मंत्रमुग्ध द्वारिका

मंत्रमुग्ध द्वारिका 
भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका को कौन नहीं जानता है। हमारे सनातन धर्म में सबके मुख मंडल पर इनका नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। ऐसे भगवान श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा जीवन काल द्वारिका में व्यतित हुआ था। द्वारिका के वर्णन के लिए अनेक पन्ने शायद कम पड़ जाएंगे। ऐसे चक्रधारी गदाधारी श्रीकृष्ण का नगर द्वारिका जो शिल्प श्रेष्ठ भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा ने स्वयं ही निर्माण किया था। द्वापर युग की सबसे अलौकिक और मनमोहक नगरी द्वारिका का निर्माण चारो लोको मे प्रशंसनीय हुयी थी। इस निर्माण में भगवान देवशिल्पी विश्वकर्माजी का अतुलनीय शिल्पकार्य, नक्काशी, योजना बद्ध नगर, अनेक सुवर्ण जड़ित महलों, अनेक बाग बगीचा, रत्न महल, और अनेक बड़े निर्माण इस नगर की शोभा थे। यह सृष्टिकर्ता विश्वकर्मा जी की देन थी। मुरली मनोहर श्रीकृष्ण को संकट के समय पर अतिविशिष्ट रचना कर भगवान देवशिल्पी विश्वकर्माजी ने उनको नगर प्रदान किया था। 
भारतवर्ष की सात मोक्षदायिका पुरियों में से द्वारावती एक है जो द्वारका के रूप में विख्यात है। विविध पुराणों में द्वारकापुरी को कुशस्थली, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, आनर्तक क्षेत्र एवं ओखा-मण्डल (उषा मंडल) इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया है। माना जाता है कि महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, जिस कारण इस भूमि का नाम कुशस्थली पड़ा। एक अन्य मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। 

अयोध्या मथुरा माया काशी अवन्तिका।
पुरी द्वारवती जैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥

(गरुड़ पुराण) 

पूर्वकाल में सौराष्ट्र देश में राजा शर्याति के पुत्र आनर्त का शासन होने के कारण उन्हीं के नाम से संयुक्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आनर्तक क्षेत्र कहा गया है। देवी भागवत के सातवें स्कंध के सप्तम में इस प्रसंग का वर्णन है। 

'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। 
दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। 
सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' 
(श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52) 

ओखा नाम उषा का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। कल्याण राय जोशी के मतानुसार ध्रेवाण नामक ग्राम से उद्भूत उषा नदी के कारण इस मंडल का नाम ओखा-मंडल रखा गया है। अथवा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का बाणासुर की पुत्री उषा के साथ विवाह किये जान के कारण उषा के नाम से ओखा पड़ा है।

वयं चैव महाराज जरासंधभयात्तदा।' 
'मथुरां संपरित्यज्य गता द्वारवतीं पुरीम्॥

पौराणिक आधार 
श्री कृष्ण ने जब राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने श्री कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए श्री कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कुशस्थली आना तय हुआ। समस्त यादवों के साथ कृष्ण कुरु, जांगल, पांचाल, ब्रह्मावर्त, सौवीर, मरू, धन्वदेश आदि होते हुए कुशस्थली पहुंचे। कुशस्थली में रहने वाले असुरों - कुशादित्य, कर्णादित्य, सर्वादित्य और गुहादित्य के साथ युद्ध कर उन्हें निर्मूल किया और समुद्र के तट पर पुण्य और दिव्य नगरी द्वारका का निर्माण किया। इसके लिए उन्हें समुद्र से 12 योजन जमीन लेनी पड़ी । 

'कुशस्थली या तव भूप रम्या पुरी पुराभूदमरावतीव, सा द्वारका संप्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा'।

कुछ लोगों के मत में यह नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, जिसका सम्बन्ध रैवत गिरी के साथ था। महाभारत के सभा पर्व के अनुसार आनर्त के पौत्र रेवत ने रैवत गिरी के पास कुशस्थली बसाई थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संकार किया।

आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रोजज्ञे योऽसावानर्तविषयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास' 
(विष्णु पुराण 4,1,64) 

गोमती द्वारका को विशेष पवित्र बनाने के लिए मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह और क्रतु इन पांच मुनियों ने पांच तीर्थों के सहित यहाँ निवास किया। यह पंचनद नाम से जाना जाता है। सनकादि मुनियों के द्वारा पूजित सिद्धेश्वर महादेव और कृष्ण के समस्त कार्यों को सिद्ध करनेभद्रकाली देवी के शक्तिपीठ पौराणिक और प्राचीन स्थल द्वारका की भूमि को सिद्धिदायक बनाते हैं।

'तथैव दुर्गसंस्कारं देवैरपि दुरासदम्, स्त्रियोऽपियस्यां युध्येयु: किमु वृष्णिमहारथा:'।

कृष्ण ने द्वारका को बसाने के बाद इसे अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाया और अनेक कार्य यहाँ रहकर अथवा यहाँ से जाकर सम्पादित किये थे। 

रुक्मिणी हरण तथा विवाह,रुक्मी विजय,स्यमन्तक मणि सम्बंधित घटनाएं,जाम्बवती, रोहिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, सत्या, नाग्नजिती, सुशीलामाद्री, लक्ष्मणा व दत्ता सुशैल्या आदि के साथ विवाह,नरकासुर वध,प्राग्ज्योतिषपुर विजय,बाणासुर विजय,उषा-अनिरुद्ध विवाह,महाभारत युद्ध सञ्चालन,द्रौपदी की प्रतिष्ठा की रक्षा,युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में हस्तिनापुर गमन,पौंड्रिक - शिशुपाल - शाल्व वध आदि

द्वारका की रचना का मूल कारण कालयवन और जरासंध से त्रस्त यदुवंशियों की रक्षा करना और सुदूर रहकर महाभारत युद्ध सञ्चालन करना था; परन्तु साथ ही दुनिया के अन्य देशों से वैदेशिक सम्बन्धों का सुदृढ़ीकरण, आवागमन, आयात-निर्यात, व्यापर आदि तथ्यों का ध्यान रखा गया प्रतीत होता है। क्योंकि प्रारम्भ से ही यह अरब देशोंसे भारत में प्रवेश द्वार का काम करता था|

कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आगया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों# ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार(बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषयो के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।

बाद में युधिष्ठिर ने कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को शूरसेन देश का राजा बनाया। बड़े होने पर वज्रनाभ द्वारका आ गए और उन्होंने अपने दादा कृष्ण की स्मृति में त्रैलोक्य सुन्दर विशाल मंदिर का निर्माण कराया। 

द्वारिकाधीश जगत मंदिर 
द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से भी एक है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 16 सदी में प्राप्त हुआ। 
इस सात मंजि़ला मंदिर का शिखर 235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जिस पर करीब 84 फुट ऊंची बहुरंगी धर्म-ध्वजा फहराती रहती है। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है, जिसमें वह अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए हैं। आपके माथा कस्तूरी के पवित्र चिन्हों और छाती पर कौस्तुभ गहना से सुशोभित है, आपकी नाक को जिसे एक चमकता हुआ मोती से सजाया गया है, आपकी हाथों की उंगलिया एक बांसुरी पकड़े हुए हैं, आपकी कलाई को सुन्दर कंगन से खूबसूरती से सजाया गया है, आपका पूरा शरीर चंदन के लेप से महक रहा है, मानो दूध - चंदन में आपका अभिषेक किया गया हो, और गर्दन को मोतियों के हार से सजाया गया हो, आप समस्त जीवो के लिए मुक्ति (मोक्ष) के दाता हैं जो आपके चारों ओर प्रदक्षिणाथीॅ  हैं; हे विष्णु अवतारी , आपकी जय विजय हो - सनातन के आभूषणों के आभूषण हो । यह अलौकिक मूर्ति दर्शन को पाने के लिए दूर दूर से दर्शनार्थियों की भीड़ रहती है। 

द्वारका में अनेक धाम 
त्रैलोक्य सुन्दर जगत-मंदिर परिसर में विभिन्न देवी देवताओं एवं पटरानियों के मंदिर स्थित हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है -

1. शक्ति माताजी मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर के चौथी मंजिल पर स्थित।
2.कुशेश्वर महादेव मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में कुल बीस मंदिर हैं. मोक्षद्वार से प्रवेश करने पर दाहिने और नवग्रह देवता के यंत्र और समीप कुशेश्वर महादेव शिवलिंग विराजमान है। कहा जाता है कि द्वारका की यात्रा के आधे भाग का मालिक कुशेश्वर महादेव है। एक मत के अनुसार कुशनामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। 
3.काशी विश्वनाथ मंदिर - द्वारकाधीश जी के मंदिर परिसर में स्थित है।
4.कोलवा भगत - द्वारकाधीश जी के अपंग भक्त कोलवा का मंदिर।
5.गायत्री मंदिर -
6.प्रद्युम्न मंदिर - कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का मंदिर।
7. अनिरुद्ध मंदिर - कृष्ण के प्रपौत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का मंदिर। अनिरुद्ध का विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था, जिसके कारण द्वारका क्षेत्र को उषामण्डल कहा जाता है।
8. अम्बा मंदिर - कृष्ण की कुलदेवी का मंदिर जिसकी पूजा शारदा पीठ द्वारा संपन्न की जा रही है।
9. पुरुषोत्तम मंदिर - द्वारकाधीश को पुरुषोत्तम कहते हैं।
10. दत्तात्रेय मंदिर - नवनाथ के गुरु दत्तात्रेय की मूर्ति यहाँ है जिनकी पादुका जूनागढ़ के गिरनार के शिखर पर स्थापित है।
11. शेषावतार श्री बलदेव मंदिर - बलदेवजी भगवान त्रिविक्रमजी के साथ पातळ लोक से पधारे थे। श्री द्वारकाधीश मंदिर के सभा मंडप के कोने आपका मंदिर है।
12.देवकी माता मंदिर - कृष्ण की माताजी का मंदिर। 
13.राधा-कृष्ण मंदिर - कृष्णने बाल्यावस्था में राधा के साथ बाल क्रीड़ाएँ तथा रासलीला की थी।
14.माधवराय मंदिर - रुक्मिणी हरण के बाद कृष्ण की शादी रुक्मिणी के साथ माधवपुर गाँव में हुई थी। उस स्मृति के फलस्वरूप यहाँ मंदिर है।
15.त्रिविक्रम मंदिर - कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र का यह मंदिर है। 
16.दुर्वासा मंदिर - दुर्वासा मुनि के शाप से श्रीकृष्ण और रुक्मिणी में वियोग हुआ। इस कारण रुक्मिणी का मंदिर द्वारका से बाहर है।
17.जाम्बुवती मंदिर - जाम्बुवान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर।
18.राधिका मंदिर - वृषभान की पुत्री और कृष्ण की पटरानी का मंदिर, इनके साथ कृष्ण ने गोकुल-वृन्दावन में बाल लीलाएं की।
19.लक्ष्मी मंदिर - कृष्ण की ज्येष्ठ पटरानी का मंदिर।
20. सत्यभामा मंदिर - कृष्ण की पटरानी, सत्राजित की पुत्री। सत्राजित ने कृष्ण पर स्यमन्तक मणि चुराने का आरोप लगाया था। जाम्बुवन से मणि प्राप्त होने पर लज्जित होकर अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह कृष्ण के साथ मणि दहेज़ में दी। इनके रूठने पर कृष्ण ने स्वर्गलोक के नंदनवन से पारिजात वृक्ष इनको प्रसन्न किया।
21. सरस्वती मंदिर - भगवती शारदा के रूप में यहाँ की प्रसिद्धि है।
22. लक्ष्मी नारायण मंदिर लक्ष्मी जी और विष्णु का मंदिर है।
23. ज्ञान मंदिर नारदा मठ - छप्पन सीढ़ी पर स्थित।
24. शंकराचार्य समाधि - द्वारकाधीश मंदिर प्रांगण में भोग चोक के सामने माधवराय और देवकीजी मंदिर के बीच शारदापीठ परंपरा के दो शंकराचार्यों की प्राचीन समाधी है। 
25. गोमती द्वारका - द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है। 
26. निष्पाप कुण्ड - इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं।
27. पंचनद तीर्थ - द्वारका तीर्थ के गोमती नदी पर पंचनद तीर्थ है। यहाँ की लोक भाषा में इस तीर्थ को पंचकुई कहा जाता है। यहाँ चारों तरफ समुद्र का खारा पानी है परन्तु इन पांच कुओं में मीठा पानी है। कहते हैं कि यहाँ पांडवों ने निवास किया था। इसके समीप ही लक्ष्मीनारायणदेव जी का मंदिर है। बगल में पांडवोंकी गुफा है।  निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर।
28. शंकराचार्य स्मारक - गोमती पार पंचकुआँ के पास शंकराचार्य स्मारक स्थल है।
29. गोमती जी - द्वारका नगरी गोमती नदी एवं अरब तट पर स्थित है। गोमती नदी का उद्गम स्थल द्वारका से 16 किमी दूर नानाभावड़ा गाँव के पास है। इसलिए इस जगह को मूल गोमतीके नाम से जाना जाता है। कुछ लोग इसे मूल गोमता नाम से भी पुकारते हैं। गोमती नदी गंगा का दूसरा स्वरुप है। जिसे वशिष्ठ जी की पुत्री कहा गया है। इसका स्कंदपुराण के द्वारका महात्म्य के अंतर्गत पांचवें अध्याय में किया गया है। स्कंदपुराण में बताया गया है कि मन, वाणी तथा कर्म के द्वारा किये गए समस्त पाप गोमती में स्नान करने से नष्ट हैं। 
30. गोमती माता का मंदिर- छप्पन सीढ़ी के सामने गोमती माता का मंदिर स्थित है। 
31. संगम नारायण मंदिर - माता गोमती जी का संगम जिस स्थान पर समुद्र से होता है, वहीँ पर संगम नारायण मंदिर है। 

चक्रतीर्थ 
संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। चारधाम एवं सप्तपुरियों में वर्णित द्वारका को चक्रतीर्थ के नाम से जाना जाता है। स्कन्द पुराण में प्रभास खंड के द्वारका महात्म्य के अध्याय में इसका वर्णन है। गोमती और समुद्र के संगम स्थल पर शीला की प्राप्ति होने के कारण इसे चक्रतीर्थ कहा गया है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है। इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।

कैलासकुण्ड़  
इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है। यही असली द्वारका है।

रणछोड़जी का मन्दिर  
रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल । सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

शंख तालाब  
रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।

बाण तीर्थ
द्वारका कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है।बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है। हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा थायादवस्थान: सोमनाथ पाटन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।

सोमनाथ पाटन 
बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर वेरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पाटण है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।सोमनाथ: इस सोमनाथ पाटन गांव में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी कम पड़ जाए। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर पाटण मे अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है।
शामलशाह भगवान का मंदिर 
द्वारकाधीश ने नरसिंह भगत की हुंडी की रकम शामलशाह बन कर दिया। 

सिद्धेश्वर महादेव मंदिर 
द्वारका तीर्थ के अंतर्गत आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदापीठ के आराध्य सिद्धेश्वर महादेव मंदिर का वर्णन स्कन्द पुराण के द्वारका महात्म्य के चतुर्थ अध्याय में किया गया है। 

भद्रकाली माताजी मंदिर 
द्वारकाधीश स्थित शारदापीठ की आराध्या भगवती भद्रकाली का मंदिर इससे आधा किमी स्थित है। इस मंदिर के पत्थर पर श्रीचक्र अंकित है। 

कृकलास कुण्ड  
द्वारका के तीर्थों में कृकलास कुण्ड प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्थान है। इस स्थान का महात्म्य श्रीमद भागवत और सकंदपुराण के रजा नृग के आख्यान के साथ जुड़ा हुआ है।

रुक्मिणी मंदिर 
कृष्ण की आठ पटरानियों में माता रुक्मिणी का विशिष्ठ स्थान है। कृष्ण ने रुक्मिणी का अपहरण किया और उनके साथ विवाह किया। रुक्मिणी-मंदिर द्वारका से करीब 3 किलोमीटर की दूरी पर द्वारका शहर के बाहरी हिस्से में स्थित है। इस मंदिर के बारे में एक रोचक कहानी है कि एक बार दुर्वासाऋषि जो भगवान श्रीकृष्ण के गुरु थे, द्वारका में पधारने वाले थे। यह खबर सुनकर भगवान कृष्ण तथा माता रुक्मणि उन्हें ससम्मान लेने के लिए जंगल में गए, दुर्वासा ऋषि की इच्छा के अनुरूप भगवान कृष्ण तथा रुक्मणि रथ में घोड़ों की जगह खुद जुत गए, अत्यधिक गर्मी तथा थकान की वजह से माता रुक्मणि को प्यास सताने लगी तो भगवान श्रीकृष्ण के माता की प्यास बुझाने के लिए जमीन से कुछ पानी निकाला जिसे रुक्मणि जी पीने लगी, यह देखकर ऋषि दुर्वासा बहुत क्रोधित हो गए। कहा कि पहले गुरु से पानी का पूछने के बजाय रुक्मणि ने खुद कैसे पानी पी लिया। अत्यधिक क्रोधी स्वभाव के होने के कारण दुर्वासा ने रुक्मणि जी को श्राप दिया कि अगले बारह वर्षों तक रुक्मणि जी भगवान कृष्ण से दूर इसी स्थान पर तथा प्यासी रहेंगी। इसी श्राप की वजह से माता रुक्मणि का यह मंदिर द्वारका से बाहर है। दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण रुक्मिणी मंदिर भगवान् के मंदिर से दूर बनाया गया। कृष्ण के जीवन से सम्बद्ध यह स्थल द्वारका से 13 किमी दूर चरण-गङ्गा प्राकट्यके नाम से जाना जाता है। कृष्ण ने चरण से जहाँ गंगा प्रकट की वहाँ 35 फुट गहरा मीठे पानी का कुआ है। मंदिर में एक अजीब प्रथा भी है कि हर भक्त मंदिर में प्रवेश से पहले एक छोटा ग्लास पानी पीकर ही प्रवेश कर सकता है अन्यथा नहीं।
गोपी तालाब
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग से कुछ किलोमीटर चलने के बाद बेट द्वारका के रास्ते में आता है गोपी तालाब। गोपी तलाव द्वारका से 20 किलोमीटर तथा नागेश्वर से मात्र 5 किलोमीटर की दूरी पर बेट द्वारका के मार्ग पर स्थित है। गोपी तालाब एक छोटा सा तालाब है जो कि चन्दन जैसी पिली मिट्टी से घिरा है जिसे गोपी चन्दन कहते हैं, यह चन्दन भगवान् श्री कृष्ण के भक्तों के द्वारा माथे पर तिलक लगाने के लिए किया जाता है। यह तालाब हिन्दू पौराणिक कथाओं में विशेष स्थान रखता है। इस सम्बन्ध में कथा प्रचलित है कि भौमासुर नामक एक राजा ने वरुण का छात्र, माता अदिति का कुंडल और मेरुपर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया। इंद्र ने कृष्ण को बताया तो कृष्ण पत्नी सत्यभामा के साथ भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर गए। वहाँ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें भौमासुर मारे गए। कृष्ण ने वहाँ कैद 16000 जाजकुमारियों को मुक्त किया। (भागवत स्कंध अध्याय 59 श्लोक 33-42) इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि इस स्थल पर कृष्ण ने अर्जुन का अहंकार दूर किया था। कृष्ण ने अपनी सभी रानियों को द्वारका से बाहर सुरक्षित लेजाने का भार अर्जुन को सौंपा था। अर्जुन को अहंकार हो गया कि उसके पास गांडीव जैसा धनुष है और महाभारत जैसे युद्ध में विजय पाई है। काबा जातिके लोगों ने अर्जुन पर हमला कर गोपियों को लूट लिया। अर्जुन के गांडीव ने काम नहीं किया। लुटेरों के डर से कितनी ही रानियाँ तालाब में डूब कर मर गयी। इसलिए उस तालाब को आज भी गोपी तालाब कहते हैं। वहाँ की चिकनी एवं पीले रंग की मिटटी गोपी चन्दन के रूप में प्रसिद्ध है। इस चन्दन को लगाने से खाज-खुजली मिट जाती है, ऐसी मान्यता है। 

बेट द्वारका
बेट द्वारका, द्वारका से करीब 30 किलोमीटर दूर है तथा ऐसा माना जाता है की यह जगह भगवान कृष्ण का निवास स्थान था। भगवान कृष्ण बेट द्वारका में निवास करते थे तथा उनका राज दरबार द्वारका में था। बेट द्वारका वही जगह है जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की अपने बाल सखा सुदामा जी से मुलाकात  हुई थी। इसी वजह से इसे बेट द्वारका कहा जाता है। बेट द्वारका समुद्र के कुछ किलोमीटर अन्दर एक छोटे से द्वीप पर स्थित है जहाँ पहुँचने के लिए ओखा के समुद्री घाट (Jetty ) से फेरी बोट की सहायता से जाना पड़ता है। फेरी से बेट द्वारका पहुँचने में लगभग आधे घंटे का समय लगता है। लेकिन यह आधे घंटे का सफ़र बड़ा ही आनंददायक होता है। खुले आकाश में नाव की सवारी करके एक टापू पर पहुंचना सचमुच बहुत सुखद अनुभव था। पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड हमारी नाव के ऊपर उड़ रहे थे एवं कई बार तो ये पक्षी एकदम हमारे करीब आ जाते थे इतना करीब की हम उन्हें छू सकते थे। इस कभी न भूलने योग्य अनुभव को हमने अपनी स्मृति में हमेशा के लिए बसा लिया और कुछ ही देर में हम बेट द्वारका के द्वीप पर पहुँच गए। बेट द्वारका में हमने सबसे पहले दर्शन किये भगवान कृष्ण के निवास स्थान के जो अब एक मंदिर है। बेट द्वारका में और भी सुन्दर तथा देखने लायक मंदिर हैं।
बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इल पांचों महलो की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचोंध हो जाती है। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े है। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए है। सच्ची जरी के कपड़ो से उनको सजाया गया है।

नागेश्वर मन्दिर 
नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह द्वारका गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है। यह शिव जी के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म के अनुसार नागेश्वर अर्थात नागों का ईश्वर होता है। यह विष आदि से बचाव का सांकेतिक भी है। रुद्र संहिता में इन भगवान को दारुकावने नागेशं कहा गया है। 

एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्‌। सर्वान्‌ कामानियाद् धीमान्‌ महापातकनाशनम्‌॥
(शिव महापुराण) 

भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति और माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।

पिंडारक

पिंडारक एक तीर्थ स्थान है, जो प्रभास के निकट 'द्वारावती' (द्वारका) में स्थित है। इसे गुजरात में द्वारका से सोलह मील पूर्व में स्थित बताया गया है। इस तीर्थ का पुलत्स्य - भीष्म , गौतम - अंगिरस एवं धौम्य - युधिष्ठिर संवाद में उल्लेख आता है। पद्म लक्षण मुद्राएँ और पद्म त्रिशूल अंकित चिह्न यहाँ पर आज भी मिल जाते हैं। यहाँ पर महादेव का सान्निध्य है, और पितृ-पिंड सरोवर में डालने से पानी पर उतराते हैं। इसीलिए यह महान् 'पिंड तारक' (पिंडारक) तीर्थ माना जाने लगा।यहाँ स्नान-पितृ स्मरण शुभ फलदायी होता है।


युधिष्ठिर वर्ष 2663 का स्थापित शारदापीठ द्वारका

लगभग 2520 वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धांत प्रतिपादित किया था। उन्होंने समग्र देश में भ्रमण कर लोगों के जीवन को तपस्वी बनाया देश की चार दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। उत्तर में ज्योतिष्पीठ, दक्षिण में शृंगेरीपीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ और पश्चिम में शारदापीठ। इन चार पीठों में से सर्वप्रथम द्वारका में शारदापीठ की स्थापना हुई। ऐसा 'मठाम्नाय' नामक ग्रन्थ में लिखा है - प्रथमः पश्चिमाम्नाय: शारदामठ उच्यते। 

ई.पूर्व पांचवीं शताब्दी में एक दण्डधारी युवक परिव्राजक सन्यासी आदिशंकराचार्य के द्वारा आने का प्रमाण प्राप्त होता है।  आदिशंकराचार्य ने द्वारका में धर्मशासन हेतू शारदापीठ की स्थापना की। श्रीमत्वित्सुखाचार्य द्वारा 'बृहतशंकरविजय' नामक ग्रन्थ की रचना की गयी उसमें 'अब्दे नन्दने दिनमणावुदगध्वाभाजि' अर्थात ई.पूर्व 509 उल्लिखित है। यही प्रमाणित भी है। दण्डी स्वामी श्रीमच्छङ्कराचार्य का समय निश्चित रूप से ई. पू 509 ही बताया है।
इस मठ का महावाक्य है- 'तत्त्वमसि' और इसमें सामवेद को रखा गया है
द्वारिका मठ के पहले मठाधीश हस्तामलक (पृथ्वीधर) थे
हस्तामलक आदि शंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक थे।मठ से एक शैक्षणिक संस्था, आर्ट कॉलेज और संस्कृत एकेडमी भी जुड़ी हुई है।

राजा सुधन्वा 
राजा सुधन्वा आदि शंकराचार्य के समकालीन थे और उन्होंने ही शंकराचार्यों को राजोपचार तथा प्रजा से धर्मकर लेने के अधिकार उपलब्ध कराये थे। अभिलेखीय साक्ष्यों के अनुसार राजा सुधन्वा चाहमान (चौहान) वंश के छठे राजा थे, जो युधिष्ठिर के वंशज थे। महाभारत से ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर ने यादवों के गृह युद्ध के पश्चात अंधक वंशी कृतवर्मा के पुत्र को मार्तिकावत (III.116.6), शिनिवंशी सात्यकी के पुत्र युयुधान को सरस्वती नदी के तटवर्ती क्षेत्रों तथा इंद्रप्रस्थ का राज्य कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को, कृष्ण की मृत्यु के पश्चात दे दिया था। महिष्मति का राज्य भी युधिष्ठिर द्वारा ही राजा को दे दिया था। यह जैमिनी के अश्वघोष पर्व से ज्ञात होता है। राजस्थानी इतिवृत चौहानों का मूल राज्य माहिष्मती को ही मानते हैं।

हरिवंश पुराण के अनुसार
हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
विष्णु पुराण के अनुसार आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर राज्य किया।
विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी।
महाभारत के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी- ‘कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्’।

हरिवंश पुराण (अध्याय 113) में आया है कि शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया। (अध्याय 116), दे. देवीभागवत (24, 31) - 'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'

प्राचीन द्वारका एक पूर्ण नियोजित शहर था- कहा जाता है कि शहर को छह विभागों में विभाजित किया गया था, जिसमें आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र, चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े चौक, 7,00,000 महल जो सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से बने थे, साथ ही कई सार्वजनिक सुविधाएं शामिल थीं। इसके अलावा वनस्पति उद्यान और झील भी थी। द्वारका में एक बड़ा हॉल जिसे सुधर्मा सभा कहा जाता था, यह वह स्थान था जहाँ सार्वजनिक सभाएं होती थीं। द्वारका में विशालकाय सभा मंडप था। शहर पानी से घिरे होने के कारण पुलों और बंदरगाहों के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा था।

जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ के अनुसार 
जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ में द्वारका के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। बहुत से पुराणकार मानते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम, कृतवर्मा, सत्याकी, अक्रूर, उद्धव और उग्रसेन समेत 18 साथियों के साथ द्वारका आए थे। कृष्ण ने जब  कंस का वध कर दिया, तब कंस के ससुर मगधिपति जरासंघ ने यादवों को खत्म करने का फैसला किया। वे मथुरा और यादवों पर बार-बार आक्रमण करते थे। इसलिए यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया। कृष्ण और उनके साथियों ने द्वारका आकर इस भूमि को रहने लायक बनाया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाराजा रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही द्वारका का नाम कुशस्थली हुआ था।

श्रीमद्भागवतम् पुराण 
श्रीमद्भागवतम् पुराण और अन्य शास्त्रों के अध्ययन के मुताबिक द्वारका वर्ष 3102 ई.पू. में डूबा था, जो आज से लगभग 5100 वर्ष है। 3102 ईसा पूर्व द्वापर युग का अंत और कलयुग का प्रारंभ हुआ था। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, कलियुग 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व की मध्य रात्रि यानी 12 बजे से शुरू हुआ। धर्म ग्रंथों में यही वह तिथि मानी जाती है, जब श्रीकृष्ण बैकुंठ लोक लौट गए थे।

समुद्र देवता ने उन्‍हें अपना राज्‍य बसाने के लिए 12 योजन अर्थात लगभग 773 वर्गकिमी भूमि प्रदान की थी और स्वर्ग और अनेक निर्माणों के देवता जो अनेक सुंदर इमारतें महल नगर बनाने वाले भगवान विश्‍वकर्मा ने श्रीकृष्‍ण की इच्‍छा को स्‍वीकार करके उनके लिए एक नए राज्‍य का निर्माण किया। धन-धान्‍य से संपन्‍न यह राज्‍य स्‍वर्ण नगरी कहलाया और द्वारका के राजा श्रीकृष्‍ण को द्वारकाधीश कहा जाने लगा। श्रीकृष्‍ण के जीवन का उद्देश्‍य एक ऐसे राज्‍य की स्‍थापना करना था, जो सत्‍य धर्म के सिद्धान्‍त पर आधारित हो। द्वारका द्वारावती के नाम से भी जानी जाती है, जो ‘द्वारा’ शब्‍द से बना है, जिसका अर्थ होता है द्वार या दरवाजा और ‘का’ का अर्थ होता है ब्रह्मा।

द्वारका नियोजित रूप से बसा शहर था, जहां छह सुसंगठित क्षेत्र थे- आवासीय, व्‍यावसायिक जोन, चौड़ी सड़कें, चौक, महल और कई सार्वजनिक सुविधाएं। जन सभाएं एक हाल में आयोजित होती थीं, जिसे सुधर्म सभा (सत्‍य धर्म सभा) कहा जाता था। नगर में सात ऐसे स्थान थे, जो सोने, चांदी व अन्‍य कीमती पत्‍थरों से बने थे, साथ ही सुंदर बाग व झीलें भी थीं। पूरा नगर चारो ओर से पानी से घिरा हुआ था, यहा से मुख्‍य भूमि तक जाने के लिए पुल बने हुए थे।

माना और कहा जाता है और ग्रंथो द्वारा प्रमाणित भी है कि भगवान विश्वकर्मा जी ने गज के द्वारा चारो युगों मे महत्वपूर्ण निर्माण किए हैं। सत्ययुग मे सोने के गज से अमरावती नगरी का निर्माण किया था। त्रेतायुग मे चांदी के गज से लंका नगरी का निर्माण हुआ था। द्रापरयुग मे चंदन और बांस के गज के द्वारा द्वारिकापुरी का निर्माण किया था। और कलियुग में काष्ठ और लौह से बने गज द्वारा चौसठ कलाओं का निर्माण किया था।

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्‍टनवतितम अध्याय: श्लोक 1-19

द्वारिका वर्णन 
गरुड़ पर बैठे हुए भगवान श्रीकृष्‍ण ने द्वारकापुरी को देखा, जो देवलोक के समान शोभा पा रही थी। वहाँ चारों ओर समुद्र गर्जना की प्रतिध्‍वनि व्‍याप्‍त हो रही थी। उस पुरी में जहाँ-तहाँ मणिमय पर्वत तथा यंत्र सुशोभित थे। बहुत-से क्रीड़ागृह बने हुए थे। अनेकानेक उद्यान, श्रेष्ठ वन, छज्‍जे और चबूतरे शोभा दे रहे थे। श्रीकृष्‍ण ने इन सबको देखा। देवकीनन्‍दन श्रीकृष्‍ण जब द्वारकापुरी के समीप पहँचे, तब देवराज इन्‍द्र ने भगवान विश्‍वकर्मा को बुलाकर इस प्रकार कहा- 'शिल्पियों में श्रेष्‍ठ विश्‍वकर्मन! आप से विनम्र बिनती है श्री कृष्ण की रचना करना चाहते हो तो श्रीकृष्‍ण की प्रसन्‍नता के लिये पुन: द्वारकापुरी को पहले से भी अधिक मनोहर बना दो। विबुधश्रेष्‍ठ! जैसी ये मेरी पुरी है, उसी प्रकार तुम द्वारका को सैकड़ों उद्यानों से हरी-भरी तथा स्‍वर्गतुल्‍य मनोहारिणी बना दीजिए । तीनों लोकों में जो कुछ भी तुम्‍हें रत्‍नरूप दिखायी दे, उससे द्वारकापुरी को शीघ्र ही संयुक्‍त कर दो। क्‍योंकि महाबली श्रीकृष्‍ण समस्‍त देव कार्यों के लिये सदा तैयार रहते हैं और घोर-से-घोर संग्रामों में भी प्रवेश कर जाते है।' प्रभु विश्‍वकर्मा ने इन्‍द्र के द्वारा विश्वकर्मा जी की स्तुति गान हुआ प्रसन्न होकर विश्वकर्मा प्रभु ने  पुरी में जाकर उसे सब ओर से उसी प्रकार अलंकृत किया, जैसे देवराज की अमरावतीपुरी सुसज्जित रहती है। यादवों के स्‍वामी गरुड़वाहन श्रीकृष्‍ण ने अपनी उस पुरी को भगवान विश्‍वकर्मा द्वारा निर्मित दिव्‍य भावों से अलंकृत देखा। उस समय उस तरह सजी द्वारका को देखकर सम्‍पूर्ण अर्थों से सम्‍पन्‍न सर्वव्‍यापी भगवान नारायण ने बड़ी प्रसन्‍नता के साथ उसमें प्रवेश आरम्‍भ किया।

भगवान देवशिल्पी विश्‍वकर्मा द्वारा विचित्र शोभा से सम्‍पन्‍न की हुई द्वारका में भगवान श्रीकृष्‍ण ने बहुत-से रमणीय वृक्षखण्‍ड देखे, जो दृष्टि और मन को आकृष्‍ट कर लेते थे। वह पुरी गंगा और सिन्‍धु के समान सुशोभित होने वाली चौड़ी खाइयों से घिरी हुई थी। उनमें कमलों के समूह भरे हुए थे तथा हंस उनके जल का सेवन करते थे। जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगर की लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोस की थी। उस नगर की एक-एक वस्तु में विश्वकर्मा का विज्ञान परिपूर्ण था। 

ऊँचे टीले पर बने हुए सुन्‍दर सुवर्णमय प्राकार से, जो सूर्य के सदृश प्रभापुंज से परिपूर्ण था, घिरी हुई द्वारकापुरी घनमाला से घिरे हुए आकाश के समान शोभा पाती थी। नन्‍दन और चैत्ररथ नामक वनों के समान मनोहर काननों से भली-भाँति घिरी हुई द्वारकापुरी मेघों से घिरे हुए द्युतलोक की भाँति सुशोभित हो रही थी। द्वारकापुरी की पूर्व दिशा में शोभा सम्‍पन्‍न रैवतक पर्वत बड़ा ही मनोहर प्रतीत होता था। उसके शिखर, गुफा और आंगन सभी रमणीय थे। उसके बाहरी फाटक मणि एवं सुवर्ण के बने हुए थे। पुरी के दक्षिण भाग में लतावेष्‍ट नामक पर्वत शोभा पा रहा था, जो पांच रंग का होने के कारण इन्‍द्र ध्‍वज-सा प्रतीत हो रहा था। पश्चिम दिशा में सुकक्ष नामक रजत पर्वत था, जिसके ऊपर विचित्र पुष्‍पों से अलंकृत महान वन सुशोभित हो रहा था। नृपश्रेष्‍ठ! मन्‍दराचल के समान श्‍वेत वर्णमाला वेणुमान पर्वत द्वारका की उत्‍तर दिशा को अत्‍यन्‍त शोभासम्‍पन्‍न बना रहा था। रैवतक पर्वत के चारों ओर चित्रक, पंचवर्ण, विशाल पांचजन्‍य तथा सवॅतुॅक नामक वन शोभा पा रहे थे। लतावेष्‍ट पर्वत के चारों ओर मेरुप्रभ नामक महान वन, भानुवन तथा पुष्‍पक नामक विशाल वन शोभा पा रहे थे।

वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनों से युक्त था, जिनमें देवताओं के वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोने के इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाश से बातें करते थे। स्फटिकमणि की अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे द्वार बड़े ही सुन्दर लगते थे। अन्न रखने के लिये चाँदी और पीतल के बहुत-से कोठे बने हुए थे। इसके अतिरिक्त उस नगर में वास्तुदेवता के मंदिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्ण के लोग निवास करते थे। 

हरिवंश पुराण (अध्याय 113) में आया है कि देवशिल्पी विश्वकर्मा और उनके साथ अनेक शिल्पियों द्वारा प्राचीन नगरी का जीर्णोद्धार किया गया। प्रभु विश्वकर्मा ने सुधर्मा सभा का निर्माण किया। (अध्याय 116), दे. देवीभागवत (24, 31) 
'शिल्पिभि: कारयामास जीणोद्धारम।'

नागों का वास 
कुछ ऒर प्रमाण भी मिलते हैं जिससे सिद्ध होता है कि द्वारका क्षेत्र में आर्यों के आगमन से पहले नागों का वास था। पाताल में बसने वाले नाग समुद्र से आकर इस क्षेत्र में बसे थे। इस प्रदेश के नाग द्वारका सहित समस्त सौराष्ट्र प्रदेश के संपर्क में थे। स्कन्दपुराण के कुमारिका खंड में पातालपुरीको अत्यंत समृद्ध महाप्रसादों तथा मणिरत्नों से अलंकृत एवं स्वरूपवती नागकन्याओं से युक्त बताया गया है। यदुवंश के संस्थापक यदु का विवाह धौम्रवणॅ की पांच नाग कन्याओं के साथ हुआ था। कुशस्थली (द्वारका) का राजा रैवत मूल से तक्षक नाग था। 

शिव पुराण के अनुसार 
शिव पुराण के अनुसार इसका एक प्रसिद्ध नाम दारुका वन  था , जहाँ नागों का निवास था। आयोॅ ने उन्हें वर्णाश्रम-धर्म का अनुयायी बनाया और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। ब्रह्माण्डपुराण (3.7.100) के अनुसार कश्यप का पुत्र यक्ष ( गृह्यक) था, जिसे पञ्यचुडा क्रतुस्थला नाम की अप्सरा से रजतनाथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और उनके मणिवर तथा मणिभद्र नाम के दो पुत्र हुए। इनमें मणिभद्र का विवाह पुण्यजनी नाम की कन्या से हुआ। इस पुण्यजनी की संतानें पुण्यजनी कहलाई। इनका कुछ दिनों तक इस क्षेत्र पर अधिपत्य रहा और कालांतर में भीष्मक के पुत्र रुकमी ने इन्हें पराजित कर भगाया था । तभी द्वारका उजड़ गयी थी और इसी उजड़ी हुई द्वारका को कृष्ण ने फिर से बसाया था. सम्भवतः इसी कारण महाभारत में द्वारका के 'पुनर्निवेशनम्' शब्द का प्रयोग किया है।

श्रीकृष्ण और भगवान विश्वकर्मा 
भगवान विश्वकर्मा जी और श्रीकृष्ण का अरसपरस पूज्यनीय सम्बंध बताये गये हैं। भगवान विश्वकर्मा द्वारा श्रीकृष्ण के जीवन में अनेक बार मह्त्वपूर्ण कार्य संपन्न किए थे। श्रीकृष्ण की द्वारिका, खांडव वन मे इन्द्रप्रस्थ, सुदामा महल और अनेक महत्वपूर्ण निर्माण को अलंकृत किए गए थे। 
श्रीकृष्ण ने मनु। मय, त्वष्टा, शिल्पी, दैवज्ञ सहित विश्वकर्मा जी की पूजा की हे । 
(पद्मपुराण पुराण भूखण्ड अ.25/28,72 - 81)
भगवान श्रीकृष्ण और विश्वकर्मा मे लेशमात्र अन्तर नहीं है। 
(पद्मपुराण भूखण्ड अ. 29)
प्रजापति त्वष्टा पुत्री प्राग्ज्योतिषपुर सम्राट भूमि पुत्र नरकासुर के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण को ब्याही गई थी। विश्वकर्मा जी के जामाता हुए श्रीकृष्ण। 
(महाभारत सभा पर्व अ. 38 - 805,810,811)

श्रीकृष्ण का द्वारका का जीवन
द्वारका के विषय में ऊपर लिखा जा चुका है कि यह नगर बिलकुल नवीन नही था। वैवस्वत मनु के एक पुत्र शर्याति को शासन में पश्चिमी भारत का भाग मिला था। शर्याति के पुत्र आनर्त के नाम पर कठियावाड़ और समीप के कुछ प्रदेश का नाम आनंत प्रसिद्ध हुआ। उसकी राजधानी कुशस्थली के ध्वंसावशेषों पर कृष्ण कालीन द्वारका की स्थापना हुई। यहाँ आकर कृष्ण ने उग्रसेन को वृष्णिगण का प्रमुख बनाया। द्वारका में कृष्ण के वैयक्तिक जीवन की पहली मुख्य घटना थी-कुंडिनपुर  की सुंदरी राजकुमारी रुक्मिणी के साथ विवाह। हरिवंश पुराण में यह कथा विस्तार से दी हुई है। रुक्मिणी का भाई रूक्मी था। वह अपनी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल से करना चाहता था। मगधराज जरासंध भी यही चाहता था। किंतु कुंडिनपुर का राजा कृष्ण को ही अपनी कन्या देना चाहता था। रुक्मिणी स्वयं भी कृष्ण को वरना चाहती थी। उनके सौंदर्य और शौर्य की प्रशंसा सुन रखी थी। रुक्मिणी का स्वयंवर रचा गया और वहाँ से कृष्ण उसे हर ले गये। जिन लोगों ने उनका विरोध किया वे पराजित हुए। इस घटना से शिशुपाल कृष्ण के प्रति गहरा द्वेष मानने लगा।

भागवतपुराण (56-57), वायु पुराण (96, 20-98), पद्म पुराण (276, 1-37), ब्रह्मवैवर्त पुराण (122), ब्रम्हांड पुराण (201, 15), हरिवंश पुराण (118) आदि। पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों को छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया।

हरिवंश पुराण के अनुसार 
हरिवंश पुराण के अनुसार बलराम का विवाह भी द्वारका जाकर हुआ। संभवत: पहले बलराम का विवाह हुआ, फिर कृष्ण का। बाद के पुराणों में बलराम और रेवती की विचित्र कथा मिलती है। कृष्ण की अन्य पत्नियाँ-रुक्मिणी के अतिरिक्त कृष्ण की सात अन्य पत्नियाँ होने का उल्लेख प्राय: सभी पुराणों में मिलता है। इनके नाम सत्यभामा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मण दिये हैं। इनमें से कोई को तो उनके माता-पिता ने विवाह में प्रदान किया और शेष को कृष्ण विजय में प्राप्त कर लाये। सतांन-पुराणों से ज्ञात होता है कि कृष्ण के संतानों की संख्या बड़ी थी ।रुक्मिणी से दस पुत्र और एक कन्या थी इनमें सबसे बड़ा प्रद्युम्न था। भागवतादि पुराणों में कृष्ण के गृहस्थ-जीवन तथा उनकी दैनिक चर्या का हाल विस्तार से मिलता है। प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध का विवाह शोणितपुर के राजा वाणासुर की पुत्री ऊषा के साथ हुआ।
द्वारिका जलगमन एक शोध

अब महाभारत के अनुसार देखें तो द्वारका वर्ष 3102 ई.पू. में डूबी था, जो आज से लगभग 5100 वर्ष है और अगर हिमयुग के अंत वाली थ्योरी देखें तो द्वारका 9000 से 9500 साल पहले डूबी थी।

हिमयुग के दौरान समुद्र में डूब जाने की थ्योरी आधी सच लगती है। लेकिन बहुत से पुराणकार और इतिहासकार मानते हैं कि द्वारिका को कृष्ण के देहांत के बाद जान-बूझकर नष्ट किया गया था। यह वह दौर था, जबकि यादव लोग आपस में भयंकर तरीके से लड़ रहे थे। इसके अलावा जरासंध और यवन लोग भी उनके घोर दुश्मन थे। ऐसे में द्वारिका पर समुद्र के मार्ग से भी आक्रमण हुआ और आसमानी मार्ग से भी आक्रमण किया गया। अंतत: यादवों को उनके क्षेत्र को छोड़कर फिर से मथुरा और उसके आसपास शरण लेना पड़ी।

द्वारका के जलमगन होने के बाद कृष्ण के परपोते वज्रनाभ द्वारका के यदुवंश के अंतिम शासक 

वज्रनाभ जो यादवों के अंतिम युद्ध में जीवित रह गए। द्वारका के समुद्र में डूब जाने के बाद अर्जुन द्वारका आए और वज्रनाभ और अन्य जीवित यादवों को हस्तिनापुर ले आए। कृष्ण के वज्रनाभ को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से मथुरा क्षेत्र को वज्रमंडल भी कहा जाता है।

द्वारका के नष्ट होने की कुछ और भी मान्यता

यह भी कहा जाता है कि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी और ऋषि दुर्वासा ने यदुवंश के नष्ट होने का श्राप दिया था जिसके चलते द्वारिका नष्ट हो गई थी। एक मान्यता यह भी है कि यह नगर अरबी समुद्र में 6 बार डुब चुका है और वर्तमान द्वारका 7वां शहर है जिसको पुराने द्वारिका के पास पुन: स्थापित किया गया। वर्तमान की द्वारका आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित है।


पुरातत्व सर्वेक्षण

पुरातत्त्ववेत्ता पिछले 6 दशकों से प्राचीन द्वारका के अवशेषों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। द्वारका में पहली पुरातात्विक खुदाई 1963 में की गई थी। इस खोज में कई शताब्दियों पुरानी कलाकृतियां मिली थीं।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की मरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट (MAU) ने 1979 में डॉ. एस. आर. राव के नेतृत्व में खुदाई का दूसरा दौर चलाया था। यह खोज गुजरात में बंदरगाह शहर लोथल में की गई। इस खोज में विशिष्ट मिट्टी के बर्तन मिले थे। जो 3,000 साल पुराने बताए गए। इन खुदाई के परिणामों के आधार पर 1981 में अरब सागर में द्वारका की खोज शुरू हुई।

पानी के नीचे की खोज की परियोजना को 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा मंजूरी दी गई थी। समुद्र के नीचे खुदाई का काम कठिन था 1983 और 1990 के बीच डॉ. एस. आर. राव की टीम को ऐसी खोजों के बारे में पता चला जिसने एक डूबे हुए शहर की मौजूदगी की प्रमाणिकता पर पहली बार मोहर लगाई थी।

दिसंबर 2000, अक्टूबर 2002 और फिर जनवरी 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंडरवाटर पुरातत्व विंग (UAW) ने द्वारका में फिर से खुदाई शुरू की थी। जिसमें अरब सागर में पाए जाने वाली प्राचीन संरचनाओं की पहचान की जा रही है। अन्वेषणों में बस्तियां, दीवारें, स्तंभ और त्रिकोणीय और आयताकार जैसी संरचनाएं निकली। शिलालेख, मिट्टी के बर्तन, पत्थर की मूर्तियां, टेराकोटा की माला, पीतल, तांबा और लोहे की वस्तुएं मिली थीं।

2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का अभियान

भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी से जुड़े दावों और अनुमानों के वैज्ञानिक कसौटी पर कसे जाने का समय अब एकदम नजदीक आ गया है, क्योंकि 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोर समुद्र में समाई द्वारका नगरी के अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाल लाए थे।

गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला।

नौसेना के साथ मिलकर चलाए गए अपनी तरह के इस तीसरे अभियान के आरंभिक नतीजों की जानकारी देते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के समुद्री पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया कि इन दुर्लभ नमूनों को अब देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों की पुरा प्रयोगशालाओं को भेजा गया था। और मिली जानकारी के मुताबिक ये नमूने सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं खाते।

नौसेना के गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया था।


पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया ये खंड किसी नगर या मंदिर के अवशेष लगते हैं।

द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई थी और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई। उन्होंने माना कि जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है।

पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित प्राचीन द्वारका नगरी और उसके समुद्र में समा जाने से जुड़े रहस्यों का पता लगाने का काम पिछले कई वर्ष से रुका पड़ा है, हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अगले दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाने का निर्णय किया है.

विशेषज्ञों ने कृष्ण जन्म को लेकर ऐतिहासिक प्रमाणिकता 

भारतवर्ष में मानव सभ्यता का इतिहास कितना प्राचीन है, इसका अंदाजा हम हडप्पा और मोहन जोदाडों से लेकर पुरातत्व के अवशेषों से लगा सकते हैं। इस अति प्राचीन और पवित्र धरती पर कई महापुरुष भी हुए। ऐसा ही ऐतिहासिक नाम है, भगवान श्री कृष्ण का, जिनका वर्णन प्राचीन ग्रंथों से लेकर आज भी जीवंत है। लेकिन उनका जन्म किस सन् में हुआ इसकी अभी तक कोई पुष्ट जानकारी नहीं थी, परंतु खगोलीय गणनाओं, गणितीय संक्रियाओं एवं आधुनिक सॉफ्टवेयर की मदद की गई। एक खोज के अनुसार यह दावा किया गया है कि भगवान श्री कृष्ण का जन्म 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व में हुआ था।

आधुनिक साफ्टवेयर की ली मदद

विशेषज्ञों के अनुसार श्रीकृष्ण के जन्म के समय वर्णित घटनाओं को संदर्भ लेने पर 5 हजार वर्ष पूर्व जाना दुस्साहस हो सकता है, परंतु इन गणितीय खगोलीय संक्रियाओं को हम पारंपरिक गणितीय विधियों द्वारा हल कर सकते हैं। इसमें आधुनिक साफ्टवेयरों की सहायता से किसी भी पूर्व या संभावित ग्रह स्थिति का पुनः चित्रण कर क्रास चैक किया जा सकता है।

संकेतों और श्लोंकों का अध्ययन

अध्ययन के मुताबिक पहले भारतीय पंचांग सातवर्षीय रहा है, जिसमें 2700 वर्षों का एक चक्र था। इसकी गणना आकाश में सप्तर्षि तारामंडल की गति के संक्रमण द्वारा की जाती थी। जिसे 27 नक्षत्रों में विभाजित किया गया था। धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण जन्म के संदर्भ में जो संकेत हैं, वे भाद्रपद माह की अष्टमी को रोहणी नक्षत्र में अर्धरात्रि को हुए। उपरोक्त सकेतों का वर्णन विस्तार से श्री विष्णु पुराण, महाभारत व श्रीमदभागवत में हैं। श्री विष्णु पुराण के 38 वें अध्याय में एक श्लोंक के अनुसार श्रीकृष्ण की मृत्यु के दिन कलियुग का प्रारंभ हुआ। श्रीमदभागवत पुराण के खंड 11 के अध्याय छह में एक श्लोक में ब्रम्हा, श्रीकृष्ण की आयु के संदर्भ म कहते हैं, कि श्रीकृष्ण के जन्म के 125 वर्ष हो चुके हैं।

कर्नाटक मंदिर में भी है अभिलेख

धर्मशास्त्रों के अनुसार कलियुग का आरंभ 3102 ईसा पूर्व से माना जाता है, क्यों हमारे सभी पंचांग या ज्योतिषीय गणनाओं के आधार पर 1991ई. तक कलियुग के 5100 वर्ष बीत चुके हैं। इस तरह गणितज्ञ आर्यभट्ट ने खगोलीय निबंध आर्यभट्टीय एवं संदर्भ में महाभारत के समय की खगोलीय घटनाओं का वर्णन है। जब श्रीकृष्ण 90 वर्ष के थे। तब दुर्लभ चंद, सूर्यग्रहण दोनों का होना। औष्ण पक्ष की अवधि घटकर 13 दिन हो जाना एवं आकाश में एक धूमकेतू का चमकते हुये गुजर जाना। उपरोक्त खगोलीय घटनाओं का वर्णन कर्नाटक के एक मंदिर में पाए गए अभिलेख के अनुसार भी सही पाया गया है।

श्रीकृष्ण की कुंडली भी तैयार

विशेषज्ञों के अनुसार कलियुग प्रारंभ होने यानी 3102 ईसा पूर्व से 125 वर्ष घटाने पर कृष्ण के जन्म का वर्ष निकलता है जो कि 3228 ईसा पूर्व है। बाकी का कार्य ग्रहों की स्थिति डालते हुये श्री कृष्ण भगवान की कुंडली बन जाती है। 21 जुलाई 3228 ईसा पूर्व कृष्ण के जन्म के समय वर्णित सभी परिस्थितियों को संतुष्ट करने वाली तिथि है, इसी अधार पर कृष्ण की आयु में 125 वर्ष जोडने पर कृष्ण का अवसान 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व दोपहर को हुई थी। मृत्यु की घटनाओं से पूर्णतः मेल खाती है।

श्रीकृष्ण का परमधाम 

जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण को उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए। अंतरिक्ष में पहुंचने पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान का स्वागत किया। इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी फूट-फूटकर रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।

वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई। अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। वसुदेवजी की पत्नी देवकी, भद्रा, रोहिणी व मदिरा भी चिता पर बैठकर सती हो गईं। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ।

कुछ टीका टिप्पणी

(1) यह स्थान आजकल 'मूल द्वारका' के नाम से ज्ञात है और प्रभास-पट्टन के पूर्व कोडीनार के समीप स्थित है। औखामंडल वाली द्वारका बाद में बसाई हुई प्रतीत होती है। सौराष्ट्र में एक तीसरी द्वारका पोरबंदर के पास है।

(2) यह कुंडिननुर विदर्भ देश (बरार) में था। एक जनश्रुति के अनुसार कुंडिनपुर उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में वर्तमान नोहखेड़ा के पास था। किंवदंती है कि कृष्ण यहीं से रुक्मिणी को ले गये थे। नोहखेड़ा में आज भी रुक्मिणी की मढ़िया बनी है, जहाँ लगभग आठवीं शती की एक अत्यंत कलापूर्ण पाषाण-मूर्ति रुक्मिणी के नाम से पूजी जाती है। खेड़े से अन्य प्राचीन कलावशेष प्राप्त हुए हैं।यह स्थान एटा नगर से क़रीब 20 मील दक्षिण जलेसर तहसील में है।

(3) हरिवंश पुराण, अध्याय 116 के अनुसार बलराम का विवाह आनर्त-वंशी यादव रेवत की पुत्री रेवती से हुआ।

(4) भागवत पुराण (56-57), वायु पुराण (96, 20-98), पद्म पुराण (276, 1-37), ब्रह्मवैवर्त पुराण (122), ब्रह्माण्ड पुराण (201, 15), हरिवंश पुराण (118) आदि। पुराणों में नरकासुर का श्रीकृष्ण के द्वारा वध तथा उसके द्वारा बंदी सोलह हज़ार स्त्रियों को छुड़ाने का भी वर्णन मिलता है और कहा गया है कि श्री कृष्ण ने इन सबसे विवाह कर लिया। भागवत पुराण 61, 1-19; हरिवंश पुराण118 तथा 162; ब्रह्मवैवर्त पुराण 112, 36-41 आदि

(5) यह शोणितपुर कहाँ था, इस संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। कुछ लोग इसे टिहरी गढ़वाल ज़िले में रुद्रप्रयाग के उत्तर उखीमठ के समीप मानते हैं। कुमायूँ पहाड़ी का कोटलगढ़, आगरा के समीप बयाना, नर्मदा पर स्थित तेवर (प्राचीन त्रिपुरी) तथा आसाम के तेजपुर को भी विभिन्न मतों के अनुसार शोणितपुर माना जाता है। कुछ लेखक और संशोधनकार का मत है कि शोणितपुर असीरिया में था और श्रीकृष्ण ने असीरिया पर आक्रमण कर बाणासुर (असुरबानी पाल प्रथम) को परास्त किया (ब्रजभारती, फाल्गुन, सं. 2009, पृ. 25-31)।

श्रीकृष्ण के द्वारिका जीवन काल विषय में विपुल मात्रा में उपलब्ध ग्रंथ पुस्तको और लेखों में कहीं कहीं तो विरोधाभासी भी कहा गया है एसा आलेख महाभारत, श्रीमद्भागवत, हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण और आदि पौराणिक ग्रंथो मे प्राप्त जानकारी को आधार मानकर लिखे गए परवर्ती साहित्य में किया गया है। इनके अंतर्गत मूल स्त्रोत मे जिसका कोई उल्लेख भी ना हो ऐसे कथानको ने भी परवर्ती सृजन मे उनके उनके रचनाकारों ने किया है। साहित्य की भाषा में यह द्वापर युग की द्वारिका एक अद्भुत विषय है जिसका कोई मूल्य दर्शाया नहीं जा सकता है यह इतना ही अतुलनीय और अमूल्य है जो द्वारिका की मान प्रतिष्ठा और सुंदर निर्माण के आगे कुछ भी नहीं। 

माना जाता है कि द्वारकाधीश के दर्शन के व्यक्ति का जीवन धन्य हो जाता है। मंदिर में जाने से भक्तों को मान की शांति प्राप्त होती है, एक पवित्रता का अनुभव होता है। द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ माना जाता है।

ये मंदिर, यहां भक्तों द्वारा दिनभर में 5 बार चढाए जाते हैं। ध्वजपुराणों के अनुसार करीब पांच हजार साल पहले जब भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका नगरी बसाई थी तो जिस स्थान पर उनका निजी महल यानी हरि गृह था। वहीं पर द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर के गर्भगृह में भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुज प्रतिमा है। जो चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। ये अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए हैं। पुरातात्विक खोज में सामने आया है कि यह मंदिर करीब 5,000 से 5200 साल पुराना है। ऐसा माना जाता है कि करीब पच्चीस सौ साल पहले द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण भगवान श्री कृष्ण के पोते वज्रनाभ ने करवाया था। बाद में इस मंदिर का जीर्णोद्धार और विस्तार किया गया।

वास्तुशास्त्र के अनुसार खास है मंदिर

मंदिर के वर्तमान स्वरूप को 16वीं शताब्दी के आस-पास का बताया जाता है। इसे जागृत मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर की दिशा, जगह और बनावट वास्तुशास्त्र बहुत अच्छे उदाहरणों में से एक है। इस मंदिर की खास बात ये हैं कि शिखर पर लगी ध्वजा हमेशा पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर लहराती है। इसका निर्माण चूना-पत्थर से किया गया है। इसलिए इसकी खूबसूरती आज भी बनी हुई है। ये मंदिर 72 स्तंभों पर टीका हुआ है और इसके शिखर की उंचाई 235 मीटर है। इस मंदिर की बनावट से पैदा होने वाली सकारात्मक उर्जा से हर तरह की शांति मिलती है। इसके प्रभाव से श्रद्धालुओं के मन में सकारात्मक विचार आते हैं और बुरे विचार दूर हो जाते हैं। इस मंदिर का गर्भगृह और मंडप का स्थान भी वास्तु को ध्यान में रखकर बनाया गया है। जिसके प्रभाव से वहां जाने वाले लोग सम्मोहित हो जाते हैं।

84 फीट की ध्वजा

पांच मंजिला इस मंदिर के शिखर पर लहराती धर्मध्वजा को देखकर दूर से ही श्रीकृष्ण के भक्त उनके सामने अपना सिर झुका लेते हैं। यह ध्वजा लगभग 84 फीट लंबी हैं जिसमें विभिन्न प्रकार के रंग होते हैं। मंदिर के ऊपर लगी ध्वजा पर सूर्य और चंद्रमा का प्रती‍क चिह्न बना है। सूर्य-चंद्र श्रीकृष्ण के प्रतीक माने जाते हैं इसलिए उनके मंदिर के शिखर पर सूर्य-चंद्र के चिह्न वाले ध्वज लहराते हैं। द्वारकाधीशजी मंदिर पर लगी ध्वजा को दिन में 4 बार सुबह, दोपहर और शाम को बदला जाता है। मंदिर पर ध्वजा चढ़ाने-उताने का अधिकार अबोटी ब्राह्मणों को प्राप्त है। ध्वजा चढ़ाने के बाद शिखर से नारियल को परिसर में प्रसाद रूप से गिराया जाता है यह नारियल के इतने बारीक प्रसाद हो जाते हैं कि बहुत सारी भीड़ होने के बावजूद भी प्रसाद सभी को मिलता है। हर बार अलग-अलग रंग का ध्वज मंदिर के ऊपर लगाया जाता है। ध्वजा चढ़ाने का लाभ और महत्व बहुत ही उत्तम होता है। ध्वजा को चढ़ाने के लिए सालो तक यहा आपको इन्तेज़ार करना होता है क्यूंकि यहा पर दूर दूर से आये लोगों के द्वारा पहले से ही बुकिंग की जाती है और भारी भीड़ होती है। त्योहारों पर ध्वजा चढ़ाने का महत्व बहुत ही उत्तम होता है। ध्वजा को चढ़ाने के लिए परिवार बहुत बड़ा उत्सव मानते हैं यात्रा, भोजन, ब्रम्ह भोज, साधु भोज, दान दक्षिणा, परिक्रमा यात्रा। ध्वजा यात्रा, नगर यात्रा, और भोजन जैसे प्रबंध का इन्तेजाम करना होता है। बहुत ही उत्साहित होकर लोग श्रद्धा भाव से भगवान द्वारिकाधीश को ध्वजा चढ़ाने का विशेष लाभ उठाते हैं। 

श्रीकृष्ण एवं सुदर्शन चक्र

सुदर्शन चक्र भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा जी का रचित अस्त्र हैं। कृष्ण का प्रमुख अस्त्र सुदर्शन चक्र पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। जब सारे ओर दैत्यों का आतंक बढ़ गया और भगवान विष्णु उन्हें अपने साधारण अस्त्रों से नहीं मार पाए तब उन्होंने भगवान शिव की 1000 वर्षों तक तपस्या की। जब रूद्र ने उनसे वरदान मांगने को बोला तो उन्होंने कहा कि उन्हें एक ऐसा दिव्यास्त्र चाहिए जिससे वे राक्षसों का नाश कर सकें। इसपर भगवान् शिव ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से सुदर्शन चक्र को उत्पन्न किया जिसमे 108 आरे थे और इसे नारायण को दिया जिससे उन्होंने सभी राक्षसों का नाश किया। ये चक्र उन्होंने परशुराम को दिया और फिर परशुराम से इसे श्रीकृष्ण को प्राप्त हुआ। ये इतना शक्तिशाली था कि त्रिदेवों के महास्त्र (ब्रम्हास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र) के अतिरिक्त केवल इंद्र का वज्र और रूद्र का त्रिशूल ही इसके सामने टिक सकता था। महाभारत में कृष्ण के अतिरिक्त केवल परशुराम ही इसे धारण कर सकते थे।

श्रीकृष्ण के युद्ध

श्रीकृष्ण ने कई युद्ध लड़े किन्तु महाभारत के अतिरिक्त जो अन्य महा भयंकर युद्ध थे वो उन्होंने जरासंध, कालयवन, नरकासुर, पौंड्रक, शाल्व और बाणासुर के विरुद्ध लड़ा। कंस, चाणूर और मुष्टिक जैसे विश्वप्रसिद्ध मल्लों का वध भी उन्होंने केवल 16 वर्ष की आयु में कर दिया था।

बाणासुर के विरूद्ध तो उन्हें स्वयं भगवान शिव से युद्ध लड़ना पड़ा और भगवान रूद्र के कारण ही बाणासुर के प्राण बच पाए।

श्रीकृष्ण और 56 भोग

गोकुल में इंद्र के प्रकोप से लोगों को बचाने के लिए उन्होंने अपनी कनिष्ठा अँगुली पर गोवर्धन को पूरे सात दिनों तक उठाये रखा। श्रीकृष्ण हर प्रहर अर्थात दिन में 8 बार भोजन करते थे। जब गोकुल वासियों ने देखा कि उनके कारण कृष्ण 7 दिनों से भूखे हैं तो गोवर्धन की पुनः स्थापना के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण के 8 बार के हिसाब से 56 तरह के पकवान बना कर खिलाये। तभी से श्रीकृष्ण को 56 भोग चढाने की परंपरा शुरू हुई।

एक व्यक्तित्व के रूप में कृष्ण का विस्तृत विवरण सबसे पहले महाकाव्य महाभारत में लिखा गया है , जिसमें कृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। महाकाव्य की मुख्य कहानियों में से कई कृष्ण केंद्रीय हैं श्री भगवत गीता का निर्माण करने वाले महाकाव्य के छठे पर्व ( भीष्म पर्व ) के अठारहवे अध्याय में युद्ध के मैदान में अर्जुन की ज्ञान देते हैं। महाभारत के बाद के परिशिष्ट में हरिवंश में कृष्ण के बचपन और युवावस्था का एक विस्तृत संस्करण है। 

भारतीय-यूनानी मुद्रण

180 ईसा पूर्व लगभग इंडो-ग्रीक राजा एगैथोकल्स ने देवताओं की छवियों पर आधारित कुछ सिक्के जारी किये थे। भारत में अब उन सिक्को को वैष्णव दर्शन से संबंधित माना जाता है।  सिक्कों पर प्रदर्शित देवताओं को विष्णु के अवतार बलराम - संकर्षण के रूप में देखा जाता है जिसमें गदा और हल और वासुदेव-कृष्ण , शंख और सुदर्शन चक्र दर्शाये हुए हैं।

प्राचीन संस्कृत वैयाकरण पतंजलि ने अपने महाभाष्य में भारतीय ग्रंथों के देवता कृष्ण और उनके सहयोगियों के कई संदर्भों का उल्लेख किया है। पाणिनी की श्लोक 3.1.26 पर अपनी टिप्पणी में, वह कंसवध अथवा कंस की हत्या का भी प्रयोग करते हैं, जो कि कृष्ण से सम्बन्धित किंवदंतियों का एक महत्वपूर्ण अंग है। 

हेलीडियोोरस स्तंभ और अन्य शिलालेख

मध्य भारतीय राज्यमध्य प्रदेश में औपनिवेशिक काल के पुरातत्वविदों ने एक ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेख के साथ एक स्तंभ की खोज की थी। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करते हुए, इसे 125 और 100 ईसा पूर्व के बीच का घोषित किया गया है और ये निष्कर्ष निकाला गया की यह एक इंडो-ग्रीक प्रतिनिधि द्वारा एक क्षेत्रीय भारतीय राजा के लिए बनवाया गया था जो ग्रीक राजा एंटिलासिडास के एक राजदूत के रूप में उनका प्रतिनिधि था। इसी इंडो-ग्रीक के नाम अब इसे हेलेडियोोरस स्तंभ के रूप में जाना जाता है। इसका शिलालेख "वासुदेव" के लिए समर्पण है जो भारतीय परंपरा में कृष्ण का दूसरा नाम है। कई विद्वानों का मत है की इसमें "वासुदेव" नामक देवता का उल्लेख हैं, क्योंकि इस शिलालेख में कहा गया है कि यह " भागवत हेलियोडोरस" द्वारा बनाया गया था और यह " गरुड़ स्तंभ" (दोनों विष्णु-कृष्ण-संबंधित शब्द हैं)। इसके अतिरिक्त, शिलालेख के एक अध्याय में कृष्ण से संबंधित कविता भी शामिल है महाभारत के अद्याय 11.7 का सन्दर्भ देते हुए बताया गया है कि अमरता और स्वर्ग का रास्ता सही ढंग से तीन गुणों का जीवन जीना है: स्व- संयम ( दमः ), उदारता ( त्याग ) और सतर्कता ( अप्रामदाह )।

हेलियोडोरस शिलालेख एकमात्र प्रमाण नहीं है। तीन हाथीबाड़ा शिलालेख और एक घोसूंडी शिलालेख,जो की राजस्थान राज्य में स्थित हैं और आधुनिक कार्यप्रणाली के अनुसार जिनका समयकाल 19वी सदी ईसा पूर्व है उनमे भी कृष्ण का उल्लेख किया गया है। पहली सदी ईसा पूर्व , संकर्षण (कृष्ण का एक नाम ) और वासुदेव का उल्लेख करते हुए, उनकी पूजा के लिए एक संरचना का निर्माण किया गया था। ये चार शिलालेख प्राचीनतम ज्ञात संस्कृत शिलालेखों में से एक हैं ।

कई पुराणों में कृष्ण की जीवन कथा को बताया या कुछ इस पर प्रकाश डाला गया है । दो पुराण, भागवत पुराण और विष्णु पुराण में कृष्ण की कहानी की सबसे विस्तृत जानकारी है। , लेकिन इन और अन्य ग्रंथों में कृष्ण की जीवन कथाएं अलग-अलग हैं और इसमें महत्वपूर्ण असंगतियां हैं। भागवत पुराण में बारह पुस्तकें उप-विभाजित हैं जिनमें 332 अध्याय, संस्करण के आधार पर 16000 और 18000 छंदो के बीच संचित है । पाठ की दसवीं पुस्तक, जिसमें लगभग 4000 छंद (~ 25 %) शामिल हैं और कृष्ण के बारे में किंवदंतियों को समर्पित है, इस पाठ का सबसे लोकप्रिय और व्यापक रूप से अध्ययन किया जाने वाला अध्याय है।

दर्शन और धर्मशास्त्र

हिंदू ग्रंथों में धार्मिक और दार्शनिक विचारों की एक विस्तृत श्रृंखला ,जो कृष्ण के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। रामानुज,जो एक हिंदू धर्मविज्ञानी थे एवं जिनके काम भक्ति आंदोलन में अत्यधिक प्रभावशाली थे , ने विशिष्टाद्वैत के संदर्भ में उन्हें प्रस्तुत किया। माधवचार्य, एक हिंदू दार्शनिक जिन्होंने वैष्णववाद के हरिदास संप्रदाय की स्थापना की , कृष्ण के उपदेशो को द्वैतवाद (द्वैत) के रूप में प्रस्तुत किया । गौदिया वैष्णव विद्यालय के एक संत जीव गोस्वामी, कृष्ण धर्मशास्त्र को भक्ति योग और अचिंत भेद-अभेद के रूप में वर्णित करते थे।धर्मशास्त्री वल्भआचार्य द्वारा कृष्ण के दिए गए ज्ञान को अद्वैत (जिसे शुद्धाद्वैत भी कहा जाता है) के रूप में प्रस्तुत , जो वैष्णववाद के पुष्टि पंथ के संस्थापक थे । भारत के एक अन्य दार्शनिक मधुसूदन सरस्वती, कृष्ण धर्मशास्त्र को अद्वैत वेदांत में प्रस्तुत करते थे, जबकि आदि शंकराचार्य , जो हिंदू धर्म में विचारों के एकीकरण और मुख्य धाराओं की स्थापना के लिए जाने जाते है, शुरुआती आठवीं शताब्दी में पंचायत पूजा पर कृष्ण का उल्लेख किया है। 

कृष्ण पर एक लोकप्रिय ग्रन्थ भागवत पुराण,असम में एक शास्त्र की तरह माना जाता है, कृष्ण के लिए एक अद्वैत, सांख्य और योग के रूपरेखा का संश्लेषण करता है, लेकिन वह कृष्ण के प्रति प्रेमपूर्ण भक्ति के मार्ग पर चलते है। ब्रायंट भागवत पुराण में विचारों के संश्लेषण का इसप्रकार वर्णन करते है,

“भागवत का दर्शन, सांख्य, तत्वमीमांसा और भक्ति योग जैसी वेदांत शब्दावली का एक मिश्रण है। दसवीं किताब ईश्वर की सबसे मानवीय रूप में कृष्ण की शिक्षाओं को बढ़ावा देती है।”

—एडविन ब्रायंट, कृष्णा: ए सोर्सबुक

शेरिडन और पिंटचमैन दोनों ब्रायंट के विचारों की पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि भगवत में वर्णित वेदांतिक विचार भिन्नता के साथ गैर-द्वैतवादी है। परंपरागत रूप से वेदांत , वास्तविकता में एक दूसरे पर आधारित है और भागवत यह भी प्रतिपादित करता है कि वास्तविकता एक दूसरे से जुड़ी हुई है और बहुमुखी है। 

विभिन्न थियोलॉजीज और दर्शन के अलावा ,सामान्यतः कृष्ण को दिव्य प्रेम का सार और प्रतीक के रूप में प्रस्तुत अनेक पुस्तक और ग्रंथो मे किया गया है, जिसमें मानव जीवन और दिव्य का प्रतिबिंब है। कृष्ण और गोपियों की भक्ति और प्रेमपूर्ण किंवदंतियां और संवाद ,दार्शनिक रूप से दिव्य और अर्थ के लिए मानव इच्छा के रूपकों के समतुल्य माना जाता है और सार्वभौमिक शक्ति और मानव आत्मा के बीच का समन्वय है । कृष्ण की लीला प्रेम-और आध्यात्म का एक धर्मशास्त्र है। जॉन कोल्लेर के अनुसार, "मुक्ति के साधन के रूप में प्रेम को प्रस्तुत नहीं किया जाता है, यह सर्वोच्च जीवन है"। मानव प्रेम भगवान का प्रेम है। हिंदू परंपराओं में अन्य ग्रंथ ,जिनमें भगवद गीता सम्मिलित हैं ,ने कृष्ण के उपदेशो को कई भाष्य लिखने के लिए प्रेरित किया है।

श्रीकृष्ण पूजा वैष्णव परंपरा 

कृष्ण की पूजा वैष्णववाद का हिस्सा है, जो हिंदू धर्म की एक प्रमुख परंपरा है। कृष्ण को विष्णु का पूर्ण अवतार माना जाता है, या विष्णु स्वयं अवतरित हुए ऐसा माना जाता है। हालांकि, कृष्ण और विष्णु के बीच का सटीक संबंध जटिल और विविध है, कृष्ण के साथ कभी-कभी एक स्वतंत्र देवता और सर्वोच्च माना जाता है। वैष्णव विष्णु के कई अवतारों को स्वीकार करते हैं, लेकिन कृष्ण विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। शब्द कृष्णम और विष्णुवाद को कभी-कभी दो में भेद करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जिसका अर्थ है कि कृष्णा श्रेष्ठतम सर्वोच्च व्यक्ति है ।

सभी वैष्णव परंपराएं कृष्ण को विष्णु का आठवां अवतार मानती हैं; अन्य लोग विष्णु के साथ कृष्ण की पहचान करते हैं, जबकि गौदीया वैष्णववाद , वल्लभ संप्रदाय और निम्बारका संप्रदाय की परंपराओं में कृष्ण को स्वामी भगवान का मूल रूप या हिंदू धर्म में ब्राह्मण की अवधारणा के रूप में सम्मान करते हैं। जयदेव अपने गीतगोविंद में कृष्ण को सर्वोच्च प्रभु मानते हैं जबकि दस अवतार उनके रूप हैं। स्वामीनारायण संप्रदाय के संस्थापक स्वामीनारायण ने भगवान के रूप में कृष्ण की भी पूजा की। "वृहद कृष्णवाद" वैष्णववाद में , वैसुलिक काल के वासुदेव और वैदिक काल के कृष्ण और गोपाल को प्रमुख मानते हैं। आजभारत के बाहर भी कृष्ण को मानने वाले एवं अनुसरण एवं विश्वास करने वालो की बहुत बड़ी संख्या है।

प्रारंभिक परंपराएं

प्रभु श्रीकृष्ण-वासुदेव ऐतिहासिक रूप से कृष्णवाद और वैष्णववाद में इष्ट देव के प्रारंभिक रूपों में से एक है। प्राचीन काल में कृष्ण धर्म को प्रारंभिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण परंपरा माना जाता है। इसके बाद, विभिन्न समान परंपराओं का एकीकरण हुआ इनमें प्राचीन भगवतवाद , गोपाला का पंथ, "कृष्ण गोविंदा" (गौपालक कृष्ण), बालकृष्ण और "कृष्ण गोपीवलभा" (कृष्ण प्रेमिका) सम्मिलित हैं। आंद्रे कोटेर के अनुसार, हरिवंश ने कृष्ण के विभिन्न पहलुओं के रूप में संश्लेषण में योगदान दिया।

श्रीकृष्ण भक्ति परंपरा

भक्ति परम्परा में आस्था का प्रयोग किसी भी देवता तक सीमित नहीं है। हालांकि, हिंदू धर्म के भीतर कृष्ण भक्ति , परंपरा का एक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय केंद्र रहा है, विशेषकर वैष्णव संप्रदायों में, कृष्ण के भक्तों ने लीला की अवधारणा को ब्रह्मांड के केंद्रीय सिद्धांत के रूप में माना जिसका अर्थ है 'दिव्य नाटक'। यह भक्ति योग का एक रूप है, तीन प्रकार के योगों में से एक भगवान कृष्ण द्वारा भगवद गीता में चर्चा की है। 

भारतीय उपमहाद्वीप मे श्रीकृष्ण 

दक्षिण में , खासकर महाराष्ट्र में , वारकरी संप्रदाय के संत कवियों जैसे ज्ञानेश्वर , नामदेव , जनाबाई , एकनाथ और तुकाराम ने विठोबा की पूजा को प्रोत्साहित किया।दक्षिणी भारत में, कर्नाटक के पुरंदरा दास और कनकदास ने उडुपी की कृष्ण की छवि के लिए समर्पित गीतों का निर्माण किया। गौड़ीय वैष्णववाद के रूपा गोस्वामी ने भक्ति-रसामृत-सिंधु नामक भक्ति के व्यापक ग्रन्थ को संकलित किया है। दक्षिण भारत में, श्री संप्रदाय के आचार्य ने अपनी कृतियों में कृष्ण के बारे में बहुत कुछ लिखा है, जिनमें अंडाल द्वारा थिरुपावई और वेदांत देसिका द्वारा गोपाल विमशती शामिल हैं। तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल के राज्यों में कई प्रमुख कृष्ण मंदिर हैं और जन्माष्टमी दक्षिण भारत में व्यापक रूप से मनाए जाने वाले त्योहारों में से एक है।

एशिया के बाहर भी श्रीकृष्ण 

1965 तक कृष्ण-भक्ति आंदोलन भारत के बाहर भक्तवेदांत स्वामी प्रभुपाद (उनके गुरु , भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर द्वारा निर्देशित )द्वारा फैलाया गया। अपनी मातृभूमि पश्चिम बंगाल से वे न्यूयॉर्क शहर गए थे । एक साल बाद 1966 में, कई अनुयायियों के सानिध्य में उन्होंने कृष्ण चेतना (इस्कॉन) के लिए अंतर्राष्ट्रीय सोसायटी का निर्माण किया था, जिसे हरे कृष्ण आंदोलन के रूप में जाना जाता है। इस आंदोलन का उद्देश्य अंग्रेजी में कृष्ण के बारे में लिखना था और संत चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाओं को फैलाने का कार्य करना था तथा कृष्ण भक्ति के द्वारा पश्चिमी दुनिया के लोगों के साथ गौद्द्य वैष्णव दर्शन को साझा करना था। चैतन्य महाप्रभु की आत्मकथा में वर्णित जब उन्हें गया में दीक्षा दी गई थी तो उन्हें काली-संताराण उपनिषद के छह शब्द की कविता ,ज्ञान स्वरुप बताई गई थी, जो की "हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे " थी । गौड़ीय परंपरा में कृष्ण भक्ति के संदर्भ ने यह महामंत्र या महान मंत्र है। इसका जप हरि-नाम संचरित के रूप में जाना जाता था।

महा-मंत्र ने बीटल्स रॉक बैंड के जॉर्ज हैरिसन और जॉन लेनन का ध्यान आकर्षित किया और हैरिसन ने 1969 को लंदन स्थित राधा कृष्ण मंदिर में भक्तों के साथ मंत्र की रिकॉर्डिंग की। " हरे कृष्ण मंत्र " शीर्षक से, यह गीत ब्रिटेन के संगीत सूची पर शीर्ष बीस तक पहुंच गया और यह पश्चिम जर्मनी और चेकोस्लोवाकिया में भी अत्यधिक लोकप्रिय रहा। उपनिषद के मंत्र ने भक्तिवेदांत और कृष्ण को पश्चिम में इस्कॉन विचारों को लाने में मदद की। इस्कॉन ने पश्चिम में कई कृष्ण मंदिर बनाए, साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे अन्य स्थानों में भी मंदिरो का निर्माण किया।

दक्षिण पूर्व एशिया में श्रीकृष्ण 

कृष्ण दक्षिणपूर्व एशियाई इतिहास और कला में पाए जाते हैं, लेकिन उनका शिव , दुर्गा , नंदी ,अगस्त्य और बुद्ध की तुलना में बहुत कम उल्लेख है ।जावा , इंडोनेशिया में पुरातात्विक स्थलों के मंदिरों ( कैंडी ) में उनके गांव के जीवन या प्रेमी के रूप में उनकी भूमिका का चित्रण नहीं है और न ही जावा के ऐतिहासिक हिंदू ग्रंथों में इसका उल्लेख है। इसके बजाए, उनका बाल्य काल अथवा एक राजा और अर्जुन के साथी के रूप में उनके जीवन को अधिक उल्लेखित किया गया है।

कृष्ण की कलाओं को , योगकार्ता के निकट सबसे विस्तृत मंदिर , प्रम्बनन हिंदू मंदिर परिसर में ,कृष्णायण मंदिरो की एक श्रृंखला के रूप में उकेरा गया है। ये ९वी शताब्दी ईस्वी के है । कृष्ण 14 वीं शताब्दी ईस्वी के माध्य से जावा सांस्कृतिक और धार्मिक परम्पराओं का हिस्सा बने रहे। पनातरान के अवशेषों के अनुसार पूर्व जावा में हिंदू भगवान राम के साथ इनके मंदिर प्रचलन में थे और तब तक रहे जबतक की इस्लाम ने द्वीप पर बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म की जगह ली।

वियतनाम और कंबोडिया की मध्यकालीन युग में कृष्ण कला की विशेषता है। सबसे पहले जीवंत मूर्तियों और अवशेष 6 वीं और 7 वीं शताब्दी ईस्वी के प्राप्त हुए हैं , इन में वैष्णववाद प्रतिमा का समावेश है। जॉन गाइ , एशियाई कलाओं के निर्देशक,के अनुसार मेट्रोपोलिटन म्यूज़ियम ऑफ साउथ ईस्ट एशिया में , दानंग में 6 वी / 7 वी शताब्दी ईस्वी के वियतनाम के कृष्ण गोवर्धन कला और 7 वीं शताब्दी के कंबोडिया, अंगकोर 'बोरी में फ्नॉम दा' गुफा में, इस युग के सबसे परिष्कृत मंदिर हैं।

सूर्य और विष्णु के साथ कृष्ण की प्रतिमाओं को थाईलैंड में भी पाया गया है , सी-थेप में बड़ी संख्या में मूर्तियां और चिह्न पाए गए हैं। उत्तरी थाइलैंड के फीटबुन क्षेत्र में थिप और कलाग्ने स्थलों पर , फनान और झेंला काल के पुरातात्विक स्थलों से, ये 7 वीं और 8 वीं शताब्दी के अवशेष पाए गए हैं ।

प्रदर्शन नृत्य साहित्य और कला

भारतीय नृत्य और संगीत थिएटर प्राचीन ग्रंथो जैसे वेद और नाट्यशास्त्र ग्रंथों को अपना आधार मानते हैं । हिंदू ग्रंथों में पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से प्रेरित कई नृत्यनाटिकाओं को और चलचित्रों को , जिसमें कृष्ण-संबंधित साहित्य जैसे हरिवंश और भागवत पुराण शामिल हैं ,अभिनीत किया गया है ।

कृष्ण की कहानियों ने भारतीय थियेटर, संगीत, और नृत्य के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेष रूप से रासलीला की परंपरा के माध्यम से। ये कृष्ण के बचपन, किशोरावस्था और वयस्कता के नाटकीय कार्य हैं। एक आम दृश्य में कृष्ण को रासलीला में बांसुरी बजाते दिखाया जाता हैं, जो केवल कुछ गोपियों को सुनाई देती है तथा जो धर्मशास्त्रिक रूप से दिव्य वाणी का प्रतिनिधित्व करती है जिसे मात्र कुछ प्रबुद्ध प्राणियों द्वारा सुना जा सकता है। कुछ पाठ की किंवदंतियों ने गीत गोविंद में प्रेम और त्याग जैसे माध्यमिक कला साहित्य को प्रेरित किया है।

भागवत पुराण जैसे कृष्ण-संबंधी साहित्य, प्रदर्शन के लिए इसके आध्यात्मिक महत्व को मानते हैं और उन्हें धार्मिक अनुष्ठान के रूप में मानते हैं तथा प्रतिदिन जीवन को आध्यात्मिक अर्थ के साथ जोड़ते हैं। इस प्रकार एक अच्छा, ईमानदार एवं सत्यनिष्ठा और सुखी जीवन व्यतीत करने का पथ प्रदर्शित करते हैं। इसी तरह, कृष्ण द्वारा प्रेरित प्रदर्शन का उद्देश्य विश्वासयोग्य अभिनेताओं और श्रोताओं के हृदय को शुद्ध करना है। कृष्ण लीला के किसी भी हिस्से का गायन, नृत्य और प्रदर्शन, पाठ में धर्म को याद करने का एक कार्य है। यह पराभक्ति और सर्वोच्च भक्ति के रूप में है। किसी भी समय और किसी भी कला में कृष्ण को याद करने के लिए, उनकी शिक्षा पर देते हुए, उनकी सुन्दर और दिव्य पूजा की जाती है।

विशेषकर कथक , ओडिसी , मणिपुरी ,कुचीपुड़ी और भरतनाट्यम जैसे शास्त्रीय नृत्य शैलियां उनके कृष्ण-संबंधी प्रदर्शनों के लिए जाने जाते हैं। कृष्णाट्म अपने मूल को कृष्ण पौराणिक कथाओं के साथ रखा है और यह कथकली नामक एक अन्य प्रमुख शास्त्रीय भारतीय नृत्य रूप से जुड़ा हुआ है। ब्रायंट, भागवत पुराण में कृष्ण कहानियों के प्रभाव का सारांश देता है, " संभवतः किसी भी अन्य पाठ की तुलना में संस्कृत साहित्य के इतिहास में ,रामायण के अपवाद के साथ ,इतने अधिक व्युत्पन्न साहित्य, कविता, नाटक, नृत्य, थियेटर और कला को प्रेरित नहीं किया। ।

श्रीकृष्ण और अन्य धर्ममत 

जैन धर्म

जैन धर्म की परंपरा में 63 शलाकपुरुषों की सूची है, जिनमे चौबीस तीर्थंकर और त्रिदेव के नौ समीकरण शामिल हैं। इनमें से एक समीकरण में कृष्ण को वासुदेव के रूप में, बलराम को बलदेव के रूप में, और जरासंध को प्रति -वासुदेव के रूप में दर्शाया जाता है। जैन चक्रीय समय के प्रत्येक युग में बड़े भाई के साथ वासुदेव का जन्म हुआ है, जिसे बलदेव कहा जाता है। तीनों के बीच, बलदेव ने ,जैन धर्म का एक केंद्रीय विचार, अहिंसा के सिद्धांत को बरकरार रखा है। खलनायक प्रति -वासुदेव है, जो विश्व को नष्ट करने का प्रयास करता है। विश्व को बचाने के लिए, वासुदेव-कृष्ण को अहिंसा सिद्धांत को त्यागना और प्रति -वासुदेव को मारना पड़ता है। इन तीनों की कहानियां, जिनसेना के हरिवंश पुराण महाभारत के एक शीर्षक से भ्रमित हो 8 वीं शताब्दी ईस्वी में पढ़ी जा सकती है एवं हेमचंद्र की त्रिशक्ति - शलाकापुरुष -चरित में भी इनका उल्लेख है।

विमलसुरी को हरिवंश पुराण के जैन संस्करण का लेखक माना जाता है, लेकिन ऐसी कोई पांडुलिपि नहीं मिली है जो इसकी पुष्टि करती है। यह संभावना है कि बाद में जैन विद्वानों, शायद 8 वीं शताब्दी के जिनसेना ने , जैन परंपरा में कृष्ण किंवदंतियों का एक पूरा संस्करण लिखा और उन्हें प्राचीन विमलसुरी में जमा किया। कृष्ण की कहानी के आंशिक और पुराने संस्करण जैन साहित्य में उपलब्ध हैं, जैसे कि श्वेताम्बर अगम परंपरा के अंतगत दसाओ में ये वर्णित है।

अन्य जैन ग्रंथों में, कृष्ण को बाइसवे तीर्थंकर, नेमिनाथ के चचेरे भाई कहा जाता है। जैन ग्रंथों में कहा गया है कि नेमिनाथ ने कृष्ण को सर्व ज्ञान सिखाया था जिसने बाद में भगवद गीता में अर्जुन को दिया था। जेफरी डी लांग के अनुसार, कृष्ण और नेमिनाथ के बीच यह संबंध एक ऐसा ऐतिहासिक कारण है जिस कारण जैनियो को भगवद् गीता को एक आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण पाठ के रूप में स्वीकार, पढ़ना, और उद्धृत करना पड़ा तथा कृष्ण- संबंधित त्योहारों और हिंदूओं को आध्यात्मिक चचेरे भाई के रूप में स्वीकार करना पड़ा ।

बौद्ध धर्म

कृष्ण की कहानी बौद्ध धर्म की जातक कहानियों में मिलती है। विदुरपंडित जातक में मधुरा (मथुरा) का उल्लेख है, घट जातक में कंस , देवभग (देवकी), उपसागरा या वासुदेव, गोवधन (गोवर्धन), बलदेव (बलराम) और कृष्ण, केशव का उल्लेख है। 

सिख धर्म

कृष्ण को चौबीस अवतार में कृष्ण अवतार के रूप में वर्णित किया गया है, जो परंपरागत रूप से और ऐतिहासिक रूप से गुरु गोबिंद सिंह को समर्पित दशम ग्रंथ है। 

बहाई पंथ

बहाई पंथिओं का मानना ​​है कि कृष्ण " ईश्वर के अवतार " या भविष्यद्वक्ताओं में से एक है जिन्होंने धीरे-धीरे मानवता को परिपक्व बनाने हेतु भगवान की शिक्षा को प्रकट किया है। इस तरह, कृष्ण का स्थान इब्राहीम , मूसा , जोरोस्टर , बुद्ध , मुहम्मद ,यीशु , बाब , और बहाई विश्वास के संस्थापक बहाउल्लाह के साथ साझा करते हैं।

अहमदिया

अहमदिया , एक आधुनिक युग का पंथ है , कृष्ण को उनके मान्य प्राचीन प्रवर्तकों में से एक माना जाता है। अहमदी खुद को मुसलमान मानते हैं, लेकिन वे मुख्यधारा के सुन्नी और शिया मुसलमानों द्वारा इस्लाम धर्म के रूप में खारिज करते हैं, जिन्होंने कृष्ण को अपने भविष्यद्वक्ता के रूप में मान्यता नहीं दी है।

गुलाम अहमद ने कहा कि वह स्वयं कृष्ण, यीशु और मुहम्मद जैसे भविष्यद्वक्ताओं की तरह एक भविष्यवक्ता थे, जो धरती पर धर्म और नैतिकता के उत्तरार्द्ध पुनरुद्धार के रूप में आए थे। 

अन्य धर्म 

कृष्ण की पूजा या सम्मान को 19 वीं के बाद से कई नए धार्मिक आंदोलनों द्वारा अपनाया गया है। उदाहरण के लिए, एडवर्ड शूरे , कृष्ण को एक महान प्रवर्तक मानते है, जबकि थियोसोफिस्ट कृष्ण को मैत्रेय ( प्राचीन बुद्ध के गुरुओ में से एक) के अवतार के रूप में मानते हैं, जो बुद्ध के सबसे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक गुरु है। 

श्रीकृष्ण के परममित्र सुदामा 

श्रीकृष्ण के बाल सखा और परममित्र सुदामा एक दरिद्र ब्राह्मण थे, जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के साथ संदीपनी ऋषि के आश्रम में शिक्षा पाई थी। विवाह के बाद से ही सुदामा प्राय: नित्य ही श्रीकृष्ण की उदारता और उनसे अपनी मित्रता की पत्नी सुशीला से चर्चा किया करते थे। जन्म से संतोषी स्वभाव के सुदामा किसी से कुछ माँगते नहीं थे। जो कुछ बिना माँगे मिल जाय, उसी को भगवान को अर्पण करके अपना तथा पत्नी का जीवन निर्वाह करते थे। प्राय: पति-पत्नी को उपवास ही करना पड़ता था। उनके दिन बड़ी ही दरिद्रता में व्यतीत होते थे।

कृष्ण से सुदामा की भेंट

भगवान कृष्ण जब अवन्ती में महर्षि सांदीपनि के यहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये गये थे, तब सुदामा भी वहीं पढ़ते थे। वहाँ कृष्ण से सुदामा की भेंट हुई, और बाद में उनमें गहरी मित्रता हो गयी। कृष्ण तो बहुत थोड़े दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करके चले गये। जब बाद में सुदामा जी की शिक्षा पूर्ण हुई, तब गुरुदेव की आज्ञा लेकर वे भी अपनी जन्मभूमि को लौट गये और विवाह करके गृहस्थाश्रम में रहने लगे।

सुदामा का द्वारका आगमन

दरिद्रता तो जैसे सुदामा जी की चिरसंगिनी ही थी। एक टूटी झोपड़ी, दो-चार पात्र और लज्जा ढकने के लिये कुछ मैले और चिथड़े वस्त्र, सुदामाजी की कुल इतनी ही गृहस्थी थी। सुदामाजी प्राय: नित्य ही भगवान श्रीकृष्ण की उदारता और उनसे अपनी मित्रता की पत्नी से चर्चा किया करते थे। एक दिन डरते-डरते सुदामा की पत्नी ने उनसे कहा- "स्वामी! ब्राह्मणों के परम भक्त साक्षात लक्ष्मीपति श्रीकृष्णचन्द्र आपके मित्र हैं। आप एक बार उनके पास जायँ। आप दरिद्रता के कारण अपार कष्ट पा रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण आपको अवश्य ही प्रचुर धन देंगे।" ब्राह्मणी के आग्रह को स्वीकार कर श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा मन में सँजोये हुए सुदामा कई दिनों की यात्रा करके द्वारका पहुँचे। चिथड़े लपेटे कंगाल ब्राह्मण को देखकर द्वारपाल को आश्चर्य हुआ। ब्राह्मण जानकर उसने सुदामा को प्रणाम किया। जब सुदामा ने अपने-आपको भगवान का मित्र बतलाया, तब वह आश्चर्यचकित रह गया। नियमानुसार सुदामा को द्वार पर ठहराकर द्वारपाल भीतर आदेश लेने गया। द्वारपाल श्रद्धापूर्वक प्रभु को साष्टांग प्रणाम करके बोला- "प्रभो! चिथड़े लपेटे द्वार पर एक अत्यन्त दीन और दुर्बल ब्राह्मण खड़ा है। वह अपने को प्रभु का मित्र कहता है और अपना नाम 'सुदामा' बतलाता है।"

कृष्ण-सुदामा मिलन

द्वारपाल के मुख से 'सुदामा' शब्द सुनते ही भगवान श्रीकृष्ण ने जैसे अपनी सुध-बुध खो दी और वह नंगे पाँव ही दौड़ पड़े द्वार की ओर। दोनों बाहें फैलाकर उन्होंने सुदामा को हृदय से लगा लिया। भगवान की दीनवत्सलता देखकर सुदामा की आँखें बरस पड़ी। उनसे अश्रु की धारा लगातार बहे जा रही थी। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण सुदामा को अपने महल में ले गये। उन्होंने बचपन के प्रिय सखा को अपने पलंग पर बैठाकर उनका चरण धोना प्रारम्भ किया। सुदामा की दीन-दशा को देखकर चरण धोने के लिये रखे गये जल को स्पर्श करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। करुणा सागर के नेत्रों की वर्षा से ही मित्र के पैर धुल गये।

नरोत्तम कवि लिखते हैं -

"देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जलसों पग धोये।"

श्रीकृष्ण का तन्दुल भक्षण

स्नान, भोजन आदि के बाद सुदामा को पलंग पर बिठाकर श्रीकृष्ण उनकी चरणसेवा करने लगे। गुरुकुल के दिनों की बात है। दोनों मित्र समिधा लेने गए थे। उस समय मूसलाधार वर्षा होने लगी थी। दोनों मित्रों ने एक वृक्ष का आसरा लिया। सुदामा के पास खाने के लिए कुछ चने थे, जो गुरुमाता ने दोनों को रास्ते में खाने के लिए दिए थे, किंतु वृक्ष पर सुदामा अकेले ही चने खाने लगे। चने खाने की आवाज सुनकर कृष्ण ने कहा कि "क्या खा रहे हैं।" सुदामा ने सोचा सच-सच कह दूँगा तो कुछ चने कृष्ण को भी देने पड़ेंगे। सो बोले- "खाता नहीं हूँ, यह तो ठंड के मारे मेरे दाँत बज रहे हैं।" अकेले खाने वाला दरिद्र हो जाता है। सुदामा ने अपने परिवार के बारे में तो बताया पर अपनी दरिद्रता के बारे में कुछ भी नहीं बताया। जब कृष्ण सुदामा की सेवा कर रहे थे, तभी वे बोले- "भाभी ने मेरे लिए कुछ तो भेजा होगा।" सुदामा संकोच वश पोटली छिपा रहे थे। भगवान मन में हंसते हैं कि उस दिन चने छिपाए थे और आज तन्दुल छिपा रहा है। जो मुझे कुछ देता नहीं है, मैं भी उसे कुछ नहीं देता। सो मुझे छीनना ही पड़ेगा। उन्होंने तन्दुल की पोटली छीन ली और सुदामा के प्रारब्ध कर्मों को क्षीण करने के हेतु तन्दुल भक्षण किया। सुदामा को बताए बिना तमाम ऐश्वर्य उसके घर भेज दिया। अब सुदामा जी साधारण ग़रीब ब्राह्मण नहीं रहे। उनके अनजान में ही भगवान ने उन्हें अतुल ऐश्वर्य का स्वामी बना दिया। घर वापस लौटने पर देव दुर्लभ सम्पत्ति सुदामा की प्रतीक्षा में तैयार मिली, किंतु सुदामा जी ऐश्वर्य पाकर भी अनासक्त मन से भगवान के भजन में लगे रहे। करुणा सिन्धु के दीनसखा सुदामा ब्रह्मत्व को प्राप्त हुए।

श्रीमद्भागवत में सुदामा कृष्ण उल्लेख

श्रीमद्भागवत में सुदामा नाम के एक माली का भी वर्णन हुआ है। इसके अनुसार, मथुरा पहुँचने के बाद कंस के उत्सव में भाग लेने से पूर्व कृष्ण तथा बलराम नगर का सौंदर्य देखते रहे। बाल-गोपालों सहित वे 'सुदामा' नामक माली के घर गये। सुदामा से अनेक मालाएँ लेकर उन्होंने अपनी साज-सज्जा की तथा उसे वर दिया कि उसकी लक्ष्मी, बल, वायु और कीर्ति का निरंतर विकास हो। 

श्रीकृष्ण और बलराम जब गुरुकुल में रहकर गुरु संदीपन से विद्याध्ययन कर रहे थे, उन दिनों उनके साथ सुदामा नामक ब्राह्मण भी पढ़ता था। वह नितांत दरिद्र था। कालांतर में कृष्ण की कीर्ति सब ओर फैल गयी तो सुदामा की पत्नी ने सुदामा को कह-सुनकर कृष्ण के पास जाने के लिए तैयार किया। उसके मन में यह इच्छा भी थी कि कृष्ण के पास जाने से दारिद्रय से मुक्ति मिल जायेगी। सुदामा अत्यंत संकोच के साथ घर से चले। उनकी पत्नी ने कृष्ण को भेंटस्वरूप देने के लिए आस-पास के ब्राह्मणों से दो मुट्ठी चिवड़ा माँगा। सुदामा पहुँचे तो कृष्ण ने उसकी पूर्ण तन्मयता से आवभगत की। कृष्ण के ऐश्वर्य को देखकर सुदामा चिवड़े की भेंट नहीं दे पा रहे थे। रात को कृष्ण ने उनसे बलपूर्वक पोटली छीन ली और चिवड़ा खाकर प्रसन्न हुए। उन्होंने सुदामा को सुंदर शय्या पर सुलाया, किंतु उसके चलने पर उसे कुछ भी नहीं दिया। सुदामा सोचते जा रहे थे, कि उन्हें इसी कारण से धन नहीं दिया गया होगा कि कहीं वह मदमत्त न हो जायें। विचारमग्न ब्राह्मण सुदामा जब घर पहुँचे तो देखा, उनकी कुटिया के स्थान पर वैभवमंडित महल है। उनकी पत्नी स्वर्णाभूषणों से लदी हुई तथा सेविकाओं से घिरी हुई हैं। कृष्ण की कृपा से अभिभूत होकर सुदामा अपनी पत्नी सहित उनकी भक्ति में लग गये।देव शिल्पी विश्वकर्मा जी द्वारा सुदामा की कुटिया के स्थान पर अत्यंत वैभव और सुख सुविधा से परिपूर्ण महल का निर्माण किया था। जो शिल्प और सौंदर्यीकरण का अद्भुत रचना निर्माण हे। 

श्रीकृष्ण के प्रपौत्र व्रजनाभ 

वज्र अथवा वज्रनाभ भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र का नाम था। पांडवों के स्वर्गारोहण के पश्चात परीक्षित इनसे मिलने मथुरा गये थे। मथुरा के युद्धोपरांत जब द्वारका नष्ट हो गई, तब श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ मथुरा के राजा हुए। उनके नाम पर ही मथुरामंडल भी 'वज्र प्रदेश' या 'व्रज प्रदेश' कहा जाने लगा। वज्रनाभ ने श्रीकृष्ण से सम्बंधित स्थानों पर नयी बस्तियाँ शांडिल्य मुनि की सम्मति तथा परीक्षित की सहायता से स्थापित की थीं।

मथुरामंडल के राजा वज्रनाभ 

अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ ही यदुकुल के महासंहार में बच गये थे। स्त्रियों, सेवकों आदि के साथ अर्जुन उन्हें हस्तिनापुर ले आये। वहीं युधिष्ठिर ने मथुरामंडल का उनको राजा बना दिया था। उस समय वज्रनाभ की अवस्था छोटी ही थी। पांडवों के महाप्रस्थान के पश्चात परीक्षित स्वयं वज्रनाभ को मथुरा का राज्य सौंपने आये थे। जब वज्रनाभ मथुरा के राजा बने, उस समय पूरा वज्रमण्डल उजाड़ पड़ा था। वहाँ कोई पशु-पक्षी भी नहीं रहा था। मथुरा में केवल सूने भवन थे। परीक्षित ने वज्रनाभ से कहा- "तुम राज्य, कोष, सेना आदि के लिये चिन्ता मत करना। यह सब मैं तुम्हें बहुत अधिक दूंगा। कोई शत्रु मेरे जीते-जी तुम्हारी ओर देख तक नहीं सकता। तुम तो केवल माताओं की सेवा करो। जिसको जैसे प्रसन्नता हो, वही तुम्हें करना चाहिये।" वज्रनाभ ने कहा- "चाचाजी ! यद्यपि मैं अभी बालक हूं, फिर भी मुझे सभी अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान है। राज्य, धन या शत्रु की मुझे चिंता नहीं; किंतु मैं यहाँ राज्य किस पर करूं? यहाँ जो प्रजा ही नहीं है। आप इसकी कोई व्यवस्था करे।" परीक्षित ने पता लगाया तो यमुना-किनारे महर्षि शाण्डिल्य का आश्रम मिल गया।

महाराज वज्रनाभ ने परीक्षित और महर्षि शांडिल्य के सहयोग से मथुरामंडल की पुन: स्थापना करके उसकी सांस्कृतिक छवि का पुनरुद्वार किया। वज्रनाभ द्वारा जहाँ अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया गया, वहीं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की जन्मस्थली का भी महत्त्व स्थापित किया।

व्रजनाभ मूर्ति की स्थापना

पौराणिक आख्यान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पूर्वजों की पुण्यस्मृति में तथा उनके उपासना क्रम को संस्थापित करने हेतु चार देव विग्रह तथा चार देवियों की मूर्तियाँ निर्माण कर स्थापित की थीं। श्रीकृष्ण के प्रपौत्र महाराज वज्रनाभ ने व्रज में आठ मूर्तियों का आविष्कार किया, चार देव अर्थात् हरदेव वलदेव, केशवदेव, गोविन्ददेव, दो नाथ - श्रीनाथ और गोपीनाथ दो गोपाल- साक्षी गोपाल और मदनगोपाल-

चारि देव, दुइ नाथ, दुइ गोपाल वाखान। वज्रनाभ प्रकटित एइ आठ मूर्ति जान॥  स्थापना

श्रीकृष्ण का वंश परिवार 

समय समय पर भगवान श्रीकृष्ण के वंश पर तमाम तरह के प्रश्न उठाये जाते हैं। कोई उन्हें चंद्रवंशी, कोई जदु वंशी आदि आदि विभिन्न वंशों से सम्बद्ध होने की बात कहता रहता है।

इस सम्बन्ध में श्रीकृष्ण भगवान से ऊपर की और उनके वंश के प्रथम पुरुष का वर्णन श्री विष्णु पुराण में मिलता है। आईये इसका रसास्वादन किया जाये। पुराणों में कहा गया है कि इसके एक पाठ से ही तमाम पापों का क्षय हो जाता है।

यदु वंश से मशहूर इस वंश के प्रथम पुरुष राजा नहुष से ययाति, ययाति से यदु, यदु से क्रोष्टु, क्रोष्टु से ध्वजिनिवान, ध्वजिनिवान से स्वाति, स्वाति से रुशंकु, रुशंकु से चित्ररथ, चित्ररथ से शशिविंदु, शशिविंदु से पृथुश्रवा, पृथुश्रवा से पृथुतम, पृथुतम से उशना, उशना से शितपु, शितपु से रुक्मकवच, रुक्मकवच से परावृत्त, परावृत्त से रुक्मेषु हुए। 

राजा रुक्मेशु से ज्यामघ, ज्यामघ से क्रथ, क्रथ से कुन्ति, कुन्ति से धृष्टि, धृष्टि के निघृति, निघृति से दशार्ह, दशार्ह से व्योमा, व्योमा से जीमूत, जीमूत से विकृति, विकृति से भीमरथ, भीमरथ से नवरथ, नवरथ से दशरथ, दशरथ से शकुनि, शकुनि से करंभि, करंभि से देवरात हुए।

राजा देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुमारवंश, कुमारवंश से अनु, अनु से पुरुमित्र, पुरुमित्र से अंशु, अंशु से सत्वत हुए।

सत्वत से अंधक, अंधक से भजमान, भजमान से विदूरथ, विदूरथ से शुर, शूर से शमी, शमी से प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र से स्वयंभोज, स्वयंभोज से हृदिक, हृदिक के देवगर्भ, देवगर्भ से शूरसेन, शूरसेन से वसुदेव और वसुदेव देवकी से बलराम और श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।

ययाति नन्दन यदु के नाम से यदुवंश प्रसिद्ध हुआ और उनके वंशज यदुवंशी कहलाये। जिसे यादव कुल भी कहा गया। यह जानकारी विष्णु पुराण से ली गयी है। भगवान श्रीकृष्ण की वंशावली पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों की संख्या भी बहुत है। इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण के ऊपर की कुल 48 पीढ़ियों का पौराणिक इतिहास उपलब्ध है। संकलन मे अगर मानवीय त्रुटि हेतु क्षमा प्रार्थित है । विद्वतजन यदि कोई प्रामाणिक सुझाव देंगे तो वह शिरोधार्य कर सुधार भी होगा।

श्रीकृष्ण वंश बृहद जानकारी 

ऋषियों! (अब) आप लोग राजर्षि क्रोष्टु के उस उत्तम बल-पौरुष से सम्पन्न वंश का वर्णन सुनिये, जिस वंश में वृष्णिवंशावतंस भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) अवतीर्ण हुए थे। क्रोष्टु के पुत्र महारथी वृजिनीवान हुए। वृजिनीवान के स्वाह (पद्मपुराण में स्वाति) नामक महाबली पुत्र उत्पन्न हुआ। राजन्! वक्ताओं में श्रेष्ठ रुषंगु[1] स्वाह के पुत्ररूप में पैदा हुए। रुषंगु ने संतान की इच्छा से सौम्य स्वभाव वाले पुत्र की कामना की। तब उनके सत्कर्मों से समन्वित एवं चित्र-विचित्र रथ से युक्त चित्ररथ नामक पुत्र हुआ। चित्ररथ के एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ जो शशबिन्दु नाम से विख्यात था। वह आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट हुआ। वह यज्ञों में प्रचुर दक्षिणा देने वाला था। पूर्वकाल में इस शशबिन्दु के विषय में वंशानुक्रमणिकारूप यह श्लोक गाया जाता रहा है कि शशबिन्दु के सौ पुत्र हुए। उनमें भी प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। वे सभी प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं तेज़ से परिपूर्ण, सौन्दर्यशाली एवं बुद्धिमान थे। उन पुत्रों के नाम के अग्रभाग में 'पृथु' शब्द से संयुक्त छ: महाबली पुत्र हुए। उनके पूरे नाम इस प्रकार हैं- पृथुश्रवा, पृथुयशा, पृथुधर्मा, पृथुंजय, पृथुकीर्ति और पृथुमनां ये शशबिन्दु के वंश में उत्पन्न हुए राजा थे। पुराणों के ज्ञाता विद्वान लोग इनमें सबसे ज्येष्ठ पृथुश्रवा की विशेष प्रशंसा करते हैं। उत्तम यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पृथुश्रवा का पुत्र सुयज्ञ हुआ। सुयज्ञ का पुत्र उशना हुआ, जो सर्वश्रेष्ठ धर्मात्मा था। उसने इस पृथ्वी की रक्षा करते हुए सौ अश्वमेध-यज्ञों का अनुष्ठान किया था। उशना का पुत्र तितिक्षु हुआ जो शत्रुओं को संतप्त कर देने वाला था। राजर्षियों में सर्वश्रेष्ठ मरूत्त तितिक्षु के पुत्र हुए। मरूत्त का पुत्र वीरवर कम्बलवर्हिष था। कम्बलबर्हिष का पुत्र विद्वान रुक्मकवच हुआ। रुक्मकवच ने अपने अनेकों प्रकार के बाणों के प्रहार से धनुर्धारी एवं कवच से सुसज्जित शत्रुओं को मारकर इस पृथ्वी को प्राप्त किया था। शत्रुवीरों का संहार करने वाले रूक्मकवच ने एक बार बड़े (भारी) अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को प्रचुर दक्षिणा प्रदान की थी ॥

इन (राजा रुक्मकवच) - के रुक्मेषु, पृथुरूक्म, ज्यामघ, परिघ और हरिनामक पाँच पुत्र हुए, जो महान पराक्रमी एवं श्रेष्ठ धनुर्धर थे। पिता रुक्मकवच ने इनमें से परिघ और हरि- इन दोनों को विदेह देश के राज-पद पर नियुक्त कर दिया। रुक्मेषु प्रधान राजा हुआ और पृथुरूक्म उसका आश्रित बन गया। उन लोगों ने ज्यामघ को राज्य से निकल दिया। वहाँ एकत्र ब्राह्मण द्वारा समझाये- बुझाये जाने पर वह प्रशान्त-चित्त होकर वानप्रस्थीरूप से आश्रमों में स्थिररूप से रहने लगा। कुछ दिनों के पश्चात् वह (एक ब्राह्मण की शिक्षा से) ध्वजायुक्त रथ पर सवार हो हाथ में धनुष धारण कर दूसरे देश की ओर चल पड़ा। वह केवल जीविकोपार्जन की कामना से अकेले ही नर्मदातट पर जा पहुँचा। वहाँ दूसरों द्वारा उपभुक्त - ऋक्षवान् गिरि (शतपुरा पर्वत-श्रेणी)- पर जाकर निश्चितरूप से निवास करने लगा। ज्यामघकी सती-साध्वी पत्नी शैव्या प्रौढ़ा हो गयी थीं (उसके गर्भ से) कोई पुत्र न उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यद्यपि राजा ज्यामघ पुत्रहीन अवस्था में ही जीवनयापन कर रहे थे, तथापि उन्होंने दूसरी पत्नी नहीं स्वीकार की। एक बार किसी युद्ध में राजा ज्यामघ की विजय हुईं वहाँ उन्हें (विवाहार्थ) एक कन्या प्राप्त हुई। (पर) उसे लाकर पत्नी को देते हुए राजा ने उससे भयपूर्वक कहा- 'शुचिस्मिते! यह (मेरी स्त्री नहीं,) तुम्हारी स्नुषा (पुत्रबधू) है।' इस प्रकार कहे जाने पर उसने राजा से पूछा- 'यह किसकी स्नुषा है?'।

प्राय: अठारह पुराणों तथा उपपुराणों में एवं भागवतादि की टीकाओं में 'ज्यामघ' की पत्नी शैव्या ही कही गयी है। कुछ मत्स्यपुराण की प्रतियों में 'चैत्रा' नाम भी आया है, परंतु यह अनुकृति में भ्रान्तिका ही परिणाम है। तब राजा ने कहा - प्रिये तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसी की यह पत्नी होगी। (यह आश्चर्य देख-सुनकर वह कन्या तप करने लगी।) तत्पश्चात् उस कन्या की उग्र तपस्या के परिणामस्वरूप वृद्धा प्राय: बूढ़ी होने पर भी शैव्याने (गर्भ धारण किया और) विदर्भ नामक एक पुत्र को जन्म दिया। उस विद्वान् विदर्भ ने स्त्रुषाभूता उस राजकुमारी के गर्भ से क्रथ, कैशिक तथा तीसरे परम धर्मात्मा लोमपाद नामक पुत्रों को उत्पन्न किया। ये सभी पुत्र शूरवीर एवं युद्धकुशल थे। इनमें लोमपाद से मनु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ तथा मनु का पुत्र ज्ञाति हुआ। कैशिक का पुत्र चिदि हुआ, उससे उत्पन्न हुए नरेश चैद्य नाम से प्रख्यात हुए। विदर्भ-पुत्र क्रथ के कुन्ति नामक पुत्र पैदा हुआ। कुन्ति से धृष्ट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो परम प्रतापी एवं रणविशारद था। धृष्टका पुत्र निर्वृति हुआ जो धर्मात्मा एवं शत्रु-वीरों का संहारक था। निर्वृति के एक ही पुत्र था जो विदूरथ नाम से प्रसिद्ध था। विदूरथ का पुत्र दशार्ह और दशार्ह का पुत्र व्योम बतलाया जाता है। दशार्हवंशी व्योम से पैदा हुए पुत्र को जीमूत नाम से कहा जाता है। 

तत्पश्चात् राजा देवावृध का जन्म हुआ, जो बन्धुओं के साथ सुदृढ़ मैत्री के प्रवर्धक थे। परंतु राजा (देवावृध) को कोई पुत्र न थां उन्होंने 'मुझे सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न पुत्र पैदा हो 'ऐसी अभिलाषा से युक्त हो अत्यन्त घोर तप किया। अन्त में उन्होंने मन्त्र को संयुक्त कर पर्णाशा नदी के जल का स्पर्श किया। इस प्रकार स्पर्श करने के कारण पर्णाशा नदी राजा का प्रिय करने का विचार करने लगी। वह श्रेष्ठ नदी उस राजा के कल्याण की चिन्ता से व्याकुल हो उठी। अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँची कि मैं ऐसी किसी दूसरी स्त्री को नहीं देख पा रही हूँ, जिसके गर्भ से इस प्रकार का (राजा की अभिलाषा के अनुसार) पुत्र पैदा हो सके, इसलिये आज मैं स्वयं ही हज़ारों प्रकार का रूप धारण करूँगी। तत्पश्चात् पर्णाशा ने परम सुन्दर शरीर धारण करके कुमारी रूप में प्रकट होकर राजा को सूचित किया। तब महान व्रतशाली राजा ने उसे (पत्नीरूप से) स्वीकार कर लिया तदुपरान्त नदियों में श्रेष्ठ पर्णाशा ने राजा देवावृध के संयोग से नवें महीने में सम्पूर्ण सद्गुणों से सम्पन्न बभ्रु नामक पुत्र को जन्म दिया। पुराणों के ज्ञाता विद्वान्लोग वंशानुकीर्तनप्रसंग में महात्मा देवावृध के गुणों का कीर्तन करते हुए ऐसी गाथा गाते हैं- उद्गार प्रकट करते हैं- 'इन (बभ्रु)- के विषय में हमलोग जैसा (दूर से) सुन रहे थे, उसी प्रकार (इन्हें) निकट आकर भी देख रहे हैं। बभ्रु तो सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं और देवावृध (साक्षात्) देवताओं के समान हैं। राजन्! बभ्रु और देवावृध के प्रभाव से इनके छिहत्तर हज़ार पूर्वज अमरत्व को प्राप्त हो गयें राजा बभ्रु यज्ञानुष्ठानी, दानशील, शूरवीर, ब्राह्मणभक्त, सुदृढ़व्रती, सौन्दर्यशाली, महान तेजस्वी तथा विख्यात बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। तदनन्तर (बभ्रु के संयोग से) कंक की कन्या ने कुकुर, भजमान, शशि और कम्बलबर्हिष नामक चार पुत्रों को जन्म दिया। कुकुर का पुत्र वृष्णि, वृष्णि का पुत्र धृति, उसका पुत्र कपोतरोमा, उसका पुत्र तैत्तिरि, उसका पुत्र सर्प, उसका पुत्र विद्वान् नल था। नल का पुत्र दरदुन्दुभि नाम से कहा जाता था। नरश्रेष्ठ दरदुन्दुभि पुत्रप्राप्ति के लिये अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे उस विशाल यज्ञ में पुनर्वसु नामक पुत्र प्रादुर्भूत हुआ। पुनर्वसु अतिरात्र के मध्य में सभा के बीच प्रकट हुआ था, इसलिये वह विदान्, शुभाशुभ कर्मों का ज्ञाता, यज्ञपरायण और दानी था।

उग्रसेन के नौ पुत्र थे, उनमें कंस ज्येष्ठ था। उनके नाम हैं- कंस, न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु अजभू, राष्ट्रपाल, युद्धमुष्टि और सुमुष्टिद। उनके कंसा, कंसवती, सतन्तू, राष्ट्रपाली और कंका नाम की पाँच बहनें थीं, जो परम सुन्दरी थीं। अपनी संतानों सहित उग्रसेन कुकुर-वंश में उत्पन्न हुए कहे जाते हैं भजमान का पुत्र महारथी विदूरथ और शूरवीर राजाधिदेव विदूरथ का पुत्र हुआ। राजाधिदेव के शोणाश्व और श्वेतवाहन नामक दो पुत्र हुए, जो देवों के सदृश कान्तिमान और नियम एवं व्रत के पालन में तत्पर रहने वाले थे। शोणाश्व के शमी, देवशर्मा, निकुन्त, शक्र और शत्रुजित नामक पाँच शूरवीर एवं युद्धनिपुण पुत्र हुए। शमी का पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र का पुत्र प्रतिक्षत्र, उसका पुत्र भोज और उसका पुत्र हृदीक हुआ। हृदिक के दस अनुपम पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए, उनमें कृतवर्मा ज्येष्ठ और शतधन्वा मँझला था। शेष के नाम हैं - देवार्ह, नाभ, धिषण, महाबल, अजात, वनजात, कनीयक और करम्भक। देवार्ह के कम्बलबर्हिष नामक विद्वान् पुत्र हुआ। उसका पुत्र असोमजा और असोमजा का पुत्र तमोजा हुआ। इसके बाद सुदंष्ट, सुनाभ और कृष्ण नाम के तीन राजा और हुए जो परम पराक्रमी और उत्तम कीर्तिवाले थे। इनके कोई संतान नहीं हुई। ये सभी अन्धकवंशी माने गये हैं। जो मनुष्य अन्धकों के इस वंश का नित्य कीर्तन करता है वह स्वयं पुत्रवान होकर अपने वंश की वृद्धि करता है। 

श्रीकृष्ण की पत्नियाँ और पुत्र 

आर्यभट्‍ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ईपू में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने देह छोड़ दी थी तभी से कलियुग का आरंभ माना जाता है। पुराणों के अनुसार 8वें अवतार के रूप में विष्णु ने यह अवतार 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से 8वें पुत्र के रूप में मथुरा के कारागार में जन्म लिया था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकलने के बाद 8वें मुहूर्त में हुआ। तब रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि थी जिसके संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5125 वर्ष पूर्व) को जन्म हुआ।

ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था। भगवान श्रीकष्ण ने आठ महिलाओं से विधिवत विवाह किया था। इन आठ महिलाओं से उनको 80 पुत्र मिले थे। इन आठ महिलाओं को अष्टा भार्या कहा जाता था। इनके नाम हैं:- अष्ट भार्या : कृष्ण की 8 ही पत्नियां थीं यथा- रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा।

1.श्रीकृष्ण- रुक्मिणी के पुत्र - प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।

2.जाम्बवती- कृष्ण के पुत्र - साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।

3.सत्यभामा- कृष्ण के पुत्र:-  भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।

4.कालिंदी- कृष्ण के पुत्र - श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।

5.मित्रविन्दा- श्रीकृष्ण के पुत्र - वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।

6.लक्ष्मणा- श्रीकृष्ण के पुत्र - प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।

7.सत्या- श्रीकृष्ण के पुत्र - वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगुप्त, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंति।

8.भद्रा- श्रीकृष्ण के पुत्र - संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।

श्रीकृष्ण की चार बहने 

भगवान श्री कृष्ण की बहनें 4 थीं। श्रीकृष्ण का जन्म 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ के काल में हुआ था। अर्थात 3112 ईसा पूर्व उनका जन्म हुआ था।

एकांगा - यह यशोदा की पुत्री थीं। उन्होंने एकांत ग्रहण कर लिया था। इन्हें यादवों की कुल देवी भी माना गया है। कुछ लोग इन्हें योगमाया भी कहते हैं।

सुभद्रा - वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम और सुभद्र का जन्म हुआ। ग्रंथो के शोधानुसार वसुदेव देवकी के साथ जिस समय कारागृह में बंदी थे, उस समय ये नंद के यहां रहती थीं। सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था। जबकि बलराम दुर्योधन से करना चाहते थे।

द्रौपदी - पांडवों की पत्नी द्रौपदी हालांकि कृष्ण की बहन नहीं थी, लेकिन श्रीकृष्‍ण इसे अपनी मानस भगिनी मानते थे।

महामाया - देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं।

जितने स्थान उतने नाम 

भगवान् श्री कृष्ण को अलग अलग स्थानों में अलग अलग नामो से जाना जाता है।

उत्तर प्रदेश में कृष्ण या गोपाल गोविन्द इत्यादि नामो से जानते है।

राजस्थान में श्रीनाथजी या ठाकुरजी के नाम से जानते है।

महाराष्ट्र में बिट्ठल माधव के नाम से भगवान् जाने जाते है।

उड़ीसा में जगन्नाथ के नाम से जाने जाते है।

बंगाल में गोपालजी के नाम से जाने जाते है।

दक्षिण भारत में वेंकटेश या गोविंदा के नाम से जाने जाते है।

गुजरात में द्वारिकाधीश रणछोड़ शामलीया के नाम से जाने जाते है।

असम , त्रिपुरा,नेपाल इत्यादि पूर्वोत्तर क्षेत्रो में कृष्ण नाम से ही पूजा होती है।

मलेशिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशो में कृष्ण नाम ही विख्यात है।

गोविन्द या गोपाल में “गो” शब्द का अर्थ गाय एवं इन्द्रियों , दोनों से है। गो एक संस्कृत शब्द है और ऋग्वेद में गो का अर्थ होता है मनुष्य की इंद्रिया…जो इन्द्रियों का विजेता हो जिसके वश में इंद्रिया हो वही गोविंद है गोपाल है।

श्री कृष्ण के पिता का नाम वसुदेव था इसलिए इन्हें आजीवन “वासुदेव” के नाम से जाना गया। श्री कृष्ण के दादा का नाम शूरसेन था..

श्री कृष्ण का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद के राजा कंस की जेल में हुआ था।

श्री कृष्ण के भाई बलराम थे लेकिन उद्धव और अंगिरस उनके चचेरे भाई थे, अंगिरस ने बाद में तपस्या की थी और जैन धर्म के तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम से विख्यात हुए थे।

श्री कृष्ण ने 16000 राजकुमारियों को असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था और उन राजकुमारियों को आत्महत्या से रोकने के लिए मजबूरी में उनके सम्मान हेतु उनसे विवाह किया था। क्योंकि उस युग में हरण की हुयी स्त्री अछूत समझी जाती थी और समाज उन स्त्रियों को अपनाता नहीं था।।

श्री कृष्ण की मूल पटरानी एक ही थी जिनका नाम रुक्मणी था जो महाराष्ट्र के विदर्भ राज्य के राजा रुक्मी की बहन थी।। रुक्मी शिशुपाल का मित्र था और श्री कृष्ण का शत्रु ।

दुर्योधन श्री कृष्ण का समधी था और उसकी बेटी लक्ष्मणा का विवाह श्री कृष्ण के पुत्र साम्ब के साथ हुआ था।

श्री कृष्ण के धनुष का नाम सारंग था। शंख का नाम पाञ्चजन्य था। चक्र का नाम सुदर्शन था। उनकी प्रेमिका का नाम राधारानी था जो बरसाना के सरपंच वृषभानु की बेटी थी। श्री कृष्ण राधारानी से निष्काम और निश्वार्थ प्रेम करते थे। राधारानी श्री कृष्ण से उम्र में बहुत बड़ी थी। लगभग 6 साल से भी ज्यादा का अंतर था। श्री कृष्ण ने 14 वर्ष की उम्र में वृंदावन छोड़ दिया था।। और उसके बाद वो राधा से कभी नहीं मिले।

श्री कृष्ण विद्या अर्जित करने हेतु मथुरा से उज्जैन मध्य प्रदेश आये थे। और यहाँ उन्होंने उच्च कोटि के ब्राह्मण महर्षि सान्दीपनि से अलौकिक विद्याओ और समस्त 64 कलाओं का ज्ञान शिक्षा अर्जित किया था।।

श्री कृष्ण की कुल 125 वर्ष धरती पर रहे । उनके शरीर का रंग गहरा काला था और उनके शरीर से 24 घंटे पवित्र अष्टगंध महकता था। उनके वस्त्र रेशम के पीले रंग के होते थे और मस्तक पर मोरमुकुट शोभा देता था। उनके सारथि का नाम दारुक था और उनके रथ में चार घोड़े जुते होते थे। उनकी दोनो आँखों में प्रचंड सम्मोहन था।

श्री कृष्ण के कुलगुरु महर्षि शांडिल्य थे।

श्री कृष्ण का नामकरण महर्षि गर्ग ने किया था।

श्री कृष्ण के बड़े पोते का नाम अनिरुद्ध था जिसके लिए श्री कृष्ण ने बाणासुर और भगवान् शिव से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।

श्री कृष्ण ने गुजरात के समुद्र के बीचो बीच द्वारिका नाम की राजधानी बसाई थी। द्वारिका पूरी सोने की थी और उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।

श्री कृष्ण को ज़रा नाम के शिकारी का बाण उनके पैर के अंगूठे मे लगा वो शिकारी पूर्व जन्म का बाली था,बाण लगने के पश्चात भगवान स्वलोक धाम को गमन कर गए।

श्री कृष्ण ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में अर्जुन को पवित्र गीता का ज्ञान रविवार शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मात्र 45 मिनट में दे दिया था।

श्री कृष्ण ने सिर्फ एक बार बाल्यावस्था में नदी में नग्न स्नान कर रही स्त्रियों के वस्त्र चुराए थे और उन्हें अगली बार यु खुले में नग्न स्नान न करने की नसीहत दी थी।

श्री कृष्ण के अनुसार गौ हत्या करने वालो को असुर कहा है। 

श्री कृष्ण अवतार नहीं थे बल्कि अवतारी थे। जिसका अर्थ होता है “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्” न ही उनका जन्म साधारण मनुष्य की तरह हुआ था और न ही उनकी मृत्यु हुयी थी। ऐसी धारणा भी कहीं कहीं अंकित की गई है। 

सर्वान् धर्मान परित्यजम मामेकं शरणम् व्रज

अहम् त्वम् सर्व पापेभ्यो मोक्षस्यामी मा शुच–

( भगवद् गीता अध्याय 18 )

श्री कृष्ण : “सभी धर्मो का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो, मैं सभी पापो से तुम्हारा उद्धार कर दूंगा,डरो मत

श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी

हे नाथ नारायण वासुदेव …

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे..

श्रीकृष्ण की रोचक जानकारी

भगवान् श्री कृष्ण के खड्ग का नाम नंदक, गदा का नाम कौमौदकी और शंख का नाम पांचजन्य था जो गुलाबी रंग का था।

भगवान् श्री कृष्ण के परमधामगमन के समय ना तो उनका एक भी केश श्वेत था और ना ही उनके शरीर पर कोई झुर्री थीं।

भगवान् श्री कृष्ण के धनुष का नाम शारंग व मुख्य आयुध चक्र का नाम सुदर्शन था। वह लौकिक, दिव्यास्त्र व देवास्त्र तीनों रूपों में कार्य कर सकता था उसकी बराबरी के विध्वंसक केवल दो अस्त्र और थे पाशुपतास्त्र ( शिव, कॄष्ण और अर्जुन के पास थे) और प्रस्वपास्त्र ( शिव, वसुगण, भीष्म और कृष्ण के पास थे)।

भगवान् श्री कृष्ण की परदादी 'मारिषा' व सौतेली मां रोहिणी (बलराम की मां) 'नाग' जनजाति की थीं। 

भगवान श्री कृष्ण से जेल में बदली गई यशोदापुत्री का नाम एकानंशा था, जो आज विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजी जातीं हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेमिका राधा का वर्णन महाभारत, हरिवंशपुराण, विष्णुपुराण व भागवतपुराण में नहीं है। उनका उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद व प्रचलित जनश्रुतियों में रहा है।

जैन परंपरा के मुताबिक, भगवान श्री कॄष्ण के चचेरे भाई तीर्थंकर नेमिनाथ थे जो हिंदू परंपरा में घोर अंगिरस के नाम से प्रसिद्ध हैं। 

भगवान् श्री कृष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में 6 महीने से अधिक नहीं रहे।

भगवान श्री कृष्ण ने अपनी औपचारिक शिक्षा उज्जैन के संदीपनी आश्रम में मात्र कुछ महीनों में पूरी कर ली थी।

ऐसा माना जाता है कि घोर अंगिरस अर्थात नेमिनाथ के यहां रहकर भी उन्होंने साधना की थी। 

प्रचलित अनुश्रुतियों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण ने मार्शल आर्ट का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था। डांडिया रास का आरंभ भी उन्हीं ने किया था।

कलारीपट्टु का प्रथम आचार्य कृष्ण को माना जाता है। इसी कारण नारायणी सेना भारत की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गई थी

भगवान श्रीकृष्ण के रथ का नाम जैत्र था और उनके सारथी का नाम दारुक/ बाहुक था। उनके घोड़ों (अश्वों) के नाम थे शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक।

भगवान श्री कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध निकलती थी।  

भगवान श्री कृष्ण की मांसपेशियां मृदु परंतु युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं, इसलिए सामान्यतः लड़कियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था ठीक ऐसे ही लक्ष्ण कर्ण व द्रौपदी के शरीर में देखने को मिलते थे।

जनसामान्य में यह भ्रांति स्थापित है कि अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे, परंतु वास्तव में कृष्ण इस विधा में भी सर्वश्रेष्ठ थे और ऐसा सिद्ध हुआ मद्र राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में जिसकी प्रतियोगिता द्रौपदी स्वयंवर के ही समान परंतु और कठिन थी।

यहां कर्ण व अर्जुन दोंनों असफल हो गए और तब श्री कॄष्ण ने लक्ष्यवेध कर लक्ष्मणा की इच्छा पूरी की, जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकीं थीं।

भगवान् श्री युद्ध कृष्ण ने कई अभियान और युद्धों का संचालन किया था, परंतु इनमे तीन सर्वाधिक भयंकर थे। 1- महाभारत, 2- जरासंध और कालयवन के विरुद्ध 3- नरकासुर के विरुद्ध

भगवान् श्री कृष्ण ने केवल 16 वर्ष की आयु में विश्वप्रसिद्ध चाणूर और मुष्टिक जैसे मल्लों का वध किया। मथुरा में दुष्ट रजक के सिर को हथेली के प्रहार से काट दिया। 

भगवान् श्री कृष्ण ने असम में बाणासुर से युद्ध के समय भगवान शिव से युद्ध के समय माहेश्वर ज्वर के विरुद्ध वैष्णव ज्वर का प्रयोग कर विश्व का प्रथम जीवाणु युद्ध किया था।

भगवान् श्री कृष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद्व युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ हुआ था, जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और पाशुपतास्त्र निकाल लिए थे। बाद में देवताओं के हस्तक्षेप से दोनों शांत हुए।

भगवान् श्री कृष्ण ने 2 नगरों की स्थापना की थी द्वारिका (पूर्व में कुशावती) और पांडव पुत्रों के द्वारा इंद्रप्रस्थ (पूर्व में खांडवप्रस्थ)।

भगवान् श्री कृष्ण ने कलारिपट्टू की नींव रखी जो बाद में बोधिधर्मन से होते हुए आधुनिक मार्शल आर्ट में विकसित हुई।

भगवान् श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता के रूप में आध्यात्मिकता की वैज्ञानिक व्याख्या दी, जो मानवता के लिए आशा का सबसे बड़ा संदेश थी, है और सदैव रहेगी।

द्वारिका पहुंचने के लिए 

एयर प्लेन से द्वारका पहुंचने के लिए कोई भी सीधी फ्लाइट नहीं है। द्वारका से सबसे नजदीक एयरपोर्ट जामनगर और पोरबंदर है। जो यहां से जामनगर 147 किलोमीटर और पोरबंदर 100 किलोमीटर दूर है। इसके अलावा राजकोट एयरपोर्ट से भी यहां आ सकते हैं। यह एयरपोर्ट द्वारका से करीब 250 किलोमीटर दूर है। एयरपोर्ट से सीधे द्वारकाधीश मंदिर के लिए कैब मिलती है।

रैल के माध्यम से द्वारका देश के कई शहरों से रेल नेटवर्क के जरिए जुड़ा हुआ है। द्वारका रेलवे स्टेशन तक रोज कई ट्रेनें मिल जाती है। लेकिन अभी कोरोना के चलते कुछ ट्रेनें बंद हैं। द्वारका रेलवे स्टेशन से मंदिर करीब एक किलोमीटर ही है। द्वारिका के पास ओखा शहर से बहुत सी ट्रेन भारतभर से सीधे तौर पर उपलब्ध हैं। 

सड़क मार्ग से द्वारिका देश के लगभग सभी बड़े शहरों से सड़क के जरिये जुड़ा हुआ है। खुद की गाड़ी से वहां पहुंच सकते हैं। इसके अलावा मंदिर तक पहुंचने के लिए कई बस सर्विस भी मिल जाती है।

मेने यह अनेक ग्रंथो द्वारा द्वारिका विषय को संकलित करने की कोशिश की है। कहा जाता है कि विश्वकर्मा प्रभु ने अपने जीवन काल में सभी निर्माणों में सबसे श्रेष्ठ, सौंदर्य, रोचक, और योजनाबद्ध निर्माण जो द्वारिका के रूप में हे उनकी तुलना कहीं भी नहीं हो सकती है। द्वारिका और श्रीकृष्ण दोनों आप मे बड़े और संशोधन के विषय है जिसको समझाना और समझना एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती है जो इस पुस्तक में संकलन करने के लिए कोशिश की गई है। अतः इस पुस्तक में किसी भी तरह की त्रुटि भूल को विद्वान मार्गदर्शक क्षमा करें। 

विश्वकर्मा साहित्य भारत के माध्यम से अनेक विश्वकर्मा साहित्य और संस्कृति का प्रचार प्रसार हो रहा है यह अभियान से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में विश्वकर्मा वंश संबंधित तथ्यों जानकारियां और उल्लेखनीय लेखनी और ग्रंथिय संशोधन द्वारा जानकारी उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। 

लेख संकलनकर्ता 

©️मयूर मिस्त्री 

विश्वकर्मा साहित्य भारत

सन्दर्भ सूची

महाभारत, 

भागवत पुराण,  

ब्रह्मवैवर्त पुराण, 

वायु पुराण, 

पद्म पुराण, 

विश्वकर्मा पुराण, 

ब्रह्माण्ड पुराण, 

श्रीमद् भागवत गीता ,

हरिवंश पुराण, 

द्वारिका : भगवान श्रीकृष्ण का घर, 

द्वारिका, 

द्वारका नगरी : परिचय और महत्व, 

द्वारका में महत्वपूर्ण खोज, 

पवित्र स्थानो का विश्वकोश, 

पुरातत्व सर्वेक्षण, 

अंतकृतदशांग, 

दिव्य द्वारिका, 

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