विश्वकर्मा और हनुमान

विश्वकर्मा और हनुमान 
प्रभु श्रीराम की भक्ति की सबसे लोकप्रिय पवित्र छवि और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ती में प्रधान हैं। कुछ ग्रंथो के अनुसार भगवान शिवजी के ११वें रुद्रावतार, सबसे बलवान और बुद्धिमान माने जाते हैं। रामायण के अनुसार वे जानकी के अत्यधिक प्रिय हैं। इस धरा पर जिन सात मनीषियों को अमरत्व का वरदान प्राप्त है, उनमें बजरंगबली भी हैं। हनुमान जी का अवतार भगवान राम की सहायता के लिये हुआ। हनुमान जी के पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार हनुमान "मारुति" अर्थात "मारुत-नंदन" (पवन पुत्र) हैं।

जम्बूद्वीप के वर्ष मेरु पर्वत के दक्षिण में पहला भारतवर्ष, दूसरा किम्पुरुषवर्ष तथा तीसरा हरिवर्ष है। इसके दक्षिण में रम्यकवर्ष, हिरण्यमयवर्ष और तीसरा उत्तरकुरुवर्ष है। इसमे जो किम्पुरुषवर्ष हे उनके आधिपत्य स्वामी श्री हनुमान जी हैं। वहाँ पर भगवान श्रीरामचन्द्र जी की पूजा होती है।

हनुमानजी का वाहन :
'हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र' के 72वें श्‍लोक में उन्हें 'वायुवाहन:' कहा गया। मतलब यह कि उनका वाहन वायु है। वे वायु पर सवार होकर ‍अति प्रबल वेग से एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करते हैं। हनुमान जी ने एक बार श्रीराम और लक्ष्‍मण को अपने कंधे पर बैठाकर उड़ान भरा था। उसके बाद एक बार हनुमान जी ने बात-बात में द्रोणाचल पर्वत को उखाड़कर लंका ले गए और उसी रात को यथास्थान रख आए थे। यह भी कहा जाता है कि वे भूतों की सवारी भी करते है।

खड्गं त्रिशूलं खट्वाङ्गं पाशाङ्कुशसुपर्वतम् ।
मुष्टिद्रुमगदाभिन्दिपालज्ञानेन संयुतम् ॥ ८॥
एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ।
प्रेतासनोपविष्टं तु सर्वाभरणभूषितम् ॥ ९॥

विश्वकर्माजी द्वारा हनुमानजी को वरदान और आयुध
हनुमान जी को स्वनिर्मित महा शस्त्रास्त्रो से अवध्य तथा चिरंजीवी होने का वरदान विश्वकर्मा जी ने दिया जो आठ देव वरदानो मे सबसे महत्वपूर्ण वरदान था। 
(वाल्मीकि रामायण ७/३६/१९-२०)
किष्किन्धापुरी की रचना विश्वकर्मा जी के द्वारा हुयी है। जहा पर महाबली बाली, सुग्रीव, हनुमान जी, और आदि रहते थे। 
(अध्यात्म रामायण उत्तर कांड सर्ग ३/श्लोक १८)
कपि (हनुमान) ध्वज रथ का निर्माण
(महाभारत आदिपर्व २२४/१२-१३)
जो वरुण देव से अग्निदेव द्वारा अर्जुन को प्राप्त हुई। जिनके सारथी श्री कृष्ण रहे और महाभारत युध्द मे इसी पर आरूढ़ होकर अर्जुन ने विजय संग्राम किया।
(महाभारत उद्योगपर्व ५६/१०-१३)
हनुमानजी द्वारा लंका दहन बाद मय विश्वकर्मा ने स्वयं ही पुनः लंका का निर्माण किया था।
(वाल्मीकि रामायण लंका एवं उत्तरकांड)

 हनुमानजी के अस्त्र और शस्त्र
हनुमानजी के अस्त्र-शस्त्रों में पहला स्थान उनकी गदा का है। कुबेर ने गदाघात से अप्रभावित होने का वर दिया है। हनुमान जी वज्रांग हैं. यम ने उन्हें अपने दंड से अभयदान दिया है। भगवान शंकर ने हनुमानजी को शूल एवं पाशुपत, त्रिशूल आदि अस्त्रों से अभय होने का वरदान दिया था। अस्त्र-शस्त्र के कर्ता विश्‍वकर्मा ने हनुमान जी को समस्त आयुधों से अवध्‍य होने का वरदान दिया है। उनके संपूर्ण अंग-प्रत्यंग, रद, मुष्ठि, नख, पूंछ, गदा एवं गिरि, पादप आदि प्रभु के अमंगलों का नाश करने के लिए एक दिव्यास्त्र के समान है।
 
1.खड्ग, 2.त्रिशूल, 3.खट्वांग, 4.पाश, 5.पर्वत, 6.अंकुश, 7.स्तम्भ, 8.मुष्टि, 9.गदा और 10.वृक्ष 

भगवान श्रीराम
भगवान हनुमान को तीन युग तक रहने का भगवान श्रीराम ने आशीर्वाद दिया था। भगवान हनुमान का पहला युग त्रेतायुग था और उन्हें कलयुग के अंत तक रहना है। यही कारण है कि उन्हें कलयुग का जागृत देवता माना गया है। हनुमान जी को संकटमोचन कहा गया है, 

सूर्य देव 
सूर्य देव ने भगवान हनुमान को अपने तेज का सौवां अंश दिया था। इस वरदान को प्राप्त करने के बाद हनुमान जी के सामने को अन्य वक्ता नहीं टिक सकता था। वरदान देते हुए कहा बजरंगबली से कहा था कि किसी को भी शास्‍त्रों का ज्ञान हनुमान जी के समान नहीं होगा। शास्त्र ज्ञान में बजरंगबली ही अव्वल होंगे।

धर्मराज यम
धर्मराज यम ने भी भगवान हनुमान को एक वरदान दिया जिसमें कहा गया था कि हनुमान जी को कभी भी यम का शिकार नहीं होना पड़ेगा। यमराज ने भी बजरंगबली को वरदान दिया है और ये वरदान था कि वह उनके दंड से हमेशा बचे रहेंगे। यमराज का वरदान शायद ही किसी देवता को मिला हो, लेकिन बजरंबली को वरदान मिल गया।

कुबेर
कुबेर द्वारा भगवान हनुमान को कभी भी किसी युद्ध में परास्त नहीं किया जा सकता है उन्होने हनुमान को ऐसा वरदान दिया था। कुबेर ने हनुमान जी को गदा अस्त्र प्रदान किया था। उन्होंने हनुमान जी को कभी न हारने का वरदान दिया है। यानी हनुमान जी से कोई जीत नहीं सकता।

भगवान शंकर
भगवान शंकर ने अपने अंशावतार को किसी भी अस्त्र से न मरने का वरदान दिया था। भगवान शंकर ने हनुमान जी को बहुत ही खास आशीर्वाद दिया। हनुमान जी को शिव जी ने आशीर्वाद दिया कि उनपर उनके अस्त्र या शस्‍त्रों का असर नहीं होगा।

विश्वकर्मा प्रभु 
देव शिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने भी हनुमानजी को वरदान दिया था कि उनके द्वारा बनाए जितने भी शस्त्र हैं उन पर उसका कोई असर नहीं होगा। सदा चिरंजीवी होने का वरदान दिया था। 

वरुण देव
जलदेवता वरुण ने हनुमान जी को आशीर्वाद दिया था कि जल कभी उनके मार्ग में बाधक नहीं होगा और वह उनकी शक्तियों के आगे कुछ नहीं कर सकेगा। यही कारण था हनुमान जी के समक्ष समुद्र की बड़ी से बड़ी लहरे भी शांत हो गई थीं। कहा जाता है कि वरुण देव ने भगवान हनुमान को एक महत्वपूर्ण वरदान दिया था जिसमें दस लाख वर्ष की आयु हो जाने पर भी जल से मृत्यु नहीं हो सकेगी।

ब्रह्मा 
हनुमानजी को ब्रह्माजी ने दीर्घायु होने का वरदान दिया था। हनुमान जी अपनी इच्छानुसार कोई भी रूप धारण कर कहीं भी जा सकते हैं। ब्रह्मदेव जी ने बजरंगबली को वरदान दिया था कि ब्रह्म कें दंडों से हनुमान जी से सदैव दूर रहेंगे। इस पर बजरंगबली का अपनी इच्छा से नियंत्रण होगा।
 
इंद्र 
इंद्र के प्रहार से बजरंगबली का नाम हनुमान पड़ा था। इंद्र और हनुमान जी से युद्ध के बाद इंद्र ने हनुमानजी को यह वरदान किया था कि उनके व्रज से हनुमानजी पर भविष्य में कोई असर नहीं पड़ेगा। देवराज इंद्र ने दिया था कि हनुमान जी अपने वज्र के असर से मुक्त किया था। उन्होंने कहा था कि उनके वज्र से हनुमत हमेशा मुक्त होंगे।
हनुमान जी की गदा
हनुमानजी का बायां हाथ गदा से युक्त कहा गया है। 'वामहस्तगदायुक्तम्'. श्री लक्ष्‍मण और रावण के बीच युद्ध में हनुमान जी ने रावण के साथ युद्ध में गदा का प्रयोग किया था। उन्होंने गदा के प्रहार से ही रावण के रथ को खंडित किया था। स्कंदपुराण में हनुमानजी को वज्रायुध धारण करने वाला कहकर उनको नमस्कार किया गया है। उनके हाथ में वज्र सदा विराजमान रहता है। अशोक वाटिका में हनुमानजी ने राक्षसों के संहार के लिए वृक्ष की डाली का उपयोग किया था। हनुमानजी का एक अस्त्र उनकी पूंछ भी है। अपनी मुष्टिप्रहार से उन्होंने कई दुष्‍टों का संहार किया है।

''यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥''

अर्थात : कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं। सीताजी के वचनों के अनुसार- 'अजर-अमर गुन निधि सुत होऊ।। करहु बहुत रघुनायक छोऊ।।'

विश्वकर्मा जी से हनुमान जी का संबंध 
महाबीर हनुमान केशरी के क्षेत्रज तथा वायुदेव अनिल के औरस पुत्र हे।
(वाल्मीकि रामायण ४/६६/२९-३०)
शिव पुत्र होने से विश्वरूप विश्वकर्मा के समधी पुत्र हुए। पवन (अनिल) पुत्र होने से चाचा जात छोटे भाई हुए। केशरी बृहस्पति के पुत्र हैं बृहस्पति विश्वकर्मा जी के मामा हे। 
(वाल्मीकि रामायण ४/६६/८-९)
(वाल्मीकि रामायण ४/६६/२९-३०)
(वाल्मीकि रामायण ६/३०/२१)
(वाल्मीकि रामायण ७/३५/१९-२०)
बृहस्पति के पुत्र तथा विश्वकर्मा के ममेरे भाई केशरी के अंजना नामक धर्मपत्नी से महाबीर हनुमान हुए।
(वाल्मीकि रामायण २/१००/१४)
साथ ही अष्टम वसु अनिल (वायु) के अंश से भीम उत्पन्न हुए। अनिल विश्वकर्मा जी के सगे चाचा हे। भीम और हनुमान आपस में विश्वकर्मा जी के चचेरे भाई भी हुए।
(महाभारत १/६३/११६)

ब्रह्मांडपुराण में हनुमान जी के पिता केसरी ने कुंजर की पुत्री अंजना को पत्नी के रूप में स्वीकार किया है। और उनके पुत्रों के बारे में बताया गया है. इसमें वानर राज केसरी के कुल 6 पुत्र बताए गए हैं और अपने भाइयों में बजरंगबली को ज्‍येष्‍ठ बताया गया है। अपने भाइयों में बजरंगबली को ज्‍येष्‍ठ बताया गया है। केसरीनंदन के पांच भाइयों के नाम इस तरह हैं- मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान और धृतिमान. 

ज्येष्ठस्तु हनुमांस्तेषां मतिमांस्तु ततः स्मृतः ।

श्रुतिमान् केतुमांश्चैव गतिमान् धृतिमानपि ॥

इन सभी की संतानों का उल्‍लेख भी इस ग्रंथ में क‍िया गया है. महाभारत काल में पांडु पुत्र व बलशाली भीम को भी हनुमान जी का ही भ्राता कहा गया है. 

 मकरध्वज था हनुमानजी का पुत्र :
अहिरावण के सेवक मकरध्वज थे। मकरध्वज को अहिरावण ने पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया था।
पवनपुत्र हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे। वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनके पुत्र की कथा हनुमानजी के लंकादहन से जुड़ी है।हनुमानजी की ही तरह मकरध्वज भी वीर, प्रतापी, पराक्रमी और महाबली थे। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण को मुक्त कराया और मकरध्वज को पाताल लोक का अधिपति नियुक्त करते हुए उसे धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी थी।

गुजरात के द्वारिका में समुद्री द्वीप जो बेट द्वारिका से जानी जाती है वहां भारत का एकमात्र मंदिर जहा हनुमान जी और उनके पुत्र मकरध्वज विराजित हैं मंदिर का पटांगण बहुत विशाल है वहां हनुमान जयंती पर विशाल मेला भजन कीर्तन सुंदरकांड का पाठ किया जाता है। 

 हनुमान विवाह
आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में एक मंदिर ऐसा विद्यमान है, जो प्रमाण है हनुमानजी के विवाह का। इस मंदिर में हनुमानजी की प्रतिमा के साथ उनकी पत्नी की प्रतिमा भी विराजमान है। इस मंदिर के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। माना जाता है कि हनुमानजी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद पति-पत्नी के बीच चल रहे सारे विवाद समाप्त हो जाते हैं। उनके दर्शन के बाद जो भी विवाद की शुरुआत करता है, उसका बुरा होता है।

हनुमानजी की पत्नी का नाम सुवर्चला था। वैसे तो हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और आज भी वे ब्रह्मचर्य के व्रत में ही हैं, विवाह करने का मतलब यह नहीं कि वे ब्रह्मचारी नहीं रहे। कहा जाता है कि पराशर संहिता में हनुमानजी का किसी खास परिस्थिति में विवाह होने का जिक्र है। कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा।

इस संबंध में एक कथा है कि हनुमानजी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था। हनुमानजी भगवान सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमानजी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ-साथ उड़ना पड़ता था और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमानजी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।कुल 9 तरह की विद्याओं में से हनुमानजी को उनके गुरु ने 5 तरह की विद्याएं तो सिखा दीं, लेकिन बची 4 तरह की विद्याएं और ज्ञान ऐसे थे, जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे। हनुमानजी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वे मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वे धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखा सकते थे। ऐसी स्थिति में सूर्यदेव ने हनुमानजी को विवाह की सलाह दी। अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमानजी ने विवाह करने की सोची। लेकिन हनुमानजी के लिए वधू कौन हो और कहां से वह मिलेगी? इसे लेकर सभी सोच में पड़ गए। ऐसे में सूर्यदेव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमानजी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया।शास्त्रों में शनि महाराज को सूर्य का पुत्र बताया गया है। इस नाते हनुमान जी की पत्नी सुवर्चला शनि महाराज की बहन हुई। और सबके संकट दूर करने वाले हनुमान जी भाग्य के देवता शनि महाराज के बहनोई हुए।
 इसके बाद हनुमानजी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई। इस तरह हनुमानजी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो, लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।

अर्जुन के रथ पर हनुमान ध्वज
महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ पर हनुमान जी के विराजित होने के पीछे भी कारण है। इसका वर्णन आनंद रामायण में किया गया है। वर्णन के अनुसार एक बार रामेश्वरम् तीर्थ में अर्जुन और हनुमानजी जी का मिलना होता है। इस दौरान अर्जुन ने हनुमान जी से लंका युद्ध का जिक्र किया और पूछा कि जब श्री राम श्रेष्ठ धनुषधारी थे तो फिर उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए पत्थरों का सेतु क्यों बनवाया? यदि मैं होता तो समुद्र पर बाणों का सेतु बना देता, जिस पर चढ़कर आपका पूरा वानर दल समुद्र पार कर लेता।

यह सुनकर हनुमानजी से कहा कि बाणों का सेतु वहां टिक नहीं पाता, वानर दल का जरा सा भी बोझ पड़ते सेतु टूट जाता। इस पर अर्जुन कुछ बुरा लगा और उन्होंने कहा हनुमान जी से एक अजीब सी शर्त रख दी। अर्जुन ने कहा कि सामने एक सरोवर पर वह अपने बाणों से सेतु बनाएगा, अगर वह आपके वजन से टूट गया तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाउंगा और यदि नहीं टूटता है तो आपको (हनुमान जी को) अग्नि में प्रवेश करना होगा।
हनुमानजी ने इसे सहर्ष ही स्वीकार कर लिया और कहा कि मेरे दो चरण ही इस सेतु ने झेल लिए तो मैं पराजय स्वीकार कर लूंगा और अग्नि में प्रवेश कर जाउंगा। इसके बाद अर्जुन ने अपने प्रचंड बाणों से सरोवर पर सेतु तैयार कर दिया। जैसे ही सेतु तैयार हुआ हनुमान जी अपने विराट रूप में आ गए और भगवान श्री राम का स्मरण करते हुए उस बाणों के सेतु पर चढ़ गए। पहला पग रखते ही सेतु सारा का सारा डगमगाने लगा, दूसरा पैर रखते ही चरमराया और तीसरा पैर रखते ही सरोवर के जल में खून ही खून हो गया।

हनुमानजी सेतु से नीचे उतर आए और अर्जुन से कहा कि मैं पराजित हो गया अग्नि तैयार करो। अग्नि प्रज्‍वलित हुई तो हनुमान जी उसमें जाने लगे लेकिन उसी पल भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए और उन्हें रोक दिया। भगवान ने कहा- हे हनुमान, आपका तीसरा पग सेतु पर पड़ा, उस समय मैं कछुआ बनकर सेतु के नीचे लेटा हुआ था, आपके पैर रखते ही मेरे कछुआ रूप से रक्त निकल गया। यह सेतु टूट तो पहले ही पग में जाता यदि में कछुआ रूप में नहीं होता तो।

यह सुनकर हनुमान को काफी कष्‍ट हुआ और उन्होंने क्षमा मांगी। मैं तो बड़ा अपराधी निकला आपकी पीठ पर मैंने पैर रख दिया। मेरा ये अपराध कैसे दूर होगा भगवन्? तब कृष्ण ने कहा, ये सब मेरी इच्छा से हुआ है। आप मन खिन्न मत करो और मेरी इच्‍छा है कि तुम अर्जुन के रथ की ध्वजा पर स्थान ग्रहण करो। इसलिए द्वापर में श्रीहनुमान महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के ऊपर ध्वजा लिए बैठे रहते हैं।

हनुमानजी की उड़ने की गति
पवनपुत्र हनुमानजी की उड़ने की गति कितनी रही होगी उसका अंदाजा आप लगा सकते हैं की रात्रि को 9:00 बजे से लेकर 12:00 बजे तक लक्ष्मण जी एवं मेघनाद का युद्ध हुआ था। मेघनाद द्वारा चलाए गए बाण से लक्ष्मण जी को शक्ति लगी थी लगभग रात को 12:00 बजे के करीब और वो मूर्छित हो गए थे। रामजी को लक्ष्मण जी मूर्छा की जानकारी मिलना फिर दुखी होने के बाद चर्चा के उपरांत हनुमान जी और विभीषण के कहने से सुषेण वैद्य को लंका से लेकर आए होंगे 1 घंटे में अर्थात 1:00 बजे के करीबन।

सुषेण वैद्य ने जांच करके बताया होगा कि हिमालय के पास द्रोणागिरी पर्वत पर यह चार औषधियां मिलेगी जिन्हें उन्हें सूर्योदय से पूर्व 5:00 बजे से पहले लेकर आना था ।इसके लिए रात्रि को 1:30 बजे हनुमान जी हिमालय के लिए रवाना हुए होंगे।

हनुमानजी को ढाई हजार किलोमीटर दूर हिमालय के द्रोणगिरि पर्वत से उस औषधि को लेकर आने के लिए  3:30 घंटे का समय मिला था। इसमें भी उनका आधे घंटे का समय औषधि खोजने में लगा होगा ।आधे घंटे का समय कालनेमि नामक राक्षस ने जो उनको भ्रमित किया उसमें लगा होगा एवं आधे घंटे का समय भरत जी के द्वारा उनको नीचे गिराने में तथा वापस भेजने देने में लगा होगा। अर्थात आने जाने के लिये मात्र दो घण्टे का समय मिला था।

मात्र  दो  घंटे में हनुमान जी द्रोणगिरी पर्वत हिमालय पर जाकर वापस 5000 किलोमीटर की यात्रा करके आये थे, अर्थात उनकी गति ढाई हजार किलोमीटर प्रति घंटा रही होगी।

आज का नवीनतम मिराज वायुयान  की गति 2400 किलोमीटर प्रति घंटा है ,तो हनुमान जी महाराज उससे भी तीव्र गति से जाकर मार्ग के तीन-तीन अवरोधों को दूर करके वापस सूर्योदय से पहले आए ।यह उनकी विलक्षण शक्तियों के कारण संभव हुआ था। ऊपर दर्शाई गई गिनती सिर्फ तार्किक और संयोग आधारित है। 

 हनुमान जी के मंत्र
।। ॐ हनुः हनुमन्तये नमः ।।
।। ॐ हनुमन्नंजनी सुनो वायुपुत्र महाबल: । अकस्मादागतोत्पांत नाशयाशु नमोस्तुते ।।
।। ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट् ।।
।। ॐ महाबलाय वीराय चिरंजिवीन उद्दते । हारिणे वज्र देहाय चोलंग्घितमहाव्यये ।।
।। ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा ।।
।। ॐ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा ।।

लेखक और संकलनकर्ता
मयूर मिस्त्री मोड़ासा गुजरात
प्रचारक - संस्थापक 
विश्वकर्मा साहित्य भारत 

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