वास्तुशास्त्र और वास्तुपुरुष उत्पत्ति

वास्तुशास्त्र और वास्तुपुरुष उत्पत्ति

वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम 
(समरांगण सूत्रधार, भवन निवेश) 
वास्तुशास्त्र—अर्थात गृहनिर्माण की वह कला जो भवन में निवास कर्ताओं की विघ्नों, प्राकृतिक उत्पातों एवं उपद्रवों से रक्षा करती है. देवशिल्पी विश्वकर्मा द्वारा रचित इस भारतीय वास्तु शास्त्र का एकमात्र उदेश्य यही है कि गृहस्वामी को भवन शुभफल दे, उसे पुत्र-पौत्रादि, सुख-समृद्धि प्रदान कर लक्ष्मी एवं वैभव को बढाने वाला हो.

आदि काल में मानव का निवास स्थल वृक्षों की शाखाओं पर हुआ करता था। कालांतर में उसमें जैसे-जैसे बुद्धि का विकास होता गया वैसे-वैसे उसने परिस्थिति के अनुसार उपलब्ध सामग्री यथा बांस, खर पतवार, फूस, व मिट्टी आदि का उपयोग करके कुटियानुमा संरचना का अविष्कार किया तथा उसे निवास योग्य बनाकर उसमें निवास करने लगा, यह भवन का मात्र प्रारंभिक स्वरुप था वैदिक काल में भवन बनाने का विज्ञान चरम सीमा तक जा पहुंचा, हमारे धर्मग्रंथों में भी देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा का उल्लेख आता है जिन्होंनें रामायण काल से पूर्व लंका नगरी तथा महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण के आदेश से दैत्य शिल्पी मय दानव के साथ मिलकर इन्द्रप्रस्थ नगरी का निर्माण किया था जहाँ पर जल के स्थान पर स्थल तथा स्थल के स्थान पर जल के होने का आभास होता था महाभारत ग्रन्थ के अनुसार इसी कौतुक के कारण दुर्योधन को अपमानित होना पड़ा जो कि बाद में महाभारत जैसे महासंग्राम का एक कारण भी बना। उस समय के भवन निर्माण के दुर्लभ व उन्नत ज्ञान को धर्मग्रंथों में संग्रहीत कर लिया गया जिसे आज सम्पूर्ण विश्व में वास्तु विज्ञान या वास्तु शास्त्र नाम से जाना जाता है। विश्वकर्माप्रकाशः भी एक ऐसा ही ग्रन्थ है जो कि वास्तु सम्बन्धी ज्ञान को अपने अन्दर समाहित किये हुए है।

वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम। सनातन भारतीय शिल्प विज्ञानं के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन इस प्रकार हो कि संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख मिले, ही वास्तु विज्ञानं का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अन्तर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिए ऐसा घर बनते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं।

प्रायः हमनें देखा है कि पुराने भवनों की दीवारें काफी मोटी-मोटी हुआ करती थी जो कि आज के परिवेश में घटकर ९ इंच से लेकर ४.५ इंच तक की रह गयीं हैं | आज हममें से काफी व्यक्ति यह समझते हैं कि मोटी दीवारें बनाने से भूखंड में जगह की बर्बादी होती है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है क्योंकि मोटी दीवारों की दृढ़ता अधिक होने से भूकंप के समय उनका व्यवहार काफी अच्छा पाया गया है अतः भारवाही दीवार की मोटाई 9 इंच से कम तो कतई होनी ही नहीं चाहिए |

एक भवन को डिजाइन कराते समय एक अच्छे वास्तुविद, अभियंता या आर्कीटेक्ट के चयन के साथ साथ अच्छे ठेकेदार, राजमिस्त्री, प्लंबर ,बढई , इलेक्ट्रीशियन व लोहार आदि का चयन बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि इनका भवन निर्माण में रोल ठीक उसी तरह से होता है जैसे कि एक अच्छे भोज में हलवाई का, क्योंकि इन सभी कार्यों में कच्ची सामग्री लगभग एक जैसी ही लगती है बस फर्क पड़ता है तो केवल कारीगरी का ही, 
एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है। भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से सम्बन्ध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश कि दिशा, लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व् निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिए अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।

इस पृथ्वी पर सम्यक रूप से अनुकूलन के साथ भवन बनाने की विद्या को वास्तु विद्या कहा जाता है। समरांगण सूत्रधार नामक वास्तु ग्रंथ में कहा है कि पृथ्वी ही मुख्य वास्तु हे। उस पर जो उत्पन्न होते हैं उनके आश्रय निवास हेतु भवन निर्माण प्रासादादि बनाते हैं, वह भी वास्तु कहा जाता है।

भूरेव मुख्यं वास्तु तत्र जातानि यानिहि ।
प्रासादादिनि वस्तूनि वस्तूत्वात् वास्तुसंश्रयात् ।।
वास्तु शास्त्र को ही वास्तु विद्या, शिल्प शास्त्र, स्थापत्य वेद कहते हैं। अँग्रेजी मे आर्किटेक्चर कहा जाता है। अँग्रेजी मे यह शब्द सोलहवीं शताब्दी में लेटिन भाषा के आर्किटेक्चरा शब्द से लिया गया था। जो कि वास्तव में संस्कृत के आकिॅदक्ष्तौयॅ शब्द का अपभ्रंश है। यह शब्द आर्कि +दक्ष +तौयॅ से बना है। संस्कृत में तौयॅ शब्द का अर्थ शिल्प, चातुर्य, विद्या, कला आदि होता है। दक्ष धातु का अर्थ चतुरता प्रदर्शित करना तथा आर्कि का अर्थ सूर्य पुत्र मनु होता है। इस शब्द का प्रयोग देवशिल्पी त्वष्टा के लिए भी हो जाता है। जिन्होंने मार्तण्ड सूर्य को काट - छाँट कर छोटा तथा सुंदर बना दिया था। जिससे उनकी उग्रता मे नमी और न्यूनता हो गई थी। और वे समस्त जीव और पृथ्वी वासियों के सहन करने योग्य हो गए थे। इस प्रकार जिस विधा का प्रचार मनु के द्वारा मानव कल्याण के लिए सूर्य को ऊर्जा का समुचित उपयोग करते हुए मानवों को पृथ्वी पर बसाने मे किया गया, उसे आकिॅदक्ष्तौयॅ अर्थात वियस्वान मनु की दक्षता की विद्या कहा गया।

वेदों में वास्तुशास्त्र
समस्त संसार के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद मे गृह को वेस्म कहा गया है। गृह की प्राप्ति पुण्यों के फल स्वरुप होती है यह उल्लेख भी किया गया है। इस प्रकार वास्तोस्पति का भी उल्लेख किया गया है।
भोजस्येद पुष्करिणिव वेश्म परिस्कृत देवमानेव चित्रम्।। 
(ऋग्वेद 10-107-10)

इसी प्रकार वास्तोस्पति मे स्वास्थ्यप्रद गृह तथा उन्नतीशील गृह हेतु प्रार्थना की गई है। 
वास्तोस्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमिवे भवा नः ।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्यदे ।।
वास्तोस्पते प्रतरणो न एधि गयस्फानो गोभिरस्वेभिरींदो।
अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव पुत्रान् प्रति नो जुषस्व।।
वास्तोस्पते संग्मया संसदा ते सक्षिमहि रण्वया गातुमत्या ।
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।
(ऋग्वेद 7/54/1-3)

संहिताओं के अतिरिक्त शतपथ ब्राम्हण (1.7.3.7) तथा तैत्तिरीय ब्राम्हण (1.7.8.15 एवं 3.7.9.7) तथा आपस्तम्बश्रोतसूत्र (13-20) मे वास्तुशास्त्र का उल्लेख मिलता है। स्मृतियों तथा पुराणों में वास्तु विद्या का विशेष सविस्तार उल्लेख मिलता है। 

मत्स्य पुराण में वास्तुपुरुष के जन्म की कथा
मत्स्य पुराण में वास्तुपुरुष के जन्म की कथा है। जिसके अनुसार भगवान शंकर को उनका वध करने के लिए अंधकासुर नामक राक्षस से युद्ध करना पड़ा था। शिव द्वारा राक्षस को मारने के बाद, पसीने की कुछ बूंदें उसके सिर से जमीन पर गिर गईं। इन बूंदों से एक विशाल नर-सदृश प्राणी उत्पन्न हुआ। यह आदमी जमीन पर पड़े अंधकासुर का खून पीने लगा, जब अंधकासुर की भूख उसकी भूख नहीं बुझी, तो वह शिवजी के पास गया और तीनों लोगों (देवलोक, पृथ्वीलोक और आकाशलोक) को खाने की इच्छा व्यक्त की।
इस व्यक्ति ने अंधकासुर की लड़ाई में शिवजी की मदद की, इसलिए शिवजी ने उन्हें उनकी इच्छा पूरी करने का आदेश दिया। तब यह मनुष्य आकाश और देवलोक को पार करके फिर पृथ्वी पर पहुंचा। तीनों मनुष्यों के विनाश से भयभीत होकर देवताओं ने उस व्यक्ति को जोर से धक्का दिया और वह मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ा। जिस अवस्था में वह मनुष्य भूमि पर गिर पड़ा, उसी दशा में सभी देवताओं और राक्षसों ने मिलकर उसे कुचल दिया और उस पर बैठ गए।  वो पुरुष का मुंह पूरी तरह से जमीन पर दबा हुआ था, जिससे उसका दम घुटने लगा। सभी देवताओं ने उसे इस तरह पकड़ रखा था कि वह हिल भी नहीं सकता था। वास्तुपुरुष नाम इस तथ्य से आया है कि उस व्यक्ति के शरीर पर देवताओं का वास था।
इस वास्तुकार ने देवताओं से विनती की कि तुमने मुझे इस तरह पकड़ रखा है कि मैं हिल भी नहीं सकता। इस अनुरोध से प्रसन्न होकर ब्रह्मा सहित सभी देवताओं ने उन्हें यह वरदान दिया कि जिस स्थिति में आप अभी हैं, उसी स्थिति में आपका शरीर इस पृथ्वी पर निवास करेगा। तुम्हारे शरीर में सब देवता वास करेंगे, जब भी कोई मनुष्य इस पृथ्वी पर अपना घर या निर्माण कर नया या जीर्णोद्धार कर बनाएगा, तो उस घर भवन महल दुर्ग में रहने से पहले सब देवताओं समेत तुम्हारी उपासना करना आवश्यक होगा। वास्तु पूजन के अंत में यज्ञ और वैश्वदेव पूजन में जो यज्ञ होगा वही आपका भोजन होगा। वास्तुपूजन के अंत में किया जाने वाला यज्ञ भी आपको भोजन के रूप में दिया जाएगा। नए मकान के निर्माण के बाद जो व्यक्ति वास्तुपूजन नहीं करता है, उसे अनजाने में उसके द्वारा घर में किए गए किसी भी यज्ञ यज्ञ का हिस्सा अवश्य ही प्राप्त होगा।जब कोई नया सरोवर, नगर या महल बन रहा हो तो आपकी पूजा की जाएगी। वास्तु को नए भवन के अग्नि कोण में रखा गया है।

पुराणों में वास्तुशास्त्र 
मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, नारद पुराण, विश्वकर्मा पुराण आदि मे भवन निर्माण की प्रक्रिया और उल्लेख बड़ी सूक्ष्मता और स्पष्टीकरण के साथ किया गया है।इस प्रकार अत्यंत प्राचीनकाल से ही भारत में वास्तुशास्त्र का ज्ञान प्रचलित रहा है। अग्नि पुराण में प्रासाद निर्माण के विषय में बताते हुए कहा गया है कि सर्वप्रथम प्रासाद निर्माण के लिए पृथ्वी की परिक्षा करनी चाहिए। जहा की मिट्टी का रंग स्वेत हो, और घी की सुगंध आती हो वह भूमि ब्राम्हण के लिए उत्तम होती है। इसी प्रकार क्रमशः क्षत्रिय के लिए लाल तथा रक्त जैसी गंधवालीं मिट्टी, वैश्य के लिए नीली और सुगंध युक्त मिट्टी वालीं तथा शूद्र के लिए काली एवं मदिरा जैसी गंधवालीं मिट्टी से युक्त भूमि उत्तम कहीं गई है। पूर्व, ईशान, उत्तर, अथवा सब ओर नीची और मध्य मे ऊंची भूमि प्रसस्त मानी गई है। एक हाथ खोदकर निकाली गई मिट्टी यदि उस गड्ढे मे डाली जाने पर अधिक हो जाए तो वहा की भूमि को उत्तम समझना चाहिए। अथवा जल आदि से उसकी परिक्षा करे। हड्डी और कोयले आदि दूषित भूमि का खोदन शोध कर, गायों को ठहराकर या बार बार जोतकर करना चाहिए। 

यदाधारादिभेदेन प्रासादेध्वपि पञ्चधा। 
परिक्षामथ मेदिन्याः कुयाॅत्प्रासादकाम्यया।। 
शुक्लाज्यगन्धा रक्ता च रर्क्तगंधा सुगन्धिनि ।
पिता कृष्णा सुरागन्धा विप्रादिनां महिक़मात्।। 
पूवेॅशोत्तरसवॅत्र पूवाॅ चेषां विशिष्यते ।
आखाते हास्तिके यस्याः पूणेॅ मृदधिका भवेत् ।। 
उत्तमां तां महिं विद्यात्तोयाद्यैवाॅ समुक्षिताम्।
अस्थ्यड्गारादिभिदुॅष्टाम्यत्यंत् शोधयेद् गुरुः ।। 
नगरग्रामदुवाॅथॅ गृहप्रासादकारणम् ।
खननैगोॅकुलावासैः कषॅणैवाॅ मुहुमुॅहुः ।। 
(अग्निपुराण 92/6-10)

श्रीमदभागवत महापुराण में देवशिल्पी विश्वकर्मा भगवान द्वारा श्रीकृष्ण आदेश से समुद्र के भीतर द्वारिकापुरी नामसे अत्यंत दुर्गम नगर के निर्माण का वर्णन है। जिसमें सभी वस्तुए अद्भुत थी जिसकी लंबाई चौड़ाई अडतालिस कोश की थी। उस नगर की एक एक वस्तु मे विश्वकर्मा का विज्ञान, वास्तु कला, शिल्प कला, और स्थापत्य कला का नैपुण्य प्रगट होता था। उसमे वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़ी बड़ी सड़कों, कुए, भवन, महल, चौराहों और गलियों का यथास्थान  ठीक तरह से निर्मित किया था। 

इति सम्मन्य्त्र भगवान दुगॅ द्वादशयोजनम् ।
अन्तः समुद्रे नगरं कृत्स्नाक्ष्द्रतमचीकरत् ।।
द्रश्यते यत्र त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम् ।
रथ्या चत्वरवीथिभियॅथावास्तु विनिमिॅतम् ।।
(श्रीमदभागवत दशम स्कंध अध्याय - 50)

मत्स्य पुराण में वास्तुशास्त्र 
मत्स्य पुराण में वास्तुशास्त्र के अठारह आचार्यों का नामोल्लेख करते हुए वास्तु पुरुष उत्पत्ति का विवरण भी दिया गया है।
भृगु - ये शुक्राचार्य के पिता भृगुवारुणि थे, ये अप्रतिम विद्वान तथा अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। इनको हिरण्यकशिपु की पुत्री दिव्या ब्याही थी। ये ज्योतिष शास्त्र के भी विद्वान थे।
अत्रि - इनका पूर्ण नाम अत्रिवारुणि था। ये वरुण देव के तृतीय पुत्र हे। जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र का प्रवर्तन किया था।
वसिष्ठ - ये पराशर के पिता शक्ति वसिष्ठ थे। ईन शक्ति वसिष्ठ के सम्बंध सुदास ऐश्र्वाक से मधुर थे। परंतु उनके पुत्र कल्माषपाद से बिगड़ गए थे। ये व्यास थे। जब इनका संघर्ष कल्माषपाद से हुआ तो उसने इनको जला दिया था।
विशालाक्ष - यह भगवान शिव का ही नाम है। इनका समय निर्धारण नहीं हो सका है। परंतु ये सर्व विधाओ के प्रवर्तक माने जाते हैं।
इन्द्र - यह भी बहुत दीर्घायु थे। ये सप्तम युगीन व्यास थे इनके पिता प्रजापिता परमेष्ठी कश्यप थे। ये सभी देवो के कनिष्ठ थे। इनका जन्म कालीन नाम शक्र था। ये वैयस्वतयम के शिष्य थे। उनसे इन्होंने इतिहास पुराण का अध्ययन किया था। इन्होंने अलग अलग गुरुओ से विधाएँ सीखी थी। ये आयुर्वेद, व्याकरण, ज्योतिष, वास्तुशास्त्र आदि अनेक विषयो के ज्ञाता थे।
ब्रम्हा - इनका काल निर्णय अशक्य हे। क्योंकि इक्कीस प्रजापतिओ को ब्रम्हा नाम से जाना जाता है। ये भी अनेक विधाओ, व्याकरण, शास्त्रों, वेदादि के लिए व्यास माने जाते हैं।
कुमार - इनका नाम स्कंद या कार्तिकेय भी था, ये रुद्र नीललोहीत शिव के पुत्र थे।
अपत्यं कृत्तिकानान्तु कार्तिकेय इति स्मृतः ।
स्कंदः सनत्कुमारश्र्व सृष्टः पादेन तेजसः ।।
(हरिवंश पुराण 1/13/43)
इनका समय निर्धारण अशक्य है।
नंदीश्वर - ये शिव जी के प्रमुख शिष्य एवं सेवक थे। इन्होंने अनेक प्रकार के तंत्रों और विधाओ का अध्ययन भगवान शिव (विशालाक्ष) से ही किया था। पर्वतीय स्थानो के नगर निर्माण की विधा में निपुण और विशेष दक्षता प्राप्त की थी।
शौनक - सुनक ऋषि के पुत्रगण शौनक कहे जाते हैं।
गर्ग - आज से पांच सहस्त्राब्दीयो पूर्व विधमान थे। ये यदुवंश के पुरोहित थे। इनके शिष्यगण एशिया तथा यूरोप के अनेक भागों में थे। रूस का गाग्यॅ प्रदेश ही आजकल जॉर्जिया कहलाता है। श्रीमदभागवत के दशम स्कंध में इनके सम्बंध में लिखा है।
गर्गः पुरोहितो राजन यदूनां तू महातपाः।
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तद् ज्ञानमतिन्द्रियम् ।।
प्रणितं भवता येन पुमान् वेदपरावरम् ।।

वासुदेव - ये श्रीकृष्ण वासुदेव थे। जिन्हें हम सब भगवान श्रीकृष्ण के नाम से जानते हैं। ये वसुदेव के पुत्र होने से वासुदेव कहे जाते हैं। इन्होंने सान्दीपनि गुरु के आश्रम में सम्पूर्ण विधाओ का अध्ययन किया था। वास्तुशास्त्र के विशेष रहस्यों को इन्होंने विश्वकर्मा (त्वष्टा) के पुत्र से जान लिया था। इस बात का उल्लेख विश्वकर्माप्रकाश के अंत में भी किया गया है। इन्होंने इसी विधाओ के आधार पर समुद्र मे शत्रुओं से सुरक्षित द्वारिकापुरी का निर्माण कराया था, जो कि राजधानी थी। ये आज से 5200 साल पहले विद्यमान थे।
अनिरुद्ध - ये वासुदेव कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र थे। इनका गांधर्व विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था। ये महाभारत युध्द के कुछ काल के उपरांत तक विधमान रहे थे। अनिरुध्द को कोई भी योद्धा कितना ही बलशाली क्यु न हो हाथो से पकड़ नहीं सकता था और न उन्हें कैद किया जा सकता था। इसीलिए इनका नाम अनिरुद्ध प़डा था।
शुक्राचार्य - इनका नाम उशना, काव्य तथा भार्गव था। इनका जन्म हिरण्यकशिपु के राज्य काल में ही हो गया था। ये अनेक शताब्दियों तक जिवित रहे थे। ये भृगु वंशीयो के शाशक बनाए गए थे।
भृगुणामधिपञचैव काव्यं राज्येऽभ्यषेचयतः।
(वायु पुराण 70/4)

ये दैत्यों असुरों के पुरोहित थे, इनके पुत्र त्वष्टा विश्वकर्मा, वरुत्री, शण्ड तथा मकॅ थे। त्वष्टा के पुत्र त्रिशिरा (विश्वरूप), वृत्र, मय आदि थे। इन्होंने पश्चिम के देशों में अपने राज्यों को फैलाया और अफ्रीका में त्रिपुर नगर (त्रिपोली), वहीं लेबनॉन बेरुत (वरुत्री) की नीव रखी। यूरोप में डेनमार्क (दानवमकॅ), दनायु (डेन्युब) आदि नाम आज भी इनका साक्ष्य दे रहे हैं। त्वष्टा के पुत्र मय के नाम पर अमेरिका में मय राज्य स्थापित हुआ। ईन शुक्राचार्य (काव्य, उसना) के महत्व को दर्शाते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि कविनामुशना कविः। ये हिरण्यकशिपु से लेकर वृत्रासुर तक दैत्य राजाओ के पुरोहित रहे थे।

शुक्राचार्य अनेक विधाओ एवं ज्ञान - विज्ञानो मे निष्णात थे। ये तृतीय वेद व्यास के नाम से जाने जाते थे। औशनस अर्थ शास्त्र (शुक्रनिति) के साथ अनेक ग्रंथ उनके नाम से जाने जाते हैं। ज्योतिष ग्रंथो मे उनके नाम उध्दरण मिलते हैं। वे एक श्रेष्ठ वास्तुविद् थे। कब्बाला नामक एक संहिता ग्रंथ भी उनके काव्यमाला ग्रंथ का ही नाम है। जो मिश्री (अरबी) तथा हिब्रू भाषाओ मे किसी समय ज्योतिष एवं सामुद्रिक ज्ञान के लिए पूरे यूरोप में प्रसिद्ध हो गया था। पारसी धर्म ग्रंथ जेन्दाअवेस्ता (छन्दावस्था) इन्हीं की कृति हे। ऋग्वेद के कुछ मंत्र इनके द्वारा दृष्ट है। अथर्ववेद के अनेक सूक्त इनके नाम से हे। ईरानी ग्रंथो के अनुसार उषाकैकश (उशना काव्य) ईरानीयो के अधिपति थे। उशना आयुर्वेद के भी कर्ता थे। सुश्रुतसंहिता (कल्प 1/78) तथा अष्टांग हृदय (उत्तर 1/40) इनके विषनाशक औषध प्रयोगों का उल्लेख हे।
बृहस्पति - इनको बृहस्पति अंगिरस कहा गया है। ये देवताओ के पुरोहित थे। इन्होंने वेदाध्ययन ब्रम्हा कश्यप से किया था तथा पुराणों का अध्ययन शुक्राचार्य से किया था। परंतु शुक्राचार्य की तामसी वृत्ति से इनका भेद हो गया था। अतः दोनों मे संघर्ष चलता रहा। वियस्वान तथा इन्द्र इन्हीं के शिष्य थे। राजा उपरिचरवसु भी बृहस्पति का यजमान तथा शिष्य था। ये चौथे वेद व्यास कहे जाते हैं। जिन्होंने वेद मन्त्रों के साथ व्याकरण, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण, तथा वास्तुशास्त्र की रचना की थी।

प्रवक्ष्यामि मुनिश्रेष्ठ श्रृणुश्र्वैकाग्रमानसः ।
यदुक्तं शम्भुना पूवॅ वास्तुशास्त्रं पुरातनम् ।। 3।।
पराशरः प्राह बृहद्रधाय बृहद्रथः प्राह च विश्वकर्मणे ।
स विश्वकर्मा जगतां हिताय प्रोवाच शास्त्रं बहुभेदयुक्तम् ।।4।।

मे आपको भगवान शंकर द्वारा पूर्व में कहा गया प्राचीन वास्तुशास्त्र उपदिष्ट कर रहा हू। इस वास्तुशास्त्र को भगवान शंकर की कृपा से पराशर ने प्राप्त किया फिर, पराशर ने इस शास्त्र को बृहद्रथ को पढ़ाया, फिर बृहद्रथ ने विश्वकर्मा को पढ़ाया ।उन विश्वकर्मा ने जगत के हित के लिए अनेक भेदों से युक्त वास्तुशास्त्र को मनुष्यों को पढ़ाया।

मत्स्य पुराण 242/2-4 मे अठारह वास्तुशास्त्रीयों के नाम मिलता है।
भृगुरत्रिवॅशिष्टस्र्च विश्वकर्मा मयस्तथा।
नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः।।
ब्रम्हा कुमारो नन्दिशः शौनको गगॅ एवं च।
वासुदेवोऽनिरुद्धश्र्च तथा शुक्र बृहस्पतिः।।
अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः ।
संक्षेपेण उपदिष्टं यन्मनवे मत्स्यरुपिणा।।

अर्थात - 1.भृगु, 2.अत्रि, 3.वसिष्ठ, 4.गर्ग, 5.विश्वकर्मा, 6.पुरन्दर (इन्द्र), 7.ब्रम्हा, 8.मय, 9.नारद, 10.विशालाक्ष, 11.नग्नजित, 12.कुमार (कार्तिकेय), 13.नंदीश्वर, 14.शौनक, 15.शुक्र, 16.बृहस्पति, 17.अनिरुद्ध, 18.वासुदेव (श्री कृष्ण) ये सब अट्ठारह वास्तुशास्त्र के उपदेशक प्रसिद्ध हो चुके हैं। इस वास्तुशास्त्र को मत्स्यरूपधारी भगवान ने संक्षेप्त मे उपदेशित किया था। आगे फिर वास्तु विद्या का सविस्तार वर्णन किया गया है, जिससे पता लगता है कि उस समय मे वास्तुशास्त्र कितनी प्रगति पर था।

विश्वकर्मोवाच वास्तुपुरुष की उत्पत्ति

 वास्तुशास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।।6।।
पुरा त्रेतायुगे ह्यासिन्महाभूत व्यवस्थितम् ।
स्वाप्यमानं शरिरेण सकलं भुवनं ततः ।।6।।
दृष्टा विस्मयं देवा गताः सेन्द्रा भयावृताहः ।
ततस्थे भयमापन्ना ब्रम्हाणं शरणं ययुः ।।7।।
विश्वकर्मा ने कहा अब मे लोगों के हित के लिए वास्तुशास्त्र का उपदेश करता हू। 
प्राचीनकाल में त्रेतायुग की बात है उस समय एक महाभूत विशालकाय प्राणी उत्पन्न हुआ और अपने शरीर को संपूर्ण भुवन मे सुला (बिछा) दिया। 
उसे देखकर देवता तथा इन्द्र अत्यंत भयभीत तथा आश्चर्यचकित होकर ब्रम्हा जी की शरण में गए। 

वास्तु पुरुष के जन्म की तिथि आदि का कथन

तमेव वास्तुपुरुषं ब्रम्हा समसृजत्प्रभुः ।
कृष्णपक्षे तृतियानां मासि भाद्रपदे तथा ।।11।।
शनिवारेऽभवज्जन्म नक्षत्र कृत्तिकासु च।
योगस्तस्यव्यतिपातं करणं विष्टिसंज्ञकम्।। 12।।
भद्रान्तरेऽभवज्जन्म कुलिकेतु तथैव च ।
क्रोसमानं महाशब्दं ब्रम्हाणं समपध्धत ।। 13।।
इस वास्तुपुरुष को भाद्रमास के कृष्णपक्ष को तृतीया तिथि के दिन शनिवार कृत्तिका नक्षत्र, व्यतीपात योग तथा विष्टिकरण (भद्रा) मे ब्रम्हा जी ने उत्पन्न किया था। इसका जन्म कुलीक वेला मे हुआ था, उसने चिल्लाते हुए ब्रम्हा जी से कहा।

वास्तुपुरुष की ब्रम्हाजी से प्रार्थना

चराचरमिदं सवॅ त्वया सृष्टं जगत्प्रभो ।
विनापराधेन च मां पीडयन्ति च सुराः भ्रशम् ।। 14।।
वास्तुपुरुष ने कहा कि हे जगतकर्ता आपने इस सम्पूर्ण चराचर जगत को रचा तथा मुझे भी रचा हे, फिर ये देवता मिलकर मुझे क्यों पीड़ित कर रहे हैं..?

ब्रम्हाजी का वास्तुपुरुष को वरदान

वरं तस्मै ददौ प्रीतो ब्रम्हा लोकपितामहः ।
ग्रामे वा नगरे वापि दुर्गे वा पत्तनेऽपि वा।।15।।
प्रासादे वा प्रापायां च जलोद्याने तथैव च ।
यत्स्वां न पूजयेन्मत्योॅ मोहाद्ववास्तनरश्र्व भोः।।16।।
अश्रियं मृत्यमाप्नोति विध्नस्तस्य पदे पदे। 
वास्तुपूजामकुवाॅणस्तवाहारो भविष्यति।।17।।
तब ब्रम्हाजी ने प्रीतिपूर्वक उस वास्तुपुरुष को वरदान देते हुए कहा है कि वास्तुपुरुष! नगर निर्माण, गृह निर्माण, बस्ती निर्माण, अथवा दुर्ग (किला) बनाते समय अथवा व्यापारिक नगर बनाते समय अथवा भवन, प्रपा, (प्याऊ, पौसरा, पौशाला, पानी की टंकी, नल - जल प्रदान योजना) आदि जलाशय, उद्यान, बाग निर्माण के पूर्व जो तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे उनकी निर्धन रहकर मृत्यु होगी तथा पग पग पर विध्न बाधाएं आएगी। ईन अवसरों पर जो वास्तु पूजा नहीं करेगा वह हे वास्तु पुरुष! तुम्हारा आहार बन जाएगा।

वास्तुपुरुष के अवसरों का वर्णन

इत्यक्त्वान्तदॅधे सध्धो देवो ब्रम्हविदां वरः ।
वास्तुपूजा प्रकुवीॅत गृहारम्भे प्रवेशने ।। 18।।
द्वाराभिवत्तॅने चैव त्रिविधे च प्रवेशने ।
प्रतिवषॅ च यज्ञादौ तथा पुत्रस्य जन्मनि।। 19।।
व्रतबन्धे विवाहे च तथैव च महोत्सवे ।
जीर्णोद्धारे तथा शल्यनासे चैव विशेषतः।। 20।।
वज्राग्नि दूषिते भग्ने सपॅचाण्डालवेष्टिते ।
उलूकवासिते सप्तरात्रौ काकाधिवासिते।।21।।
मृगाधिवासिते रात्रौ गोमाजाॅराभिनादिते ।
वारणाश्र्वादि विरुते स्त्रीणां युद्धाभिदूषिते ।।22।।
कपोतक गृहावासे मधूनां निलये तथा। 
अन्यैश्र्चैव महोत्पातैदूषिॅते शान्तिमाचरेत्।।23।।
एसा कहकर ब्रम्हवेत्ताओ मे श्रेष्ठ श्री ब्रम्हाजी बोले कि गृहारम्भ (घर की नीव) लगाना, गृह प्रवेश, गृह के मुख्य द्वार के निर्माण में तथा तीनों प्रकार के प्रवेश (नूतन गृह प्रवेश, जीर्ण गृह प्रवेश, तथा यात्रोपरान्त गृह प्रवेश मे प्रति वर्ष यज्ञादि मे पुत्र जन्म के अवसर पर, यज्ञोपवीत मे, कार्यक्रमों में, विवाह में, जीर्णोद्धार मे, शल्यन्यास (टूटे फूटे को जोड़ना) मे विशेष रूप से वास्तु पूजा शांति करनी चाहिए।

पाली - प्राकृत एवं अपभ्रंश आदि प्राचीन भाषाओ मे वास्तुशास्त्र

भगवान बुद्ध का वास्तविक जन्म समय कलयुग के 1310 वर्ष बीतने पर अर्थात आज से लगभग 3800 वर्ष पूर्व अथवा ईसासे 1800 वर्ष पूर्व हुआ था, परंतु आज जो उनकी जन्म तिथि स्कूलो मे रटाई जा रही है वह तो 1200 वर्ष अर्वाचीन है। उनके समय पर भी वास्तुशास्त्र उन्नती पर था। बौद्ध काल में 27 गणतंत्र थे, उनकी राजधानी ओ के नगर भव्य रूप से बसे हुए थे। पाटलिपुत्र नगर अनेक परकोटो युक्त था ।भिक्षुओं के लिए अनेक विहार तथा भगवान बुद्ध की अस्थियां पर अनेक स्तूप उस काल में बनाए गए थे। पाली भाषा में श्रीलंका तथा बर्मा आदि मे कुछ ग्रंथ ज्योतिष आयुर्वेद तथा वास्तुशास्त्र पर भी लिखे गए थे। उत्तरकाल मे भिक्षुओं के लिए अनेक गुफाओं का निर्माण भी हुआ था। नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालयो के वास्तु भी बौद्ध काल में ही बने हैं। विमानवत्थु मे भिक्षुओं को विहार दान का फल बताते हुए कहा गया है।
सावत्थियं मय्हं सखी भदन्ते सड्धस्सकारेसि महाविहारं ।
तत्थपसन्ना अहमानुमोदि दिस्वाअगारं च पियज्व मेतः ।।
(विमानवत्थुपालि 1/44)

जैन सम्प्रदायों के मंदिरों के निर्माण के लिए प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओ मे वास्तु ग्रंथ की रचना हुयी। प्राकृत मे स्थपति को थवई कहा गया है। संस्कृत में गौतमियम् तथा बौद्धमतम् आदि ग्रंथो की रचना हुयी थी।

विश्व को भारतीय वास्तुकला की देन
मिश्र के पिरामिडो के कुछ स्मारकों और स्थलो पर वैष्णव तिलक लगाए हुए कारीगरों के चित्र पाए गए हैं। जो इस बात के प्रमाण है कि पिरामिडो के निर्माता भारतीय ही थे। मुस्लिम तीर्थ मक्का मे भी
भारतीय वास्तुविदो ने मंदिर बनाया था। जिसमें हरिहरेश्र्वर विम्ब (चौकोर पत्थर) के साथ वर्ष के 360 दिनों (सूर्य के अंशों) के प्रतीक 360 मूर्तियां रखी गई थी। इटली की वेटिकन नगरी में आज भी बड़े बड़े शिवलिंग खड़े हुए हैं। अमेरिका में पुरातात्विक खुदाई में कुछ स्थलों पर गणेश जी की मूर्तिया प्राप्त हुयी है। अफगानिस्तान की विशाल बुद्ध प्रतिमा भारतीय वास्तु कला का जीता जागता नमूना है। पूर्व के बौद्ध मंदिरों पर भारतीय वास्तु कला स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

वास्तुशास्त्र की शाखाएं
वास्तुशास्त्रसंहिता ज्योतिष के अंतर्गत हे। परंतु ये एक विशाल और कद्दावर विषय है। अतः इसकी अनेक शाखाएं हे। जिनमे 1. अग्निय वास्तु (शुल्बशास्त्र) , 2. गृह वास्तु, 3. नगर वास्तु, 4. प्रासाद वास्तु (देवालय), 5. उद्यान (आराम वास्तु), 6. जलाशय वास्तु मुख्य हे। ईन सभी के अतिरिक्त विमान विद्या तथा यंत्र वास्तु भी विशेष वास्तु हे।

वास्तुशास्त्र के स्वतंत्र ग्रंथो की यादि
वास्तुशास्त्र पर देव वाणी संस्कृत में सेंकड़ों ग्रंथ लिखें गए थे। जिनमे से बहुत कुछ जो भी बचे हैं वे चैन्नई, तिरुवनंतपुरम, मैसूर, बड़ौदा, आदि के पौवाॅत्य पुस्तकालयो मे उपलब्ध है। इनमे से प्रमुख निम्न हे।
वास्तुमण्डन, गृहवास्तुसार, निर्दोष वास्तु, वास्तु चक्र, वास्तुशास्त्र (भोजदेव), वास्तुमंजरी, वास्तुवाधिकार, मानविज्ञान, विश्वंभरवास्तु, प्रासाद निर्णय, कुमार वास्तु, वास्तु रत्नावली, वास्तु पध्धति, वास्तु तिलक, वास्तु विद्यापति, वास्तु विधि, आयादि लक्षण, मयमतम्, विश्वकर्मप्रकाश, वास्तुसौख्यम् (टोडरमल कृत), मानसार, वास्तु सूत्र उपनिषद ।इनमे से कुछ प्रकाशित भी हो चुके हैं।


वास्तुपुरुष प्रार्थना मंत्र

ॐ नमोः भगवते वास्तुपुरुषाय कपिलाय च ।।

पृथ्वीधराय देवाय प्रधानपुरुषाय च ।

सकलगृहप्रासादपुष्करोधानकमॅणि ।। 

गृहारम्भप्रथमकाले सवॅसिद्धिप्रदायक। 

सिद्धदेवमनुष्यैश्र्च पुज्यमानो देवानिशम् ।। 

गृहस्थाने प्रजापतिक्षेत्रेऽस्मिंस्तिष्ठ साम्प्रतम्।

इहागच्छ इमां पुजां गृहाण वरदो भव ।। 

वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूमिशय्यारत प्रभो।

मद् गृहं धनधान्यदिसमृध्धं कुरु सवॅदा ।। 

अर्थात - हे कपिल वर्ण के वास्तु पुरुष, पृथ्वी को धारण करने वाले प्रधान पुरुष आपको बारंबार नमस्कार हे ।आप सभी प्रकार के भवन, उद्यान, प्रासाद आदि निर्माण के कार्यो में तथा गृहारम्भ के प्रथम काल में सम्पूर्ण सफलता को देनेवाले है। आपकी सिद्ध, देवतागण तथा मनुष्य दिन रात पूजा किया करते हैं आप यहा इस गृह निर्माण हेतु भूमि पर प्रजापति के क्षेत्र में इस अवसर पर आकर बिराजमान हो तथा यहा आकर इस पूजा एवं बलि आदि को स्वीकार करने की कृपा करे।

वास्तुदेव का उत्तर पूजन

सर्वदेवमयं वास्तु वास्तुदेवमयं परम् ।

ततः स्वनाममन्त्रेण ध्यात्वा तत्र च पूजयेत् ।।

वास्तुपुरुष सर्वदेवमय है। तथा सवॅदेव वास्तुमय है। अतः वास्तुपीठ के सभी 44 देवताओ का पूजन उनके नाम मन्त्रों से करके उनके स्थानो मे पूजन करे।

वास्तुपुरुष की प्रार्थना

वास्तुपुरुष नमस्तेऽस्तु भूमिशय्यारत प्रभो ।

मद्रेहे धनधान्यादिसमृद्धि कुरु सवॅदा ।।

हे वास्तु पुरुष आपको नमस्कार हे। आप भूमि शय्या पर शयन कर रहे हैं आप मेरे घर में धन धान्य की समृद्धि बनाए रखे।

भूमि पर वास्तुपुरुष की आकृति का लेखन

इति प्राथ्यॅ ततो भूमौ संलिखेद् वास्तुपुरुषम् ।

पिष्टातकैतण्डलैवाॅ नागरुपधरम् विभूम् ।।

इस प्रकार से प्रार्थना करके भूमि पर वास्तुपुरुष की मूर्ति का लेखन आटे से या चावलों से करे। वास्तुपुरुष नाग जैसे आकार का बनाए।

वास्तु पुरुष का आवाहन वेदमन्त्रों से करे तथा अपने सामर्थ के अनुसार पूजन करना चाहिए।

वास्तुशास्त्र मे दिशाएँ

उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। वास्तु विज्ञान में इन चार दिशाओं के अलावा 4 विदिशाएं हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है। इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। मूल दिशाओं के मध्य की दिशा ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य को विदिशा कहा गया है।

वास्तुकोणों का ज्ञान

मनुष्य को ईशान आदि कोणों में हविष्य द्वारा देवताओं की पूजा करनी चाहिये।

शिखी, पर्जन्य, जयन्त, इन्द्र, सूर्य, सत्य, भृश, अन्तरिक्ष, वायु, पूषा, वितथ, बृहत्क्षत, यम, गन्धर्व, भृंगराज, मृग, पितृगण, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदन्त, जलाधिप, असुर, शोष, पाप, रोग, अहि, मुख्य, भल्लाट, सोम, सर्प, अतिदि और दिति

ये बत्तीस बाह्य देवता हैं। बुद्धिमान पुरुष को ईशान आदि चारों कोणों में स्थित इन देवताओं की पूजा करनी चाहिये। अब वास्तु चक्र के भीतरी देवताओं के नाम सुनिये-आप, सावित्र, जय, रुद्र- ये चार चारों ओर से तथा मध्य के नौ कोष्ठों में ब्रह्मा और उनके समीप अन्य आठ देवताओं की भी पूजा करनी चाहिये। (ये सब मिलकर मध्य के तेरह देवता होते हैं।) ब्रह्मा के चारों ओर स्थित ये आठ देवता, जो क्रमश: पूर्वादि दिशाओं में दो-दो के क्रम से स्थित रहते हैं, साध्य नाम से कहे जाते हैं। उनके नाम - 

अर्यमा, सविता, विवस्वान, विबुधाधिप, मित्र, राजयक्ष्मा, पृथ्वीधर तथा आठवें आपवत्स। आप, आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि तथा दिति- ये पाँच देवताओं के वर्ग हैं। उनके बाहर बीस देवता हैं जो दो पदों में रहते हैं। अर्यमा, विवस्वान, मित्र और पृथ्वीधर-ये चार ब्रह्मा के चारों ओर तीन-तीन पदों में स्थित रहते हैं।

वराह मिहिर के अनुसार 

वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य ‘इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-

अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः

आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।

अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन – धन्यादी का लाभ प्राप्त करता है।

वास्तुशैली एक भारतीय संस्कृति की देन है। भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा जी ने वास्तु शिल्प की प्रतिष्ठा और रचना कर मानव जाति और समस्त जीवों का कल्याण किया है। वास्तु वैभव हमारी विविधतापूर्ण जीवन शैली हे जो विश्वकर्मा प्रभु से प्राप्त हुयी है। हमारे वंश की धरोहर और संस्कृति का प्रचार प्रसार करना भी एक बहुत बड़ा योगदान है जो इस लेख द्वारा विश्वकर्मा समाज में विश्वकर्मा साहित्य भारत द्वारा प्रसारित कर रहा हू। यह लेख अनेक ग्रंथो से संकलित कर संक्षिप्त विवरण देने की कोशिश की है जो विश्वकर्मा साहित्य समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण है। ऐसे वैभवशाली इतिहास का अध्ययन पठन और संशोधन बहुत ही जरूरी है। आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद। जय विश्वकर्मा।

संकलनकर्ता - मयूर मिस्त्री (गुजरात) 

विश्वकर्मा साहित्य भारत 


सन्दर्भ सूची -

मत्स्य पुराण, विश्वकर्मा प्रकाश, विश्वकर्मा वास्तु, मयमतम्

समरांगण सूत्रधार, वराहमिहिर, शिल्पसार, शिल्प रत्नाकर 

वास्तुशास्त्र, विमानवत्थुपालि, विश्वकर्मा पुराण, वायुपुराण

हरिवंश पुराण, महाभारत, भारतवर्ष का बृहद इतिहास, 

श्रीमदभागवत, अग्निपुराण, तैत्तिरीय ब्राम्हण, ऋग्वेद 




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