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Showing posts from August, 2021

विश्वकर्मा दर्पण

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विश्वकर्मा दर्पण  आदिकाल में भगवान विश्कर्मा ने अपनी निजी शक्ति का द्वारा वैज्ञानिक वरदान देकर मानव को जीवन कला सिखाई थी । आज मानव भगवान विश्वकर्मा के बताये हुये मार्ग से भटक गया है । भौतिकवाद के इस युग में भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना व भक्ति करना नितान्त आवश्यक इसलिए है कि विज्ञान के युग में दुर्घटना व मानसिक अशान्ति से मुक्ति प्राप्त केवल मात्र भगवान विश्कर्मा की शरण में जाने से ही सम्भव है । मस्तिष व मशीन का तादात्मय रहने से ही भौतिक व आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है, इसलिये दोनों तत्वों की संचालन शक्ति भगवान विश्वकर्मा के आधीन है । स्वचलित परमाणु सयंत्र विमान व अन्य मोटर गाडी व रेलों की दुर्घटना का कारण एक ही है कि मानव सूर्य आदि सौर नक्षत्रों की गति नियमित व संचालित करने वाली समस्त ब्रह्माण्ड पर नियंत्रित रखने वाली अजस्त्र शक्ति भगवान विश्वकर्मा से विमुख होकर अपने द्वारा गढे हुए बहु भगवानो की पूजा व अन्य विश्वास के जाल में जकडकर रह गया है, तथा भौतिकवाद की छाया का शिकार हो गया है । अतः मानव के भौतिक व आध्यात्मिक सुख साधन व विकास के लिये प्रजापति विश्व ब्रह्माण्ड के निय

भगवान श्री विश्वकर्मा जी की कथा

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भगवान श्री विश्वकर्मा जी की कथा पहला अध्याय एक समय अनेक ऋषिगण धर्मक्षेत्र में एकत्र हुए और वहां धर्म के तत्व जानने वाले सूत जी से ऋषि कहने लगें - हे पुराण के मर्मज्ञ, महात्मने, आप हमारे ऊपर अत्यंत कृपा करके हमारे इस अचानक उत्पन्न हुए सशंय का नाश किजीए। हमने सर्व व्यापक विष्णु के अनेक रूप सुने है, उनमे से कौन सा रूप सर्वश्रेष्ठ है, यह हमे बताइयें। हे महात्मा, मुनियो, तुमने संसार के कल्याण के लिए यह सर्व शुभ काम करने वाला बडां प्रश्न किया है, जो तुमने यह संसार के हित के लिए प्रश्न किया है, अतएव मै तुम्हारे लिए सब जगत् पालक परम पूज्य भगवान विष्णु के महाअद्भुत रूप का वर्णन करूगां। हे तपस्वियो, उस परमात्मा के अनन्त रूप है, उनमे जो अनन्तं श्रेष्ठ है, उस रूप को अदंर से सुनो। उस दिव्य रूप के स्मरणमात्र से महापातकी मनुष्य भी पाप से छुट जाते है, इसमे सशंय नही है। इस ही प्रश्न को संसार के कल्याण के लिए क्षीरसमुद्रं में लक्ष्मी न् भगवान विष्णु से एक बार पूछा था । लक्ष्मी कहने लगी - हे जगन्नाथ। आपके महान् अनेक रूपो को भक्तमनुष्य भक्तियुक्त होकर पृथ्वी पर पूजते रहते है। हे प्रिय। क्या वे रूप सब समान

विश्वकर्मा कुलोत्पन्न आध्याय संत राजश्री भोजलिंग काका

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वारकरी संप्रदाय वर्धिष्णु, आद्यसंत  श्री भोजलिंग काका सुथार  सदा समर्पण की भावना का जीवन  मैंने जीने के लिए यही किया है.... एक संत एक मानव "आत्म, सत्य, वास्तविकता" के अपने या अपने ज्ञान के लिए और एक "सच-आदर्श" के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। संतों की परिभाषा को समझना बहुत ही मुश्किल है। साथ ही उनमे ईश्वर की भावनाएं होती हैं, उनके भीतर ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो। किसी भी संत के दो चरित्र होते हैं धार्मिक और सामाजिक। धार्मिक चरित्र में उस संत की कविता और उनकी कहानियाँ, आध्यात्मिकता और चमत्कार शामिल हैं। जाहिर है यह लोकप्रिय है। लोगों के मन में वही पगड़ी है। लेकिन संतों की आध्यात्मिकता आसमान से नहीं गिरती। मेरा मतलब है, भले ही उनके भक्त ऐसा सोचते हों, ऐसा नहीं है। आखिरकार, किसी भी धर्म की जड़ें, धर्म की अवधारणा भौतिक स्थित

विश्वकर्मा वंशज शाखा - उपशाखा

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विश्वकर्मा वंशज-शाखा - उपशाखा   वर्तमान काल में महर्षी विश्वकर्मा वंशिय पाँचाल पौरुषेय ब्राह्मणौं के भि आर्षेय ब्राह्मणौं कि भाँती भारत में अनेकानेक उपशाखाओं के पदवी उपाधिमेद मे से 30 प्रमुख नाम निम्नवत् है । जो विन्ध्याचल से " उत्तर पंच धिमान् " एवं विन्ध्याचल से " दक्षिण पंच आचार्य जन्य है ।  (1) धिमान (2) जाँगिड (3) पाँचाल (4) आचार्य (5) ककुहास (6) उपाध्याय, ओझा, झा (7) मैथिल (8) त्रीवेदी (9) रामगढिया (10) मथुरिया (11) रावत, सोनि (12) कान्यकुब्ज (13) विश्व ब्राह्मण (14) मालविय (15) गौड, अथर्वण (16) जगद्गुरु (17) देवकमलार (18) मागध, दैवज्ञ (१९) राना, महाराना (20) कंसाली, शिल्पी (21) नवन्दन, पंचालर (22) पिप्पला (२३) विश्वकर्मा (24) सत्पथ ब्राह्मण (25) सरवरिया (26) लोष्टा,लाहोरी (27) टाँक ( तक्षा ) (28) तरन्च (29) माहुलिया (30) सुत्रधार  ।  ईनके अतिरिक्त - मूल स्थान वाचक, गोत्र वाचक , कर्म वाचक , शिल्प वाचक, उत्पत्ती वाचक लगभग डेढ सौं ( 150) उपनाम -आस्पद , आज पाँचौं कुलौं के भारत में ब्यहुत है । जबकी 8 या 10 गोत्रौं से विस्तार उपरान्त , पाँचाल ब्राह्मणौं के भ

वैदिक यज्ञ वेदी और शिल्प विद्या

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वैदिक यज्ञ वेदी और शिल्प विद्या विश्वकर्मिय शिल्प कला एक बहुत ही बड़ा विषय है। स्थापत्य निर्माण क्रिया तकनीक विज्ञान और मन्त्रों से आभूषित है शिल्प विद्या। शिल्प विद्या को स्थाप्त्य विद्या भी कहते हैं। इसका प्रयोग विज्ञान, तकनीक और नित्य् काम आने वाले साधनों में होता है। शिल्प विद्या के द्वारा ही सुन्दर किले, मुर्तियाँ, सेतु, वाद्य यंत्र, आभूषण और अध्ययन सामग्री, नित्य कार्य के साधन, खिलौने, यातायात और संचार के साधन निर्मित होते है। इस प्रकार हम देखते है कि शिल्प विद्या हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। इस विज्ञान के बारे में वेदों और वैदिक वाङ्मय में विस्तार से अनेकों निर्देश और उपदेश सङ्कलित है। इस शिल्प विद्या का मूल वेद ही है, वेदों में अनेकों मन्त्रों द्वारा शिल्प विद्या का उपदेश किया है। शिल्प वैश्वदेव्यो रोहिण्यत्र्यवयो वाचेsविज्ञाताsअदित्यै सरूपा धात्रे वत्सतर्यो देवानां पत्नीभ्य  (यजु. 24.5)  इसके भावार्थ में स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि वे विद्वान शिल्प विद्या से अनेकों यानादि बनाएं । वेदों से पृथक् व्याकरण, ज्योतिष, कल्प और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी शिल्प और श

सामाजिक कार्यकर्ता का अस्तित्व

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सामाजिक कार्यकर्ता का अस्तित्व  एक आदमी था, जो हमेशा अपने समाज में सक्रिय रहता था  उसको सभी जानते थे बड़ा मान सम्मान मिलता था, अचानक किसी कारण वश वह निश्क्रिय रहने लगा , मिलना - जुलना बंद कर दिया ,और समाज से दूर हो गया। कुछ सप्ताह पश्चात् एक बहुत ही ठंडी रात में उस समाज के मुखिया ने उससे मिलने का फैसला किया । मुखिया उस आदमी के घर गया और पाया कि आदमी घर पर अकेला ही था। एक बोरसी में जलती हुई लकड़ियों की लौ के सामने बैठा आराम से आग ताप रहा था। उस आदमी ने आगंतुक मुखिया का बड़ी खामोशी से स्वागत किया। दोनों चुपचाप बैठे रहे। केवल आग की लपटों को ऊपर तक उठते हुए ही देखते रहे। कुछ देर के बाद मुखिया ने बिना कुछ बोले, उन अंगारों में से एक लकड़ी जिसमें लौ उठ रही थी (जल रही थी) उसे उठाकर किनारे पर रख दिया। और फिर से शांत बैठ गया। मेजबान हर चीज़ पर ध्यान दे रहा था। लंबे समय से अकेला होने के कारण मन ही मन आनंदित भी हो रहा था कि वह आज अपने समाज के मुखिया के साथ है। लेकिन उसने देखा कि अलग की हुए लकड़ी की आग की लौ धीरे धीरे कम हो रही है। कुछ देर में आग बिल्कुल बुझ गई। उसमें कोई ताप नहीं बचा।

मंत्रमुग्ध द्वारिका

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मंत्रमुग्ध द्वारिका  भगवान श्रीकृष्ण की नगरी द्वारिका को कौन नहीं जानता है। हमारे सनातन धर्म में सबके मुख मंडल पर इनका नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। ऐसे भगवान श्रीकृष्ण का सबसे बड़ा जीवन काल द्वारिका में व्यतित हुआ था। द्वारिका के वर्णन के लिए अनेक पन्ने शायद कम पड़ जाएंगे। ऐसे चक्रधारी गदाधारी श्रीकृष्ण का नगर द्वारिका जो शिल्प श्रेष्ठ भगवान देवशिल्पी विश्वकर्मा ने स्वयं ही निर्माण किया था। द्वापर युग की सबसे अलौकिक और मनमोहक नगरी द्वारिका का निर्माण चारो लोको मे प्रशंसनीय हुयी थी। इस निर्माण में भगवान देवशिल्पी विश्वकर्माजी का अतुलनीय शिल्पकार्य, नक्काशी, योजना बद्ध नगर, अनेक सुवर्ण जड़ित महलों, अनेक बाग बगीचा, रत्न महल, और अनेक बड़े निर्माण इस नगर की शोभा थे। यह सृष्टिकर्ता विश्वकर्मा जी की देन थी। मुरली मनोहर श्रीकृष्ण को संकट के समय पर अतिविशिष्ट रचना कर भगवान देवशिल्पी विश्वकर्माजी ने उनको नगर प्रदान किया था।  भारतवर्ष की सात मोक्षदायिका पुरियों में से द्वारावती एक है जो द्वारका के रूप में विख्यात है। विविध पुराणों में द्वारकापुरी को कुशस्थली, गोमती द्वारका,