मेरे सुविचार मेरी कविता

मेरे सुविचार मेरी कविता 


(1)  
સમયસર રહેશો તોજ સમાજસર થશે

સમાજ જ સર  (SIR) છે તેથી સમયસર રહીએ 
સમય ધારણાઓને ચૂકવી તે અદ્રશ્ય સમજસર છે
જેને આપણે રોજ સમાજથી અનુભવીએ છીએ
પણ ઉપયોગ ઓછો અને વધુ એને વેડફીએ છીએ !
અને પછી પ્રગતિની રેલ ચૂકી જઈએ છીએ 
પછી રોદણાં રડીએ છીએ....! 
પામવું જ હોય તો પ્રભુ વિશ્વકર્મા
તો માટે સમયસર રહીએ. 
ક્ષણનો પણ વિલંબ ન કરીએ 
અને સમાજ સર કરીએ. 
કેમ કે 
સમાજ જ સર (SIR) છે 
સર્વોપર છે !

(2)  
પ્રસરતું જોઈ અજવાળું, કોઈના ચંદ્ર નું,
એને જે ગ્રહણ બનીને ઢાંકવાની કોશિશ કરે છે ને,
એનું નામ સમાજ છે......

(3)
સાચો સામાજિક કાર્યકર્તા મહેનત કરતી વખતે સીડી નો ઉપયોગ કરતો હોય છે. જ્યારે અસામાજિક કાર્યકર્તા લિફ્ટ નો ઉપયોગ કરતો હોય છે.

સીડીથી ચઢવું અઘરું જરૂર છે. પણ સમાજ અને લાભાર્થી ને યોગ્ય ફળ આપે છે. જ્યારે લિફ્ટથી ચઢવું સહેલું જરૂર છે પણ અવરોધ ઉભો થાય ત્યારે સીડી ચઢતો કાર્યકર્તા પહેલો આગળ આવે છે.

जहा पर निराशावादी व्यक्ती, किसी भी कार्य मे दुष्परिणाम ढूंढ लेता है।
वहीं पक्षवादी व्यक्ती हर एक सफल अवसर का श्रेय ढूंढ लेता है।
और आशावादी व्यक्ती हर कठिन कार्य में अभिन्न सफलता प्राप्त करता है।

(4)
सर्वजन के उदय भाग्य इस भव में,
बीराजे हे विश्वकर्मा मेरे हृदय भाव में,

 मूल स्वरूप निराकार इस ब्रम्हांड में,
ऐसे दर्शन को नित्य जीवन पामीये,

ब्रम्हस्वरूप सुजॅन से धरा तृप्त कर,
सृष्टि को अतुल्य सुवासित कर दिया,

यज्ञ, वास्तु, और शिल्प को आशीष मानिये,
कीर्तन, कला, और वैभव की स्मृति बनिए,

समर्पण कर तू जीवन विश्वकर्मा मे,
धन्य ऐकांतिक प्रकट से सुख पामीए,


સર્વજનો ના ઉદય થયા ભાગ્ય આ ભવમાં, 
બેઠાં છે વિશ્વકર્મા દાદા મારા હૃદય ભાવમાં, 

મુળ સ્વરુપ નિરાકાર છે આ બ્રહ્માંડમાં, 
એવાં દર્શન ને નિત્ય જીવનમાં પામીએ, 

બ્રહ્મસ્વરુપ ધરી સજૅન આ ધરતી તૃપ્ત કરી, 
 સૃષ્ટિ ને અક્ષત સુગંધિત કરી દીધી, 

યજ્ઞ, વાસ્તુ , અને શિલ્પ ને આશીર્વાદ માનીએ, 
કીર્તન , કલા , અને વૈભવ  ને સ્મૃતિ જાણીએ ,

સમૅપણ કર તુ જીવન વિશ્વકર્મા પ્રભુ માં, 
ધન્ય એકાંતિક પ્રકટ નું સુખ પામીએ, 

(5)
જે ક્ષણે તમે વિશ્વકર્મા સિવાય કોઈનો ભરોસો નથી રાખતા,
તે જ ક્ષણેથી તમે સર્જક બની જાઓ છો.
તમારી બધી આવડત કુશળતા થઈ જાય છે.

(6)
खिंच रहा हू रेखाएं,
बेरंग काग़ज़ पर,
आड़ी - टेढ़ी सी तो
कुछ बहकी बहकी सी,
इस आशा मे 
की बनेगा एक चित्र,
और कहेगा...!
मेरी मनपसंद बात,

मनपसंद

(7)
मेरी कलम नहीं लड़खड़ाई

भर्र रहा हू स्याही, लेकर पन्ने की पाई सवारी,
जैसे पन्ने से कलम ब्याही, अब नहीं मैं कुँवारी, 

लिखूँ या लिख दू, निकली यात्रा में सामने खड़क स्थाई, 
चुनूं या चुन लू, खड़के सड़कें अलग जैसे अलग पाई, 

सोचूँ या सोच लू, मेरी कलम अब क्यु घबराई, 
बोलू या बोल दू, यात्रा मे कैसी आई कठिनाई, 

जानू या जान लू, ये सोच कलम मंद मुस्कराई, 
कहु या कह दू, नतमस्तक पद्य पाकर ली अंगड़ाई, 

समझूँ या समझ लू, लिख लिख कर कलम शरमाई, 
सहू या सह लू, अब नहीं लिखना रोक मै पाई, 

चाहूँ या चाह लू, खिल उठे पन्ने देख कलम भरमाई, 
पाऊ या पा लू, शब्द मनपसंद बजी जैसे वाह शहनाई, 

रचनाकार - ©️मयुरकुमार मिस्त्री "मनपसंद"
संस्थापक प्रचारक
श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति

(8)
life is like a poem.
you too taste the flavour of life
I'm have become a poem before you.
sing it as much as you can
life is like a poem 
you too taste the flavour of life
if you hear the voice of my heart
you'll feel a strange
twinge of sorrow.
sing a song within this sorrow
take the blessings of a restless heart
life is like a poem
you too taste the flavour of life
your love has a right over me
where am I refusing it?
you may appear to me in any form.
you can test me in that colour.
life is like a poem
you too taste the flavour of life
I'm have become a poem before you
sing it as much as you can.

MAYUR MISTRY
MODASA

(9)
एक रोज़ नजर थम सी गई उस फव्वारे पर,

एक रोज़ नजर थम सी गई उस फव्वारे पर,
जो फैलाए बूंदे रंगीन जमीन पर,

ध्यान रख बूँदों पर नहीं भेद उनके छींटाव पर,
समुह बनाए चलता है बनकर एकता के ध्येय पर,

आज़माकर देख उस समुह को जो बिखरा है ज़मी पर,
जो दिखाता एकजुट हे गिरता है खुद ज़मीर पर, 

हवा में भी बिखरती है बूंद, बहती धार एकरूप पर, 
देख ठान उस फव्वारे से, भीतर भर्रा दबाव पर, 

यंत्र गतिमान करते रखता है जो चलता है लक्ष्य पर, 
सुन उस बूँदों की आवाज होती है एक ताल पर, 

रंग उन बूँदों के थे हज़ारों, लगते मोती धरातल पर, 
बन जाऊँ मोती, या बन जाऊँ यंत्र रहूँगा एक समुह पर, 

तरीके, तारण, तारीफे होते हैं सन्मान पर,
हो निडर मन बूँदों जैसा, कर दिखा समुह ज़मी पर,

एक रोज़ नजर थम सी गई उस फव्वारे पर,
जो फैलाए बूंदे रंगीन जमीन पर,

©️मयूर मिस्त्री (मनपसंद)

(10)
निराकार निरंकुश

खुले निराकार निरंकुश आकाश में हंसता घमंड,

सूअर सी सोच जड़ बुद्धि को बनाता बढ़ा अखंड, 

रोती है विद्वता, सशक्त होती प्रमाणता, 

इस लाचार, छटपटाहट , थोपता, 

निराकार तालमेल से बना समाज,

सनातन के शासन में डाल रहा टांग है, 

साझेदार, श्रेष्टता सी ओट में छिपता ,

दया करू, अस्तित्व जाल में फंसता है, 

असंख्यों की भीड़ में मूर्खता, 

छेड़ा है पर्याय, जैसे सागर की गहराई, 

दिखे सुने तो मापे, चट्टानें...! 

कमान मजबूत सनातन का है श्रृंगार, 

इत्तर सा अवशेष बचा रहेगा , 

जो द्वार दर द्वार निहारेगा, भटकेगा, 

कलियुग के ऋषि, रुकेगा तू कहा ,

सनातन की धार में कटेगा एक रोज़, 

मुर्ख का आईना मुर्ख समान, 

कटाक्ष है मेरा इस अद्रश्य पर्याय से, 

कोई नही मिलेगा, मिले तुझे विश्वकर्मा, 

इनके सिवा न होगा तेरा उम्मीदवार, 

(रचनाकार - मयूर मिस्त्री)

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