विश्वकर्मा मंदिर एक सामाजिक धरोहर

विश्वकर्मा मंदिर एक सामाजिक धरोहर

भारतीय संस्कृति के हिसाब से देखा जाए तो कोई भी समाज के एकता का स्थल मंदिर होता है हम इसी विषय पर कुछ बाते यह लेख के अनुसार बताना चाहते हैं। 

विश्वकर्मा समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कोई भी प्रकार के कार्यक्रम ज्यादातर मंदिरो मे ही रखे जाते हैं वह इसीलिए की हम प्रभु विश्वकर्मा जी के सानिध्य मे हर सम्भव नए सामाजिक कार्य उनके आशिर्वाद से अच्छे कर सके। आराधना और पूजा-अर्चना के लिए निश्चित की हुई जगह या देवस्थान ही मंदिर है। जहां अपने सम्प्रदाय, धर्म या विश्वकमिॅय परंपराएं विशेष में आस्था रखने वाले शिष्य आचार्य या धर्मगुरु अपने समाज के संरक्षण और संवर्द्धन के उद्देश्य से धर्म ग्रन्थों पर विचार विमर्श करते हैं या उनकी व्याख्या करते हैं जिससे विश्वकर्मा समाज के मानने वालों का हित हो और उन्हें पता चल सके कि उनके समाज की संस्कृति क्या है। 

विश्वकर्मा मन्दिरों के निर्माण का उत्तरोत्तर विकास दृष्टिगोचर होता है। पहले लकड़ी के मन्दिर बनाते थे या बनते होंगे लेकिन जल्दी ही भारत के अनेक स्थानों पर पत्थर और ईंटो से मन्दिर बनने लगे। 7वीं शताब्दि तक देश के आर्य संस्कृति वाले भागों में पत्थरों से मंदिरों का निर्माण होना पाया गया है। चौथी से छठी शताब्दी में गुप्तकाल में मन्दिरों का निर्माण बहुत द्रुत गति से हुआ। 

आज विश्वकर्मा साहित्य भारत के द्वारा भारत और विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से विश्वकर्मा मंदिर चित्र शृंखला तैयार की गई है उसमे बहुत सारे मंदिरों के चित्र और उल्लेखनीय संशोधन से बहुत कुछ जानने और सामाजिक परिस्थिति का आईना देखने को मिल रहा है। 

सबसे पहले मे बात करना चाहता हूं उन मंदिरों के विषय में जो कुछ कुछ राज्यों में 500 साल से लेकर 100 साल पुराने इतिहास दर्शाते हैं लेकिन उस मंदिरों की सफाई और व्यवस्था बहुत चिंतनीय विषय देखने मिल रहा है अगर आपके गांव या शहर में पौराणिक मंदिर मौजूद हैं तो सबसे पहले आपको गर्व महसूस होना चाहिए साथ ही युवा वर्ग को बड़े उत्साहपूर्ण सामाजिक कार्यो को गतिमान करना चाहिए लेकिन ऐसा कहीं भी ज्यादातर देखने मिल नहीं रहा है। बात करते हैं उन मंदिरों की जो बहुत विशाल जगह पर स्थित है और काफी जगह होने के बावजूद भी वहा कोई विकास देखने को नहीं मिल रहा है इस परिस्थिति में क्या हम अपने विश्वकर्मा समाज को एकत्रित होकर उसकी व्यवस्था देखनी चाहिए। और कुछ क्षेत्रों में बहुत सारी जगह का भरपूर लाभ उठाकर धर्मशालाएं और भोजनालय और विवाह खंड जैसे उपयोगी स्थल बनाए गए हैं यह समाज के लिए उत्तम है। कुछ मंदिरों की स्थिति बहुत छोटी सी जगह और भीड़भाड़ वालीं जगह पर होती है वहा संस्था को विकास करना है तब भी वह कर नहीं पाए हैं। 
विश्वकर्मा समाज एक तेज विकास की दिशा में आगे बढ़ रहा है यह बात समाज का अंतिम व्यक्ती भी जानता है लेकिन हम जबतक ये मेरा मंदिर ये तुम्हारा मंदिर की मनःस्थिति मे फंसे हुए हैं तब तक एकता मुमकिन नहीं है। अपना विश्वकर्मा समाज सम्पूर्ण रूप से जानता है कि विश्वकर्मा जी की पांचो सन्तान और उनके वंश द्वारा कार्य अनुसार पांच जाती है लेकिन मंदिर अलग अलग है पर साथ में यह भी जानते हैं कि अंदर मूर्ति एक ही प्रभु विश्वकर्मा जी की स्थापित की जाती है जब मूर्ति मे भेद नहीं है तो जाती समुदाय में क्यु भेद समझा जा रहा है यह सबसे ऊपर सोचो और उल्लेखनीय प्रगति की और बढ़ते चलो। 
विश्वकर्मा मंदिरों में हमारे समाज और उससे जुड़ी हुई संस्कृति संस्कार और कार्यो के दर्शन महत्व दर्शाते हुए एक म्युजियम होना अति आवश्यक है मंदिरों की दीवारों पर भव्य चित्र शैली से विश्वकर्मा जी के अमूल्य प्रसंग को दर्शाना चाहिए ताकि सभी समाज के लोगों को अपनी संस्कृति की जानकारी प्राप्त हो सके। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी. दैवज्ञ की मूर्ति और उनके वर्णन करते हुए प्रसंग झांकी मंदिरों में होनी चाहिए। भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में मंदिरों का विशिष्ट स्थान है। और यह वैभव हमे हमारे शिल्पकारों द्वारा प्राप्त हुए हैं हमारे समाज में सभी मंदिरों में देखा जाए तो कुछ कुछ गिने चुने मंदिर ही स्थापत्य कला से बने देखे जा सकते हैं जब कि हमारा समाज पूर्ण वास्तु शैली और शिल्प परंपरा मे प्रवीण हे। मंदिरों में विश्वकमिॅय शिल्प कर्म और विश्वकर्मा ब्राम्हणों के लिए यज्ञ शाला, हवन कुंड और वेद शाला भी होनी चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे सभी मंदिरों के अंदर एक लकड़ि का बना एक बॉक्स होना अति आवश्यक है जिसमें हमारे समाज की पत्रिकाएं और कुछ धार्मिक ग्रंथ जो उस पुस्तक पेटी मे सम्भाल कर रख सके और उस पुस्तक को मंदिर परिसर में बच्चे, महिलाए और बुजुर्ग वर्ग आराम से पढ़ सके तो जो भी आपके मंदिर से जुड़े हुए काष्ठ कार्य करने वाले कारीगर को यह पुस्तक पेटी बनाने के लिए कहा जाए।

विश्वकर्मा मंदिर मे ज्यादातर बुजुर्ग वर्ग आते हैं उनके लिए व्हीलचेयर जैसे प्रसाधन की व्यवस्था जरूर होनी चाहिए। मंदिर में पुस्तकालय की बहुत ज्यादा जरूरत है बहुत से घर में ऐसे धार्मिक पुस्तक होते हैं जो कहीं न कहीं रद्दी मे चले या फिर बंध पिटारे मे रखे होते हैं तो मंदिर समिति द्वारा अपने विश्वकर्मा प्रकट दिवस और पूजा दिवस के दिन एक पोस्टर द्वारा सूचना लिखी जाए उसमे पुरानी पुस्तकों को मंदिर के पुस्तकालय में देकर जमा कराए इसी तरह पुस्तकों का भंडार भी ज्यादा होगा और साहित्य के प्रेमी हे उन्हें समाज के मंदिर द्वारा सेवा उपलब्ध होगी।

विश्वकर्मा समाज में बहुत सारे कार्यक्रम आज के दौर में प्राइवेट हॉल या पार्टी प्लॉट पर होते देखे जा सकते हैं उसका कारण यही है कि समाज के मंदिर में शायद जगह अभाव या फिर अनेक कारण हो सकते हैं कार्यक्रमों का आयोजन आपके शहर या गांव के एक ऐसे विश्वकर्मा मंदिर में रखे जो बड़ा हो और जगह की दिक्कत न हो मेरे इस टॉपिक पर बात केवल एक सामाजिक विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए हे।

सभी से एक निवेदन है कि आज बहुत से राज्यों में कुछ क्षेत्रो मे विश्वकर्मा मंदिर बनाना चाहते हैं या बन रहे हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण फंड का होता है समाज के अग्रणी और सामाजिक संस्थाओं को साथ सहकार जरूर देना चाहिए। अगर हमे एकजुटता को दिखाना है तो सबसे पहले विश्वकर्मा जी पूजा अर्चना के लिए विश्वकर्मा ब्राम्हण को पसंद करे। विश्वकर्मा मंदिर की तरफ जरूर आगे बढ़े आप उस समिति से जुड़े हुए हैं या नहीं फिर भी आप अपने अंदर के कार्यकर्ता को अग्रसर रखकर सामाजिक हिस्सेदारी अवश्य दिखाए।

मुझे मेरा समाज बहुत ऊंचा और गतिशील देखना है और समाज के सभी व्यक्तीओ की यही कामना रहती है मेरे लेख में किसी भी व्यक्तिगत या पसंदीदा संस्थाकीय बात नहीं की गई है और किसी संस्था के लिए या संचालन के लिए विरोध दर्शाया नहीं है तो भी किसी व्यक्ती विशेष को मेरे लेख का उद्देश्य पसंद न आया हो उसके लिए क्षमा मांग रहा हू। अंत में इतना जरूर कहना चाहता हूं कि मेरा लेख और उद्देश सिर्फ विश्वकर्मा समाज के विकास और जागरूकता और एकजुटता के लिए लिखा गया है।

मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत 

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