निराकार निरंकुश
निराकार निरंकुश
खुले निराकार निरंकुश आकाश में हंसता घमंड,
सूअर सी सोच जड़ बुद्धि को बनाता बढ़ा अखंड,
रोती है विद्वता, सशक्त होती प्रमाणता,
इस लाचार, छटपटाहट , थोपता,
निराकार तालमेल से बना समाज,
सनातन के शासन में डाल रहा टांग है,
साझेदार, श्रेष्टता सी ओट में छिपता ,
दया करू, अस्तित्व जाल में फंसता है,
असंख्यों की भीड़ में मूर्खता,
छेड़ा है पर्याय, जैसे सागर की गहराई,
दिखे सुने तो मापे, चट्टानें...!
कमान मजबूत सनातन का है श्रृंगार,
इत्तर सा अवशेष बचा रहेगा ,
जो द्वार दर द्वार निहारेगा, भटकेगा,
कलियुग के ऋषि, रुकेगा तू कहा ,
सनातन की धार में कटेगा एक रोज़,
मुर्ख का आईना मुर्ख समान,
कटाक्ष है मेरा इस अद्रश्य पर्याय से,
कोई नही मिलेगा, मिले तुझे विश्वकर्मा,
इनके सिवा न होगा तेरा उम्मीदवार,
(रचनाकार - मयूर मिस्त्री)
(विश्वकर्मा साहित्य भारत)
Comments
Post a Comment