साहित्य रत्न श्री कवि सुंदरम्

*त्रिभुवनदास परसोत्तमदास लुहार* 
*कवि सुंदरम्*
विश्वकर्मा समाज की एक ऐसी महान विभूति जो भारत देश में कविता और प्रेरित साहित्य के युग को वेग दिया। 
जिन्हें उनके उपनाम सुंदरम से सारा साहित्य जगत जानता है, वह गुजराती भाषा के कवि और लेखक थे।
उनका जन्म 22 मार्च, 1908 को गुजरात के भरूच जिले के मिया मातर में हुआ था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही पूरी की और पाँचवीं कक्षा तक की शिक्षा आमोद में अंग्रेज़ी माध्यम से पूरी की। फिर उन्होंने भरूच में छोटूभाई पुरानी नेशनल न्यू इंग्लिश स्कूल में पढ़ाई की। 1929 में , उन्होंने गुजरात विद्यापीठ से भाषाविषारद में स्नातक किया और सोनगढ़ में गुरुकुल में पढ़ाना शुरू किया। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और जेल में कुछ समय बिताया। वह अहमदाबाद में 1935 से 1945 तक महिलाओं के कल्याण के लिए काम करने वाली संस्था ज्योति संघ से जुड़े हुए थे । 1945 मे वह श्री अरविंद के संपर्क में आए और पांडिचेरी में स्थायी हो गए। 1990 में गुजराती साहित्य परिषद के अध्यक्ष थे। 13 जनवरी 1991 को उनका निधन हो गया।
उन्होंने अपने लेखन करियर की शुरुआत कविता से की लेकिन साहित्य की अन्य विधाओं में भी वे सफल रहे। उनकी कविता और गद्य दोनों ने कल्पना, गहराई और प्रतिभा का परिचय दिया। उनकी रचना में आध्यात्मिक के साथ-साथ सामाजिक तत्व भी थे। उन्होंने आधुनिकतावाद, समाजवाद, गांधीवादी दर्शन और अरविंद के आत्म-दर्शन के दर्शन सहित विभिन्न दार्शनिक चरणों में रचना की।
उन्होंने 1926 मे *मरीचि* उपनाम से कविताए लिखना शुरू किया बाद में उन्होंने उपनाम मे  *विश्वकर्मा* से संबोधित हुए। कुछ समय बाद उनकी कविता श्रेणी में उन्होंने 1928 में बाडोॅलीना लिखी थी उसमे उन्होंने अपना उपनाम *सुंदरम* रखा था और फिर इसे जीवन भर अपना लिया।
कोया भगत की कड़वी वाणी और गरीबों के गीत ( 1933 ) उनका पहला कविता संग्रह था, उसके बाद कविमंगला ( 1933 ) था। उन्होंने एक और संग्रह वसुधा ( 1939 ) और बच्चों की कविता रंग रंग बादलिया (1939) का संग्रह प्रकाशित किया । यात्रा (1951) संग्रह अरविंद की फिलोसोफी  से प्रभावित था।
बाल वार्ता, अवलोकन, विवेचन, नाटक जैसे इस तरह के बहुत से उनके जीवन काल में संग्रह लिखे थे।
उन्होंने अरविंद आश्रम से प्रकाशित हो रहे दक्षिणा (त्रि मासिक) और बाल दक्षिणा जैसे सामयिक का संपादन किया था।
1934 मे उनको काव्यमंगला के लिए रणजीत राम स्वर्ण पदक मिला था। फिर उन्हें 1955 मे उनकी कविता संग्रह यात्रा के लिए नर्मद स्वर्ण पदक और 1946 में विवेचन के लिए महिदा पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1968 मे उन्हें विवेचन पर से सृजन अवलोकन के लिए गुजराती साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1970 मे जूनागढ़ स्थित हुयी साहित्य परिषद के अध्यक्ष रहे थे। 1974 मे अफ्रीका, जांबिया, मोरेशियस, और केन्या का प्रवास किया। 1975 मे सरदार वल्लभ भाई पटेल यूनिवर्सिटी विद्यानगर द्वारा उन्हें डॉक्टर मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। 1985 में, उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च पुरस्कार पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
हमे गर्व है कि हमारे समाज में कवि श्रेष्ट सुंदरम जैसे व्यक्तित्व की धरोहर है जो सामाजिक प्रेरणा और उनके आदर्शों और कार्यो को नमन करता है।
*मयूर मिस्त्री*
*विश्वकर्मा साहित्य भारत*

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