मय विश्वकर्मा


मय विश्वकर्मा
मय या मयासुर, कश्यप और दुन का पुत्र, नमुचि का भाई, एक प्रसिद्ध दानव है। यह ज्योतिष तथा वास्तुशास्त्र का आचार्य था। मय विश्वकर्मा (मय दानव) को मयासुर भी कहते हैं। यह बहुत ही शक्तिशाली और मायावी शक्तियों से संपन्न था। मत्स्यपुराण में अठारह वास्तुशिल्पियों के नाम दिए गए हैं, जिनमें देवशिल्पी विश्वकर्मा और मय दानव का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
कहते हैं कि यह आज भी जीवित है। 
यह भी कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश का मेरठ शहर भी मय दानव ने बनाया और बसाया था।
मय दानव के संबंध में बहुत सी ऐसी रोचक बातें जिन्हें जानकर आप दंग रह जाएंगे।

अद्भुत वास्तुकार :
विश्‍वकर्मा देवताओं के तो मय दानव असुरों के वास्तुकार थे। मय दानव हर तरह की रचना करना जानता था। मय विषयों का परम गुरु है। कहते हैं कि उस काल की आधी दुनिया को मय ने ही निर्मित किया था। ऐसा माना जाता है कि वह इतना प्रभावी और चमत्कारी वास्तुकार भी थे कि अपने निर्माण के लिए वह पत्थर तक को पिघला सकता थे ।
महत्वपूर्ण निर्माता : 
मयासुर ने दैत्यराज वृषपर्वन् के यज्ञ के अवसर पर बिंदुसरोवर के निकट एक विलक्षण सभागृह का निर्माण कर प्रसिद्धि हासिल की थी।
रामायण के उत्तरकांड के अनुसार रावण की खूबसूरत नगरी, लंका का निर्माण विश्वकर्मा ने किया था लेकिन यह भी मान्यता है कि लंका की रचना स्वयं रावण के श्वसुर और बेहतरीन वास्तुकार मयासुर ने ही की थी। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव ने पांडवों के लिए इंद्रप्रस्थ नामक नगर की रचना भी की थी। यह भी कहा जाता है कि उसने द्वारिका के निर्माण में भी देवशिल्पी विश्‍वकर्मा का सहयोग किया था। उससे ही त्रिपुरासुर की नगरी का निर्माण किया था।

त्रिपुरासुकर को कर दिया था जिंदा :
शिव पुराण के अनुसार मय दानव ने सोने, चांदी और लोहे के तीन शहर जिसे त्रिपुरा कहा जाता है, का निर्माण किया था। त्रिपुरा को बाद में स्वयं भगवान शिव ने ध्वस्त कर दिया था। तारकासुर के लिए मय दानव ने इस तीनों राज्यों, त्रिपुरा का निर्माण किया था। तारकासुर ने ये तीनों राज्य अपने तीनों बेटों तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युनमाली को सौंप दिए थे। जब शंकर ने त्रिपुरों को भस्म कर असुरों का नाश कर दिया तब मयासुर ने अमृतकुंड बनाकर सभी को जीवित कर दिया था किंतु विष्णु ने उसके इस प्रयास को विफल कर दिया था।

शिवपुराण के अनुसार असुरों का जब शिवजी ने नाश कर दिया, तीनो त्रिपुरों को भष्म कर दिया तो मय राक्षस ने शिवजी की भक्ति की। उसका वृतांत इस प्रकार आया है-

मय दानव, जो शिवजीकी कृपाके बलसे जलनेसे बच गया था, शम्भुको प्रसन्न देखकर हर्षित मनसे वहाँ आया। उसने विनीतभावसे हाथ जोड़कर प्रेमपूर्वक हर तथा अन्यान्य देवोंको भी प्रणाम किया। फिर वह शिवजीके चरणोंमें लोट गया। तत्पश्चात् दानवश्रेष्ठ मयने उठकर शिवजीकी ओर देखा। उस समय प्रेमके कारण उसका गला भर आया और वह भक्तिपूर्ण चित्तसे उनकी स्तुति करने लगा । द्विजश्रेष्ठ! मयद्वारा किये गये स्तवनको सुनकर परमेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और आदरपूर्वक उससे बोले। शिवजीने कहा-दानवश्रेष्ठ मय! मैं तुझपर प्रसन्न हूँ, अत: तू वर माँग ले। इस समय जो कुछ भी तेरे मनकी अभिलाषा होगी, उसे मैं अवश्य पूर्ण करूँगा । सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने! शम्भुके इस मंगलमय वचनको सुनकर दानवश्रेष्ठ मयने अंजलि बाँधकर विनम्र हो उन प्रभुके चरणोंमें नमस्कार करके कहा। मय बोला-देवाधिदेव महादेव! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मुझे वर पानेका अधिकारी समझते हैं तो अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान कीजिये। परमेश्वर! मैं सदा अपने भक्तोंसे मित्रता रखें, दीनोंपर सदा मेरा दयाभाव बना रहे और अन्यान्य दुष्ट प्राणियोंकी मैं उपेक्षा करता रहूँ। महेश्वर! कभी भी मुझमें आसुर भावका उदय न हो। नाथ! निरन्तर आपके तल्लीन रहकर निर्भय बना रहूँ। सनत्कुमारजी कहते हैं-व्यासजी! शंकर तो सबके स्वामी तथा भक्तवत्सल शुभ भजनमें हैं। मयने जब इस प्रकार उन परमेश्वरकी प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न होकर मयसे बोले। महेश्वरने कहा-दानवसत्तम! तू मेरा भक्त है, तुझमें कोई भी विकार नहीं है; अत: तू धन्य है। अब मैं तेरा जो भी कुछ अभीष्ट वर है, वह सारा-का-सारा तुझे प्रदान करता हूँ। अब तू मेरी आज्ञासे अपने परिवारसहित वितललोकको चला जा। वह स्वर्गसे भी रमणीय है। तू वहाँ प्रसन्न- चित्तसे मेरा भजन करते हुए निर्भय होकर निवास कर। मेरी आज्ञासे कभी भी तुझमें आसुर भावका प्राकट्य नहीं होगा। सनत्कुमारजी कहते हैं-मुने! मयने महात्मा शंकरकी उस आज्ञाको सिर झुका- कर स्वीकार किया और उन्हें तथा अन्यान्य देवोंको भी प्रणाम करके वह वितललोकको चला गया।

इंद्र को सिखाई मायावी विद्या :
ब्रह्मपुराण के अनुसार इंद्र द्वारा नमुचि (शुंभ और निशुंभ का भाई) का वध किए जाने के बाद मय ने इंद्र को पराजित करने के लिए घोर तपस्या करके असंख्य मायावी विद्याएं प्राप्त कर लीं। इससे इंद्र भयानकर तरीके से डर गया और वह ब्रह्मष का वेश बनाकर मय के पास पहुंच गया और छलपूर्वक मित्रता के लिए अनुरोध करने लगा और अंत में उसने अपना असली रूप प्रकट कर दिया। मित्रता से बंधे होने के कारण मय दानव ने इंद्र को अभयदान देकर उसे भी मायावी विद्याओं की शिक्षा दी।

अप्सराओं का पति और रावण पत्नी मंदोदरी का पिता :
रामायण के उत्तरकांड के अनुसार माया दानव, कश्यप ऋषि और उनकी पत्नी दिति का पुत्र और असुर सम्राट रावण की पत्नी मंदोदरी का पिता था। इसकी दो पत्नियां- हेमा और रंभा थीं जिनसे पांच पुत्र तथा तीन कन्याएं हुईं। रावण की पत्नी मंदोदरी की मां हेमा एक अप्सरा थी और उसके पिता एक असुर। अप्सरा की पुत्री होने की वजह से मंदोदरी बेहद खूबसूरत थी, साथ ही वह आधी दानव भी थी।उसके विवाह की चिन्ता हुई तो वह ब्रह्मा जी के पास गया। उन्होंने कहा कि उसके योग्य वर रावण होगा। जब तक वे वापस आये पृथ्वी पर काफी वक़्त गुजर चुका था। मन्दोदरी की आयु रावण की तुलना में बहुत अधिक थी। विवाह के समय तक मन्दोदरी की आयु 1,25,000 से ज्यादा थी। अब भी मन्दोदरी विभीषण जी के साथ दानव राज बाहुबली के सुतल लोक में निवास करती है। दानव राज बाहुबली प्रह्लाद जी के पौत्र हैं। रावण के समय से महाभारत तक लगभग 17,50,000 वर्ष व्यतीत हो चुके थे।

रावण अपनी राज-सत्ता का विस्तार करते हुए अंगद्वीप, मलयद्वीप, वराहद्वीप, शंख दप, कुश द्वीप, यवद्वीप और आंध्रालय को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। इसके पहले वह सुंबा और बालीद्वीप को जीत चुका था। सुंबा में मयदानव से उसका परिचय हुआ। मयदानव से उसे पता चला कि देवों ने उसका नगर उरपुर और पत्नी हेमा को छीन लिया है। मयदानव ने उसके पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी परम रूपवान पाल्य पुत्री मंदोदरी से विवाह कर दिया। मंदोदरी की सुंदरता का वर्णन श्रीरामचरित मानस के बालकांड में संत तुलसीदासजी ने कुछ इस तरह किया है- 'मय तनुजा मंदोदरी नामा। परम सुंदरी नारि ललामा' अर्थात मयदानव की मंदोदरी नामक कन्या परम सुंदर और स्त्रियों में शिरोमणि थी।

महाभारत: आदि पर्व: 
त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
इन्द्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान तथा श्रीकृष्ण, अर्जुन और मयासुर का अग्नि से विदा लेकर एक साथ यमुना तट पर बैठना

खगोलविद मयदानव : 
मयासुर एक खगोलविद भी था। कहते हैं कि 'सूर्य सिद्धांतम' की रचना मयासुर ने ही की थी। खगोलीय ज्योतिष से जुड़ी भविष्यवाणी करने के लिए ये सिद्धांत बहुत सहायक सिद्ध होता है।

विमान और अस्त्र शस्त्र का निर्माता : 
मय दानव के पास एक विमान रथ था जिसका परिवृत्त 12 क्यूबिट था और उस में चार पहिए लगे थे। इस विमान का उपयोग उसने देव-दानवों के युद्ध में किया था। देव- दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है, जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं।

सारं श्वसुरमन्दिरम् 
सारं श्वसुरमन्दिरम् अपने यशस्वी जामाता रावण की अभ्यर्थना के लिए मय ने सब दैत्य - दानव और असुर सम्बन्धियों को बुलाकर विराट भोज का आयोजन किया । सम्पूर्ण दैत्यलोकों तथा पातालों से दैत्य -दानव आने लगे। उसके साथ अनेक दैत्य -पार्षद और सैनिक थे । सुभाय , तन्तुकक्ष, विकटाक्ष, प्रकम्पन , नमुचि , धूम्रकेतु, मायाकाम तथा अन्य सगे - सम्बन्धी दैत्य दानव, राजा और भूमिपति एकत्रित हए। सभा भरी। परस्पर यथायोग्य वन्दना कर सब बैठे । मय ने सबका यथायोग्य सम्मान किया । अब भोजन की पंक्ति बैठी तो दस योजन विस्तृत भूमि में भोज हुआ । विविधा प्रकार के भुने -तले मांस , समूचे मृग , शूकर , लाव , तीतर, बत्तख , हंस , चक्रवाक , कपोत, कुक्कुट आदि के स्वादिष्ट मांस के साथ सुवासित मदिरा का खूब पान हुआ । दानवेन्द्र मय ने नाना प्रकार के भक्ष्य , भोज्य, लेह्य आदि षड्रस युक्त दिव्य अन्न - भोजन प्रस्तुत किए। भोजन से निवृत्त हो दानव - दैत्य - रत्न सभा में जा बैठे , जहां अनेक दैत्य -बालाएं नृत्य कर रही थीं । सभी दैत्य -दानव वहां बैठे रत्न -मणि की प्यालियों में भर - भर मद्य पीने तथा दैत्य -बालाओं का नृत्य देखने लगे । नमुचि दानव की कन्या विलासिका का नृत्य देख सभी जन विभोर हो गए । विलासिका की कान्ति से दिशाएं प्रकाशित हो उठीं । अपनी दृष्टि से अमृत की वर्षा करती हुई वह दानव - बाला ऐसी प्रतीत हो रही थी , जैसे चन्द्रमा की मूर्ति ही पृथ्वी पर अवतरित हुई हो ।

माया सभ्यता के जनक :
मायासुर को दक्षिण अमेरिका की प्राचीन माया सभ्यता के निर्माता भी माने जाते है। ऐसा माना जाता है कि जो जानकारियां और विलक्षण प्रतिभा मय दानव के पास थी, वही माया सभ्यता के लोगों के पास भी थी। कहते हैं कि अमेरिका के प्रचीन खंडहर उसी के द्वारा निर्मित हैं। अमेरिका में शिव, गणेश, नरसिंह आदि देवताओं की मूर्तियां तथा शिलालेख आदि का पाया जाना इस बात का सबसे बड़ा सबूत है कि प्रचीनकाल में अमेरिका में भारतीय लोगों का निवास था। इसके बारे में विस्तार से वर्णन आपको भिक्षु चमनलाल द्वारा लिखित पुस्तक 'हिन्दू अमेरिका' में चित्रों सहित मिलेगा।

पांडवों को दिए थे दिव्यास्त्र : 
महाभारत (आदिपर्व, 219.39; सभापर्व, 1.6) के अनुसार में उल्लेख है खांडव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभयदान दे दिया था। इससे कृतज्ञ होकर मय दानव ने इंद्रप्रस्थ के निर्माण के वचन के साथ ही वह अर्जुन एवं श्रीकृष्ण को एक खंडहर में ले जाकर देवदत्त शंख, मणिमय पात्र, पूर्वकाल के महाराजा सोम का दिव्य रथ, वज्र से भी कठोर रत्नजटित कौमुद की गदा, दैत्यराज वृषपर्वा का गांडीव धनुष और अक्षय तरकश को दिखाकर उसे पांडवों को भेंट कर देता है।

तलातक का राजा :
राजा बलि रसातल तो मय दानव तलातल का राजा था। सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहां त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। पुराणों अनुसार पाताल लोक के निवासियों की उम्र हजारों वर्ष की होती है।

सभा पर्व
मयासुर ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को 'देवदत्त शंख', एक वज्र से भी कठोर रत्न से जड़ित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया। कुछ काल पश्चात धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव राजा दुर्योधन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर का अतिथि बना रहा। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की, जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन की शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे, जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान पर दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा था। बस यही उपहास और अपमान से दुर्योधन ने महाभारत के युद्ध की नीव डाली। 

संकलन लेखन -
मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

सन्दर्भ सूची -
संक्षिप्त शिव पुराण
विश्वकर्मा पुराण
मयमतम्

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