे। किसी किसी ग्रंथो मे सिद्धार्थ के नाम की जगह त्वष्टा नाम आता है। सिद्धार्थ ने लोह कर्म, धातु कर्म, यंत्र कर्म मे कुशलता प्राप्त की थी। बाकी के तीन पुत्रों ने विश्वकर्मा जी से ज्ञान विद्या प्राप्त किया था। इसीलिए सभी शिल्प ग्रंथो के गुरु विश्वकर्मा और शिल्प के बीच का संवाद के रूप से मिलते हैं। सोमपुरा, द्रविड़ी, उडीया के शिल्पीओ के वृतांत से जानने मिलता है कि विश्वकर्मा शब्द शिल्पी का विशेषण ही था। जिनका अर्थ आज के तकनीकी इंजीनियर होता है।
(2) मय - मय विश्वकर्मा जी के चार पुत्रों मे से एक थे। विश्वकर्मा जी देवताओ के शिल्पी थे और मय दानवों के स्थपति थे। महाभारत मे उल्लेखनीय है कि युधिष्ठिर राजा के खांडव वन मे भव्य महल और सभागृह बनाने वाले मय थे। दानवों की नगरी की रचना भी इन्होंने ही की थी, मानसार ग्रंथ में बताया है कि ब्रह्मा के चार मुखों द्वारा शिल्पियों की उत्पत्ति हुयी। उसमे से दक्षिण मुख से मय उत्पन्न हुए। बृहद संहिता के प्रासाद विषय में वज्रलेय की बातों में मय के प्रमाण देकर दर्शाया गया है। मय के वास्तुशास्त्र के ग्रंथो की रचना छहठी सदी के पहले के रचे हुए हैं। उनका मयमतम् ग्रंथ है। मय के द्रविड़ शिल्प के ग्रंथो मे उल्लेख है कि अन्य देवो और ऋषि मुनियों के आगे उच्चारित वाणी को मय ने ही एकत्रित किया था।

मय द्वारा रचित ग्रंथो के नाम दर्शाये है।
(1) मयमतम् (2) वास्तुशास्त्र (3) मयवास्तु (4) मय वास्तुशास्त्र (5) मय शिल्पशास्त्र

हज़ारों वर्षो पहले मय शिल्पी और उनका शिल्पी समुदाय समुन्दर पार पाताल भूमि मेक्सिको में जाकर बसे थे। हाल में वो सभी अन्य प्रजा से भिन्न माया जाती से पहचाने जाते हैं। उनके धर्म, रिवाजों, और धर्म मंदिर पृथक हे। अमेरिकन की ईजनेरी कला मे मेक्सिकन के लोग ही कुशल माने जाते हैं। वो सभी मय के वंशज होते हैं। क्यूंकि मुख्य पुरुष के नाम से ही जाती होती है।

(3) नग्नजित - नग्नजित द्रविड़ शिल्प के आचार्य थे। वराहमिहिर ग्रंथ नग्नजित के वाक्यों को प्रमाण रूप दर्शाते हैं। और नग्नजित नाम के अन्य एक राजा हो चुके हैं जो शिल्प स्थापत्य के प्रेमी थे। उन्होंने चित्रलक्षण नाम का ग्रंथ लिखा था। पृथ्वी पर प्रथम चित्र की उत्पत्ति के साथ नग्नजित का नाम जुड़ा हुआ है। यह नग्नजित का चित्रलक्षण ग्रंथ भारत में अप्राप्य है। लेकिन तिब्बती भाषा में यह ग्रंथ का भाषांतर हुआ है उस पर से जर्मन भाषा में भाषांतर हुआ था। उस ग्रंथ के प्रारब्ध के दो अध्याय में नग्नजित के चित्रविद्या की कथा बताई गई है। उस चित्र कथाओं में दर्शाया गया है कि ब्रह्मा ने नग्नजित को कहा कि आप देव शिल्पी विश्वकर्मा जी के पास जाओ वो आपको चित्र विद्या कला का शिक्षण देंगे।
शिल्पी नग्नजित ऋग्वेद कालीन द्रविड़ वास्तु विद्या के आचार्य थे। शतपथ ब्राम्हण ग्रंथ में राजन्य नग्नजित के वास्तु सिद्धांतों का खंडन किया है। वो नारदजी के शिष्य थे ऐसा बताया गया है।

(4) वशिष्ठ - ब्रह्मा के प्राण मे से महान ऋषि वसिष्ठ का जन्म हुआ था। उनके पत्नी सती अरुंधति थी। सप्तर्षि उनके पुत्र हे। उनका ऋषि परिवार ज्ञानसागर रहा है। वसिष्ठ तंत्र के वास्तुशास्त्र के प्रणेता वो थे। अग्नि पुराण में यह उल्लेख दर्शाया गया है। वराह मिहिर मे बृहद संहिता में वसिष्ठ ऋषि के प्रमाणो को प्रतिमालक्षण दर्शाया गया है। उनके द्वारा रचित वसिष्ठ संहिता में ज्योतिष और शिल्प मुख्य विषय है।

ऋषि अत्रि ने ज्योतिष में चिकित्सा ज्योतिष पर कार्य किया, इनके द्वारा लिखे गये. सिद्धांत आज चिकित्सा ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. इसके साथ ही अत्री संहिता की रचना हुई, महर्षि अत्रि को मंत्र की रचना करने वाले और उसके भेद को जानने वाला भी कहा गया है. अपनी त्रिकाल दृष्टा शक्ति से इन्हेंने धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की और साथ ही इनकी कथाओं द्वारा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को बौद्धिक, मानसिक ज्ञान, कठोर तप, उचित धर्म आचरण युक्त व्यवहार, प्रभु भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के जानकार के रुप में सदैव पूजा जाता रहा है। 

(5) अत्रि - स्मृति ग्रंथकार अत्रि मुनि वास्तुशास्त्र के आचार्य माने जाते हैं। सप्त ऋषिओ मे उनका स्थान है। वो ब्रह्मा के चक्षु से उत्पन्न हुए थे। मत्स्य पुराण में दर्शाया गया है कि अत्रि मुनि वास्तु शास्त्र के गुरु हे। अग्नि पुराण में उनको आत्रेयतंत्र के वास्तु ग्रंथ के कर्ता बताया गया है।
हिंदू धर्म के प्रमुख ऋषियों में से एक ऋषि अत्री एक महान कवि और विद्वान थे. अत्री मुनि नौ प्रजापतियों में से एक तथा ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे. अत्री एक गोत्र भी है जिस कारण इस गोत्र में जन्में व्यक्ति अत्री ऋषि के वंशज माने गए हैं। 
ऋषि अत्रि ने ज्योतिष में चिकित्सा ज्योतिष पर कार्य किया, इनके द्वारा लिखे गये. सिद्धांत आज चिकित्सा ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. इसके साथ ही अत्री संहिता की रचना हुई, महर्षि अत्रि को मंत्र की रचना करने वाले और उसके भेद को जानने वाला भी कहा गया है. अपनी त्रिकाल दृष्टा शक्ति से इन्हेंने धार्मिक ग्रंथों की रचना भी की और साथ ही इनकी कथाओं द्वारा चरित्र का सुन्दर वर्णन किया गया है. महर्षि अत्रि को बौद्धिक, मानसिक ज्ञान, कठोर तप, उचित धर्म आचरण युक्त व्यवहार, प्रभु भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के जानकार के रुप में सदैव पूजा जाता रहा है। 

(6) नारदजी - नारदजी को शूद्र माता और ब्राह्मण पिता के पुत्र देवर्षि नारद कहा जाता है। मानसार ग्रंथ में उल्लेख है कि वास्तुशास्त्र के प्रणेता महर्षि नारद थे। अग्नि पुराण में उल्लेख किया है कि उनके द्वारा रचित नारदीयतंत्र नाम का ग्रंथ उनका हे साथ ही नारदीय शिल्प शास्त्र ग्रंथ भी है।

वेदों के सभी प्रमुख छ: अंगों का वर्णन नारद पुराण में किया गया है.  नारद पुराण में घर के वास्तु संबन्धी नियम दिए गये है. दिशाओं में वर्ग और वर्गेश का विस्तृ्त उल्लेख किया गया है. घर के धन ऋण, आय नक्षत्र, और वार और अंश साधन का ज्ञान दिया गया है।नारद जी के द्वारा लिखे गये पुराण में ज्योतिष की गणित गणनाएं, सिद्धान्त भाव, होरा स्कंध, ग्रह, नक्षत्र फल, ग्रह गति आदि का उल्लेख है।

(7) गर्ग - यह ब्रह्मा जी के पुत्र थे। उनके गागॅतंत्र ग्रंथ की रचना का अग्नि पुराण में उल्लेख किया गया है। वराह मिहिर के प्रासादलक्षण नाम के ग्रंथ में गर्ग ऋषि के प्रमाण को दिया गया है।

ज्योतिष शास्त्र के 6 भागों पर गर्ग संहिता नाम से ऋषि गर्ग ने एक संहिता शास्त्र की रचना की.  संहिता ज्योतिष पर लिखे गये प्राचीन शास्त्रों में नारद संहिता, गर्ग संहिता, भृ्गु संहिता, अरून संहिता, रावण संहिता, वाराही संहिता आदि प्रमुख संहिता शास्त्र है. गर्ग ऋषि को यादवों का कुल पुरोहित भी माना जाता है. इन्हीं की पुत्री देवी गार्गी के नाम से प्रसिद्ध हुई है।

गर्ग संहिता में ज्योतिष शरीर के अंगों की संरचना के आधार पर ज्योतिष फल विवेचन किया गया है।

(8) कुमार - वास्तु शास्त्र के प्रणेता आचार्य कुमार का नाम सभी जानते हैं। वास्तुशास्त्र के इस आचार्य कुमार द्वारा कुमारगम नाम का ग्रंथ के कर्ता थे। उनका मनुष्यालय चंद्रिका नाम के ग्रंथ में उल्लेख किया गया है। शिल्प रत्नम् नाम के ग्रंथ के रचयिता सोलहवीं सदी में श्री कुमार नाम के अन्य रचनाकार हो गए हैं।

(9) शौनक - अग्नि पुराण में दर्शाया गया है कि वास्तुशास्त्र के यह आचार्य उपदेशक ने शौनकतंत्र नाम के शिल्प ग्रंथ के रचयिता थे। शौनक एक संस्कृत वैयाकरण तथा ऋग्वेद प्रतिशाख्य, बृहद्देवता, चरणव्यूह तथा ऋग्वेद की छः अनुक्रमणिकाओं के रचयिता ऋषि हैं। वे कात्यायन और अश्वलायन के के गुरु माने जाते हैं। उन्होने ऋग्वेद की बश्कला और शाकला शाखाओं का एकीकरण किया। विष्णुपुराण के अनुसार शौनक गृतसमद के पुत्र थे।

(10) विशालाक्ष - वे राजनीति शास्त्र के प्रसिद्ध मुनि थे। कौटिल्य नीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र में विशालाक्ष को प्रमाण के रूप में माना जाता है। सोमदेव नाम के एक जैन लेखक ने अपने यशः स्तिलक चंपु नाम के ग्रंथ में उनको नीति शास्त्र के प्रणेता कहा है। मत्स्य पुराण में वास्तु विद्या के आचार्य दर्शाते हैं।

(11) शुक्र - दैत्यों के प्रसिद्ध गुरु शुक्र वास्तुशास्त्र के आचार्य थे। वास्तु की और अनेक कलाओं की विद्या मे वो पारंगत थे। नीति वाक्यामृत और यशः स्तिलकचंपु नाम के ग्रंथो को रचनेवाले सोमदेव शुक्र के नीति शास्त्र के ग्रंथ को प्रसिद्ध प्रमाणित मानते हैं। उनके शुक्र नीति ग्रंथ मे वैज्ञानिक विषयों उपरांत राजनीति, व्यवहार, आयुर्वेद, शिल्प की प्रत्येक शाखा पर सविस्तार हकीकत दर्शाई गई है।

(12) बृहस्पति - सभी विधाओ मे निष्णांत देवो के यह गुरु वास्तुशास्त्र के आचार्य और उपदेशक थे। ऐसा मानसार ग्रंथ में उल्लेख किया गया है। इन्हें शील और धर्म का अवतार माना जाता है और ये देवताओं के लिये प्रार्थना और बलि या हवि के प्रमुख प्रदाता हैं। इस प्रकार ये मनुष्यों और देवताओं के बीच मध्यस्थता करते हैं। इन्होंने ही बार्हस्पत्य सूत्र की रचना की थी।
ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति को अंगिरस ऋषि का पुत्र माना जाता है और शिव पुराण के अनुसार इन्हें सुरुप का पुत्र माना जाता है। इनके दो भ्राता हैं: उतथ्य एवं सम्वर्तन। इनकी तीन पत्नियां हैं। प्रथम पत्नी शुभा ने सात पुत्रियों भानुमति, राका, अर्चिश्मति, महामति, महिष्मति, सिनिवली एवं हविष्मति को जन्म दिया था। दूसरी पत्नी तारा से इनके सात पुत्र एवं एक पुत्री हैं तथा तृतीय पत्नी ममता से दो पुत्र हुए कच और भरद्वाज। बृहस्पति ने धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर ग्रंथ लिखे। आजकल ८० श्लोक प्रमाण उनकी एक स्मृति (बृहस्पति स्मृति) उपलब्ध है।
भगवान विश्वकर्मा जी के मामा हे।

(13) प्रहलाद - अग्निपुराण मे उल्लेख किया है कि वास्तुशास्त्र के आचार्य और उपदेशक थे । और प्रहलादतंत्र नाम का ग्रंथ उन्होंने रचना की है। चित्रलक्षण मे और उड़िया के शिल्पी वृतांत से जानने मिलता है विश्वकर्मा शब्द एक विशेषण है। जिनका अर्थ आज के इंजीनियर होता है। विश्वकर्मा जी के साथ प्रहलाद का नाम भी मिलता है। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रहलाद इनसे भिन्न थे इनका उल्लेख यहा मिलता नहीं है। अग्नि पुराण की आख्यायिका मे वर्णित पच्चीस तंत्र ग्रंथो मे तंत्र के साथ ज्योतिष और शिल्प भी दर्शाया गया है।

(14) पुरन्दर - स्मृति ग्रंथ अनुसार पुरन्दर ऋषि ने वास्तुशास्त्र के प्रातः स्मरणीय आचार्यो मे से एक है। उन्होंने मकान के बांधकाम के विषयक अनुसार श्रेष्ठ माहिती प्रदान की है। उन्होंने वास्तु के लिए अमूल्य और श्रेष्ठ विचारो को कहा है।

वैवस्वत मन्वन्तर में इंद्र का नाम भी पुरन्दर है। (मन्वन्तर के अंतर्गत देखें)। मत्स्य पुराण में पुरंदर को अठारह वास्तुशास्त्रकारों (गृह निर्माण में निपुण) में से एक माना गया है। अन्य सत्रह हैं: भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, माया, नारद, नागजित, विशालाक्ष, ब्रह्मा, कुमार, नंद, शौनक, गर्ग, वासुदेव, शुक्र, बृहस्पति और अनिरुद्ध। (मत्स्य पुराण, अध्याय 252, श्लोक 2 और 3)। मत्स्यपुराण के अनुसार पुरन्दर या शकर वास्तुशास्त्र (वास्तुकला का विज्ञान) के एक प्राचीन आचार्य का नाम है।

(15) ब्रह्मा - पुराण साहित्य अनुसार ब्रम्हा के मुख ही स्वयम वेद हे। उसने उत्तर मुख याने अथर्ववेद उसमे स्वयम ब्रह्मा ने अथर्ववेद 3/12, 6/13 और ऋग्वेद मे 7/54, 38/10 आदि सूक्तियां मे गृहारंभ से लेकर गृह प्रवेश की विस्तृत सम्पूर्ण जानकारियां दी गई है। ब्रह्मा के द्वारा रचित साहित्य से वास्तु का बीज प्राप्त होता है।

(16) अनिरुध्द - अनिरुद्ध वास्तुशास्त्र के आचार्य थे। उन्होंने वास्तुशास्त्र को गहराई पूर्वक चर्चा की गई है। उनके द्वारा मंदिर निर्माण और प्रतिमा लक्षण देखे जा सकते हैं।

(17) वासुदेव - पुराणो मे वासुदेव उल्लेख देखने मिलता है। वास्तुशास्त्र के आचार्य मे उनका गणना होती है। उन्होंने वास्तु विषयक बहुत सारे गहन विषय पर चर्चा और चिंतन विचार किए गए हैं। वासुदेव अश्व शाला, गौ शाला, और गृह निर्माण संबंधित आदि के ज्ञाता हैं।

(18) नंदीश - नंदीश प्राचीन वास्तुशास्त्र के प्रखर ज्ञाता और आचार्य थे। उन्होंने वास्तुशास्त्र में भूमि चयन से लेकर बांधकाम तक के निर्देश विस्तृत आलेखन किए हैं। पर्वतो मे गुफाएँ बनी वो सामान्य तरीके से बनी थी। बाद में अलंकृत गुफाओं बनाने का श्रेय नंदीश को जाता है। इस तरह स्थापत्य और कला विज्ञान मे उनका बहुत ही विस्तृत मार्गदर्शन रहा है। उनका स्थान मह्त्वपूर्ण विद्वानों मे होता है।
प्राचीन और वेद कालीन ऋषि मुनिओ ने अनेक सारे वास्तु विषय और शिल्प स्थापत्य पर साहित्य लिखे हे। वो सभी तत्ववेत्ता थे। उन्होंने अनेक विधाएँ कलाएं और साहित्य की रचना की है। किसी भी देश का प्राचीन स्थापत्य और शिल्प वो देश का मूल्यांकन होता है। विद्या और देश का अनमोल धन हे। उसमे शिल्प स्थापत्य मानव जीवन में अति उपयोगी और मर्म पूर्ण अंग है। जिसके अंतर्गत वास्तु विद्या के अठारह आचार्यो ने विविध ग्रंथो की रचना की है। उसमे से मुख्य विश्वकर्मा रचित कृतियों का उल्लेख हे।
क्षीराणॅव, विश्वकर्मा प्रकाश, वास्तुविद्यायाम, वृक्षाणॅव, जय ग्रंथ, शिल्पस्मृति वास्तुविद्यायाम, दिपाणॅव जैसे अनमोल ग्रंथ शामिल हैं।

इसी तरह भारतीय शिल्पीओ द्वारा पुराण प्रसंग और वास्तुशास्त्र ग्रंथो के आधार पर पाषाण पर सजीवन तराशा है। उनके टांचने की सृजन शक्ति परम प्रशंसा के पात्र हैं। ज़ड पाषाण को तराशने वाले कुशल शिल्पीओ भी कवि ही है।

भारतीय शिल्पियों द्वारा स्वर्ग और बैकुंठ को पृथ्वी पर उतारा है। और जीवन को समृद्ध कर प्रेरणा दी है। भारतीय स्थापत्य का विकास धार्मिक भाव श्रद्धा से बने हुए मंदिरों, देवालय, और जलाशयों के आभारी हैं। किले, नगर, राज भवन, महल, आदि स्थापत्य रचना राजाओ, धनाढ्यो की उदार नीति के कारण विकास सम्भव हुआ है। भारतीय वास्तु विज्ञान की परंपरा बहुत ही समृद्ध हे।

उपर विस्तृत लेख में हमने देखा कि वास्तुशास्त्र के अठारह आचार्यो के नाम और उनके गुण और उल्लेखनीय ग्रंथो के प्रमाण के साथ यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है, श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति और विश्वकर्मा साहित्य भारत द्वारा प्रमाण सहित लिखा गया है।

लेखक - संकलनकर्ता - 
मयुरकुमार मिस्त्री 
संस्थापक प्रचारक 
श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति 
विश्वकर्मा साहित्य भारत 

सन्दर्भ सूची - 
ऋग्वेद संहिता
वास्तु प्रकाश
अग्नि पुराण
गरुड़ पुराण
दीपाणॅव
क्षीणाॅरव
विश्वकर्मा पुराण
वास्तु शांति प्रदीप

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