भगवान विश्वकर्मा और अथर्ववेदी विश्वकर्मिय ब्राम्हण

भगवान विश्वकर्मा और अथर्ववेदी विश्वकर्मिय ब्राम्हण 

विश्व को प्राचीनतम ग्रन्थ वेदों से ऋषियों द्वारा रचित ज्ञान मिला। महर्षि अंगिरा ने अथर्ववेद की रचना की, जिसका उपवेद अर्थवेद यानि शिल्प शास्त्र है, जिसमें सारे शिल्प - विज्ञान का वर्णन है। इसमें सुई से लेकर विमान निर्माण तक की विद्या का ज्ञान हैं। इसी वंश में ऋषि विश्वकर्मा हुए, जिन्होंने मानव कल्याण और भूमंडल की रचना को शिल्प विज्ञान के आविष्कार किये। वेदों में विश्वकर्मा जी की महिमा के अनेक मंत्र है।

वाल्मीकि रामायण में गुरु वशिष्ठ शिल्प कर्म में लगे शिल्पियों को यज्ञकर्म में व्यस्त बताकर उनकी पूजा का आदेश देते है तथा ऋग्वेद में विश्वकर्मा जी को धरती तथा स्वर्ग का निर्माता कहा है। यजुर्वेद में महर्षि दयानंद सरस्वती के भाष्य में कहा गया है कि विश्व के सभी कर्म, जिनके अपने किये होते है, ये वही विश्वकर्मा है।

शतपथ में अग्नि, वायु, आदित्य से वेदोत्पत्ति सिद्ध है और इसे मनु ने भी माना है -
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। 
दुहोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम्।। 

ऐतरेयब्राह्मण भी अग्नि, वायु से वेदों का प्रादुर्भाव मानता है और गोपथब्राह्मण में भी ऐसा ही लिखा है - 
अग्नेऋग्वेदं वायोर्यजुर्वेदमादित्यात् सामवेदम्।

अग्नि से ऋग्वेद पैदा हुआ, वायु से यजुर्वेद और आदित्य से सामवेद पैदा हुआ। इस प्रमाण से स्पष्ट शब्दों में सिद्ध हो जाता है कि अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों पर वेद उतरे।
गोपथब्राह्मण में जो क्रम ब्रह्म - परमात्मा से लेकर अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा तक प्रतिपादन किया गया है उसमें कहीं ब्रह्मा का नाम तक नहीं। अङ्गिरा को तो स्पष्ट शब्दों में ऋषि लिखा है, जबकि अथर्व का प्रकाश अङ्गिरा नामक ऋषि द्वारा है, तो फिर किस प्रकार कहा जा सकता है कि अग्नि आदि ऋषि नहीं हैं। वेदों का प्रकाश सिवाय चेतन के अन्य द्वारा हो ही नहीं सकता। भौतिक अग्नि, वायु, आदित्य तो अचेतन हैं। हाँ, अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा के लिए देवता शब्द भी आ सकता है, क्योंकि देवता विद्वान् का नाम है और भौतिक अग्नि, वायु और सूर्य को भी दिव्य गुणवाला होने से देवता कह सकते हैं। गायत्र्युपनिषद् से भी यही पाया जाता है कि वेद से ब्रह्मा बनता है, अर्थात् वेदाध्ययन से ब्रह्मा कहलाता है। 

देवशिल्पी महर्षि विश्वकर्मा ने विश्वकर्मा सूक्त मे मंत्रों का साक्षात्कार ऋषित्व शक्ति से किया है, वे सूक्त मे इस दृष्टि से जाने जाते हैं कि मंत्रों में ही संपूर्ण शिल्पकला का मूल छिपा है। विश्वकर्मा प्रभु ने बीज रूप में अपनी प्रतिभा और कुशाग्रता से अथॅववेद की रचना की है।

उन्होंने अर्थववेद या शिल्पशास्त्र के अंतर्गत कितने ग्रन्थों की रचना की है, इसका परिचय अपराजित नामक शिल्प शास्त्र में इस प्रकार मिलता है -

उपवेदाथॅ शास्त्रं तु आथवॅणस्य कथ्यते ।
अर्थ शास्त्रं तु विधिवत् शिल्प शास्त्रं तथैव च।।

शास्त्रं द्वादशसाहस्त्रं कृतादो विश्वकर्मणा।
तेषां चतुः सहस्रं तु कलौ चैव प्रवत्तते।।

अर्थात -
अथववेद का उपवेद अर्थशास्त्र अथवाॅ से निर्मित कहा जाता है वह अर्थशास्त्र और शिल्पशास्त्र मे शिल्प कौशल दोनों के बारह और दो हजार शिल्प शास्त्रों से बना बताया गया है, जिसकी रचना भगवान विश्वकर्मा ने कृतयुग के आरंभ में की थी, उन वाराह सहस्त्रों में से कलियुग में चार सहस्त्र ग्रंथ वर्तमान हैं।

जब इस श्लोक की रचना हुई उस समय शिल्पशास्त्र से संबंधित चार हजार ग्रंथ प्रचलन में थे और आज विश्वकर्मा कृत ग्रंथों की संख्या नगण्य है।

अथर्व का अर्थ
अथर्व शब्द का अर्थ सामान्य रूप से स्थिरता होता है, चंचलता-रहित। निरुक्त के अनुसार अथर्व शब्द में "थर्व" धातु है, जिसका अर्थ है--गति या चेष्टा। इस प्रकार अथर्वन् का अर्थ हुआ गतिहीन या स्थिर। इसका अभिप्राय है कि जिस वेद में स्थिरता या चित्तवृत्तियों के निरोधरूपी योग का उपदेश है, वह अथर्वन् वेद है -"अथर्वाणोsथर्वणवन्तः। 
थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः।" 
(निरुक्तः--11.18)

गोपथ-ब्राह्मण के अनुसार अथर्वन् (अथर्वा) शब्द "अथर्वाक्" का संक्षिप्त रूप है। अथ+अर्वाक्=अथर्वा। तदनुसार अर्थ हुआ--समीपस्थ आत्मा को अपने अन्दर देखना या वेद जिसमें आत्मा को अपने अन्दर देखने की विद्या का उपदेश देता हैः--"अथ अर्वाग् एनं....अन्विच्छेति, तद् यद् अब्रवीद् अथार्वाङ् एनमेतासु अप्सु अन्विच्छेति तदथर्वाsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः-1.4) अथर्ववेद में ऐसे अनेक सूक्त हैं, जिनमें आत्मविद्या या ब्रह्मविद्या का उपदेश किया गया है।

अथर्ववेद का दार्शनिक रूप
शतपथ-ब्राह्मण (6.4.2.2) के अनुसार अथर्वा प्राण हैः--"प्राणोsथर्वा।" इसका अभिप्राय है कि प्राणशक्ति को प्रबुद्ध करना और प्राणायाम के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति करना।

गोपथ-ब्राह्मण (1.4) के अनुसार आत्मा-तत्त्व को अपने अन्दर देखने की बात कही गई है। उसे प्राप्त करना अथर्वा का लक्ष्य है। अथर्ववेद "चान्द्र-वेद" है। इसका सम्बन्ध चन्द्रमा से है। चन्द्रमा की विशेषता ज्योति और शीतलता प्रदान करना है। अथर्ववेद ठीक यही काम करता है। ऋग्वेद आग्नेय-प्रधान है, तो अथर्ववेद सोम-प्रधान (सोम-तत्त्व-प्रधान) है। यदि ऋग्वेद ऊष्मा, प्रगति और स्फूर्ति देता है तो अथर्ववेद शान्ति, सामंजस्य, सद्भावना औस सोमीय गुणों का आधान करता है, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति हो सके।

अथर्ववेद के अन्य नाम
(1) अथर्ववेद
अथर्वन् ऋषि के नाम पर इस वेद काम "अथर्वा" पडा। इस वेद अथर्वा ऋषि और उनके वंशजों का विस्तृत वर्णन है -- 
"स आथर्वणो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.5)

(2) आङ्गिरस वेद
अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट होने के कारण इस वेद का नाम "आङ्गिरस" वेद नाम पडा - 
स आङ्गिरसो वेदोsभवत्।" (गोपथ-ब्राह्मण--1.8) और (शतपथ-ब्राह्मणः--13.4.3.8)

(3) अथर्वाङ्गिरस वेद
यह प्राचीन नाम है। इस वेद अथर्वा और अङ्गिरा ऋषि और उनके वंशजों के द्वारा सर्वाधिक दृष्ट मन्त्रों का संकलन है। अतः इस वेद का नाम 
"अथर्वाङ्गिरस-वेद" नाम पडा 
अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।" (अथर्ववेदः--10.7.20)

(4) ब्रह्मवेद
इसका एक प्राचीन नाम ब्रह्मवेद भी है। अथर्ववेद में ही इसे ब्रह्मवेद भी कहा गया हैः - 
"तमृचश्च सामानि च यजूंषि च ब्रह्म चानुव्यचलन्।" (अथर्ववेदः--15.5.6) गोपथ-ब्राह्मण (1.2.16) 
में भी इसे ब्रह्मवेद कहा गया हैः - 
"ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो ब्रह्मवेद इति।" 

(5) भृग्वङ्गिरो वेद
ग्वङ्गिराः और उनके वंशजों के द्वारा दृष्ट अनेक मन्त्र इस वेद में है। इसलिए उनके नाम पर इस वेद का नाम "भृग्वङ्गिरो वेद" नाम पडा। 
"ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोवित्।" (गोपथ-ब्राह्मणः--1.3.1)

(6) क्षत्रवेद
शतपथ-ब्राह्मण (14.8.14.2 से 4 तक) में इस वेद को "क्षत्रवेद" कहा गया है - 
"उक्थं यजुः...साम...क्षत्रं वेद।" 
इस वेद में राजाओं और क्षत्रियों का विशेषतया वर्णन है।

(7) भेषज्य वेद
इस वेद में आयुर्वेद, चिकित्सा एवं ओषधियों आदि का विस्तृत वर्णन है, अतः इसे "भैषज्य-वेद" कहा गया है -
"ऋचः सामानि भेषजा। यजूंषि।" (अथर्ववेदः---11.6.14) 
यहाँ इसे भेषजा (भेषजानि) कहा गया है।

(8) छन्दो वेद
अथर्ववेद का एक प्राचीन नाम "छन्दोवेद" या "छान्दस्" है। छन्द-प्रधान होने के कारण इसका यह नाम दिया गया हैः - 
"(क) ऋचः सामानि छन्दांसि...यजुषा सह।" 
(अथर्ववेदः--11.7.24) 
(ख) "छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात्..." 
(ऋग्वेदः--10.90.9) और यजुर्वेदः--31.7)

(9) महीवेद
अथर्ववेद में इसका एक नाम "महीवेद" भी प्राप्त होता है। इसमें महती ब्रह्मविद्या का वर्णन किया गया है या इसमें मही-सूक्त है। मही पृथिवी को कहा जाता है - 
ऋचः साम यजुर्मही। (अथर्ववेदः--10.7.14)। 
इसमें पृथिवी को मही माता कहा गया है - 
"माता भूमिः पुत्रोsहं पृथिव्याः।"

शाखाएँ
महाभाष्य के पस्पशाह्निक में मुनि पतञ्जलि ने अथर्ववेद की 9 शाखाएं बताई हैं - 
"नवधाssथर्वणो वेदः"। ये 9 शाखाएँ है
(1) पैप्लाद, (2) तौद, (3) मौद, (4) शौनकीय, (5) जाजल, (6) जलद, (7) ब्रह्मवद, (8) देवदर्श और (9) चारणवैद्य। 
आथर्वण-परिशिष्ट और चरणव्यूह में तौद के स्थान पर स्तौद नाम है। इन 9 शाखाओं में सम्प्रति केवल 2 शाखाएँ उपलब्ध हैं -
(1) शौनकीय (2) पैप्लाद।

वेद व्यास ने अपने शिष्य सुमन्तु को अथर्ववेद का अध्ययन कराया था। सुमन्तु को "दारुण-मुनि" भी कहा जाता है। सुमन्तु का शिष्य कबन्ध था। उसके दो अन्य शिष्य थेः---पथ्य और वेददर्श। कहीं-कहीं वेददर्श के स्थान पर देवदर्श नाम प्राप्त होता है।
 
महानारायणीयोपनिषद् इसी देवदर्शी नामक शाखा से सम्बन्धित है। पथ्य के तीन शिष्य थे - जाजलि, कुमुद और शौनक। दूसरी ओर देवदर्श की चार शिष्य थे - मोद, ब्रह्मबलि, पिप्पलाद और शौष्कायनि (शौक्लायनि) । इनमें शौनक के शिष्य बभ्रु तथा सैन्धवायन बताये जाते हैं। इन दोनों शिष्यों ने अथर्ववेद का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार किया। इसी कारण इनके गुरु शौनक की शाखा सुरक्षित रही।

(1) शौनकीय-शाखा
सम्प्रति प्रचलित अथर्ववेद "शौनकीय-शाखा" ही है। इस संहिता में 20 काण्ड, 730 सूक्त और 5987 मन्त्र हैं। इसका सबसे बडा काण्ड 20 वाँ काण्ड है, जिसमें 958 मन्त्र है। इसका सबसे छोटा काण्ड 17 वाँ काण्ड है, जिसमें केवल 30 मन्त्र हैं। इस वेद में गद्य और पद्य दोनों प्रकार के मन्त्र हैं। इसी वेद पर ब्राह्मण "गोपथ-ब्राह्मण" उपलब्ध है। 

(2) पैप्पलाद-शाखा
इस शाखा का प्रचार काश्मीर में अधिक है। यह संहिता अपूर्ण है। भाष्यकार पतञ्जलि इसी शाखा को मानने वाले थे। इसीलिए महाभाष्य के प्रारम्भ में अथर्ववेद का प्रथम मन्त्र "ओम् शन्नो देवीरभिष्टय..." दिया है। शौनकीय-शाखा में इस मन्त्र का स्थान हैः--1.6.1, जबकि अथर्ववेद (शौनक) का प्रथम मन्त्र हैः--"ये त्रिषप्ताः परियन्ति...."।
इस प्रमाण से पता चलता है कि महर्षि पतञ्जलि के समय सम्पूर्ण पैप्पलाद-संहिता उपलब्ध थी। पिप्पलाद ऋषि बहुत बडे विद्वान् ऋषि थे। 

मूल व्याख्या से देखे तो सनातन वैदिक हिंदू धर्म की संस्कृति और सभ्यता के मूलभूत अथर्ववेदी वैदिक ब्राह्मण है ये सनातन की भांति सत्य एवं शाश्वत है। विश्वब्रह्मांड अर्थात विश्वसृष्टि की उत्पत्ति जिस परमात्मा ने की उसे सनातन वैदिक शास्त्रानुसार मुख्यरूप से ॐ अर्थात ' विश्वकर्मा ' कहा जाता है। मनुस्मृति के इस श्लोक से वेदों की रचना का रहस्य समझा जा सकता है - 
" अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम। दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13)"

अर्थात - 
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा से ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

चतुर्थ वेद अथर्ववेद के ज्ञान का प्रकाश ब्रह्म परमात्मा ने तजज्ञ ब्रह्मर्षि अंगिरा के हृदयेश में प्रकट किया। अथर्ववेद को शास्त्रों में कई नामों से संबोधित किया गया है जिसमें प्रमुख रूप से ' ब्रह्मवेद  ये संज्ञा इसमें निहित दिव्य ज्ञान अर्थात ब्रह्मज्ञान के कारण किया गया है। ब्रह्मवेद वो वेद है जिसके दिव्य ज्ञान को ग्रहण करने वाला ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। ब्रह्म को जानना अपने आत्म को जानने के समान है और जिसने आत्म में निहित परमात्म को जान लिया उस जीव के लिए इस विश्वब्रह्मांड में और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता है उसी अवस्था को मोक्ष कहा जाता है। अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात शिल्पवेद या शिल्पशास्त्र है। जिसका प्रमाण शौनकिय चरणव्यूह से सिद्ध हो जाता है जो निम्न है, 
स्थापत्य वेदोर्थ शास्त्रं विश्वकर्मादि 
शिल्प शास्त्रं अथर्ववेद स्योप्वेद:॥ 
(शौनकिय चरणव्यूह परि. खंड-4)
अर्थात - 
भगवान विश्वकर्मा द्वारा निर्मित शिल्प शास्त्र (अर्थवेद) ही अथर्ववेद का उपवेद है। 

जो ब्राह्मण चतुर्थवेद अर्थात अथर्ववेद का ज्ञान रखता है वो चतुर्वेदी या अथर्ववेदी ब्राह्मण कहलाता है। जिनका कुल वंश अथर्ववेद या कहे शिल्पशास्त्र , वास्तुशास्त्र आदि से परंपराओं अर्थात कर्म से धारण कर रखा है ऐसे ब्राह्मण ही आज के युग में अथर्ववेदी ब्राह्मण की संज्ञा से विख्यात है। जिन वैदिक ब्राह्मणो ने भगवान विश्वकर्मा के निर्माण के कर्मो को आदिकाल से धारण किया हुआ है औऱ षटकर्मो के साथ वैदिक शिल्पकर्म भी करें वो पूर्ण ब्राह्मण अथर्ववेदी ब्राह्मण कहलाते है। शिल्प को वेद-शास्त्रों में श्रेष्ठ कर्म कहा गया है औऱ शिल्प को यज्ञकर्म के समान माना गया है। यज्ञ वो है जिससे समस्त मानव एवं जीव जगत का उपकार हो। पद्ममहापुराण के इस प्रमाण से शिल्प या अथर्ववेदी शिल्पी ब्राह्मणो की महत्वता का मूल्यांकन आप कर सकते है ;
"भौमान्येक रूपाणि यस्य शिल्पाणि मानव:।
उपजिवन्ति तं विश्वं विश्वकर्माण मीमहि ॥ "
(पद्ममहापुराण भूखंड, अ-25, श्लोक -15)
अर्थात - 
जिन्होंने इस पृथ्वी पर नाना प्रकार के चमत्कारी पदार्थों के रूप को उत्पन्न किया है औऱ जिनकी शिल्प विद्या से संपूर्ण मानव जाति उपजीविका अर्थात जीवन निर्वाह करते है , ऐसे विश्वरूप विश्वकर्मा को हमारा नमस्कार है। 

यह महत्वपूर्ण प्रमाणो से अथर्ववेद और अथर्ववेदी ब्राह्मणो की महत्वता और बढ़ जाती है ; 
' यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।
निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम्॥ '
(अथर्ववेद -१/३२/३)
अर्थात - 
जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान् अर्थात ब्राह्मण शान्तिस्थापन के कर्म में सदैव समर्पित रहता है, वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर सुख संपदा अर्थात उन्नति के पथ पर अग्रसर होता जाता है।

अथर्ववेद में तीनों अन्य वेदों में समाहित विषयों का समावेश अकेले ही है और अन्य कई विषयों का भी समावेश है जैसे शिल्प विज्ञान, वास्तुकला, भूगोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, आयुर्वेद, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गुह्य तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मृत्यु को दूर करने के उपाय, मोक्ष, प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है जिस कारण इसकी महत्वता अत्यधिक बढ़ जाती है। 
चरणव्यूह ग्रंथ के अनुसार अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ हैं जो निम्न है ;
१. पैपल, २. दान्त, ३. प्रदान्त, ४. स्नात, ५. सौल, ६. ब्रह्मदाबल, ७. शौनक, ८. देवदर्शत और ९. चरणविद्या।
अथर्ववेद का केवल एक ही उपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थ है जिसका नाम गोपथ ब्राह्मण है।
अथर्ववेद को ब्रह्मवेद से भिन्न अन्य नामों से भी जाना जाता है।  जैसे गोपथ ब्राह्मण में इसे 'अथर्वांगिरस वेद' और भृगुआंगिरस वेद कहा गया है। 
ब्रह्म विद्या का विषय होने के कारण इसे 'ब्रह्मवेद' भी कहा गया है। आयुर्वेद, चिकित्सा, औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण 'भैषज्य वेद' भी कहा जाता है ।
'पृथ्वीसूक्त' इस वेद का अति महत्त्वपूर्ण सूक्त है। इस कारण इसे 'महीवेद' भी कहते हैं। इसी अथर्ववेद भूमि सूक्त में भूमि अर्थात पृथ्वी की उत्पत्ति का रहस्य का वर्णन करते हूए कहा गया है कि 
' यामन्वैच्छद्धविषा विश्वकर्मान्तरर्णवे रजसि प्रविष्टाम् ।
भुजिष्यं पात्रं निहितं गुहा यदाविर्भोगे अभवन् मातृमद्भ्यः॥' 
 (अथर्ववेद कांड -12, सूक्त -1, मंत्र - 60)

अर्थात - जब भगवान विश्वकर्मा ने अंतरिक्ष में अदृश्य हवन किया तो पृथ्वी प्रकट हुइ औऱ उसमें छुपे भोज्य पदार्थ भी दृष्टिगत हो गए। जिससे पृथ्वी पर रहने वाले लोगों का पालन पोषण हो सके।
कुछ विद्वानो के मन में ये शंका आती है कि शिल्पकर्म ब्राह्मण कर्म कैसे है जिसके लिए निम्न शास्त्रीय एवं तार्किक प्रमाण प्रस्तुत है ;
शिल्पकर्म की उत्पत्ति वेद का अंग माने जाने वाले वेदांग "कल्प" के अंतर्गत शुल्व-सूत्र से हुई है | "कल्प" के अंतर्गत ही धर्म-सूत्र, श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र औऱ शुल्व-सूत्र के समस्त ग्रन्थ भी हैं जिनके द्वारा सारे यज्ञादि कर्मकाण्ड एवं समस्त धार्मिक कृत्य होते हैं। शुल्व-सूत्र के द्वारा वैदिक यज्ञ-वेदी, यज्ञ-शाला, यज्ञ-पात्र आदि का निर्माण होता है। वास्तुशास्त्र को वेदांग के अन्तर्गत आने वाले ज्योतिष के 'संहिता' स्कन्ध के भीतर रखा गया, जिसका नवीनतम प्रमाण हैं वराहमिहिर की बृहत्-संहिता।  वास्तुशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों, जैसे कि विश्वकर्मा-प्रकाश अथवा मयमतं, द्वारा ही मन्दिर, महल, किले, बावड़ी, तालाब, घर, नगर, ग्राम, मूर्ति आदि का निर्माण होता आया है। 

ये सारे ग्रन्थ  "वेदांग"  के अन्तर्गत आते हैं। बिना इन ग्रंथों के ज्ञान के ये सारे कर्म सम्भव ही नहीं हैं | इन वेदांग ग्रंथों का अध्ययन शूद्रों का कर्तव्य नहीं था। क्षत्रिय का भी कर्तव्य यह नहीं था, और न ही वैश्य का। अतः इन कार्यों के ज्ञाता ब्राह्मण ही हो सकते है। इसका तात्पर्य ये हुआ कि शिल्पकर्म औऱ वास्तुकला को जानने वाला ब्राह्मण ही हुआ। इसलिए विश्वकर्मा वैदिक समाज के लोग विश्वकर्मा वैदिक शिल्पी ब्राह्मण या अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण के नाम से संबोधित किए जाते है। अंगिरा एवं भृगु वन्शिय अथर्ववेदी ब्राह्मणो का यज्ञ के विधायक अर्थात सर्वोच्च यज्ञकर्ता  ' ब्रह्मा ' पद का विशेष अधिकार प्राप्त है।

ब्रह्मा जी का प्रमुख कर्म है सृजन अर्थात निर्माण किसी एक इसी के कारण इनका पद ब्रह्मा है। ब्रह्मा जी एक दिन और रात को ' कल्प ' कहते हैं। कल्प का अर्थ होता है यज्ञ। वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई हैं। वेदांग कल्प से निर्मित होने के कारण शिल्पकर्म भी यज्ञ सिद्ध होता हैं। निर्माण से संदर्भ में यज्ञशाला या शाला का निर्माण का उल्लेख वेदो के साथ-साथ अन्य शास्त्रों में भी बहुत से स्थानों पर है हम आपके समझ अथर्ववेद का एक ऐसा ही उदाहरण देते हैं जिसमें शाला के निर्माण को ब्राह्मणों द्वारा बताया गया है ;

ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम् ।
इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः ॥
(अथर्ववेद कांड -9, सूक्त- 3, मंत्र-19)
अर्थात - ब्रह्मविद्या को जानने वाले ब्राह्मणों ने शाला का निर्माण किया और सह विद्वानों ने इस निर्माण के नापतोल में सहायता की हैं। सोमरस पीने के स्थान पर बैठे हुए इंद्रदेव और अग्नि देव इस शाला की रक्षा करें। 

सभी को यह स्मरण रहे कि अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद अर्थात शिल्प वेद है उपर्युक्त मंत्र अथर्ववेद का है जिसमें अथर्व वेद को जानने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मणों ने शाला का निर्माण किया। अथर्ववेद के अनुसार अंगिरस ब्राह्मण अर्थात अथर्ववेदी परमात्मा के नेत्र समान है। अथर्ववेद के ज्ञाता को यज्ञ में सर्वोच्च पद ब्रह्मा का प्राप्त है। ब्रह्मशिल्पी विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण कुल के ब्राह्मण अथर्ववेद का उपवेद शिल्पवेद होने के कारण 'अथर्ववेदीय विश्वकर्मा ब्राह्मण ' भी कहलाते हैं 

वेदों अथर्ववेदी ब्राह्मणों की महिमा का अभूतपूर्व वर्णन है।
अथर्ववेद में विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों को यज्ञवेदियों (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके यज्ञ का विस्तार करने वाला अर्थात यज्ञकर्ता कहा गया है;
यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माण:।
यस्यां मीयन्ते स्वरव: पृथिव्यामूर्ध्वा: शुक्रा आहुत्या: पुरस्तात् ।
सा नो भूमीर्वर्धयद् वर्धमाना॥ 
(अथर्ववेद कांड-१२ , सूक्त-१, मंत्र-१३)
अर्थात - 
जिस भूमि पर सभी ओर वेदिकाऍ (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके विश्वकर्मादि (शिल्पी ब्राह्मण) यज्ञ का विस्तार करके यज्ञ करते हैं। जहाँ शुक्र (स्वच्छ या उत्पादक) आहुतियों के पूर्व यज्ञीय आधार स्थापित किए जाते हैं तथा यज्ञीय उद्घोष होते हैं। वह वर्धमान भूमि हम सब का विकास करे। 

उपर्युक्त सभी अथर्ववेद के प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि निर्माण का कर्म ब्राह्मणों का है इसलिए शिल्प विद्या को ब्रह्मशिल्पी विद्या भी कहा जाता है। इन अकाट्य वैदिक प्रमाणों शिल्पकर्म ब्राह्मण कर्म सिद्ध होता है और इसको करने वाले ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण अथवा अथर्ववेदीय विश्वकर्मा ब्राह्मण कहलाते हैं।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 83 में कहा गया है कि अग्नि से महा यशस्वी अंगिरा भृगु आदि प्रजापति ब्रह्मदेव है अर्थात इन्हे ब्रह्मा का पद इनके ब्रह्मज्ञान के कारण प्राप्त है। इस वंश के अथर्ववेदी ब्राह्मण ' अथर्वण ' भी कहलाते है।

अंगिरासों नः पितरो नवग्वा अर्थर्वाणो भृगबः सोम्यासः। तेषां वयं सुभतौं यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसः स्यामः।।
अंगिरा एवं भृगु वंशीय अथर्ववेदी ब्राह्मणो को सर्वोत्कृष्ट अग्नि विद्या का ज्ञान था जिस कारण उन्हे शास्त्रों ' आग्नेय ' संज्ञा से अलंकृत किया गया है। 

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 83 में अंगिरा ऋषि के आठ पुत्रों की आग्नेय सज्ञां होने के विषय में यह उल्लेख हैः
अष्टौ चांगिरसः पुत्राः आग्नेयास्तेSप्युवाह्रताः। बृहस्पतिरूतथ्यश्य पयस्यः शांतिरेवच। 
धोरो विरूपः संर्वतः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः।

ब्रह्मर्षि अंगिरा अर्थवेद के रचयिता होने के कारण प्रथम विश्वकर्मा वंशी भी कहलाये । अंगिरावंशी अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मणों की दो शाखायें प्रचलित है पिपलाद एवम शौनक । विश्वकर्मा ब्राह्मण शाखिय ब्राह्मण होने के चलते चतुर्वेदी होते हुये भी आचार्य , जगतगुरु , विश्वकर्मा , शर्मा , जान्गिड , धीमान आदि उपाधीया प्रयोग करते है । अंगिरा वंशी अथर्वेदी की विशेषताएँ ; अथर्ववेद वेदों में चौथा वेद है जिसमें ब्राह्मणों के यज्ञ यज्ञादि से सम्बन्धित सभी क्रियाओं का वर्णन है जैसे बिना अथर्ववेद के ज्ञान के ब्राह्मण षट्कर्म नहीँ कर सकता जिसके निर्वहन से वो ब्राह्मण कहलाते है । ब्रह्मर्षि अंगिरा रचित अथर्वेदी ब्राह्मण चारों वेदों का ज्ञाता होता है इसलिये अथर्वेदी ब्राह्मण चतुर्वेदी भी कहलाता है। इसलिये ब्रह्मर्षि अंगिरा अथर्वेदी के साथ चतुर्वेदी भी कहलाते है क्योंकि अथर्वेद चतुर्थ वेद है। अथर्ववेदी ब्राह्मण चार वेदों के साथ साथ समस्त शास्त्रों का ज्ञाता होने के कारण वैदिक गुरुकुल के सर्वोच्च पद ' आचार्य ' पद का भी उत्तराधिकारी भी होता है। अथर्ववेदों की ऐसी ही शिक्षा को प्राप्त कर विश्वकर्मा वैदिक शिल्पी ब्राह्मण अथर्वेदी के साथ साथ चतुर्वेदी भी कहलाते है। यज्ञ के प्रकार , मँत्रों की आहुति और यज्ञशाला , यज्ञवेदी का शिल्प विद्या द्वारा निर्माण प्रमुख बातों का उल्लेख है। बह्मर्षि अंगिरा रचित अथर्ववेदी (चतुर्वेदी) ही यज्ञ में ब्रह्मा पद अर्थात सर्वोच्च यज्ञ कर्ता का अधिकारी होता है क्योंकि वो चारों वेदों का स्वामी होता है। अथर्ववेद के साथ अथर्ववेदी ब्राह्मणो, ब्रह्मा पद औऱ यज्ञ की  महत्वता का मूल्यांकन अथर्ववेद के ब्राह्मणग्रन्थ गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ के कुछ उदाहरणों से किया जा सकता है जो निम्न है ;  गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ के अनुसार , 'महो देव:' की व्याख्या करते हुए यज्ञ को ही महान् देवता बतलाया गया है। यज्ञ के अशान्त अश्व को तीनों वेद शान्त नहीं कर सके, तब उसे अंगिरा रचित अथर्ववेद से ही शान्त किया जा सका। ब्रह्मा की प्ररोचना गोपथ ब्राह्मण में सर्ववेत्ता के रूप में की गई है- 
'एष ह वै विद्वान् सर्वविद् ब्रह्मा यद् भृग्वङ्गिरोविदिति ब्राह्मणम्'। 
अकुशल ऋत्विजों से यज्ञ नष्ट हो जाता है - 
'यद् वै यज्ञे कुशला ऋत्विजो भवन्त्यचरितिनो ब्रह्मचर्यमपरार्ध्या वा तद् वै यज्ञस्य विरिष्टमित्याचक्षते। । 
अथर्ववेदियों के बिना सोम-यागों का सम्पादन नहीं हो सकता- 
'नर्ते भृग्वङ्गिरोविद्भ्य: सोम: पातव्य:। 
ऋत्विज: पराभवन्ति, यजमानो रजसापवध्यति, श्रुतिश्चापध्वस्था तिष्ठति।'। 
यज्ञ का स्वरूप, गति और तेज़ यदि ऋक्, यजुष् और साम पर निर्भर है, तो माया भृग्वङ्गिरसों अर्थात् अथर्ववेद पर निर्भर है । इसी प्रकार ऋग्वेदीय मण्डलों से यज्ञ के पार्थिवरूप, का, अन्तरिक्षरूप का यजुर्वेद से और सामवेद से द्युलोक का आप्यायन होता है तथा अथर्ववेद से जलरूप का। ब्रह्मा अथर्ववेदीय मन्त्रों से यज्ञ के हानिकारक तत्त्वों को शान्त करता है - 
'तद् यथेमां पृथिवीमुदीर्णा ज्योतिषा धूमायमानां वर्षं शमयति, एवं ब्रह्मा भृग्वङ्गिरोभिर्व्याहृतिभिर्यज्ञस्य विरिष्टं शमयति। 
विभिन्न इन्द्रियों की दृष्टि से भी ब्रह्मा के वैशिष्ट्य का निरूपण गोपथ-ब्राह्मण में हुआ है। तदनुसार होता वाणी से, अध्वर्यु प्राण और अपान से, उद्गाता नेत्रों से तथा ब्रह्मा मन से यज्ञ का सम्पादन करता है - 
'मनसैव ब्रह्मा ब्रह्मत्वं करोति।'  
चत्वारि श्रृङ्गा. प्रभृति सुप्रसिद्ध मन्त्र की यज्ञपरक व्याख्या गोपथ ब्राह्मणकार ने की है। 'महो देव:' की व्याख्या करते हुए यज्ञ को ही महान् देवता बतलाया गया है। यज्ञ के अशान्त अश्व को तीनों वेद शान्त नहीं कर सके, तब उसे अथर्ववेद से ही शान्त किया जा सका। ब्रह्मा की प्ररोचना गोपथ में सर्ववेत्ता के रूप में की गई है - 'एष ह वै विद्वान् सर्वविद् ब्रह्मा यद् भृग्वङ्गिरोविदिति ब्राह्मणम्' । 
मानव-शरीर के विभिन्न अंगों से यज्ञ की समानता प्रदर्शित करने की ब्राह्मण-ग्रन्थों की परम्परा का अनुपालन गोपथ-ब्राह्मणकार ने भी किया है। 
अंगिरा रचित अथर्वेद में कहा गया है की 
" येनो पंचशिल्पीन: विश्वकर्मणाय: " 
अर्थात - ये जो पाँच शिल्पी है जो पाँच प्रकार के शिल्प कर्म करते है ये विश्वकर्मा परब्रह्म से उत्पन्न उनके ही अंश है। सस्कृंत साहित्य के ग्रंथ चरणव्युह आदि में स्पष्ट उल्लेख हैं;

आयुर्वेदश्चिकित्सा शास्त्रंऋग्वेदस्योपवेदः। 
धनु र्वेदो युद्ध शास्त्रंयजुर्वेदस्योपवेदः। 
गंधर्ववेद सगींत शास्त्रं सामवेदस्योपवेदः। 
अर्थव्दो (स्थापत्यवेदो) विश्वकर्मादि शिल्प शास्त्रं अर्थर्ववेदस्योपवेदः ।।
(शौनकिय चरणव्यूह परिखण्ड  04)
अर्थात - 
ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद है जिसे चिकित्सा शास्त्र कहते है । यजुर्वेद का उपदेव धनुर्वेद है जिसे सगींत शास्त्र कहते है और अर्थर्ववेद का उपदेव स्थापत्य वेद है जिसके अन्तर्गत विश्वकर्मा का सम्पूर्ण शिल्प शास्त्र आता है। गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद का एक मात्र ब्राह्मण ग्रंथ है। 'ऋषि गोपथ' द्वारा इस ग्रन्थ की रचना की गई थी। गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ में अग्निष्टोम, अश्वमेध जैसे यज्ञों के विधि-विधान के अतिरिक्त ऊँकार तथा गायत्री की भी महिमा का वर्णन है। इसमें यज्ञ के 21 प्रभेद बताये गये है । गोपथ ब्राह्मण ग्रंथ में ब्रह्मर्षि अथर्वा अंगिरस अर्थात अंगिरा जो अथर्ववेद के रचनाकार है उनका अधिकांश स्थानों पर महिमा मंडन किया गया है। ऋषि गोपथ इस ब्राह्मण के प्रवक्ता हैं। उन्हीं के नाम से इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि हुई। अथर्वाङ्गिरसो (अंगिरा) की प्रसिद्धि यज्ञ के गोप्ता (रक्षक) रूप में है - 'अथर्वाङ्गिरसो हि गोप्तार:'

गोपथ ब्राह्मण ग्रंथानुसार सृष्टि का प्रारम्भ ब्रह्म के श्रम और तप से हुआ। अंगिरा और भृगु जैसे ब्रह्म ऋषियों ने भी श्रम और तप का अनुष्ठान किया। श्रम और तप से ही देव-सृष्टि और लोक-सृष्टि सम्भव हुई। इसी से तीनों वेदों और महाव्याहृतियों का निर्माण हुआ। विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मण जाती अंगिरा और भृगु ऋषि के कुल एवं वंश से होने के कारण अथर्ववेदी वैदिक ब्राह्मण है। अंगिरा ऋषि ही नही ब्रह्मर्षि थे इसलिये अथर्ववेद की यज्ञ एवं अन्य वैदिक कर्मकांड में सर्वोच्च महत्वता के कारण कुल एवं अपने कर्मो अंगिरा एवं भृगु आदि अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण कुलीन अर्थात श्रेष्ठ ब्राह्मण सिद्ध होते है। वेद के अंग ' ज्योतिषशास्त्र ' के अंतर्गत अर्थात उसी के अंदर एक विषय शिल्प विद्या से संबंधित ' वास्तुशास्त्र ' है। इसके प्राचीन ग्रंथों जिसमें  ' विश्वकर्मा-प्रकाश ' और ' मयमतं ' है। वास्तुकला की सबसे नवीनतम ग्रंथ वराहमिहिर की बृहद-संहिता है। अपितु, ज्योतिष के सबसे उत्कृष्ट ग्रंथ महर्षि भृगु रचित सतयुग की ' भृगु संहिता ' और उसके बाद की पराशर ऋषि रचित ' बृहत्पाराशर-होराशास्त्रम ' है। इन सभी ग्रंथों के रचयिताओं ने भगवान विश्वकर्मा को अपना इष्टदेव मानकर इन सभी ग्रंथों की रचनाएं की। इन्हीं में से राजा भोज भी हुये है जिन्होंने अपने वास्तुकला के प्रसिद्ध ग्रंथ ' समरांगण-सूत्रधार ' में भगवान विश्वकर्मा को अपना इष्टदेव माना है। राजा भोज स्वयं शिल्प एवम वास्तु के ज्ञाता थे। जो मनुष्य अपने इष्टदेव को भुलाकर बैठे है उन्हें अपने अपने इष्टदेवों की स्तुति नित्यकर्मो अर्थात प्रतिदिन और सभी धार्मिक अनुष्ठानों में करनी चाहिये जो एक शास्त्रीय परम्परा भी है। उपर्युक्त दिये गये इन्हीं ग्रंथों में से वास्तुकला के एक प्रसिद्ध प्राचीन ग्रंथ जो ऋषि मयमुनि द्वारा रचित है जिसका नाम ' मयमतं ' है जिसमें ' विश्वकर्मा ' की परिभाषा इसप्रकार दी गई है - 

"स्थपति स्थापनाईः स्यात् सर्वशास्त्र विशारदः।
न हीनाग्डों अतिरिक्तग्डों धार्मिकस्तु दयापरः।।1।।
अमात्सर्यो असूयश्चातन्द्रियतस्त्वभिजातवान् ।
गणितज्ञः पुराणज्ञ सत्यवादी जितेन्द्रियः ।।2।।
गुरुभक्ता सदाहष्टाः स्थपत्याज्ञानुगाः सदा ।
तेषामेव स्तपत्याख्यो विश्वकर्मेति संस्मृतः ।।3।।"
(मयमतं अ.श्लोक 15-16-23)
अर्थात - 
जो स्थपती अर्थात शिल्पी निर्माण कला में सिद्धहस्त सम्पूर्ण शास्त्रों का पूर्ण पंडित हो, जिसके शरीर का कोई अवयव न अधिक हो न कम हो, दयालु और धर्मात्मा तथा कुलीन हो। जो अहंकार करने वाला ईर्ष्यालु और प्रमादी न हो, गणित विद्या का पुर्ण पंडित हो, वेदों के व्याख्यान रुप ब्राह्मण ग्रंथों और इतिहास में पारंगत हो, सत्यवादी तथा इन्द्रिंयों को जीतने वाला आज्ञाकारी हो इस प्रकार के गुणों से युक्त रचयिता को ' विश्वकर्मा ' या ' अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण'  कहते हैं।

स्कंद पुराण प्रभास खण्ड के निम्न श्लोक मिलता है-
बृहस्पतेस्तु भगिनी भुवना ब्रम्हवादिनी । 
प्रभासस्य तस्य भार्या बसूनामष्टमस्य च । 
विश्वकर्मा सुतस्तस्यशिल्पकर्ता प्रजापतिः ।।
अर्थात - ब्रह्मर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना जो ब्रम्हविद्या जानने वाली थी वह अष्टम् वसु महर्षि प्रभास की पत्नी बनी और उसमें सम्पूर्ण शिल्प विद्या के ज्ञाता प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ। 

अंगिरा वंश की व्याख्या हजारों वर्ष पहले महाराज भोज देव ने जो सस्कृंत के प्रकांड पडिंत थे वास्तु विद्या का ग्रंथ “ समरागंण सूत्रधार ” लिखा था उसमें लेखक ने अपना इष्टदेव भगवान विश्वकर्मा को माना है उन्होने ग्रंथ के आदि में अपने इष्ट का स्वतवन करतें हुए लिखा है - 
तदेशः त्रिदशाचार्य सर्व सिध्दि प्रवर्तकः । 
सुतः प्रभासस्य विभो स्वस्त्रीयश्च बृहस्पतेः ।।

अर्थात - 
शिल्प शास्त्र का कर्ता वह ईश विश्वकर्मा देवताओं का आचार्य है, सम्पूर्ण सिध्दियों का आचार्य है, वह प्रभास ऋषि का पुत्र है और महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र देवगुरु बृहस्पति का भानजा है। अर्थात अंगिरा का दोहित है। अगिंरा कुल से विश्वकर्मा का संबंध तो सभी विद्वान स्वीकार करतें है। भोजदेव ने भी इसे प्रमाणित किया है इसमें किसी को शंका होनी नहीं चाहिए। आधुनिक काल के महाविद्वान महर्षि दयानन्दने लिखा है - महाभारत के पश्चात हजारों वर्ष व्यतीत होने पर भोज को वेदों का ज्ञान था। भोजकाल मे ही शिल्पियों ने काठ का घोडा बनाया था। जो एक घन्टे मे सत्ताईस कोस चलता था । ऐसा ही एक पंखा बनाया था बिना मनुष्य के चलाये पुष्कल वायु देता था । 

ब्रह्मर्षि अंगिरा के पुत्र ऋषि बृहस्पति हुये जो देवताओं के पुरोहित कहलाये। परमप्रतापी महर्षि भारद्वाज हुये जिन्होने वास्तुशिल्प का प्रसिध्द ग्रन्थ ' यन्त्रसर्वस्व ' रचा जिसमें विमान शास्त्र का प्रकरण है जिसके माध्यम से उन्होंने कई सौ प्रकार के विमानों का आविष्कार किया था। अन्य ब्राह्मण ग्रंथों की तरह गोपथ में भी अनेक रोचक निर्वचन प्राप्त होते हैं। इसके अनुसार अंगिरा को अथर्वा और अंगिरस भी कहा गया है । उदाहरण के लिए 'धारा' शब्द धारण करने से जन्म देने के कारण 'जाया' , 'वरण', से वरुण, 'मुच्चु से मृत्यु, प्रजापालन के कारण प्रजापति, भरण करने के कारण भृगु, अथ और अर्वाक् के योग से अथर्वा (अंगिरा)अङ्ग और रस के योग से अंगरस या अंगिरस (अंगिरा) की निरुक्ति निरूपित हैं। रस और रथ का समीकरण भी विलक्षण प्रतीत होता है - 
'तं वा एवं रसं सन्तं रथ इत्याचक्षते परोक्षेण'। 

अथर्ववेद मे ध्वज विधान
सनातन धर्म में ध्वज का स्थान बहुत ऊंचा है। भारतवर्ष में ध्वज का उपयोग सनातन काल से ही हो रहा है। वेदों की प्रसिद्ध उक्ति है –
अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु।। 
(ऋग्वेद, 10-103-11, अथर्ववेद, 19-13-11) 
अर्थात् - ये ध्वज फहराते रहें, हमारे बाण विजय प्राप्त करें, हमारे वीर वरिष्ठ हों, देववीर युद्ध में हमारी विजय करवा दें। इस मंत्र में युद्ध के समय ध्वज लहराता रहना चाहिये, ऐसा वर्णन है। आर्यवीर ध्वज का ऐसा सम्मान किया करते थे। और भी दो-तीन मन्त्र देखिये

पूर्वकाल में सेना की प्रत्येक टुकड़ी के साथ ध्वज रहता था और कभी-कभी उत्साह बढ़ाने के लिय प्रत्येक सैनिक ध्वज को धारण किया हुआ दिखता था। ऐसी जो ध्वजधारी टुकडिय़ां रहती थीं, उन्हें ध्वजिनी जैसे अर्थपूर्ण नाम से सम्बोधित किया जाता था। एक ध्वजिनी में 162 रथ, 162 हाथी, 486 घोड़े और 810 पैदल, अर्थात् कुल 1,620 संख्या रहती थी। इतने लोग ध्वज को रणक्षेत्र में ले जाते समय दोनों हाथ लडऩे के लिए मुक्त रखते थे। ध्वज लहराता रहे, इसकी कोई योजना बनाकर ही ले जाते होंगे। अथर्ववेद के एक मंत्र में बताया गया है कि सेना में ध्वज तथा दुदुंभि (नगाड़ा) दोनों साथ रहा करते थे, 

प्रामूं जयाभी3मे जयन्तु केतुमद्दुन्दुभिर्वावदीतु। 
समश्वपर्णा: पतन्तु नो नरोस्स्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु।। भगवा ध्वज, पृ.—30 
अर्थात - सेना की विजय हो, हमारे ये वीर विजय प्राप्त करें, जिसके पास ध्वज लहरा रहा है, ऐसी यह दुंदुभि बजती रहे, हमारे वीर घोड़ों के समान (वेग से) शत्रुओं पर टूट पड़ें तथा हमारे रथी विजयी हो जाएं।

अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। 
भ्राजन्तो अग्नयो यथा।। 
(अथर्ववेद, 6.126.3) 
अर्थात - उगनेवाली सूर्य की रश्मियां, तेजस्वी अग्नि की ज्वालाएं (फड़कने वाले) ध्वज के समान दिखाई दे रही हैं। इस मंत्र से यह निश्चित होता है कि वैदिक आर्यों के ध्वज का आकार अग्नि-ज्वाला के समान था।

अथर्वावंशी धिष्णु-पुत्र "सुधन्वा विश्वकर्मा"
ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा, अंगिरा-पुत्र अथर्वा , अथर्वा-पुत्र धिष्णु तथा धिष्णु-पुत्र  सुधन्वा विश्वकर्मा है । ईन सुधन्वा विश्वकर्मा के तीन पुत्र (१) ऋभु (२) विग्बा और (३) बाज नामक महान रथकार हुवे है ये सुधन्वा विश्वकर्मा महराजा दशरथ के पुत्र भगवान श्री रामचन्द्र के धनुर्वीद्या-आचार्य थे ।
(वाल्मीकि रामायण २/१००/१४)

पथ्या च मानवी कन्या तिस्त्रे भार्यास्त्वथर्वणा 
धिष्णु पुत्रस्तु पथ्यायां संवर्तश्चैव मानस:
धिष्णु पुत्र सुधन्वास ऋमवश्च सुधन्वन: ।
(वायु महापुराण अध्याय ५/९८, १०८, १०२)
सन्दर्भित प्रमाण
(१) ऋग्वेद मंडल १ सुक्त ११०
(२) अथर्ववेद काण्ड ६ सुक्त ४७ मंत्र ३
(३) महाभारत आदि पर्व अध्याय ६५ श्लोक १०
(४) भागवत महापुराण स्कन्ध ६ अध्याय ६ श्लोक १४
(५) महाभारत सभा पर्व अध्याय ११ श्लोक १९,२०
(६) वायु महापुराण अध्याय ४ श्लोक ९६ से १००
(७) वाल्मीकि रामायण काण्ड २ सर्ग १०० श्लोक १४
(८) महाभारत उद्योग पर्व अध्याय ३५ श्लोक ९ से ३८ तक
(९) विश्वमेदिनी कोष
(१०) निरुक्त ११/१६
(११) निधन्टु २/१

अथर्ववेद मे यज्ञ विधान
अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं उसमें ब्रह्म परमात्मा विश्वकर्मा की महिमा का अभूतपूर्व वर्णन है उन्हें यज्ञपति के साथ साथ यज्ञ की सभी अभिलाषो को पूर्ण करने वाला परमात्मा कहां है। 

ये भक्षयन्तो न वसून्यानृधुर्यान् अग्नयो अन्वतप्यन्त धिष्ण्याः ।
या तेषामवया दुरिष्टिः स्विष्टिं नस्तां कृणवद् विश्वकर्मा॥
 (अथर्ववेद कांड -2, सूक्त -35, मंत्र - 1)
अर्थात - यज्ञ कार्य में धन न खर्च करके, भक्षण कार्य में धन खर्च करने के कारण हम समृद्ध नहीं हुए । ,इस प्रकार हम यज्ञ न करने वाले और दुर्यज्ञ करने वाले हैं। इसलिए श्रेष्ठ यज्ञ करने की अभिलाषा को यज्ञपति ब्रह्म विश्वकर्मा पूर्ण करें।

यज्ञपतिमृषयः एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम् ।
मथव्यान्त्स्तोकान् अप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा ॥(अथर्ववेद कांड -2, सूक्त -35, मंत्र - 2)
अर्थात - प्रजाओ के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञप्रति विश्वकर्मा को ऋषिगण पाप से अलग बताते हैं। जिन यज्ञपति विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात किया है ,वे विश्वकर्मा परमात्मा उन बूंदों से हमारी यज्ञ को संयुक्त एवं पूर्ण करें।

शिल्प एवं वास्तुकला से ही यज्ञवेदी (यज्ञकुंड), यज्ञशाला, यज्ञ पात्र आदि निर्माण होता है। जो ब्राह्मण वास्तु एवं शिल्प नही जानता उसे यज्ञ करने का अधिकार नही है। क्योंकि वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म और वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंद से वास्तुकला की उत्पत्ति हुई है। वेदांग के अन्तर्गत शिल्पकर्म औऱ वास्तुकला को जानने वाला अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण ही कहलाता है। वास्तु एवं शिल्प के साथ सभी कर्मकांड को जानने वाला ब्राह्मण ही पूर्ण अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण कहलाता है। इसलिए विश्वकर्मा वैदिक ब्राह्मणों को ब्रह्मशिल्पी ब्राह्मण भी कहते हैं।  मत्स्य पुराण (अध्याय 251, श्लोक 2-3-4) में वास्तु-शिल्प के १८ उपदेशक ऋषियों का वर्णन है। जिनमे भृगु , अत्रि , वशिष्ठ, बृहस्पति , शौनक , विश्वकर्मा आदि है जिन्होंने स्वंय शिल्पकर्म किया औऱ वास्तु एवं शिल्पकर्म का ज्ञान सभी मनुष्यों तक पहुँचाया। 

यस्यां वेदिं परिगृहणन्ति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माण:॥ 
यस्यां मीयन्ते स्वरव: पृथिव्यामूर्ध्वा: शुक्रा आहुत्या: पुरस्तात् ॥ 
सा नो भूमीर्वर्धयद् वर्धमाना ॥
(अथर्ववेद कांड-१२ , सूक्त-१, मंत्र-१३)
अर्थात -
जिस भूमि पर सभी ओर वेदिकाऍ (यज्ञकुण्डों) का निर्माण करके विश्वकर्मादि(शिल्पी ब्राह्मण) यज्ञ का विस्तार करके यज्ञ करते हैं। जहाँ शुक्र (स्वच्छ या उत्पादक) आहुतियों के पूर्व यज्ञीय आधार स्थापित किए जाते हैं तथा यज्ञीय उद्घोष होते हैं। वह वर्धमान भूमि हम सब का विकास करे।

वैदिक शास्त्रों में बहुत जगह ब्राह्मणों के सूचक के रुप में देवता , शिल्पी , आचार्य, विप्र ,मनीषी, स्थपति, रथकार , शर्मा, धीमान , पाँचाल, तक्षा, वर्धकी आदि सब शब्द प्रयोग हुये है । समस्त सनातन धर्मीयो एवं समस्त विश्व को ' माघ शुक्ल त्रयोदशी' अर्थात 'विश्वकर्मा प्रकट दिवस' को हर्षोल्लास से मनाना चाहिए। 

उपर्युक्त अथर्ववेदी आदि ब्राह्मण अथर्वा ऋषि अर्थात अंगिरा के रचित चतुर्थ वेद का नाम अथर्ववेद सुनिश्चित हुआ जिसके ब्रह्मशिल्प ब्रह्मज्ञान से अथर्ववेदी विश्वकर्मा ब्राह्मण आदिकाल से इस धरा की संस्कृति एवं सभ्यता को अपनी वास्तुशिल्प ब्रह्म विद्या एवं वैदिक कर्मकांडों द्वारा संचालित किए हुए है। सृष्टि के प्रलय तक से नवीन सृष्टि के उदयकाल के इस अनवरत सृष्टिचक्र तक भूमंडल को अपने ब्रह्म कर्म द्वारा अथर्ववेदी ब्राह्मण सिंचित करते रहेंगे। विश्वरूप विश्वकर्मा परमात्मा स्वरूप निर्माण के देवता त्वष्टा ब्रह्मा से प्रारंभ होकर भृगुअंगिरा के कुल में जन्म लेकर फिर से नई भौतिक सृष्टि के सृजन में अथर्ववेदी ब्राह्मण बनकर उदय होते रहेंगे। 

अथर्ववेद के उपवेद (शिल्पाशास्त्र) मे स्कन्द पुराण ब्रह्मा खण्ड अर्थात - हजारो शुद्रो की श्रेणियों मे अगर एक ब्राह्मण को सबसे पहके उसे ब्राह्मण का सत्कार करना चाहिये और हजार ब्राह्मणों की श्रेणियों मे एक शिल्पी ब्राह्मण बैठा होतो सबसे पहले उस शिल्पी ब्राह्मण का सत्कार करना चाहिए सतयुग मे देवों ने पूजा की।

संकलनकर्ता - 
मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत 

मूल लेखकर्ता - 
पं. संतोष आचार्य 
अखंड विश्वकर्मा ब्राम्हण कल्याण समिति 



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