यज्ञपति परमात्मा विश्वकर्मा

यज्ञपति परमात्मा विश्वकर्मा

वेद-शास्त्रों में विश्वकर्मा परमात्मा को यज्ञपति कहा गया है मुख्य रूप से अथर्ववेद में कहा गया है इसी अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। जिसका ज्ञान ब्रह्म ज्ञान के समान है अर्थात अथर्ववेद का एक भी शब्द ब्रह्म वाक्य के समान है। 
यज्ञपतिमृषयः एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम् ।
मथव्यान्त्स्तोकान् अप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा ॥ (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त - ३५, मंत्र - २)
अर्थात - प्रजाओ के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञपति विश्वकर्मा को ऋषिगण पाप से अलग बताते हैं। जिन यज्ञपति विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात किया है ,वे विश्वकर्मा परमात्मा उन बूंदों से हमारी यज्ञ को संयुक्त एवं पूर्ण करें।

अदान्यान्त्सोमपान् मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः।
यदेनश्चकृवान् बद्ध एष तं विश्वकर्मन् प्र मुञ्चा स्वस्तये ॥
- (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त -३५, मंत्र - ३)
अर्थात - जो व्यक्ति दान ना करके मनमाने ढंग से सोमपान करता है, वह न तो यज्ञ को जानता है और ना धैर्यवान होता है। ऐसा व्यक्ति बद्ध होकर पाप करता है। हे विश्वकर्मा देव! आप उसके कल्याण के लिए पाप बंधनों से मुक्त करें।

घोरा ऋषयो नमो अस्त्वेभ्यश्चक्षुर्यदेषां मनसश्च सत्यम्।
बृहस्पतये महिष द्युमन्न् नमो विश्वकर्मन् नमस्ते पाह्यस्मान् ॥
    - (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त -३५, मंत्र - ४)
अर्थात - ऋषिगण अत्यंत तेजस्वी होते हैं क्योंकि उनकी आंखों तथा मनो में सत्य प्रकाशित होता है।ऐसे रिसीव को हम प्रणाम करते हैं तथा देवताओं के पालन करने वाले बृहस्पति देव को भी प्रणाम करते हैं। हे महान विश्वकर्मा परमात्मा ! हम आपको प्रणाम करते हैं आप हमारी सुरक्षा करें।

यज्ञस्य चक्षुः प्रभृतिर्मुखं च वाचा श्रोत्रेण मनसा जुहोमि।
इमं यज्ञं विततं विश्वकर्मणा देवा यन्तु सुमनस्यमानाः॥
     - (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त -३५, मंत्र - ५)
अर्थात -  जो अग्नि देव यज्ञ के नेत्र स्वरूप पोषणकर्ता तथा  यज्ञ के मुख के समान हैं उन अग्निदेव के प्रति हम मन, श्रोत  तथा वचनों सहित हव्य समर्पित करते हैं। विश्वकर्मा देव के द्वारा किये गये इस यज्ञ के लिए श्रेष्ठ मन वाले देव पधारें।
 
ये भक्षयन्तो न वसून्यानृधुर्यान् अग्नयो अन्वतप्यन्त धिष्ण्याः।
या तेषामवया दुरिष्टिः स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा॥
     - (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त -३५, मंत्र - १)
अर्थात - यज्ञ कार्य में धन न खर्च करके, भक्षण कार्य में धन खर्च करने के कारण हम समृद्ध नहीं हुए । इस प्रकार हम यज्ञ न करने वाले और दुर्यज्ञ करने वाले हैं। इसलिए श्रेष्ठ यज्ञ करने की अभिलाषा को यज्ञपति परमेश्वर विश्वकर्मा पूर्ण करें।

अथर्ववेद अर्थात ब्रह्मवेद के उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि विश्वकर्मा परमात्मा यज्ञपति है। वही यज्ञ के भोक्ता हैं  अर्थात सभी यज्ञ उन्हीं को समर्पित होते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से। विश्वकर्मा परमात्मा से ही यज्ञ की सुरक्षा के लिये निवेदन किया जाता है और उन्हीं से यज्ञ में किए गए गलतियों की क्षमा मांगी जाती है। 

    - पं.संतोष आचार्य

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