वृंदावन की रचना के लिए विश्वकर्मा जी का आगमन

वृंदावन की रचना में विश्वकर्मा जी का आगमन वर्णन

वृंदावन नगर जो श्री कृष्ण के जीवन में बहुत प्रिय भी और महत्वपूर्ण भी था। श्री कृष्ण के लिए नगर के निर्माण के लिए देवशिल्पी विश्वकर्मा जी सर्वश्रेष्ठ थे और उनके अलावा ब्रम्हांड मे कोई यह नगर रचना भी नहीं कर सकता है। श्री कृष्ण द्वारा विश्वकर्मा का आगमन, उनके द्वारा पाँच योजन विस्तृत नूतन नगर का निर्माण, वृषभानु गोप के लिये पृथक भवन, कलावती और वृषभानु के पूर्वजन्म का चरित्र, राजा सुचन्द्र की तपस्या, ब्रह्मा द्वारा वरदान, भनन्दन के यहाँ कलावती का जन्म और वृषभानु के साथ उसका विवाह, विश्वकर्मा द्वारा नन्द-भवन का, वृन्दावन के भीतर रासमण्डल का तथा मधुवन के पास रत्नमण्डप का निर्माण, ‘वृन्दावन’ नाम का कारण, राजा केदार का इतिहास, तुलसी से वृन्दावन नाम का सम्बन्ध तथा राधा के सोलह नामों में ‘वृन्दा’ नाम, नींद टूटने पर नूतन नगर देख व्रजवासियों का आश्चर्य तथा उन सबका उन भवनों में प्रवेश यह सब इस से जुड़ी हुई कथा है। 
श्री कृष्ण कहते हैं– हे नारद! रात में वृन्दावन के भीतर सब व्रजवासी और नन्दराय जी सो गये। निद्रा के स्वामी श्रीकृष्ण भी माता यशोदा के साथ प्रगाढ़ निद्रा के वशीभूत हो गये। रमणीय शय्याओं पर सोयी हुई गोपियाँ भी निद्रित हो गयीं। कोई शिशुओं को गोद में लेकर, कोई सखियों के साथ सटकर, कोई छकड़ों पर और कोई रथों पर ही स्थित होकर निद्रा से अचेत हो गयीं। प्रकृति भी पूर्णचन्द्रमा की चाँदनी फैल जाने से जब वृन्दावन स्वर्ग से भी अधिक मनोहर प्रतीत होने लगा, नाना प्रकार के कुसुमों का स्पर्श करके कहने वाली मन्द-मन्द वायु से सारा वन वायु सुगंधित हो उठा तथा समस्त प्राणी निश्चेष्ट होकर सो गये, तब रात्रिकालिक पंचम मुहूर्त के बीत जाने पर शिल्पियों के गुरु के भी गुरु भगवान विश्वकर्मा वहाँ आये। 
उनका बड़ा ही दिव्य स्वरुप था और उनका तेज रात्री मे भी प्रकाशित हो रहा था। उन्होंने दिव्य एवं महीन पीताम्बर वस्त्र पहन रखा था। उनके गले में मनोहर अलंकारिक रत्नमाला शोभा दे रही थी। वे अनुपम रत्ननिर्मित अलंकारों से स्वयं अलंकृत थे। उनके कानों में कान्तिमान मकराकृत कुण्डल झलमला रहे थे। वे ज्ञान और अवस्था में वृद्ध होने पर भी किशोर की भाँति विराट तेजोमय दर्शनीय थे। अत्यन्त सुन्दर, तेजस्वी तथा कामदेव के समान कान्तिमान थे।

उनके साथ विशिष्ट शिल्पकला में निपुण तीन करोड़ शिल्पी सेन्य था। उन सबके हाथों में मणिरत्न, हेमरत्न तथा लोहनिर्मित अस्त्र शस्त्र थे। कुबेर-वन के किंकर यक्ष समुदाय भी वहाँ आ पहुँचे। वे स्फटिकमणि तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित थे। किन्हीं-किन्हीं के कंधे बहुत मजबूत व बड़े थे। किन्हीं के हाथों में पद्मरागमणि के ढेर थे तो कुछ के हाथों में इन्द्रनीलमणि के ढेर थे। कुछ यक्षों ने अपने हाथों में स्यमन्तकमणि ले रखी थी और कुछ यक्षों ने चन्द्रकान्तमणि। अन्य बहुत-से यक्षों के हाथों में सूर्यकान्तमणि और प्रभाकरमणि के ढेर प्रकाशित हो रहे थे। किन्हीं के हाथों में फरसे थे तो किन्हीं के लोहसार लिए खड़े थे। कोई-कोई गन्धसार तथा श्रेष्ठ मणि लेकर आये थे। किन्हीं के हाथ में चँवर थे और कुछ लोग दर्पण, स्वर्णपात्र और स्वर्ण-कलश आदि के बोझ लेकर आये थे। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने वह अत्यन्त मनोहर सामग्री देखकर सुन्दर मनमोहक नेत्रों वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करके वहाँ नगर-निर्माण का कार्य आरम्भ किया। और श्री कृष्ण की मनपसंद नगरी का निर्माण अतिभव्य और आयोजन बद्ध किया। 
सृष्टि के निर्माता द्वारा रचित वृंदावन की नगरी श्री कृष्ण के जीवनकाल का अहम हिस्सा था। प्रभु विश्वकर्मा जी की यह लीला अति प्रशंसनीय और कलात्मकता का दर्शन कराने वाली थी। 
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 17
प्रचारक - मयूर मिस्त्री
विश्वकर्मा साहित्य भारत

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