वंशागत कला

वंशागत कला
“कला में मनुष्‍य अपने भावों की अभिव्‍यक्ति करता है ”
जीवन भी एक कला है। जीवन जीने की कला। कला एक व्यवसाय हो सकता है लेकिन व्यवसाय को कला सिर्फ इसी सन्दर्भ में कह सकते हैं जब आज के जटिल और भ्रष्ट माहौल में भी किस तरह नीतिगत रह कर कुशलता के साथ सब कुछ व्यवस्थित रखें; उसे यह आता हो।

वंशागत कला के सीखने में कितनी सुगमता होती है, यह प्रत्यक्ष है। शिक्षा में कलाओं की शिक्षा भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थीं कलाओं के सम्बन्ध में रामायण, महाभारत, पुराण, काव्य आदि ग्रन्थों में जानने योग्य, सामग्री भरी पड़ी है; परंतु इनका थोड़े में, पर सुन्दर ढंग से विवरण शुक्राचार्य के 'नीतिसार' नामक ग्रन्थ के चौथे अध्याय के तीसरे प्रकरण में मिलता है। उनके कथनानुसार कलाएँ अनन्त हैं, उन सबके नाम भी नहीं गिनाये जा सकते; परंतु उनमें 64 कलाएँ मुख्य हैं।
कला का लक्षण हैं कि जिसको एक मूक व्यक्ति भी, जो वर्णोच्चारण भी नहीं कर सकता, कर सके, वह 'कला' है।

 एक बढ़ई का लड़का बढ़ईगिरी जितनी शीघ्रता और सुगमता के साथ सीखकर उसमें निपुण हो सकता है, उतना दूसरा नहीं, क्योंकि वंश-परम्परा और बालकपन से ही उसके उस कला के योग्य संस्कार बन जाने हैं। इन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर प्राचीन शिक्षा क्रम की रचना हुई थी। उसमें आजकल की धाँधली न थी, जिसका दुष्परिणाम आज सर्वत्र दिखाई पड़ रहा है। 
सभी विषयों में चञ्चुप्रवेश और किसी एक विषय की, जिसमें प्रवृत्ति हो, योग्यता प्राप्त करने से ही पूर्व शिक्षा और यथोचित ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। आज पाश्चात्य विद्वान् भी प्रचलित शिक्षा-पद्धति की अनेक त्रुटियों का अनुभव कर रहे हैं; परंतु हम उस दूषित पद्धति की नकल करने की ही धुन में लगे हुए हैं। वर्तमान शिक्षा से लोगों को अपने वंशागत कार्यों से घृणा तथा अरुचि होती चली जा रही है और वे अपने बाप-दादा के व्यवसायों को बड़ी तेजी से छोड़ते चले जा रहे हैं।

शिक्षित युवक ऑफिस में छोटी-छोटी नौकरियों के लिये जगह जगह दौड़ते हैं, अपमान सहते हैं, दूसरों की ठोकर भी खाते हैं और जीवन से निराश होकर कई तो आत्महत्या कर बैठते हैं। यदि यही क्रम जारी रहा तो पूरा विनाश सामने है। यदि हमारे शिक्षा-आयोजकों का ध्यान एक बार हमारी प्राचीन शिक्षा-पद्धति की ओर भी जाता।

वंशागत कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएं उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अदभुत क्षमता है । मनोरंजन, सौन्‍दये, प्रवाह, उल्‍लास न जाने कितने तत्‍वों से यह भरपूर है जिसमें मानवीयता को सम्‍मोहित करने की शक्ति है । यह अपना जादू तत्‍काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्‍तरण प्रस्‍तुत कर सकती है ।

परन्‍तु प्रश्‍न उठता है कि पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति से प्रभावित आधुनिकता का जामा पहने हमारी विश्वकर्मा वंशागत कला अपनी उत्‍कृष्‍टा, आदर्शवादिता, तेजस्विता कहीं खो तो नहीं रही । ये वीडियोक्रान्ति, केबल नेटवर्क, इन्‍टरनेट आदि का आधिपत्‍य विश्वकर्मा समाज को कहीं अपसंस्‍कृति की ओर तो नहीं ले जा रहा है । चाहे ताम्रकला हो या मूर्तिकला, चित्रकला या लौहकला अपनी गरिमा खोती जा रही है । इंजीनियरिंग के माध्‍यम् यदा कदा किसी उदाहरण को छोड़कर कुछ व्यवसाय का कोई नामोनिशान नहीं बचेगा। 

आज समाज में अलग अलग क्षेत्रों में संस्थाकिय सहयोग द्वारा कुछ ग्रांट के माध्यम से हम इंजीनियरिंग और औद्योगिक क्षेत्र में वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर खोल सकते हैं। 

हमे हमारे इश्‍टदेवता विश्वकर्मा जी के द्वारा वंश मे मिली कलाओं का सन्मान और कर्म कौशल से अपने जीवनकाल में उतरना और अपनी पीढ़ी को इस कला के लिए प्रोत्साहित कर वंशीय परम्परा की सभ्यता संस्कृति का संरक्षण और विकास करना चाहिए । 
लेख - ©️मयूर मिस्त्री - गुजरात
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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