महर्षि स्वरूपा भगवान भौवन विश्वकर्मा

वैदिक सूक्तो मे विश्वकर्म और विश्वकर्मा 
महर्षि स्वरूपा भगवान भौवन विश्वकर्मा 

भौवन विश्वकर्मा - महर्षि आपत्य के भौवन विश्वकर्मा हुए। उनका जन्म माध शुक्ल प्रतिपदा को हुआ था। उनके विषय में ऋग्वेद मे विस्तार से बताया गया है। 
एतत स्वयंभुवो सजन वनं दिव्यं प्रकाशते ।
यत्रायजत राजेन्द्र विश्वकर्मा प्रतापवान॥

वनवास के समय अर्जुन इन्द्र के पास शिक्षा प्राप्त करने गये थे। लोमश ऋषि ने अर्जुन द्वारा प्रदत्त सन्देश युधिष्ठिर आदि पाण्डवो को सुनाकर उन्हे साथ लेकर यात्रा प्रारम्भ की। वर्तमान मे उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल के तीर्थो पर होते हुए वे उत्कल प्रदेश मे प्रविष्ठ हुये उस समय उन्होने युधिष्ठिर से ये शब्द कहे थे- हे राजन! यह स्वयंभू ब्रह्मा का दिव्य वन प्रकाशित हो रहा है। यहाँ प्रतापी राजाओ के इन्द्र(भौवन) विश्वकर्मा ने यज्ञ किया था। इससे द बाते स्वत: प्रमाणित हो जाती है |
1. यह दिव्य वन परसुराम की तपो भूमि महेन्द्र पर्वत के निकट उत्कल प्रदेश मे था अत: स्वयंभू भारत मे ही उत्पन्न हुए।
2. इनका काल महाभारत से पूर्व है। इनके काल पश्चात भौवन विश्वकर्मा हुये तथा उन्होने सर्वमेघ यज्ञ किया ।

वेदों की ऋचाओ मे विश्वकर्मा 
अपश्यमिति चाग्रेये य ईमा वैश्वकर्मणे ।
(बृहदेवता 7, 117)
शिल्प स्थापत्य के देवता के रूप में विश्वकर्मा की जो मान्यता आज के भारतीय समाज में विद्यमान है। यह ब्राह्मण ग्रंथों, गृह सूत्रों, पुराण काल की देन है मगर, इस मान्यता की नीव भारतीय उपमहाद्वीप मे ऋग्वेदीय काल में ही पड चुकी थी। वैदिक देवताओ मे विश्वकर्मा को श्रेष्ठ स्थान मिला हुआ है।

विश्वकर्मा विश्वदेवा महाॅं असि । 
(ऋग्वेद 8, 92, 2)
ऋग्वेद मे विश्वकर्मा की स्तुति और स्वरुपादि के वर्णन के रूप में कोई दो सूक्त संग्रहित हे। ईन सूक्तो की यह विशेषता है कि वे उस वर्णन को आत्मसात किए हुए हैं। जो उस समय प्रचलित व्यवहार में था। और जो मान्यताए सृष्टिकर्ता जो सृजन कर्म को रेखांकित करती थी यद्यपि वे मान्यताएं दशवें मंडल जिसको अपेक्षाकृत परवर्ती माना जाता है। इसी कारण वे शुंगकालोपरांत परवर्ती पुराणादि के वर्णनो का आधार बनने मे पर्याप्त सहायक हुयी है। 

वैदिक सूक्तो मे विश्वकर्म और विश्वकर्मा 

ऋग्वेद के दशवें मंडल के 81 वे सूक्त के देवता विश्वकर्मा, छंद त्रिष्टूप है। तथा ऋषि विश्वकर्मा भौवन है। देवता भुवन सृजेता परमात्मा तथा उसके दृष्टा ऋषि हे भुवन मे उत्पन्न सृजेता। यह सूक्त सृष्टि सृजन और विलय की प्रक्रिया में संबंधित माना गया है। इसी अर्थ में इसकी पहली ही ऋचा मे निहित विचार की और आचार्य श्रीराम शर्मा ने संकेत किया है के सृजन के क्रम में परमात्म चेतना विश्वकर्मा का रूप धारण कर लेती है। यही पोषण के लिए पूषा बन जाती है। उत्पति, विलय दोनों क्रम चलते रहते हैं, पहले वालो को संव्याप्त करते हुए अथवा उनको आहुतियाँ देकर विलय करते हुए दिव्य चेतना नवीन लोगों मे प्रवृत रहती है।

य इमा विश्वा भुवनानि जुह्वदृषिर्होता न्यसीदत्पिता नः ।
स आशिषा द्रविणमिच्छमानः प्रथमच्छदवराँ आ विवेश ॥१॥
किं स्विदासीदधिष्ठानमारम्भणं कतमत्स्वित्कथासीत् ।
यतो भूमिं जनयन्विश्वकर्मा वि द्यामौर्णोन्महिना विश्वचक्षाः ॥२॥
विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात् ।
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावाभूमी जनयन्देव एकः ॥३॥
किं स्विद्वनं क उ स वृक्ष आस यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ।
मनीषिणो मनसा पृच्छतेदु तद्यदध्यतिष्ठद्भुवनानि धारयन् ॥४॥
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा ।
शिक्षा सखिभ्यो हविषि स्वधावः स्वयं यजस्व तन्वं वृधानः ॥५॥
विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयं यजस्व पृथिवीमुत द्याम् ।
मुह्यन्त्वन्ये अभितो जनास इहास्माकं मघवा सूरिरस्तु ॥६॥
वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजे अद्या हुवेम ।
स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा ॥७॥

उक्त सूक्त की पांचवी ऋचा मे यह भाव ध्वनित होता है कि विश्वकर्मा परमात्मा सब भुवनो के सब प्राणियों के पोषण हेतु स्वयं ही महान प्रकृति यज्ञ चक्र का संपादन करते हैं। महिधर द्वितीय ऋचा के भाष्य विश्वरुप को परिभाषित किया है। की अकेले महादेव एक मात्र सर्वेश्वर ही ध्यु भूमि रुप ब्रम्हांड का निर्माण करके अपने हाथो से पतनशील या अनित्य पञ्वभूतों से प्राणियों को मिलाकर गतिशील कर देता है। उसके सभी ओर नेत्र हे। उनके सभी ओर मुख हे। उसकी सब ओर भुजाएं है ओर उसके सब ओर पैर हे। अर्थात क्यूंकि वह सर्वेश्वर सर्वप्राणीरूप हे, अतः उन प्राणियों के नेत्र मुख आदि उसीके है ऐसा समझना चाहिए। (यजुर्वेद महिधर 17, 29)

विश्वकर्मा के स्वरुप और कमाॅदि के सम्बंध में भाष्यकार सायण ने जो विचार दिया है, वह वैदिक मान्यता के लोक मान्यता का सुंदर प्रतिष्ठापन है। पांचवी ऋचा के द्वारा देवो के शिल्पी भुवन नामक विश्वकर्मा जगत के कारण विश्वकर्मा देव की स्तुति करते हैं - हे विश्वकर्म देव । जो तुम्हारे उत्तम शरीर हे और जो तुम्हारे मध्यम शरीर हे और जो तुम्हारे अधम शरीर हे उन शरीरों को हमे यज्ञ करने के लिए मेरे हव्यभूत होने दे। हे हव्यात्रयुक्त! तुम स्वयं ही अपने पूर्वोक्त तीनों प्रकार के शरीरों को हवि से बढ़ाने वाले हो। ईन तीन प्रकार के शरीरों के द्वारा उत्तम देवादि शरीरों को, मध्यम मनुष्यादि शरीरों को और अधम कृमि, किटादि शरीरों को आपने ग्रहण किया है। इस प्रकार समस्त संपूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है। उक्त भेद से अंगविहीन परमेश्वर का रूप न होने से उस सत् ईक्षण या दर्शन किया। मे अनेकों मे एक हू। अनेक प्रकार से उत्पन्न होने का इत्यादि छांदोग्य उपनिषद की श्रुतियों (तदेक्षतः बहुः स्या प्रजायेय । छान्दोग्य 6, 2, 3) से परमेश्वर का ही देवादि भेद से बहुत होना ज्ञात होता है। 

इस प्रकार विश्वकर्म और विश्वकर्मा को परिभाषित करने का ईन ऋचाओं मे प्रयास हुआ है। यह आगे के सूक्त मे भी स्पष्ट होता है। जिसमें सृष्टि के लिए सर्वप्रथम जल को उत्पन्न करने का सन्दर्भ हे। यह जीवन की परम आवश्यकता है। इसीलिए कहा गया है कि शरीर अथवा तेज को उत्पन्न करने वाले अद्वितीय और साहस के धनी विश्वकर्मा ने पहले जल को उत्पन्न किया। यह मान्यता तैत्तिरीय संहिता मे भी आई है - 
आपो वा ईदमग्रे । (तैत्तिरीय 7, 1, 5, 1)  
मनु ने भी कहा हे - अप एव ससजाॅदो (मनुस्मृति 1, 8)

त्रिष्टुप छंदोबद्ध 82 वे सूक्त के ऋषि विश्वकर्मा भौवन और देवता विश्वकर्मा हे।  इसके पहले ही मंत्र से ध्वनित होता है के धावा - पृथ्वी के स्थिर होने पर जीवन तत्व का संचार विश्वकर्मा द्वारा किया गया है -

चक्षुषः पिताः मनसा ही धीरो धृतमेने अजनन्नम्रमाने ।
यदेदन्ता अदध्हन्त पूर्व आदिद् धायापृथिवी अप्रथेताम् ।।1।।
विश्वकर्मा विमना आदिह्राया धाता विधाता परमोत सन्छक्। 
तेषामिष्टनि समिया मदन्ति यत्रा सप्त पर एकमाहुः ।।2।। 
यो नः पिता जनिया यो विधाता धामानि वेद भुवानानि विश्वा । 
यो देवानां नामधा एक एवं तं सप्रंश्नम्भुवना यन्त्यन्या ।।3।। 
त आयजन्त द्रविणं समस्मा ऋषयः पूर्वे जरितारों न भूना । 
असूर्ते सूर्ते रजसि निषते ये भूतानि समकृण्वन्निमानी ।।4।। 
परो दिवा पर एना पृथिव्या परो देवेभिरसुरैर्यदस्ति । 
कं स्विद् गर्भ प्रथंम दध्र आपो यत्र देवाः समपश्चन्त पूर्वे ।।5।। 
तमिद्गर्भ प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे । 
अजस्य नाभावध्योकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवानि तस्थुः ।।6।। 
न तं विदाथ य इमा जजानाSन्यद्युष्माकमन्तंर बभूव । 
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाSसुतृप उक्थाशासश्चरन्ति ।।7।।

इस सूक्त मे द्वितीय ऋचा सायण ने अभियज्ञ और अध्यात्म के भेद से दो प्रकार की व्याख्या की है। महिधर ने जो भाष्य किया है, उसके अनुसार वह विश्वकर्मा प्रभु विशिष्ट मनःशक्ति सम्पन्न हे और आकाश की भांति व्यापक हे, अथवा विशेष रूप से सृष्टि को छुड़ाने वाला अर्थात संहर्ता हे । पोषण करने वाला, उत्पन करने वाला और सर्वोत्कृष्ट एवं संपूर्ण सृष्टि को देखने वाला है। जहा कश्यपादि सप्त ऋषियों को परब्रह्म परमात्मा के साथ एकाकार हुआ बताया जाता है, वहा लोगों को इच्छित वस्तुएँ उस लोक में आहुति रसभूत अस्त्र के साथ मिलकर विशेष हर्षोत्पादक हो जाती है। (यजुर्वेद महिधर 17, 26)

तीसरी ऋचा से उसका महारूप होता है कि जो विश्वकर्मा प्रभु हमारा उत्पादक पालक हे, जो परमेश्वर अनंत कोटि ब्रम्हांडो को धारण करने वाला है, जो संपूर्ण पुण्यादि से प्राप्त होने वाले धामों, स्थानो, नामों, जन्मों को जानता है और सब प्राणियों एवं लोकों को जानता है, जो केवल एवं अद्वितीय होते हुए भी देवताओ के इन्द्र - वरुणादि विभिन्न नामों को धारण करता है अथवा एकमात्र सर्वोच्च शक्ति होने के कारण इन्द्रदि देवो के भिन्न भिन्न नाम रखता है। उससे पृथक हुए सब प्राणी अपने अपने कर्म अधिकार को पूछने के लिए उसीके पास जाते हैं, अर्थात सब प्राणियों को प्रभु अपने अपने स्वभाव एवं कर्म में नियुक्त करता है। (उपयुॅक्त महिधर 17, 27)

इस प्रकार वैदिक पुष्टभूमि मे विश्वकर्मा सृष्टिकर्ता ही नहीं, उसके विकास उन्नयन के लिए आवश्यक संसाधनों के प्रदाता भी सिद्ध होते हैं। दोनों सूक्तो की चौदह ऋचाए विश्वकर्मत्व को रेखांकित करती प्रतीत होती है। वैदिक वाङ्ममय को यही विशेषता है कि वे सूत्रवचन की तरह है, और उनके उपयोगादि को ब्राह्मण, आरण्यकादि ग्रंथ ने सुरक्षित करने का प्रयास किया है।

उपर दिए गए तमाम भावार्थो की प्रतिष्ठा से हम विश्वकर्मा को अविनाशी परमात्मा और अनेक रूप से जान चुके हैं। विशेषकर वैदिक ग्रंथो के सूक्तो के प्रमाण प्रभु विश्वकर्मा जगतकर्ता द्वारा सृष्टि के प्रारंभ और विलय को बहुत अच्छी तरह वर्णित होते देखा जा सकता है। विश्वकर्मा समाज में इसी तरह के अनेक साहित्य को समाज के जन-जन तक पहुंचाना ही विश्वकर्मा साहित्य भारत का ध्येय है। लेख को समाज के हर क्षेत्र में पहुंचाकर आप भी प्रचार प्रसार के अभियान में जरूर जुड़े।

मयूर मिस्त्री - गुजरात
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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