महर्षि अंगिरा

महर्षि अंगिरा 
दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति के लिए विशेष रूप से प्रतिष्ठित महर्षि अंगिरा भारतीय सनातन वैदिक परम्परा के आदि पुरूषों में से एक हैं, जिन्हें सृष्टि के आदि काल में वेद ज्ञान को सुनने , समझने और आदिपुरूष ब्रह्मा को समझाने का सौभाग्य प्राप्त है ।

महर्षि अंगिरा ब्रम्हा जी के मानस पुत्र हैं तथा ये गुणों में ब्रह्मा जी के ही समान हैं। इन्हें प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी  दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतान्तर से श्रद्धा) थीं, जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ।
इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गये और कहने लगे- 'आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़ की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।' तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। महर्षि अंगिरा की विशेष महिमा है। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं। इनकी 'अंगिरा-स्मृति' में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है।

सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। विद्वानों का यह अभिमत है कि महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं। जिनमें से महर्षि कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध, सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा हविर्धान आदि मुख्य हैं।

ऋग्वेद का नवम मण्डल जो 114 सूक्तों में निबद्ध हैं, 'पवमान-मण्डल' के नाम से विख्यात है। इसकी ऋचाएँ पावमानी ऋचाएँ कहलाती हैं। इन ऋचाओं में सोम देवता की महिमापरक स्तुतियाँ हैं, जिनमें यह बताया गया है कि इन पावमानी ऋचाओं के पाठ से सोम देवताओं का आप्यायन होता है।

उत्पत्ति–

अंगिरस शब्द का निर्माण उसी धातु से हुआ है, जिससे अग्नि का और एक मत से इनकी उत्पत्ति भी आग्नेयी (अग्नि की कन्या) के गर्भ से मानी जाती है। मतांतर से इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से मानी जाती है। श्रद्धा, शिवा, सुरूपा मारीची एवं दक्ष की स्मृति, स्वधा तथा सती नामक कन्याएँ इसकी पत्नियाँ मानी जाती हैं, परंतु ब्रह्मांड एवं वायु पुराणों में सुरूपा मारीची, स्वराट् कार्दमी और पथ्या मानवी को अथर्वन की पत्नियाँ कहा गया है। अथर्ववेद के प्रारंभकर्ता होने के कारण इनकी अथर्वा भी कहते हैं।

महर्षि अंगिरा वंश 

अंगिरा देव को ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या ये तीनों विवाही गईं। सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध, वामदेव, उतथ्य और उशिर ये 5 पुत्र जन्मे। पथ्या के गर्भ से विष्णु, संवर्त, विचित, अयास्य, असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा ये 7 पुत्र जन्मे। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और बाज आदि नाम से 3 पुत्र हुए। ये ऋषि पुत्र रथकार में कुशल थे। उल्लेखनीय है कि महाभारत काल में रथकारों को शूद्र माना गया था। कर्ण के पिता रथकार ही थे। इस तरह हर काल में जातियों का उत्थान और पतन कर्म के आधार पर होता रहा है।

अंगिरा के पुत्रों को आंगिरस कहा गया। आंगिरस ये अंगिरावंशी देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं। इनके 2 भाई उतथ्य और संवर्त ऋषि तथा अथर्वा जो अथर्ववेद के कर्ता हैं, ये भी आंगिरस हैं। महर्षि अंगिरा के सबसे ज्ञानी पुत्र ऋषि बृहस्पति थे। महाभारत के आदिपर्व के अनुसार बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र तथा देवताओं के पुरोहित हैं। बृहस्पति के पुत्र कच थे जिन्होंने शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखी। देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से 7 कन्याएं उत्पन्न हुईं- भानुमती, राका, अर्चिष्मती, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्मती। तारा से 7 पुत्र तथा 1 कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक 2 पुत्र उत्पन्न हुए। बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधिदेवता ब्रह्मा हैं।

भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। ऋषि भारद्वाज के प्रमुख पुत्रों के नाम हैं- ऋजिष्वा, गर्ग, नर, पायु, वसु, शास, शिराम्बिठ, शुनहोत्र, सप्रथ और सुहोत्र। उनकी 2 पुत्रियां थीं रात्रि और कशिपा। इस प्रकार ऋषि भारद्वाज की 12 संतानें थीं। बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं दलित समाज के लोग भारद्वाज गोत्र लगाते हैं। वे सभी भारद्वाज कुल के हैं।

अन्य आंगिरस : 

आंगिरस नाम के एक ऋषि और भी थे जिन्हें घोर आंगिरस कहा जाता है और जो कृष्ण के गुरु भी कहे जाते हैं। कहते हैं कि भृगु वंश की एक शाखा ने आंगिरस नाम से एक स्वतंत्र वंश का रूप धारण कर लिया अत: शेष भार्गवों ने अपने को आंगिरस कहना बंद कर दिया।

आंगिरस ऋषि के द्वारा स्थापित किए गए इस वंश की जानकारी ब्रह्मांड, वायु एवं मत्स्य पुराण में मिलती है। इस जानकारी के अनुसार इस वंश की स्थापना अथर्वन अंगिरस के द्वारा की गई थी। इस वंश की प्रमुख रूप से 7 ऋषियों ने वृद्धि की, जो क्रमश: इस प्रकार हैं। 
1. अवास्य अंगिरस (हरीशचन्द्र के समकालीन), 
2. उशिज अंगिरस एवं उनके 
3  पुत्र उचथ्य, बृहस्पति एवं संवर्त, जो वैशाली के करंधम, अविक्षित् एवं मरुत्त आविक्षित राजाओं के पुरोहित थे। 3. दीर्घतमस् एवं भारद्वाज, जो क्रमश: उचथ्‍य एवं बृहस्पति के पुत्र थे। इनमें से भारद्वाज ऋषि काशी के दिवोदास (द्वितीय) राजा के राजपुरोहित थे। दीर्घतमस् ऋषि ने अंगे देश में गौतम शाखा की स्थापना की थी। 
4. वामदेव गौतम, 
5. शरद्वत् गौतम, जो उत्तर पांचाल के दिवोदास राजा के अहल्या नामक बहन के पति थे। 
6. कक्षीवत् दैर्घतमस औशिज, 7. भारद्वाज, जो उत्तर पांचाल के पृषत् राजा के समकालीन थे।

वायुपुराण अध्याय 22 उत्तर भाग में दिये विवरणानुसार के अनुसार आर्दव वसु प्रभाष को अंगिरा की पुत्री बृहस्पति की बहिन योगसिद्ध विवाही गई और अष्टम वसु प्रभाष से जो पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम विश्वकर्मा हुआ जो शिल्प प्रजापति कहलाया । भाद्रपद शुक्ल पंचमी को महर्षि अंगिरा जयंती वैदिक परम्परा में भक्तिपूर्ण वातावरण में मनाई जाती है । इस तिथि को ऋषि पंचमी व्रत के रूप में भी मनाया जाता है ।

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।

दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥

-मनुस्मृति - 1/13

अर्थात - जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु:, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।

यह एक सर्वविदित तथ्य है कि वेदों का ज्ञान ब्रह्मा पर न हो कर चार ऋषियों अग्नि ,आदित्य ,वायु ओर अंगिरा पर हुआ था। उन्ही से ब्रह्मा ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था।

अग्नेर्ऋग्वेदों वायोर्यजुर्वेद: सुय्र्यात् समावेद ।

- शतपथ ब्राह्मण 8/3 

अर्थात- अग्नि से ऋग्वेद ,वायु से यजुर्वेद ओर सूर्य से सामवेद प्रकट हुआ।

शतपथ ब्राह्मण के उपरोक्त मन्त्र में तीन वेद का ही उल्लेख किया जाना तीन प्रकार की मन्त्र रचना ओर यज्ञ कर्म की दृष्टि से है।मीमासा दर्शन में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ऋग ,साम ओर यजु से तात्पर्य है कि वेद में पाद व्यवस्था , गान व्यवस्था ओर गद्य रूप में मन्त्र विद्यमान है। चूँकि अर्थववेद में तीनों तरह की ही रचना है इसलिए उसका उल्लेख यहाँ न कर पृथक से किया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण 5/33 के अनुसार यज्ञ कर्म में होता का कार्य ऋग्वेद से, अधव्र्यु का कार्य यजुर्वेद से और उदाता का कार्य सामवेद से है। यज्ञ कर्म में ब्रह्मा भी होता है जिसका सम्बन्ध अर्थववेद से है जो कि यज्ञ में मौन रहता है। इसी कारण उक्त श्लोक ओर अन्य जगह जहाँ त्रिविद्या के रूप में वेद का उल्लेख किया जाता है वहाँ केवल तीन वेद ऋग ,यजु ,साम का उल्लेख किया जाता है ताकि मन्त्रों की रचना ओर यज्ञ कर्म में संगति रह सके। गोपथ ब्राह्मण अर्थवाअंगिरोभिर्बह्मत्वं के अनुसार भी ब्रह्मा का कार्य अर्थववेद से है । इसलिए होता ,उदाता ओर अध्व्र्यु के अतिरिक्तमौन रहने वाला ब्रह्मा भी यज्ञ में होता है। इन्ही दो कारणों से त्रिविद्या विषयक श्लोक में चौथे का उल्लेख नही होता है क्यूंकि चौथा अर्थववेद में तीनों का समाहित हो जाता है ।

शतपत आदि अन्य ग्रंथो में भी अर्थववेद का अंगिरा पर होने का प्रमाण उपलब्ध है।

यदथर्वान्गिरस स य एव विद्वानथर्वान्गिरसो अहरह: स्वाध्यायमधीते ।

-शतपथ ब्राह्मण 11/5/6/7

अर्थात-जो अर्थववेद वाला अंगिरा मुनि वह जो इस प्रकार जानता है कि अर्थवाअंगीरा का हमेशा स्वाध्याय करता है।

श्रुतीरथार्वान्गिरसी: कुर्यादित्यविचारयन ।

-मनुस्मृति 11/33

अर्थात- बिना किसी संदेह के अंगिरा ऋषि पर प्रकट हुई अर्थववेद की श्रुतियो का पाठ करे ।

इन प्रमाणों में स्पष्ट है कि अंगिरा पर अर्थववेद प्रकट हुआ था। इसके अतिरिक्त वेद में भी चारों वेदों का नाम आया है।

यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता: ।

कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये ।।

-ऋग्वेद 10/91/14

(यस्मिन) सृष्टि में परमात्मा ने (अश्वास) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा) भेड़, बकरियाँ (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए। वही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है।

स्मरणीय है कि अग्नि सूर्य ओर वायु कोई जड़ पदार्थ नहीं वरन ऋषि हैं।जड़ पदार्थ में वेद की ज्योति प्रकाशित होने का विचार करना मूर्खता की बात है। क्योंकि जड़ से अर्थात जड़ में ज्ञान नहीं दिया जा सकता है। अग्नि वायु, (वायो), आदित्य ऋषि ही इसका प्रमाण हैं- आचार्य सायण ऐतरेय ब्राह्मण 5/33 की व्याख्या करते हुए अग्नि आदि को जीव विशेष कहते है। सायण के जीव कहने मात्र से ही उनके जड़ होने का स्वत: खंडन हो जाता है - जीव विशेषैग्र्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वाद।

सायणभाष्यभूमिकासंग्रह पृष्ठ 4 स्वयम ऋग्वेद अग्नि के ऋषि होने की घोषणा करता है -

अग्निर्ऋषि पवमान पाचजन्य पुरोहित ।

-ऋग्वेद 9/66/20

अभिप्राय है कि जो पवित्र सब मनुष्यों का पुराहित है वह ऋषि अग्नि है।

यहाँ किस ऋषि का नाम अग्नि हो ये बताया है अत: अग्नि जड़ नही वरनजीव विशेष ही है ।

आपस्तम्बग्ह्र्सुत्र में अग्नि सोम आदि नाम वालो को काण्ड ऋषि कहा है -

प्रजापतिस्सोमोअग्निविश्वदेवा ब्रह्मास्वयम्भू पंचकाण्डऋषय ।

-आपस्तम्ब 4/3

यहाँ अग्नि ओर सोम को ऋषि कहा है सोम अंगिरा का पर्याय है।

अथर्ववेद का प्राचीन नाम अथर्वानिरस है। इनके पुत्रों के नाम हविष्यत्‌, उतथ्य, बृहस्पति, बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास, मार्कंडेय और संवर्त बताए गए हैं और भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती (हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू) इनकी सात कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। नीलकंठ के मत से उपर्युक्त बृहत्‌कीत्यादि सब बृहस्पति के विशेषण हैं। आत्मा, आयु, ऋतु, गविष्ठ, दक्ष, दमन, प्राण, सद, सत्य तथा हविष्मान्‌ इत्यादि को अंगिरस के देवपुत्रों की संज्ञा से अभिहित किया गया है। भागवत के अनुसार रथीतर नामक किसी निस्संतान क्षत्रिय को पत्नी से इन्होंने ब्राह्मणोपम पुत्र उत्पन्न किए थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में अंगिरसकृत धर्मशास्त्र का भी उल्लेख है। अंगिरा की बनाई आंगिरसी श्रुति का महाभारत में उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद के अनेक सूक्तों के ऋषि अंगिरा हैं।


आंगिरसों का कुल : 

आंगिरसों के कुल में अनेक ऐसे ऋषि और राजा हुए जिन्होंने अपने नाम से या जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली, जैसे देवगुरु बृहस्पति, अथर्ववेद कर्ता अथर्वागिरस, महामान्यकुत्स, श्रीकृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरु घोर आंगिरस मुनि। भरताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम, वामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य (श्रीराम के नाना), पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल, आश्वलायन (शाखा प्रवर्तक), आग्निवेश (वैद्य) पैल मुनि पिल्हौरे माथुर (इन्हें वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया), गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह (मथुरावासी मुनि), श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरु, कारीरथ (विमान शिल्पी) कुसीदकि (ब्याज खाने वाले) दाक्षि (पानिणी व्याकरणकर्ता के पिता), पतंजलि (पानिणी अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु (स्वायम्भु मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि (ब्राह्मणों को भूयसि दक्षिणा बांटने की परंपरा के प्रवर्तक), महर्षि गालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति (गौरहे ठाकुरों के आदिपुरुष), तन्डी (शिव के सामने तांडव नृत्यकर्ता रुद्रगण), तैलक (तैलंग देश तथा तैलंग ब्राह्मणों के आदिपुरुष), नारायणि (नारनौल खंड बसाने वाले), स्वायम्भु मनु (ब्रह्मर्षि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदिमानव धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगलनाग (वैदिक छंदशास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री (जव्यवान) के तथा पांडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा वात्स्यायन (स्याजानी औराद दक्षिण देश के कामसूत्र कर्ता), हंडिदास (कुबेर के अनुचर ऋण वसूल करने वाले हुंडीय यक्ष हूणों के पूर्वज), बृहदुक्थ (वेदों की उक्थ भाषा के विस्तारक भाषा विज्ञानी), वादेव (जनक के राजपुरोहित), कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे), विष्णु सिद्ध (खाद्यात्र) (काटि कोठारों के सुरक्षाधिकारी), मुद्गल (मुदगर बड़ी गदा) धारी, अग्नि जिव्ह (अग्नि मंत्रों को जिव्हाग्र रखने वाले), देव जिव्ह (इन्द्र के मं‍त्रों के जिव्हाग्र धार), हंस जिव्ह (प्रजापिता ब्रह्मा के मंत्रों के जिव्हाग्र धारक), मत्स्य दग्ध (मछली भूनने वाले), मृकंडु मार्कंडेय, तित्तिरि (तीतर धर्म से याज्ञवल्क्य मुनि के वमन किए कृष्ण्यजु मंत्रों को ग्रहण करने वाले तैतरेय शाखा के ब्राह्मण), ऋक्ष जामवंत, शौंग (शुंगवन्शीतथा माथुर सैगंवार ब्राह्मण), दीर्घतमा ऋषि (दीर्घपुर डीगपुर ब्रज के बदरी वन में तप करने वाले), हविष्णु (हवसान अफ्रीका देश की हवशी प्रजाओं के आदिपुरुष), अयास्य मुनि (अयस्क लौह धातु के आविष्कर्ता), कितव (संदेशवाहक पत्र लेखक किताब पुस्तकें तैयार करने वाले देवदूत), कण्व ऋषि (ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के कणवी जाति के पुरुष) आदि हजारों का आंगिरस कुल में जन्म हुआ।

रोचक बाते

अन्य ग्रन्थों में उल्लेख अनुसार पुष्पक विमान का प्रारुप एवं निर्माण विधि अंगिरा ऋषि द्वारा एवं इसका निर्माण एवं साज-सज्जा देव-शिल्पी विश्वकर्मा द्वारा की गयी थी।

भरतवंश शिरोमणि भीष्म जी के दर्शन के लिये उस समय नारद, धौम्य, पर्वतमुनि, वेदव्यास, वृहदस्व, भारद्वाज, वशिष्ठ, त्रित, इन्द्रमद, परशुराम, गृत्समद, असित, गौतम, अत्रि, सुदर्शन, काक्षीवान्, विश्वामित्र, शुकदेव, कश्यप, अंगिरा आदि सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि अपने शिष्यों के साथ उपस्थित हुये। भीष्म पितामह ने भी उन सभी ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियों का धर्म, देश व काल के अनुसार यथेष्ठ सम्मान किया। 

अंगिरा ने शाक द्विप, कौंच द्विप तथा कुरु द्विप अथात् युरोप एवं अफ्रीका महाद्विप को जीत कर अनेक नगर व त्र बसाये, टरकी का अंकारा, रुस का अंकारा प्रदेश, घाना का अंकारा तथा अंगोला प्रांत आदि पुरातन नाम उस अंगिरा की स्मृति को आज भी संजोये हुये हैं। इन प्रतापी वीर अंगिरा ने ही समस्त संसार को जीत कर राजराजेश्वर इन्द्र की पदवी धारण कर अत्याचारियों से प्रजा की रकसा की। अथर्ववेद काण्ड 19 सूक्त 34 व 35 में अनेक मन्त्रों में इस अंगिरा की खूब प्रशंसा की है।

अथर्ववेद के 19 मे कांड सूक्त 34 मंत्र 1 मे लिखा है "अंगिराअसी जांगिड अर्थात अंगिरा जाति का दूसरा नाम जांगिड है। हम उसी ऋषि की सन्तान (वंश) होने के कारण ब्राह्मण है। अंगिरा ऋषि ही नही ब्राह्माऋषि थे इसलिये उच्च ब्राह्मण कुल के है।

अंगिराऽसि जांगिड़ इस का अर्थ है अंगिरा तू ही जांगिड़ है। वेद भी इसको प्रमाणित करता है। अथर्ववेद में स्पष्ट लिखा हैः

अंगिराअसि जांगिडः रक्षितासि जांगिड। द्वि पाच्चतुष्पादस्माकं सर्व रक्षतु जांगिडः 

इसका अर्थ है हे जांगिड़ तू ही अंगिरा है। तू जांगिड़ होकर ही प्राणिमात्र या प्रजा का रक्षक है। जांगिड़ ही हमारे दोपाये तथा चोपाये सब की रक्षा करे।

अंगिरा ने अपने विजय के आधार पर राजराजेश्वर इन्द्र का सम्मान प्राप्त किया। अत्याचारियों का दमन कर प्रजा की रक्षा करने वाले इस संत एंव वीरवर ऋषि की अथर्ववेद काण्ड 19 सूक्त 34-35 के अनेक मन्त्रों मे अधिक प्रशंसा हुई।

इन्द्र्स्य नाम ग्रहणन्तृषियों जंगिड दद:। 

देवा यं चकुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदषणम॥

अर्थात: जब अंगिरा ने शाक द्वीप कुश द्वीप को विजित कर लिया तो ऋषियों ने अंगिरा को इन्द्र की उपाधि प्रदान कर उन्हे प्रजाहित मे शत्रुनाशक जंगिड कहा, अर्थात दुर्घर्ष सेनानायक का कार्य प्रतिपादित करने के कारण जंगविजयी के पेअतीक के स्वरुप उन्हे जंगिड कह कर सम्मानित किया।

सायणा भाष्य के अनुसार देवों ने अंगिरा को तीन बार उत्पन्न किया। इस नाम के तीन महर्षि प्रचीन काल मे हो गये है पुरातन काल मे ब्राह्मण ऋषि इस जंगिड ऋषि को अंगिरा नाम से जानते थे। 

सायणाचार्य ने अंगिरा ऋषि को ही जंगिड ऋषि माना है। वेद स्वत: यह सिद्ध करते है |

ऎतरेय 3.34 मे उक्त कथन की सत्यता को प्रकट करने के लिये इस प्रकार कहा है-

"तंतादृशं प्रयत्नेन उत्पादित त्वा त्वाम अंगिरा इति"

इस तरह सब मिलकर चाहे वेद या ब्राह्मण ग्रन्थ अथवा प्राचीन भाष्यकारों और पाश्चात्य यूरोपियन समीक्षक ही क्यों न हो सभी ने एक मत से यही स्वीकार किया है कि अंगिरा ऋषि का ही दूसरा प्रमाणित नाम जांगिड है।

संकलनकर्ता - मयूर मिस्त्री 

विश्वकर्मा साहित्य भारत 

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