विश्वकर्मा जी द्वारा तिलोत्तमा की रचना - विश्वकर्मा साहित्य भारत



प्रभु विश्वकर्मा जी द्वारा तिलोत्तमा की रचना

महाभारत आदिपर्व मे नारदजी द्वारा युधिष्ठिर को कथा सुनाते हैं 
कश्यप ऋषि की अनेक पत्नियों में से एक थी दिति। दिति के दो पुत्र थे- 'हिरण्यकशिपु' और 'हिरण्याक्ष'। हिरण्यकशिपु के कुल में निकुंभ नाम का प्रतापी दैत्य हुआ। उसके दो पुत्र थे सुंद और उपसंद। दोनों एक शरीर दो आत्मा की तरह थे और परस्पर अतुल स्नेह भी रखते थे। उन्होंने त्रिलोक पर राज करने की कामना से विन्ध्याचल पर्वत पर घोर तपस्या की । उनके तप तेज से देवता घबरा गए और हमेशा की तरह ब्रह्मा की शरण में गए। ब्रह्मा स्वयं दोनो भाइयों के सामने गए और उनसे वर मांगने को कहा। दोनों ने अमरत्व मांगा। ब्रह्मा ने साफ इन्कार कर दिया। तब दोनों ने कहा कि उन्हें यह वरदान मिले कि एक दूसरे को छोड़कर त्रिलोक में उन्हें किसी से मृत्यु का भय न हो। ब्रह्मा ने कहा – तथास्तु। जैसा कि होना ही था, सुंद-उपसुंद लगे उत्पात करने जिसे देवताओं ने अत्याचार की श्रेणी में गिना और फिर ब्रह्मा के दरबार में गुहार लगा दी। वहाँ भगवान महादेव, वायु सहित, अग्निदेव, चन्‍द्रमा, सूर्य, इन्‍द्र, ब्रह्मपुत्र महर्षि, वैखानस (वनवासी), बालखिल्‍य, वानप्रस्‍थ, मरीचिप, अजन्‍मा, अविमूढ, तथा तेजोगर्भ आदि नाना प्रकार के तपस्‍वी मुनि ब्रह्माजी के पास आये थे।  अब तो दोनो की मौत तय थी, बस उपाय भर खोजा जाना बाकी था। ब्रह्माजी को उनके वरदान को याद दिलाया गया। । 

ब्रह्माजी ने प्रभु विश्वकर्मा जी से एक दिव्य सुंदरी की रचना के लिए निवेदन किआ l
विश्वकर्मा जी ने ने त्रिलोक भर की तिल-तिल भर सुंदरता लेकर एक अवर्णनीय सौंदर्य प्रतिमा साकार कर दी I कुछ कथनानुसार ब्रह्माजी के हवनकुंड से इसका जन्म हुआ। 

ब्रह्माजी ने उसमें प्राण फूंक दिये। यह सुंदरी तीनों लोकों में अनुपम थी।

ब्रह्माजी ने इसका नाम तिलोत्तमा रखा।

*तिलं तिलं समानीय रत्नानां यद् विनिर्मिता ।*
*तिलोत्तमेति तत् तस्या नाम चक्रे पितामहः ।।*

तिलोत्तमा कश्यप और अरिष्टा की कन्या जो पूर्वजन्म में ब्राह्मणी थी और जिसे असमय स्नान करने के अपराध में अप्सरा होने का शाप मिला था। 
उसे दोनो भाइयों के पास जाने को कहा गया। तिलोत्तमा का वहां जाना था, दोनों का उसपर एक साथ मोहित होना था और फिर एक दूसरे की जान का प्यासा होना तो तय । ब्रह्माजी का वरदान फलीभूत हुआ। दोनो आपस में ही लड़ मरे। 
बाद में तिलोत्तमा को स्वर्ग लोक की अप्सरा का पद प्राप्त हुआ। एक दूसरी कथा के अनुसार यह कुब्जा नामक स्त्री थी जिसने अपनी तपस्या से वैकुंठ पद प्राप्त किया। इसी के साथ दुर्वासा ऋषि के शाप से यही तिलोत्तमा बाण की पुत्री हुई थी और माघ मास में यह सौर गण के साथ सूर्य के रथ पर रहती है। दूसरी मान्यता अनुसार तिलोत्तमा अश्विन मास (वायुपुराण के अनुसार माघ) में अन्य सात सौरगण के साथ सूर्य के रथ की मालकिन के रूप में रहती है। अष्टावक्र द्वारा भी इसे शाप मिला था. कहा जाता है। और एक कथा मे लिखा है कि सौंदर्य के अभिमान में एक बार तिलोत्तमा ने महर्षि विश्वामित्र का अपमान कर दिया. इससे क्रोधित होकर ऋषि ने इन्हें असुर बन जाने का शाप दिया. इस शाप से यह वाणासुर की पुत्री उषा हुई. उषा भगावन श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न को पसंद करने लगी और एक रात उन्हें सोते हुए से उठाकर अपने महल में ले आई. बाद में प्रद्युम्न के साथ इनका विवाह हुआ। कहा जाता है कि साम्राज्य का स्वामी बनने के लिए पर्वत शिखर पर तिलोत्तमा अप्सरा का मंत्र *ॐ श्री तिलोत्तमे आगच्छागच्छ स्वाहा* का जप तप करना पडता है। 
इस कथा का उल्लेख बहुत ग्रंथो मे उल्लेख हुआ है। वायु पुराण, विष्णु पुराण, और महाभारत आदिपर्व अध्याय 210 मे इस कथा का उल्लेख मिलता है। 
लेख से हमारा उद्देश्य मात्र विश्वकर्मा समाज में प्रभु के साहित्य का प्रचार प्रसार ज्यादा से ज्यादा विश्वकर्मा बंशी तक पहुंचे और सभी को लाभ मिल सके ।
*मयूर मिस्त्री (गुजरात)*
*विश्वकर्मा प्रचारक*
*विश्वकर्मा साहित्य भारत*

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