ध्यान ही सृजन, कर्म ही सृजन

ध्यान ही सृजन, कर्म ही सृजन 
कर्म .... कौशल के सारे दिनों में
कोई कोई क्षण ही होता है
कलाकृति, अद्वितीय

सृजन ही जिसमें....
अपनी ही ऊर्जा से
मेघ वसुंधरा पर
छाये जाते हैं शीत लहरे, 

सृजन ही जिसमें.... 
अलंकार का समूचा दर्द
उतर आता है उसके धातु पत्र में, 

सृजन ही जिसमें....
अग्नि की व्याकुल प्रतिक्षा
यज्ञ से अपेक्षा है

सृजन ही जिसमें....
लौह तडपकर
बनता है पुष्पक गति अनुवाद ...

सृजन ही जिसमें....
पत्थरों के सीने से राम, 
लिख उभर आती है नल सेतु, 

सृजन ही जिसमें....
संख्य असंख्य अस्त्र, 
विश्वकर्मा ही अंग हर क्षण हे, 

सृजन ही जिसमें....
सुवर्ण लंक ही राख में 
फिर जन्म दारूकवन अखूट, 

कोई कोई क्षण ही होता है
सृजन ही जिसमें....
पाते हर पल देवशिल्पी अपरम्पार,

मयूर मिस्त्री गुजरात
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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