प्रचंड मनोबल का परिवर्तन " प्रतिभा "

प्रचंड मनोबल का परिवर्तन " प्रतिभा "

अभी के युग में विशेषता को प्रदर्शित करना है अगर तो अपनी प्रतिभा का को उत्तम बनाना होगा। राजा - महाराजाओ और संबंधीओ ने भी रावण के डर से श्री राम को मदद करने के लिए अस्वीकार किया था। किन्तु भालू और वानरों मे से भी ऐसे मनस्वी निकल पड़े थे जिन्होंने आदर्शों की रक्षा के लिए बड़े से बड़े जोखिम उठाने को तैयार हो गए थे। दुर्बल साथी भी परिष्कृत प्रतिभा के सहारे महान बन जाते हैं।जब कि समर्थ व्यक्ती भी भाग जाते हैं। महाराणा प्रताप की सेना मे अधिकतर आदिवासी समुदाय के लोग ज्यादा थे। महारानी लक्ष्मीबाई ने घर में बंद रहने वालीं महिलाओ को प्रोत्साहित कर युद्ध के मैदान में वीर सैनिकों की भांति खड़ा कर दिया था। साधारण लोगों की प्रतिभा को ऊपर उठाकर साहसिक लोगों ने बड़े से बड़े काम कराए थे। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के अंदर योद्धा के प्राण फूंके थे। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन मे, समर्थ रामदास ने शिवाजी मे, रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद मे, स्वामी विरजानंद ने दयानन्द के अंदर पात्रता देखकर विभूतिवान बनाया था। इसी तरह संतों और मार्गदर्शक लोगों की प्रतिभा जिनके ऊपर अपने आवेश डाल देते हैं तब व्यक्ती साधारण से असाधारण बनकर प्रतिभा बन जाता है।
खुद के व्यक्तित्व के आधार पर हरएक पक्ष उन्नत बनने के लिए निरंतर मौके ढूंढते रहने के प्रयत्नों मे व्यस्त रहता है। इसके लिए आत्म निरीक्षण, आत्म निर्भरता, आत्म समीक्षा, आत्म सुधार, आत्म विकास के लिए अपनी दिनचर्या में ही अपनी प्रगतिशीलता का अभ्यास करना होता है। अपनी योग्यता और क्षमता बढ़ा लेने के बाद यह शक्य बनता है। दूसरों पर इच्छित प्रभाव डाल सकता है। महान व्यक्तीओने जिन पर कृपा बताई हे उनको सर्वप्रथम अपनी श्रेष्टता और प्रबल पुरुषार्थ को अपनाने की प्रेरणा दी है। उसके बाद ही उनकी सहाय लोगों के काम आ सकती है, जब कि गलत पात्र यह अपेक्षा रखे ये व्यर्थ है। परिपूर्ण प्रतिभा जहा जहा बरसती है तब तब समाज समुदाय और राष्ट्र की उन्नति होती है। हॉस्पिटल में पड़े हुए वॉलंटियर ने मह्त्वपूर्ण ग्रंथो की रचना की थी। यूरोप के एक व्यक्ती ने अपनी किशोरावस्था तक बीमारी झेली थी, लेकिन जब उनके अंदर समर्थ के मार्गदर्शन अनुसार स्वास्थ्य का संचालन कर स्वस्थ होकर थोड़े समय में विश्व विजयी पहलवान बन गया था। इस तरह भारत के चंदगीराम भी शरीर से निर्बल थे उन्होंने अपने मनोबल को बढ़ाकर नई रीति नीति अपनाकर खोई हुई तबियत ठीक की थी और आगे चलकर उनको हिंद केसरी की उपाधि से सम्मानित किया गया था। कालिदास के दिमाग की क्षमता विकट थी लेकिन उन्होंने अभ्यास मे नई तरह से ध्यान केंद्रित किया और मूर्धन्य विद्वान की प्रतिभा से जाने गए थे।
व्यक्ती की अंतः चेतना को ही प्रतिभा कहा गया है। अनेक अभावों और रुकावट को कुचलते हुए उन्नति के शिखर पर आरूढ़ होती है यही प्रतिभा हे। प्रतिभा असलियत में वो संपति हे जो व्यक्ती की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता को स्वरुप देकर बहिरंग से प्रकट होती है। जैसे विश्वकर्मा प्रभु ने सूर्य को खराद पर चढ़ाकर उनके तेज का खराद किया था और खराद की गई अग्नि, ज्वाला, अंगार से बहुत सारे आयुध और शस्त्रों का निर्माण किया था। यही आध्यात्म विज्ञान का अटल सत्य है और यही सिद्धांत हे जो अपनी प्रतिभा को निखार कर साहसिक व्यक्ती बनाती है।

यह लेख का उद्देश्य मात्र समाज में छुपी हुयी प्रतिभाओं को प्रेरणा देने के लिए लिखा गया है और हरएक क्षेत्र व्यक्ती अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ा सके।

लेखक - मयुरकुमार मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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