भारत रत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या
एक बार कुछ भारतीयों को अमेरिका में कुछ फैक्टरियों की कार्यप्रणाली देखने के लिए भेजा गया। फैक्टरी के एक ऑफीसर ने एक विशेष मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा, "अगर आप इस मशीन के बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको इसे 75 फुट ऊंची सीढ़ी पर चढ़कर देखना होगा"। भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने कहा, "ठीक है, हम अभी चढ़ते हैं"। यह कहकर वह व्यक्ति तेजी से सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा। ज्यादातर लोग सीढ़ी की ऊंचाई से डर कर पीछे हट गए तथा कुछ उस व्यक्ति के साथ हो लिए। शीघ्र ही मशीन का निरीक्षण करने के बाद वह शख्स नीचे उतर आया। केवल तीन अन्य लोगों ने ही उस कार्य को अंजाम दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि डॉ॰ एम.विश्वेश्वरैया थे जो कि सर एमवी के नाम से भी विख्यात थे।
दक्षिण भारत के मैसूर, कर्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में एमवी का अभूतपूर्व योगदान है। जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 34 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए एमवी ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया।
उस समय राज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया।
विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फर्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन्होंने कई कृषि, इंजीनियरिंग व औद्योगिक कालेजों को भी खुलवाया।
वह उद्योग को देश की जान मानते थे, इसीलिए उन्होंने पहले से मौजूद उद्योगों जैसे सिल्क, संदल, मेटल, स्टील आदि को जापान व इटली के विशेषज्ञों की मदद से और अधिक विकसित किया। धन की जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने बैंक ऑफ मैसूर खुलवाया। इस धन का उपयोग उद्योग-धंधों को विकसित करने में किया जाने लगा। 1918 में विश्वेश्वरैया दीवान पद से सेवानिवृत्त हो गए। औरों से अलग विश्वेश्वरैया ने 44 वर्ष तक और सक्रिय रहकर देश की सेवा की। सेवानिवृत्ति के दस वर्ष बाद भद्रा नदी में बाढ़ आ जाने से भद्रावती स्टील फैक्ट्री बंद हो गई। फैक्ट्री के जनरल मैनेजर जो एक अमेरिकन थे, ने स्थिति बहाल होने में छह महीने का वक्त मांगा। जोकि विश्वेश्वरैया को बहुत अधिक लगा। उन्होंने उस व्यक्ति को तुरंत हटाकर भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षित कर तमाम विदेशी इंजीनियरों की जगह नियुक्त कर दिया। मैसूर में ऑटोमोबाइल तथा एयरक्राफ्ट फैक्टरी की शुरूआत करने का सपना मन में संजोए विश्वेश्वरैया ने 1935 में इस दिशा में कार्य शुरू किया। बंगलूर स्थित हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स तथा मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्टरी उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। 1947 में वह आल इंडिया मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। उड़ीसा की नदियों की बाढ़ की समस्या से निजात पाने के लिए उन्होंने एक रिपोर्ट पेश की। इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड तथा अन्य कई बांधों का निर्माण हुआ।
वह किसी भी कार्य को योजनाबद्ध तरीके से पूरा करने में विश्वास करते थे। 1928 में पहली बार रूस ने इस बात की महत्ता को समझते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना तैयार की थी। लेकिन विश्वेश्वरैया ने आठ वर्ष पहले ही 1920 में अपनी किताब रिकंस्ट्रक्टिंग इंडिया में इस तथ्य पर जोर दिया था। इसके अलावा 1935 में प्लान्ड इकॉनामी फॉर इंडिया भी लिखी। मजे की बात यह है कि 98 वर्ष की उम्र में भी वह प्लानिंग पर एक किताब लिख रहे थे। देश की सेवा ही विश्वेश्वरैया की तपस्या थी। 1955 में उनकी अभूतपूर्व तथा जनहितकारी उपलब्धियों के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जब वह 100 वर्ष के हुए तो भारत सरकार ने डाक टिकट जारी कर उनके सम्मान को और बढ़ाया। 101 वर्ष की दीर्घायु में 14 अप्रैल 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया।
1952 में वह पटना गंगा नदी पर राजेंद्र सेतु पुल निर्माण की योजना के संबंध में गए। उस समय उनकी आयु 92 थी। तपती धूप थी और साइट पर कार से जाना संभव नहीं था। इसके बावजूद वह साइट पर पैदल ही गए और लोगों को हैरत में डाल दिया। विश्वेश्वरैया ईमानदारी, त्याग, मेहनत इत्यादि जैसे सद्गुणों से संपन्न थे। उनका कहना था, कार्य जो भी हो लेकिन वह इस ढंग से किया गया हो कि वह दूसरों के कार्य से श्रेष्ठ हो।
भारत-रत्न से सम्मानित डॉ. मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया ने सौ वर्ष से अधिक की आयु पाई और अन्त तक सक्रिय जीवन व्यतीत किया। एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, 'आपके चिर यौवन का रहस्य क्या है?' डॉ॰ विश्वेश्वरैया ने उत्तर दिया, 'जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है। और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सके।
उनके इंजीनियरिंग के असाधारण कार्यों में मैसूर शहर में कन्नमबाडी या कृष्णराज सागर बांध बनाना एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। उसकी योजना सन् 1909 में बनाई गई थी और सन् 1932 में यह पूरा हुआ। बम्बई प्रेसीडेन्सी में कई जलाशय बनाने के बाद, सिंचाई व विद्युत शक्ति के लिए उन्होंने कावेरी नदी को काम में लाने के लिए योजना बनाई। विशेषकर कोलार स्वर्ण खदानों के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण थे। बांध 124 फुट ऊँचा था, जिसमें 48,000 मिलियन घन फुट पानी का संचय किया जा सकता था। जिसका उपयोग 150,000 एकड़ भूमि की सिंचाई और 60,000 किलो वाट्स ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए होना था। तब तक कृष्णराज सागर बांध भारत में बना सबसे बड़ा जलाशय था। इस बहुउद्देशीय परियोजना के कारण अनेक उद्योग विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम चीनी मिल, मैसूर चीनी मिल भी शामिल है। अपनी दूरदृष्टि के कारण, विश्वेश्वरैया ने परिस्थिति विज्ञान के पहलू पर भी पूरा ध्यान दिया। मैसूर शहर में आने वाला प्रत्येक यात्री कृष्णराज सागर बांध और उसके पास ही स्थित प्रसिद्ध वृन्दावन गार्डन देखना एक आवश्यक कार्य मानता था। वहाँ फव्वारों का जल प्रपात, मर्मर पक्षी और आकर्षक फूलों की बहुतायत देखते ही बनती थी।
प्रथम नियुक्ति
1884 मे विश्वेश्वरैया जी की नियुक्ति मुंबई प्रेसीडेंट सरकार के लोक निर्माण विभाग मे नाशिक मे हुयी ।
मुंबई प्रेसिडेंसी मे आप 1908 तक रहे। इस समयावधि में विश्वेश्वरैया जी ने पुणे, कोल्हापुर, धारवाड़ बेलगाम, बीजापुर आदि कई शहरो की जलापूर्ति योजना तैयार की।
नियमित कार्यो के साथ साथ विश्वेश्वरैया जी बाढ़ नियंत्रण, बाँध सुद्ढीकरण, जलापूर्ति, नगरीय विकास, सार्वजनिक निर्माण, सड़क, भवन इत्यादि के निर्माण की महात्वाकांक्षी योजनाओं से जुड़े रहे।
सक्खर मे स्वच्छ जल
1892 जब सक्खर (सिंध) नगर परिषद सक्खर शहर की जलापूर्ति योजना में असमर्थ हो गई थी। तो विश्वेश्वरैया जी ने सक्खर शहर मे स्वच्छ जलापूर्ति करवाई। यह उनकी ही बुद्धि का परिणाम था की सिंधु नदी के पास ही एक कुआं खोद कर उसमें रेत की कई परतें बिछाई गई। और उसे एक सुरंग द्वारा नदी से जोड़ दिया गया। सुरंग से कुएं में आने वाला पानी स्वत ही रेत से रिश रिश कर ही फिल्टर हो जाता था। जिसे पंप द्वारा पहाड़ की चोटी पर लिया जा गया था। फिर वहां से शहर की जलापूर्ति की गई।
पुणे में विश्वेश्वरैया
पुणे में विश्वेश्वरैया जी ने सिंचाई की नई पध्धति जिसे सिंचाई की ब्लॉक पद्धति कहा जाता है। जिससे नहर के पानी की बर्बादी से रोका जा सके। 1901 मे विश्वेश्वरैया जी ने बांधो की जल भंडारण क्षमता मे वृद्धि के लिए विशेष प्रकार के जल द्वारों का निर्माण किया। ईन विशेष जल द्वारों से बांधो मे 25 प्रतिशत अधिक पानी संग्रह किया जा सकता था। आज इन्हें विश्वेश्वरैया फाटक कहा जाता है। विश्वेश्वरैया जी ने इनका पेटेंट अपने नाम से करवाया था। ईन फाटको का पहला प्रयोग मुथा नदी की बाढ़ पर नियंत्रण के लिए खडकवासला मे किया गया। इस सफल प्रयोग के बाद तिजारा बाँध ग्वालियर, कृष्ण सागर बाँध मैसूर, और अन्य बड़े बांधो मे जल द्वारों का सफल प्रयोग किया गया।
अदन बन्दरगाह की छावनी में पानी की समस्या
1906 अदन बन्दरगाह के सैनिक छावनी में पीने के पानी की समस्या गम्भीर थी। इस समस्या के निवारण के लिए विश्वेश्वरैया जी को वहा भेजा गया। विश्वेश्वरैया जी ने अदन से 97 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर पहाड़ी क्षेत्र की खोज की जहा पर्याप्त वर्षा होती थी। क्षेत्र में बहने वाली नदी के तल से बंध मुह वाले कुए बनाए गए और वर्षा जल को एकत्र कर पंपों द्वारा अदन बन्दरगाह तक पहुंचाया गया।
हैदराबाद में विश्वेश्वरैया
1907 - 08 तक मुंबई प्रेसीडेंसी मे सेवा देने के बाद 1909 मे हैदराबाद के निजाम का एक अनुरोध विश्वेश्वरैया जी को प्राप्त हुआ । इस अनुरोध पर बाढ़ से नष्ट हुए हैदराबाद शहर का पुनःनिर्माण एवं भविष्य में बाढ़ से बचने की विशेष योजना तैयार की थी।
मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर और दिवान
मुंबई प्रेसीडेंसी की सेवा में रहते हुए 1907 मे कुछ समय के लिए विश्वेश्वरैया जी तीन सुपरिटेंडेंट इंजीनीयरो का उत्तर दायित्व सम्भाल रहे थे। परंतु वे जानते थे कि यहा रहते हुए वे चीफ इंजीनियर के पद पर कभी नहीं पहुंच सकते। क्यूंकि वह पद केवल अंग्रेजो के लिए सुरक्षित था। 1907 मे उन्होने राजकीय सेवा में त्यागपत्र दे दिया और विदेश भ्रमण के लिए चल पड़े। 1909 मे विश्वेश्वरैया जी को मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर पद के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने सरकार से पहले आश्वासन लिया कि उनकी योजना पूरी करने मे कोई उच्चाधिकारी अकारण ही बाधा नहीं डालेगा। सरकार द्वारा आश्वासित किए जाने पर 1909 मे चीफ इंजीनियर का पद स्वीकार किया। इनके साथ ही उन्हें रैल सचिव नियुक्त किया गया। कार्यभार संभालते ही विश्वेश्वरैया जी ने राज्य में सिंचाई और बिजली की तरफ ध्यान दिया। और रेलो का जाल बिछाने के लिए एक महात्वाकांक्षी योजना तैयार की। 1912 मे विश्वेश्वरैया जी को मैसूर राज्य का दिवान बना दिया गया। किसी इंजीनियर का इस पद पर पहुंचना पहली बार हुआ था। मैसूर राज्य के दिवान पद पर रहते हुए विश्वेश्वरैया जी ने अनेक योजनाएं साकार की थी। साथ ही राज्य की शिक्षा व्यवस्था में भी ध्यान दिया। उन्हीं के प्रयासों से मैसूर विश्वविद्यालय स्थापना हुयी जो देशी रियासतों मे पहला विश्वविद्यालय था। विश्वेश्वरैया जी के अथक प्रयासों से मैसूर राज्य के रेशम, चंदन के तेल, साबुन, धातु, चमड़ा रंगने आदि के कारखाने लगे। भद्रावती मे लौह इस्पात कारखाने की योजना भी विश्वेश्वरैया जी की ही देन है। इन्हीं के प्रयासों से अक्टूबर 1913 मे बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना हुयी।
दिवान का पद त्याग
1917 - 18 मे जब विश्वेश्वरैया जी की ख्याति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तब उनके विरोधी राज्य में तरह तरह की अफवाह उड़ा रहे थे। उन्होंने राजा तथा दिवान के बीच अविश्वास का वातावरण खड़ा कर दिया। जिनके कारण 1918 मे दिवान का पद छोड़ दिया। दिवान का पद छोड़ने के बाद स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगे। 1923 मे उन्होने भद्रावति मे लोहे के कारखाने का अध्यक्ष बनने का स्वीकार किया। 1927 कृष्ण राज सागर बाँध से संबंधित नहरों और सुरंगों का काम पूर्ण किया।
हीरकुड बाँध और विश्वेश्वरैया
1937 मे उड़ीसा में आई विनाशकारी बाढ़ से दुखी होकर महात्मा गांधी ने विश्वेश्वरैया जी को अनुरोध किया कि आप उड़ीसा जाकर बाढ़ से रोकथाम संबधित कार्य सम्भाले। 1938 मे विशेष उड़ीसा में महानदी के डेल्टा का गहन अध्ययन किया। और अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी इसी रिपोर्ट के आधार पर हिराकुड बाँध का निर्माण हुआ।
जीवन की उपलब्धियां
चीफ़ इंजीनियर और दीवान के पद पर कार्य करते हुए विश्वेश्वरैया ने मैसूर राज्य को जिन संस्थाओं व योजनाओं का उपहार दिया, वे हैं।
मैसूर बैंक (1913), मलनाद सुधार योजना (1914), इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1917), मैसूर विश्वविद्यालय और ऊर्जा बनाने के लिए पावर स्टेशन (1918)
उनका व्यक्तित्व
- एम् विश्वेश्वरैया जी बहुत साधारण तरह के इन्सान थे।
- जो एक आदर्शवादी, अनुशासन वाले व्यक्ति थे. वे शुध्य शाकाहारी और नशा से बहुत दूर रहते थे।
- विश्वेश्वरैया जी समय के बहुत पाबंद थे, वे 1 min भी कही लेट नहीं होते थे।
- वे हमेशा साफ सुथरे कपड़ों में रहते थे. उनसे मिलने के बाद उनके पहनावे से लोग जरुर प्रभावित होते थे।
- वे हर काम को परफेक्शन के साथ करते थे. यहाँ तक की भाषण देने से पहले वे उसे लिखते और कई बार उसका अभ्यास भी करते थे।
- वे एकदम फिट रहने वाले इन्सान थे. 92 साल की उम्र में भी वे बिना किसी के सहारे के चलते थे, और सामाजिक तौर पर एक्टिव भी थे।
- उनके लिए काम ही पूजा थे, अपने काम से उन्हें बहुत लगाव था।
- उनके द्वारा शुरू की गई बहुत सी परियोजनाओं के कारण भारत आज गर्व महसूस करता है, उनको अगर अपने काम के प्रति इतना दृढ विश्वास एवं इक्छा शक्ति नहीं होती तो आज भारत इतना विकास नहीं कर पाता।
- भारत में उस ब्रिटिश राज्य था, तब भी विश्वेश्वरैया जी ने अपने काम के बीच में इसे बाधा नहीं बनने दिया, उन्होंने भारत के विकास में आने वाली हर रुकावट को अपने सामने से दूर किया था।
अन्य पुरस्कृत सम्मान
सन 1911 मे दिल्ली दरबार में उन्हें कंम्निपेनियन ऑफ इंडियन एम्पायर के खिताब से सम्मानित किया गया।
मैसूर राज्य में वाइस रोय की यात्रा के बाद सन 1915 मे वे नाइट कमांडर ऑफ ध इंडियन ईम्पायर सम्मानित हुए इसी सम्मान के साथ साथ उनको सर की पदवी हांसिल हुयी।
विश्वेश्वरैया जी को आठ विश्वविद्यालयो से मानद उपाधिया प्राप्त हुई।
मुंबई और मैसूर विश्वविद्यालयो से LLD और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और आंध्र विश्वविद्यालय से D. Lit. प्राप्त हुआ ।
कोलकाता। पटना, प्रयागराज, और जाधवपुर विश्वविद्यालयो द्वारा D. S. की मानद उपाधिया दी गई।
रॉयल एशियाटीक सोसाइटी, काउन्सिल ऑफ बंगाल, कोलकाता द्वारा फ़रवरी 1958 मे विश्वेश्वरैया जी को दुर्गाप्रसाद खेतान स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।
सन 1887 मे ही इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के सह सदस्य बन गए थे। सन 1904 मे सदस्य।
1952 मे उनका नाम इंस्टीट्यूट की सूची में बगैर शुल्क के रखना तय हुआ।
इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स के तो वे सन 1943 से सम्मानित सदस्य थे।
इंडियन साइंस कौंग्रेस एसोसिएशन के सम्मानीय सदस्य थे।
भारत के विश्व प्रसिद्ध संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलूर की कोर्ट के लगातार 9 वर्षो तक अध्यक्ष रहे।
टाटा आयरन और स्टील कंपनि के लगभग 28 सालो तक डायरेक्टर रहे।
उन्होंने जनवरी 1923 मे लखनऊ में हुए इंडियन कॉंग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
विश्वेश्वरैया जी के जन्म दिवस पर विशेष रूप से डाक टिकट जारी किया गया था।
मृत्यु
अपने 102 साल के लंबे जीवन काल में उन्होंने छोटे बड़े बहुत सारे कार्य की योजनाए और निर्माण और विकास की गति को तकनीकी से प्रगतिशील किया है। उन्होंने 1962 मे अपने देह का त्याग किया।
आशा है कि आपको भारत के विश्वकर्मा सर विश्वेश्वरैया जी के सम्पूर्ण जीवन परिचय के साथ साथ अभियंता दिवस उनकी शिक्षा, कार्य पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। ऐसे भारत रत्न को समस्त विश्वकर्मा समाज और देश गौरव महसूस करते हैं।
इनके कार्य और व्यक्तित्व को समाज में भी सम्मान मिलना चाहिए यही आशा के साथ जय विश्वकर्मा।
संकलनकर्ता -
मयूर मिस्त्री
श्वकर्मा साहित्य भारत
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