रामसेतु - एक जीवंत धरोहर - विश्वकर्मा साहित्य भारत


रामसेतु - एक जीवंत धरोहर 
प्रस्तावना
आप सब जानते हैं हमारे देश में कई ऐसी धरोहर जो आज भी सनातन के स्थापत्य, कला, निर्माण, कौशल, यात्रा, प्रसंग, पर्व, धर्म, गाथाएं, पौराणिक, प्राचीन, अर्वाचीन, वैदिक, साहित्यिक, वीरता और अनेक प्रकार देखे जा सकते हैं। इन्हें सही पहचान मिले और हमारे पूर्वजों द्वारा रचित यह धरोहरों को विकसित और विकासशील के पथ पर चढ़ाए। ये ग्रंथ मेने अनेक प्रकार के ग्रंथो, पुराणों, लेखक के लेखों, मान्य पुस्तके, सरकारी संशोधन, और पुरातत्व सर्वेक्षण के अनुसार लिखने की कोशिश की है। मुझे नहीं पता कि मेरे द्वारा संकलित साहित्यिक सामग्री से एक विषय पर ग्रंथ बन सकता है लेकिन एक छोटी सी कोशिस और ऊपर दिए गए सन्दर्भों के सहयोग से यह बन पाया है। आज अपने देश की धरोहर को सम्मान पूर्वक लिखना और सम्भालना और पढ़ना चाहिए। मेरी यह पुस्तक मे वाल्मीकि रामायण, विश्वकर्मा अंशावतार नल, वीर हनुमान जी, भगवान श्री राम और विश्वकर्मा संबंधित विषयो पर ध्यान केंद्रित रखा है। मे खुद विश्वकर्मा समाज से हू और यह ग्रंथ को विश्वकर्मा समाज और अन्य समाज मे धार्मिक प्रेरणा और जानकारी मिल सके यही उद्देश्य लेकर यह पुस्तक लिखा गया है। मेरी यह पुस्तक मे अनेक प्रकार की भूल क्षति और व्याकरण और सन्दर्भित प्रमाण मे कोई खामी रही है अगर तो एक प्रयास करने वाला लेखक समझकर मुझे मागॅदर्शित जरूर करे ताकि मेरी भूल को सुधार कर प्रस्तुत कर सकू। आपको यह पुस्तक पसंद आए तो जरूर आगे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने की कोशिश करे। प्रस्तावना के आखिर में सभी वांचनकर्ताओ को मेरा जय श्री राम। जय विश्वकर्मा।

श्रीरामावतार त्रेतायुग में, अर्थात न्यूनतम १७ लाख वर्षों पूर्व हुआ । रामायण में वर्णित जिस-जिस स्थान पर श्रीराम का आगमन हुआ, उस स्थान पर नया तीर्थ, दिव्य क्षेत्र और मंदिर आज हमें देखने मिलता है । १०० करोड हिन्दुओं की भावना श्रीराम के जिस चिह्न से संबंधित हैं, वह है ‘रामसेतु !’

दश्‍योजनविस्‍तीर्ण शतयोजनमायतम्
दद्टशुर्देवरांधर्वा- नलसेतुं सुदुष्‍करम
–वाल्मिकी रामायण 6/22/76

नलसेतु (कथित रामसेतु) “पूर्वी दक्षिणद्रविड व अतिदक्षिणद्रविड तट का मिलन-बिन्दु” है।

रामेश्वरम् “पश्चिमोत्तर से दक्षिणपूर्व तक फैले हुए नलसेतु का पश्चिमोत्तरी शीर्ष” है।

रामसेतु की पुरातनता एवम् बाल्मीकि वर्णित नलसेतु का वैज्ञानिक आधार बना।नासा के उपग्रह चित्रो ने वाल्मीकि रामायण वर्णित नलसेतु की वैज्ञानिक पुष्टि करके राम और रामसेतु के लिए ऐतिहासिकता के लिए वैज्ञानिक एवम् पुरातात्विक पृष्ठभूमि तैयार कर दी। ‘सेतु समुद्रम परियोजना’ विवाद ने ‘राम और रामसेतु’ की ऐतिहासिकता के वैज्ञानिक और पुरातात्विक साक्ष्य जुटा दिए फलतः राम और रामसेतु के इतिहास प्रमाणित करने के लिए किसी अतिरिक्त वैज्ञानिक एवम् पुरातात्विक प्रमाण को ढूढने की आवशयकता भी नहीं है।
कथा - सारणी 
रामायण में श्री राम-सेना का एक प्रसिद्ध वानर, जो भगवान विश्वकर्मा का अंशावतार था। इसके साथी का नाम नील था।

दक्षिण में समुद्र के किनारे पहुंचकर राम ने समुद्र की आराधना की। प्रसन्न होकर वरुणालय ने सगर पुत्रों से संबंधित होकर अपने को इक्ष्वाकु वंशीय बतलाकर राम की सहायता करने का वचन दिया और उसने कहा-'सेना में नल नामक विश्वकर्मा का पुत्र है। वह अपने हाथ से मेरे जल में जो कुछ भी छोड़ेगा वह तैरता रहेगा, डूबेगा नहीं।' इस प्रकार समुद्र पर पुल बना जो 'नलसेतु' नाम से विख्यात है।

इसके साथी का नाम नल था। वह भी पराक्रमी शूरवीरता की पहचान साथ ही भगवान विश्वकर्मा के आशीष से बहुमूल्य हैं 
राम की सेना उतारने के लिए इसने सेतु रचना की थी।
यह वीर योद्धा था और राम के अश्वमेध यज्ञ में अश्व के रक्षार्थ साथ गया था।

रामायण की कथा में नल (विश्वकर्मा) और नील (अग्निनामक दो वानरों की कथा आती है। दोनों महान योद्धा थे और लंका युद्ध में उन्होंने कई प्रमुख राक्षस योद्धाओं का वध किया। कई लोगों को ये लगता है कि नल और नील भाई थे। कई ये भी कहते हैं कि दोनों जुड़वाँ भाई थे, किन्तु ये सत्य नहीं है। रामायण में जो वानर सेना थी वे सभी किसी ना किसी देवता के अंश थे। उसी प्रकार नल भगवान विश्वकर्मा और नील अग्निदेव के अंशावतार थे।

वाल्मीकि रामायण में लंका सेतु की रचना का श्रेय केवल नल को ही दिया गया है और सेतु निर्माण में नील का कोई वर्णन नहीं। है यही कारण है कि इस सेतु को लंका सेतु एवं रामसेतु के अतिरिक्त नलसेतु के नाम से भी जाना जाता है। विश्वकर्मा के पुत्र होने के कारण नल में स्वाभाविक रूप से वास्तुशिल्प की कला थी। अपने पिता विश्वकर्मा की भांति वो भी एक उत्कृष्ट शिल्पी थे। यही कारण है कि समुद्र पर सेतु निर्माण का दायित्व नल को ही दिया गया था।

जब भगवान ब्रह्मा भविष्य में श्रीराम की सहायता के लिए देवताओं को उनका दायित्व समझा रहे थे उसी दौरान उन्होंने प्रभु श्री विश्वकर्मा को भी इस कार्य के लिए बुलाया। तब प्रभु विश्वकर्मा जी ने उनसे पूछा - "हे ब्रह्मदेव! मुझे पता है कि रावण के अत्याचार को रोकने श्रीहरि शीघ्र ही अवतार लेने वाले हैं। उस अवतार में उनका भयानक युद्ध रावण से होगा। किन्तु मैं तो एक शिल्पी हूँ, योद्धा नहीं। फिर उस युद्ध में मैं किस प्रकार अपना योगदान दे सकता हूँ?"

तब ब्रह्मदेव ने कहा - "पुत्र! नारायण जो अवतार लेने वाले हैं वो तब तक सार्थक नहीं है जब तक तुम उनकी सहायता नहीं करोगे। तुम्हे उनके अवतार काल में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण करना है जो समय आने पर तुम स्वतः ही समझ जाओगे।" इस प्रकार ब्रह्मदेव के आदेश पर प्रभु विश्वकर्मा के अंश से नल का जन्म वानर योनि में हुआ। कहा जाता है कि अग्निदेव के अंश से जन्मे नील भी उसी दिन पैदा हुए और दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे।

बचपन में नल बहुत चंचल थे। वे वन में तपस्या कर रहे ऋषियों की देव मूर्तियों को सरोवर में डाल देते थे। नील भी उनके इस कृत्य में उनका बराबर साथ देते थे। ऋषियों की उनकी शरारतों से बड़ा कष्ट होता था और उन्हें अपनी देव मूर्तियां बार-बार बनानी पड़ती थी। इससे उन्हें क्रोध तो बड़ा आता था किन्तु बालक होने के कारण वे उन्हें कोई दंड नहीं देते थे।

एक बार शिवरात्रि के दिन ऋषियों ने शिवलिंग की स्थापना की किन्तु सदा की भांति नल ने उस शिवलिंग को चुराकर सरोवर में डाल दिया। ऋषियों को इससे विलम्ब हुआ और पूजा का शुभ मुहूर्त बीत गया। इससे रुष्ट होकर ऋषियों के धैर्य का बांध टूट गया और उन्होंने नल को ये श्राप दे दिया कि उसके द्वारा स्पर्श की गयी कोई भी वस्तु जल में नहीं डूबेगी। उसके बाद जब भी नल ऋषियों की मूर्तियाँ सरोवर में डाल देते थे तो वो जल पर ही तैरती रहती थी और ऋषि उसे वापस ले आते थे।

ऋषियों द्वारा दिया गया यही श्राप नल के लिए वरदान बन गया। कई कथा में नल के साथ-साथ ये वरदान नील को भी दिया गया बताया गया है। जब श्रीराम ने देवी सीता की खोज के लिए अंगद के नेतृत्व में सेना दक्षिण की ओर भेजी तो नल-नील भी उनके साथ थे। जब श्रीराम ने समुद्र को सुखाने के लिए बाण का संधान किया तब समुद्र ने उनसे  कहा - "हे प्रभु! अगर आपने मेरे जल को सुखा दिया तो उसमे आश्रय पाने वाले असंख्य जीव और वनस्पतियों का भी नाश हो जाएगा। अतः आप मेरे ऊपर एक सेतु का निर्माण करें और उसपर होकर लंका में प्रवेश करें।"

जब श्रीराम ने पूछा कि १०० योजन लम्बे इस समुद्र पर पुल कैसे बनाया जा सकता है तब समुद्र ने कहा - "प्रभु! आपकी सेना में स्वयं देवशिल्पी विश्वकर्मा के पुत्र नल हैं। वे उन्ही की भांति एक महान शिल्पी हैं और वे समुद्र पर पुल बना सकते हैं।" तब जांबवंत जी ने श्रीराम को नल और नील को मिले गए श्राप के बारे में बताया। तब नल के नेतृत्व में, नल और नील को दिए गए श्राप के प्रभाव से पाषाण समुद्र में तैरने लगे और उसी को जोड़ कर वानर सेना ने ५ दिनों में उस १०० योजन लम्बे समुद्र पर महान सेतु बांध दिया।

तेलुगु, बंगाली एवं इंडोनेशिया में रचित रामायण के अनुसार नल और नील पत्थर को अपने बाएं हाथ से समुद्र से डालते थे। ये देख कर महावीर हनुमान ने उन्हें समझाया कि उन्हें बांये हाथ से पत्थर उठा कर दाहिने हाथ से समुद्र में डालना चाहिए क्यूंकि दाहिना हाथ पवित्र माना जाता है। ये प्रथा आज भी हिन्दू धर्म में प्रचलित है कि कोई भी शुभ कार्य अपने दाहिने हाथ से ही करना चाहिए।

आनंद रामायण के अनुसार 
नल द्वारा स्पर्श किये गए पहले ९ पाषाणों से श्रीराम ने नवग्रहों की पूजा की और उसे सबसे पहले समुद्र में प्रवाहित किया ताकि सेतु का कार्य निर्विघ्न पूरा हो सके। कम्ब रामायण के अनुसार लंका में प्रवेश करने वाली सेना के लिए शिविर बनाने का दायित्व भी श्रीराम ने नल को ही दिया था। उन्होंने लंका में उपलब्ध स्वर्ण और मणियों से अपने सेना के लिए शिविर बनाया किन्तु अपना शिविर उन्होंने बांस और लकड़ियों से बनाया। ये दर्शाता है कि वे कितने कुशल सेनापति थे।

लंका युद्ध में भी नल ने बढ़-चढ़ के भाग लिया। जब इंद्रजीत ने वानर सेना में त्राहि-त्राहि मचा दी तब नल ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में मेघनाद ने नल को अपने सहस्त्र बाणों से बांध दिया था किन्तु फिर भी उनका वध करने में वो असमर्थ रहा। राक्षस यूथपति तपना का वध भी नल ने उस युद्ध में किया। महाभारत के अनुसार तुण्डक नामक महान राक्षस योद्धा का वध भी नल ने उससे ३ प्रहर युद्ध कर किया था।

जैन धर्म के अनुसार 
जैन धर्म में भी नल और नील का वर्णन आता है। जैन ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र के अनुसार नल ने मंगी-तुंगी पर्वत पर जैन धर्म की दीक्षा ली थी और अंततः मोक्ष को प्राप्त किया था।

वाल्मीकि के रामायण के अनुसार 
वाल्मीकि के रामायण में एक ऐसे रामसेतु का ज़िक्र है जो काफ़ी प्राचीन है और गहराई में हैं तथा जो 1.5 से 2.5 मीटर तक पतले कोरल और पत्थरों से भरा पड़ा है। इस पुल को राम के निर्देशन पर कोरल चट्टानों और रीफ से बनाया गया था। प्राचीन वस्तुकारों ने इस संरचना की परत का उपयोग बड़े पैमाने पर पत्थरों और गोल आकार के विशाल चट्टानों को कम करने में किया और साथ ही साथ कम से कम घनत्व तथा छोटे पत्थरों और चट्टानों का उपयोग किया हे , जिससे आसानी से एक लंबा रास्ता तो बना ही, साथ ही समय के साथ यह इतना मज़बूत भी बन गया कि मनुष्यों व समुद्र के दबाव को भी सह सके। शांत परिस्थिति के कारण मन्नार की खाड़ी में काफ़ी कम संख्या में कोरल और समुद्र जीव जंतुओं का विकास होता है, जबकि बंगाल की खाड़ी के क्षेत्र में ये जीव-जंतु पूरी तरह अनुपस्थित हैं।

अयं सौम्य नलो नाम तनयो विश्वकर्मण: । 
पित्रा दत्तवर: श्री मान् प्रीतिमान् विश्वकर्मण: ।।45 ।। 

अर्थात समुंद्र ने कहा आपकी सेना में जो नल नामक कांति मान वानर है साक्षात विश्वकर्मा का पुत्र है इसे इसके पिता ने यह वर दिया है कि  तुम मेरे ही समान समस्त शिल्प कला में निपुण होगी प्रभु आप भी तो इस विश्व के स्त्रष्टा विश्वकर्मा हैं। इस नल के हृदय में आपके प्रति बड़ा प्रेम हैं।। 

एष सेतु महोत्साह: करोतु मयि वानर: । 
तमहं धारयिष्यामि यथा ह्येष पिता तथा।।46 ।। 

अर्थात यह महान समुद्र कहते हैं अपने पिता के समान ही शिल्प कर्म में समर्थ है अतः यह मेरे ऊपर पुल निर्माण करें मैं उसे फुल समान धारण करूंगा।। 

एवमुक्त्वोदधिर्नष्ट: समुत्थाय नलस्तत: ।
अब्रवीद् वानरश्रेष्ठो वाक्यं रामं महाबलम्।। 47 ।। 

अर्थात यो कहकर समुद्र अदृश्य हो गए तब बानर श्रेष्ठ नल उठकर महाबली भगवान श्रीराम से बोला

अहं सेतुं करिष्यामि विस्तीर्णे मकरालये। 
पितु: सामर्थ्यसाद्य तत्त्वमाह महोदया: ।।48।।

 अर्थात प्रभु मैं पिता की दी हुई शक्ति को पाकर इस विस्तृत समुद्र पर सेतु का निर्माण करूंगा महासागर ने ठीक कहा है

मम मातुर्वरो दत्तो मन्दरे विश्वकर्मणा। 
मया तु सदृश: पुत्रस्तव देवी भविष्यति।।51।।

अर्थात मंदराचल पर विश्वकर्मा जी ने मेरी माता को यह वर दिया था कि हे देवी तुम्हारे गर्भ से मेरे ही समान पुत्र होगा 

औरसस्तस्य पुत्रो अहं सदृशो विश्वकर्मणा। 
स्मारितो अस्म्यहमेतेन तत्त्वमाह महोदधि। 
न चाप्यहमनुक्तो व: प्रब्रुयामात्मनो गुणान्।।52।।

अर्थात इस प्रकार मैं विश्वकर्मा का औरस पुत्र हूं और शिल्प कर्म में उन्हें के समान हो इस समुंद्र ने आज मुझे इन सब बातों का स्मरण दिला दिया है महासागर ने जो कुछ  कहा है ठीक है मैं बिना पूछे आप लोगों से अपने गुणों को नहीं बता सकता था इसलिए अब तक चुप था 

समर्थश्चाप्यहं सेतुं कर्तुं वै वरुणालये। 
तस्माद्यैव वन्धन्तु सेतुं वानर पुंसवन: ।।53।। 

अर्थात मैं महासागर पर पुल बांधने में असमर्थ हूं अतः सब वानर आज ही पुल बांधने का कार्य आरंभ कर दें

कृतानि प्रथमेनाह्ना योजनानि चतुर्दश। 
प्रहृष्टैर्गजसंकाशैस्त्वरमाणै: पलवंगमै: ।।68।। 

अर्थात हाथी के समान विशालकाय वानर बड़े उत्साह और तेजी के साथ काम में लगे हुए थे पहले दिन उन्होंने 14 योजन लंबा पुल बांधा

द्वितीयेन तथैवाह्ना योजनानि तु विंशति: । 
कृतानि पलवगैस्तूर्ण भीमकायैर्महाबलै: ।।69।। 

अर्थात फिर दूसरे दिन भयंकर शरीर वाले महाबली वानरों ने तेजी से काम करके 20 योजन लंबा पुल बांध लिया

अह्ना तृतीयेन तथा योजनानि तु सागरे।
त्वरमाणैर्महाकायैरेकविंशतिरेव च।।70।। 

अर्थात तीसरे दिन शीघ्रता पूर्वक काम में जुटे हुए महाकाल कपियों ने समुद्र में 21 योजन लंबा पुल बांध दिया

चतुर्थेन तथा चाह्ना द्वाविंशतिरथापि वा। 
योजनानि मचावेगा: कृतानि त्वरितैस्तत: ।।71।। 

अर्थात चौथे दिन महान बेगशाली और शीघ्र कारी वानरों ने 22 योजन लंबा पुल और बांध दिया

 पंचमेन तथा चाह्ना पलवगै: क्षिप्रकारिभि: । 
योजनानि त्रयोविंशत् सुवेलमधिकृत्य वै।।72।। 

अर्थात तथा पांचवें दिन शीघ्रता करने वाले उन वानर वीरों ने सुवेल पर्वत के निकट तक तेईस योजन लंबा पुल बांधा

 स वानरवर: श्री मान् विश्वकर्मात्मजो बली। 
बबन्ध सागरे सेतुं यथा चास्य पिता तथा।।73।।

अर्थात इस प्रकार विश्वकर्मा के बलवान पुत्र कांति मान कपि श्रेष्ठ श्री नल ने समुद्र में 100 योजन लंबा पुल तैयार कर दिया इस कार्य में वे अपने पिता के समान ही प्रतिभाशाली थे

स नलेन कृत: सेतुं सागरे मकरालये। 
शुशुभे सुभग: श्री मान् स्वातीपथ इवाम्बरे।।74।। 

अर्थात मकरालय समुद्र में नल के द्वारा निर्मित हुआ वह सुंदर और शोभा शाली सेतु आकाश में स्वाति पथ छाया पथ के समान सुशोभित होता था

 ततो देवा: सगन्धर्वा: सिद्धाश्च परमर्षय: । 
आगम्य गगने तस्थुर्द्रष्टुकामास्तदद्भुतम्।।75।।

अर्थात नल के बनाए हुए 100योजन लंबे और 10 योजन चौड़े उस पुलको देवताओं और गंधर्वों ने देखा जिसे बनाना बहुत ही कठिन काम था
(वाल्मीकि रामायण युद्ध कांड सर्ग 22) 

नल नील की कथा 
बाल्य अवस्था में हनुमानजी महाराज का नाम मारुति था। एक समय सूर्यदेव को फल समजकर हनुमानजी ने सूर्यदेव को निगल लिया। सारे संसार में अंधकार छा गया। सूर्यदेव को मुक्त कराने के लिए सभी देवताओं के प्रयत्नों असफल रहे, तब इद्रदेव ने मारुति के हनु  ( दाढी ) भाग में व्रज का प्रहार किया इससे मारुति मूर्छित हो गये तब पवन देव की प्रार्थना पर त्रिदेवों ने मारुति को चेतना प्रदान की ,हनु में चोट लगने के कारण मारुति का नाम सभी देवताओं ने हनुमान रख दिया।
  हनुमानजी जब सूर्यदेव को मुक्त किया तो सभी देवताओं ने आशिर्वाद और वरदान दिया तथा अपने अस्त्र शस्त्र प्रदान किये। उस वक्त भगवान विश्वकर्माजी वहां प्रकट हुए, उन्होंने हनुमानजी को आशिर्वाद  वरदान दिया कि हे मारुति नंदन इस संसार में मेरे द्वारा निर्मित कोई भी अस्त्र - शस्त्र तुमको हानी नहीं पहुंचाएंगे और ना ही किसी अस्त्र शस्त्र से तुम पर कोई प्रभाव नही होगा तुम्हारा देह वज्र के समान हो जायेगा।
     भगवान विश्वकर्मा को तीन पुत्रीयाँ थी। उनमें से सबसे छोटी पुत्री चित्रांगदा एक समय नैमिषारण्य के गोमती नदी में स्नान कर रहीं थीं। उस समय महाराज सुदेव का पुत्र सुरथ वहाँ आया। सुरथ को देख चित्रांगदा उस पर मोहित होकर उसके साथ चली गई, यह बात उसकी सहेलीओ ने उसके पिता भगवान विश्वकर्मा को सुनाई।
     भगवान विश्वकर्मा ने पुरी बात सुनी, वे धर्मधुरंधर थे। पुत्री  स्वेच्छाचारी हैं, वे शास्त्र की मर्यादा के विरुद्ध चली हैं। पुत्री ने माता-पिता और समाज की मर्यादा के विरुद्ध कार्य करके धर्म को हानि पहुचाई हैं, इसका दंड तुम्हें भुगतना पड़ेगा। इसी कारण भगवान विश्वकर्मा ने पुत्री को श्राप दिया की " पुत्री तुम्हारा कल्याण नहीं होगा, तेरा स्त्री और बालिका स्वभाव के कारण तुमनें धर्म के विरुद्ध कार्य किया हैं इसलिए तुम्हें पति सुख नहीं मिलेगा और तुम्हें पति का वियोग रहेगा।
     पिता के श्राप के कारण चित्रांगदा आत्महत्या करने के लिए नदी में कुद गई, लेकिन वो जिवित रहकर श्रीकंण्ठ महादेव के मंदिर जा पहुंची। उसी समय वहां पर महादेव की पूजा करने सर्वगुण संपन्न महात्मा ऋतुध्वज वहां पर आए। चित्रांगदा ने अपनी आपबीती और पिता द्वारा मिला श्राप की बात ऋषि को सुनाई, यह सब सुनकर ऋषि को बहोत ही क्रोध आया।
     उन्होंने कहा कि तुम किशोरी हो और तुम्हारे पिता को तुम्हें दंड देने का कोई अधिकार नहीं है।
    ऐसी मर्कंटमति उनमें कहाँ से आई ?, मैं उन्हें श्राप देता हूँ की तुम शाखामृग  ( वानर ) योनि प्राप्त करो। भगवान विश्वकर्मा श्राप के कारण मुक्ति वानर का रुप लेकर महाराज केशरी के राज्य में हनुमानजी महाराज की मदद से आए। इस ओर स्वर्ग लोक की अप्सरा देवी गीता को भी वानर योनि का श्राप मिला। वो भी महाराज केशरी के राज्य में आए। मुक्तिवानर रुपी भगवान विश्वकर्मा का विवाह देवी गीता से हुआ। समय चलते उन्होंने दो सुंदर बालकों को जन्म दिया। उन दोनों का नाम नल - निल रखा। उन दोनों बालकों के नामकरण के समय आकाशवाणी हुई की  हे विश्वकर्मा! पुत्रो के जन्म होते ही आप दोनों वानर योनि के श्राप से मुक्त हो चुके हो, तो आप अपने लोक पधार ने की कृपा करें।
  उसके बाद देवी गीता और भगवान विश्वकर्मा ने दोनों पुत्रों को महाराज केशरी और देवी अंजना को सौंपकर वानर योनि से मुक्त होकर अपने अपने लोक चले गए।

नल नील का विस्तृत परिचय 
कुछ कथा के अनुसार नल और नील भगवान विश्वकर्मा के दो जुड़वा पुत्र बताये गये हैं । नल और नील एक वानर थे । अपने कुल के अनुकूल उनकी प्रवृति अत्यंत ही उद्दंड थी । बचपन में जब ऋषि मुनि भगवान की साधना में लीन रहते थे तो ये दोनों उनके भगवान की मूर्तियों को उठाकर जल में डुबों देते थे जिससे ऋषि मुनि परेशान होते थे । उनको परेशान देख दोनों भाई ठहाके मारकर हँसते थे । इनकी इस बेशर्मी को देखकर ऋषियों ने इन्हें श्राप दिया कि यदि वे कोई भी पत्थर पानी में फेकेंगे तो वो डूबेगा नही बल्कि पानी पर तैरेगा । नल और नील उस वानर सेना के एक सदस्य थे जो कि राम जी के साथ सीता माता को लेने लंका जानेवाले थे । जब राम जी की सेना को समुद्र के उस पार लंका जाने का कोई साधन नही मिला तब उन्होंने जल के देवता वरुण की उपासना की तब वरुण ने उपाय सुझाया कि आपके सेना में नल और नील नाम के दो वानर है जो यदि समुद्र में पत्थर फेकेंगे तो वो डूबेगा नही और इस प्रकार एक पूल का निर्माण हो जाएगा । इस प्रकार से नल और नील ने पूल का निर्माण वानर सेना के सहयोग से किया।

नल नील दोनों महान योद्धा थे और लंका युद्ध में उन्होंने कई प्रमुख राक्षस योद्धाओं का वध किया। कई ग्रंथो के अनुसार नल और नील भाई थे। कई ये भी कहते हैं कि दोनों जुड़वाँ भाई थे, किन्तु ये सत्य नहीं है। रामायण में जो वानर सेना थी वे सभी किसी ना किसी देवता के अंश थे।
उसी प्रकार नल भगवान विश्वकर्मा और नील अग्निदेव के अंशावतार थे।
वाल्मीकि रामायण में लंका सेतु की रचना का श्रेय केवल नल को ही दिया गया है और सेतु निर्माण में नील का कोई वर्णन नहीं। है यही कारण है कि इस सेतु को लंका सेतु एवं रामसेतु के अतिरिक्त नलसेतु के नाम से भी जाना जाता है। विश्वकर्मा के पुत्र होने के कारण नल में स्वाभाविक रूप से वास्तुशिल्प की कला थी। अपने पिता विश्वकर्मा की भांति वो भी एक उत्कृष्ट शिल्पी थे। यही कारण है कि समुद्र पर सेतु निर्माण का दायित्व नल को ही दिया गया था। जब भगवान ब्रह्मा भविष्य में श्रीराम की सहायता के लिए देवताओं को उनका दायित्व समझा रहे थे उसी दौरान उन्होंने श्री विश्वकर्मा को भी इस कार्य के लिए बुलाया। तब विश्वकर्मा जी ने उनसे पूछा - "हे ब्रह्मदेव! मुझे पता है कि रावण के अत्याचार को रोकने श्रीहरि शीघ्र ही अवतार लेने वाले हैं। उस अवतार में उनका भयानक युद्ध रावण से होगा। किन्तु मैं तो एक शिल्पी हूँ, योद्धा नहीं। फिर उस युद्ध में मैं किस प्रकार अपना योगदान दे सकता हूँ?" तब ब्रह्मदेव ने कहा - "पुत्र! नारायण जो अवतार लेने वाले हैं वो तब तक सार्थक नहीं है जब तक तुम उनकी सहायता नहीं करोगे। तुम्हे उनके अवतार काल में एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण कार्य पूर्ण करना है जो समय आने पर तुम स्वतः ही समझ जाओगे।" इस प्रकार ब्रह्मदेव के आदेश पर विश्वकर्मा के अंश से नल का जन्म वानर योनि में हुआ। कहा जाता है कि अग्निदेव के अंश से जन्मे नील भी उसी दिन पैदा हुए और दोनों बहुत घनिष्ठ मित्र थे। सेतु निर्माण के लिए श्री राम ने समुद्र से सहायता मांगी और मार्गदर्शन में समुद्र ने कहा - "प्रभु! आपकी सेना में स्वयं देवशिल्पी विश्वकर्मा के पुत्र नल हैं। वे उन्ही की भांति एक महान शिल्पी हैं और वे समुद्र पर पुल बना सकते हैं।" तब जांबवंत जी ने श्रीराम को नल और नील को मिले गए श्राप के बारे में बताया। तब नल के नेतृत्व में, नल और नील को दिए गए श्राप के प्रभाव से पाषाण समुद्र में तैरने लगे और उसी को जोड़ कर वानर सेना ने 5 दिनों में उस 100 योजन लम्बे समुद्र पर महान सेतु बांध दिया।
आनंद रामायण के अनुसार ऐसा वर्णन है कि नल द्वारा स्पर्श किये गए पहले 9 पाषाणों से श्रीराम ने नवग्रहों की पूजा की और उसे सबसे पहले समुद्र में प्रवाहित किया ताकि सेतु का कार्य निर्विघ्न पूरा हो सके। 
कम्ब रामायण के अनुसार लंका में प्रवेश करने वाली सेना के लिए शिविर बनाने का दायित्व भी श्रीराम ने नल को ही दिया था। उन्होंने लंका में उपलब्ध स्वर्ण और मणियों से अपने सेना के लिए शिविर बनाया किन्तु अपना शिविर उन्होंने बांस और लकड़ियों से बनाया। ये दर्शाता है कि वे कितने कुशल सेनापति थे।

लंका युद्ध में भी नल ने बढ़-चढ़ के भाग लिया। जब इंद्रजीत ने वानर सेना में त्राहि-त्राहि मचा दी तब नल ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। उस युद्ध में मेघनाद ने नल को अपने सहस्त्र बाणों से बींध दिया था किन्तु फिर भी उनका वध करने में वो असमर्थ रहा। राक्षस यूथपति तपना का वध भी नल ने उस युद्ध में किया। 

महाभारत के अनुसार तुण्डक नमक महान राक्षस योद्धा का वध भी नल ने उससे 3 प्रहर युद्ध कर किया था।

रामसेतु भौगोलिक क्षेत्र परिचय 
यह रामसेतु भारत के पंबन् द्वीप के धनुषकोडी के छोरसे श्रीलंका के मन्नार द्वीप पर तलैमन्नार के छोर तक है । सेतु अनुमान से ३२ कि.मी.की लंबाई का होगा । रामसेतु के रक्षक हनुमाजी हैं और वे चिरंजीवी होने से सेतु की रक्षा के लिए सतत खडे हैं ।
उत्तर श्रीलंका के पश्‍चिमी समुद्रतट पर मन्नार जिला है । मन्नार शहर मन्नार द्वीप पर है । मन्नार शहर से ३५ कि.मी. दूर तलैमन्नार नामक छोर है । यहां श्रीलंका नौकादल का बडा केंद्र है । तलैमन्नार के अंतिम छोर से २ कि.मी. चलते हुए जाने पर रामसेतु के दर्शन होते हैं । रामसेतु से देखने पर १६ छोटे द्वीप एकत्र होने समान द्वीपसमूह समान) दिखाई देते हैं । इनमें ८ द्वीप भारत की सीमा में हैं और ८ द्वीप श्रीलंका की सीमा में हैं । दोनों राष्ट्रों से रामसेतु पर जाने की अनुमति नहीं है । सेतु के आसपास के परिसर में केवल मछुआरों को ही जाने की अनुमति है ।

रामसेतु के निकट जाते समय सर्व साधकों की भावजागृति हो रही थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यह केवल सेतु न होकर श्रीराम से जोडनेवाला भावसेतु है । रामसेतु के भाग में एक अनोखा चैतन्य अनुभव होता है । उस अनुभव का शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते हैं ।

 लेकिन प्रकृति के बदलते परिवेश के कारण आज रामसेतु समुद्र के अंदर हे। किन्तु अभी भी वैसा ही है और अद्भुत भी है। रामसेतु कथित रूप से 15 वी शताब्दी तक पैदल चलने योग्य था। रामेश्वरम के मंदिरों में स्थित अभिलेखों के अनुसार रामसेतु पूरी तरह समुद्र के जल से ऊपर था लेकिन इसे 1480 मे आए चक्रवाती तूफान ने तोड़ दिया था। 


रामसेतु की बालू(रेत) 
यहां की बालू स्वच्छ और शुभ्र है । बालू हाथ में लेने पर भावजागृत होता है और उसे शरीर पर लगाने का मन करता है । अन्य स्थानों की बालू और रामसेतु की बालू में भेद है । यहां की बालू में अणुबम बनानेवाली अणुभट्टी के लिए (‘न्यूक्लीयर रिएक्टर’ के लिए) लगनेवाली ‘थोरियम’का समावेश है ।

रामसेतु या नल सेतु गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का ज़िक्र आया है। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था। वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि - 
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। 
स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।। 
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है - वाल्मीक रामायण में लिखा है - 
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। 
कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरुणालयम्।। 
सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।। 
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ) (6/19/28) वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है - 
सुनु कपीस लंकापति बीरा। 
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। 
संकुल मकर उरग झष जाती। 
अति अगाध दुस्तर सब भांती।। 
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे। 
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। 
रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।। 
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी - नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।। तिन्ह कें परस किए" गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।। (समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे। मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ" बल अनुमान सहाई।। एहि बिधि नाथ पयोधि ब"धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु" गाइअ।। (मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा) सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)

यह पुल इतना मज़बूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरुआत में ही वर्णन आता है कि - बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा। वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन थी। 
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76), 
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे - 
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च। 
कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा - समुद्रतट पर ले आए। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है -
  सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृयतं शतयोजनम्। (6/22/62) 
कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से - सिधाई में हो रहा था।

रामसेतु में गिलहरी का योगदान
माता सीता का हरण होने के बाद, भगवान राम को लंका तक पहुंचने के लिए उनकी वानर सेना जंगल को लंका से जोड़ने के लिए समुद्र के ऊपर पुल बनाने के काम में लग जाती है। पुल बनाने के लिए पत्थर पर भगवान श्रीराम का नाम लिखकर पूरी सेना समुद्र में पत्थर डालती है। भगवान राम का नाम लिखे जाने की वजह से पत्थर समुद्र में डूबने के बजाय तैरने लगते हैं। यह सब देखकर सभी वानर काफी खुश होते हैं और तेजी से पुल बनाने के लिए पत्थर समुद्र में डालने लगते हैं। भगवान राम पुल बनाने के लिए अपनी सेना के उत्साह, समर्पण और जुनून को देखकर काफी खुश होते हैं। उस वक्त वहां एक गिलहरी भी थी, जो मुंह से कंकड़ उठाकर नदी में डाल रही थी। उसे ऐसा बार-बार करते हुए एक वानर देख रहा था।

कुछ देर बाद वानर गिलहरी को देखकर मजाक बनाता है। वानर कहता है, “हे! गिलहरी तुम इतनी छोटी-सी हो, समुद्र से दूर रहो। कहीं ऐसा न हो कि तुम इन्हीं पत्थरों के नीचे दब जाओ।” यह सुनकर दूसरे वानर भी गिलहरी का मजाक बनाने लगते हैं। गिलहरी यह सब सुनकर बहुत दुखी हो जाती है। भगवान राम भी दूर से यह सब होता देखते हैं। गिलहरी की नजर जैसे ही भगवान राम पर पड़ती है, वो रोते- रोते भगवान राम के समीप पहुंच जाती है।

परेशान गिलहरी श्री राम से सभी वानरों की शिकायत करती है। तब भगवान राम खड़े होते हैं और वानर सेना को दिखाते हैं कि गिलहरी ने जिन कंकड़ों व छोटे पत्थरों को फेंका था, वो कैसे बड़े पत्थरों को एक दूसरे से जोड़ने का काम कर रहे हैं। भगवान राम कहते हैं, “अगर गिलहरी इन कंकड़ों को नहीं डालती, तो तुम्हारे द्वारा फेंके गए सारे पत्थर इधर-उधर बिखरे रहते। ये गिलहरी के द्वारा फेंके गए पत्थर ही हैं, जो इन्हें आपस में जोड़े हुए हैं। पुल बनाने के लिए गिलहरी का योगदान भी वानर सेना के सदस्यों जैसा ही अमूल्य है।”

इतना सब कहकर भगवान राम बड़े ही प्यार से गिलहरी को अपने हाथों से उठाते हैं। फिर, गिलहरी के कार्य की सराहना करते हुए श्री राम उसकी पीठ पर बड़े ही प्यार से हाथ फेरने लगते हैं। भगवान के हाथ फेरते ही गिलहरी के छोटे-से शरीर पर उनकी उंगलियों के निशान बन जाते हैं। तब से ही माना जाता है कि गिलहरियों के शरीर पर मौजूद सफेद धारियां कुछ और नहीं, बल्कि भगवान राम की उंगलियों के निशान के रूप में मौजूद उनका आशीर्वाद है।


वीर हनुमान और महाराज सुग्रीव ने अपनी वानर सेना के साथ समुद्र को पार करने की युक्ति से संबंधित सुझाव विभीषण जी से माँगा। विभीषण ने कहा कि समुद्र में इतना अधिक पानी श्रीराम के पूर्वज राजा सगर तथा राजा भगीरथ की कृपा से ही आया है, इसलिए श्रीराम को स्वयं सागर का सर्वेक्षण करना चाहिए, ताकि लंका जाने के लिए समुद्र के अंदर उस उपसे भाग का पता लग सके, जहाँ समुद्र के नीचे भूमि संरचनाएँ भी हों। (वाल्मीकि .रामायण. 6/19/29-31) राम और लक्ष्मण दोनों को विभीषण का सुझाव उचित लगा। वहां श्री राम की सेना  के पास घूमते हुए रावण के गुप्त चर शार्दूल ने यह सब देख लिया और शीघ्र ही रावण के पास जाकर उन्हें सभी घटनाओं की जानकारी दी। परेशान और चिंतातूर रावण ने सुग्रीव के पास शूक को दूत के रूप में  भेजा, ताकि महाराज सुग्रीव को अपने पक्ष में किया जा सके। सुग्रीव ने उसके आग्रह को अस्वीकार कर दिया और वीर वानर सैन्य ने शूक को बंदी कर लिया। सुग्रीव के नेतृत्व में वानर योद्धाओं ने शूक को यातना सजा प्रारंभ किया। शूक जोर-जोर से विलाप करने लगा; उसकी चीख को सुनकर श्रीराम ने उसे मुक्त करने का आदेश दिया और कहा कि किसी दूत को न तो बंदी बनाना चाहिए और न ही उसे यातनाएँ देनी चाहिए।

श्रीराम और उनकी सेना समुद्र के निकटवर्ती क्षेत्र में शिविर लगाए हुए थी, जिसे आधुनिक चेन्नई में रामनाथपुरम के नाम से जाना जाता है। दूसरी बड़ी चुनौती थी समुद्र के ऊपर सेतु बनाना, ताकि वानर सेना समुद्र को पार कर लंका पहुँच सके। अगले तीन दिनों तक श्रीराम ने मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करते हुए समुद्र में सेतु बनाने हेतु उचित स्थान की खोज के लिए अन्वेषण व अनुसंधान किया। संभवतः श्रीराम की कार्यशैली वही थी, जिसे आधुनिक काल में इस तरह वर्णित किया, “प्रार्थना ऐसे करो कि जैसे सब कुछ ईश्वर पर ही निर्भर है और मेहनत इस प्रकार करो कि सब कुछ मनुष्य पर निर्भर है।” श्रीराम को अपने अनुसंधान के परिणाम का इतना इंतजार करना पड़ा कि एक बार तो उन्होंने अपने बाणों के उपयोग से समुद्र के एक छोर को सुखाने के विषय में विचार करना प्रारंभ कर दिया। अंत में सागर ने सेत बनाने हेतु उचित स्थान दिखाया, अर्थात‍् श्रीराम समुद्र में सेतु बनाने हेतु उपयुक्त मार्ग को पहचानने में सफल हुए। सेतु के निर्माण हेतु प्रसिद्ध विश्वकर्मा अंशावतार वास्तुकार नल के नाम का सुझाव दिया गया। सुग्रीव ने उसी समय नल को बलाया। खुशी से उछलते हुए नल विश्वकर्मा ने कहा, “जिस मार्ग की पहचान श्रीराम ने की है, मैं बिना किसी संदेह के उस  पर समुद्र में सेतु बनाने में समर्थ है वीर वानर सेना को सामग्री इकट्ठा करने के लिए तत्काल आदेश दिया जाए।”  (वाल्मीकि. रा.6/22/51-53)

प्रसिद्ध वास्तुकार विश्वकर्मा अंशावतार नल ने वानर सेना को साल तथा ताड़, अश्वकर्ण और बाँस, अर्जुन और ताल, बिल्व और नारियल, आम और अशोक, वकुल और तिलक, अनार और नीम इत्यादि के पेड़ तथा पत्थरों और चट्टानों को लाने का निर्देश दिया। (वाल्मीकि रामायण 6/22/56-59) शक्तिशाली वानर सैन्य अनगिनत पेड़ों को उखाड़कर तथा तोड़कर ले आए। उन्होंने चट्टानों के विशाल टुकड़ों को भी यांत्रिक उपकरणों का उपयोग कर समुद्र तट पर एकत्रित कर दिया। यशस्वी वास्तुकार नल ने कुछ वीर वानर सैन्य को दोनों ओर रस्से को पकड़कर खड़े होने के लिए कहा तथा कुछ अन्य को नापने के यंत्रों के साथ खड़े होने के लिए कहा। इसके 
पश्चात् शिल्पी नल ने शक्तिशाली वानर सैन्य को पेड़ों, पत्थरों तथा चट्टानों को समुद्र में पूर्वनिर्धारित क्षेत्रों में डालने के लिए कहा। समुद्र में इस सेतु की संरचना नल के निरीक्षण में इन पेड़ों तथा पत्थरों को बाध्यकारी सामग्रियों से बाँधकर पाँच दिन में पूरी कर ली गई (वाल्मीकि .रा.6/22/68-75)।

महर्षि वाल्मीकि के दिए गए विवरण से यह स्पष्ट होता है कि सेतु का निर्माण वहाँ पहले से विद्यमान द्वीपों, चट्टानों तथा बरेतियों की प्राकृतिक शृंखला के अंतरालों को भरकर किया गया। (वाल्मीकि . रा. 6/22/68-73) सेतु की चौड़ाई दस योजन बताई गई है, जबकि इसकी लंबाई को सौ योजन बताया गया है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता है कि उन दिनों एक योजन आठ मील के बराबर होता था, लेकिन यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। यह भी संभव है कि उन दिनों एक योजन एक मील के तीसरे हिस्से के लगभग होता हो। हम श्लोक में वर्णित सुंदर महाकाव्यात्मक रचना का एक अभिन्न अंग भी मान सकते हैं।

रामसेतु की संरचना शानदार तथा अचंभित कर देनेवाली थी, जिसकी ओर देखकर देवता, गंधर्व और मानव सभी आश्चर्यचकित हो रहे थे। लंबी और बड़ी छलाँगें लगाते हुए और खुशी से झूमते हुए वानर सैन्य उस नलसेतु की ओर देख रहे थे, जिसकी संरचना अद्भुत था अतलुनीय थी। उस शक्तिशाली वानर सेना के लाखों वानर सैनिक समुद्र के दूसरे छोर तक जल्द ही पहुँच गए। कभी वे समद्र में छलांग लगाते थे तो कभी हवा में, वे उस रोमांचकारी सेतु संरचना पर चलकर अभूतपूर्व आनदं का अनुभव कर रहे थे। अपने मंत्रियों के साथ सुग्रीव शत्रुओं का सामना करने के लिए हाथ में गदा लेकर सेतु के इस किनारे पर खड़े थे। लक्ष्मण और सुग्रीव तथा पूरी वानर सेना के साथ यशस्वी श्रीराम ने विजय-गर्व का अनुभव करते हुए नलसेतु पर अपने पवित्र पैर रुखे और लंका के तट पर पहुँच गए। सुग्रीव ने वानर यूथपतियों से लंका के तट पर ऐसे क्षेत्र में क्षे शिविर लगाने का आग्रह किया, जहाँ फल, मूल और जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे।

विभिन्न पुस्तको और लेखो में रामसेतु 
 ओ. एच. के. स्पाटे (O H K Spate) “भारत और पाकिस्तान (India and Pakistan, London, Pp. 727-728) में लिखते है कि राम सेतु वस्तुतः एक कोरल रीफ (coral reef) है,

जो कि सामूहिक रूप से ऊपर उठ कर कोरल रॉक (coral rock) बन गये है। इन्सायक्लोपेडिया ब्रिटेनिका (The Encyclopaedia Britannica, (Volume - 1, 1766, p. 129)) में इस सेतु का वर्णन इस प्रकार है - आदम का पुल जिसे रामसेतु भी कहा जाता है, जो कि उत्तरी पश्चिमी श्रीलंका तथा भारत के दक्षिणी पुर्वी तट से दूर रामेश्वरम के समीप मन्नार के द्वीपों के मध्य ‘उथले स्थानों की श्रुंखला’ है। The Gazettier of India (Indian Union Vol - 1 pg 57) में लिखा है कि उत्तर की खाड़ी में भूमि की दो पतली पट्टियाँ, एक भारत की ओर से, दूसरा सिलोन (Ceylon i.e. Sri lanka) से आकर, एक अर्ध-डूबी पठार पट्टी के द्वारा जुड़ती है, एडम ब्रिज (रामसेतु) बनाती है, जो कि समुद्र तल से मुश्किल से चार मीटर नीचे है। यह हिम युग के बाद (post glacial time) समुद्र तल का उठने का प्रमाण है, जो कि भारत और सिलोन के बीच सम्पर्क के डूबने का कारण है।” नीदरलैंड में सन् 1747 में बने मालाबार बोबन मानचित्र में रामन कोविल के नाम से रामसेतु को दिखाया गया है। इस मानचित्र का 1788 का संस्करण आज भी तंजावूर के सरस्वती महल पुस्तकालय में उपलब्ध है। जोसेफ मार्क्स नाम के ऑस्ट्रेलियाई शोधकर्ता ने इस मानचित्र में श्रीलंका से जोड़ने वाले रामसेतु को 'रामार ब्रिज' कहा है। ब्रिटिश विद्वान् सी.डी मैकमिलन ने मैन्युअल आफ द एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ मद्रास में सन् 1903 में यह बताया था कि सन् 1430 (15 वीं शताब्दी) तक भारत और श्रीलंका के लोग उक्त पुल से पैदल आते जाते थे। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात, तूफ़ानों एवं हिमाच्छादन के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण उक्त पुल पानी में डूब गया जो अब भी तीन फीट से तीस फीट नीचे पानी में देखा जा सकता है। जहां तक मान्यता का प्रश्न है कि प्रभु श्रीराम का सेतु पानी में बहने वाला था तो उसकी पुष्टि इसी से होती है कि यहा कोरल और सैंड स्टोन बहुतायत में पाये जाते हैं जो पानी में तैरते हैं। वहीं डिस्कवरी व नेशनल जियोग्राफिक चैनल के अनुसार यहां 18 से 20 हज़ार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में मानव उपस्थिति के भी साक्ष्य हैं। कालान्तर में रामसेतु को आदम पुल के नाम से भी जाना जाता है। वस्तुतः आदम पुल नाम का ज़ोर भारत सरकार का है क्योंकि अमेरिकी रणनीतिक दबाव में वह पुल को तोड़ना चाहती है, (राजनीतिज्ञों के अनुसार) आदम पुल के पक्षधरों का कहना है कि श्रीलंका में आदम पुल की तरह आदम चोट भी है। वस्तुतः सन् 1806 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर्वे पर जनरल रैनल ने रामसेतु के लिये एडम्स ब्रिज या आदम सेतु नाम का इस्तेमाल किया। रही बात भारत सरकार द्वारा इसे सेतु नहीं मानने की तो खुद भारत सरकार का सर्वेक्षण विभाग भारत को आसेतु - हिमालय बखानता है अर्थात वह भी इसे सेतु मानता है और भारत को रामसेतु से हिमालय तक मानता है।

अंतरिक्ष अनुसंधान के अनुसार 
भारतीय सेटेलाइट और अमेरिका के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान 'नासा' ने उपग्रह से खीचे गए चित्रों में भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग (द्वीपों) की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु या राम का पुल माना जाता है। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज (Adam’s Bridge) और मुसलमानों ने आदम पुल कहने लगे हैं। इस चित्रों को अमेरिका के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान 'नासा' ने उपग्रह से खीचे गए चित्र जब 1993 में दुनिया भर में और दिल्ली के प्रगति मैदान में "राष्ट्रीय विज्ञान केन्द्र" की प्रदर्शनी में उपलब्ध कराये थे। तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था। रामसेतु का यह चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। इन चित्रो में समुद्रतल से नीचे एक पट्टी जैसी आकृति दिखायी देती है जो कि एक डूबे हुए पुल का भ्रम पैदा करती है| इस भ्रम से इस विश्वास को बल मिला कि यही मानव-निर्मित वह पुल है जिसे राम ने बनवाया था| हालांकि नासा ने इसका खंडन किया और कहा कि यह प्राकृतिक है और दो द्वीपो के बीच समुद्री लहरो के द्वारा बनी एक भूमि पट्टी है| इसे टोम्बोलो (Tombolo) कहते है| ऐसे टोम्बोलो संसार में बहुत स्थानो पर मिले है|
रामसेतु के रहस्यमयी संशोधन 
यह कहना आश्चर्यजनक है कि रामायण के अत्यंत साधारण संदर्भों को भी आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों तथा अनुसंधानों के माध्यम से न केवल सत्यापित किया जा सकता है, अपितु उनका तिथिकरण भी संभव है। क्या यह संयोग की बात हो सकती है कि रामायण के इन संदर्भों की वैज्ञानिक तिथियाँ भी हमें 7000 वर्ष पूर्व के काल में ले जाती हैं? केवल यही नहीं, रामायण में श्रीराम के पूर्वजों (महाराजा सगर से लेकर राजा भगीरथ तक) द्वारा किए गए प्रयासों के सजीव विवरण भी हैं, जिनके अनुसार उन्होंने गंगाजल को शिवलिंग पर्वत के हिमनदों से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक पहुँचाने के लिए विशाल क्षेत्र में उपयुक्त रास्ते की खोज की व बहुत बड़े पैमाने पर खुदाई का काम भी करवाया।  इस भव्य मानवीय प्रयास से इन सूर्यवंशी शासकों ने भारत के पश्चिमी भाग को बाढ़ से बचाया तथा पूर्वी भाग को गंभीर सूखे की स्थिति से बचाया। (वाल्मीकि रामायण 1/39-45) ऊपर दर्शाए गए समुद्री जलस्तर नाप सारणी से यह सूचित करता है कि सेतु का निर्माण हो जाने के पश्चात‍् लगभग दो सौ वर्षों के अंदर ही समुद्री जल स्तर ऊपर चढ़ने के कारण यह जलमग्न हो गया और 4000 वर्ष पूर्व तक जलमग्न ही रहा। संभवतः इस कारण से भी सेतु के अस्तित्व को भुला दिया गया हो। इसकी पुष्टि भूगर्भीय रिपोर्टों और रिमोट सेंसिंग डाटा से भी की गई है, जिनसे यह ज्ञात हुआ कि सरस्वती
नदी लगभग 6000 वर्ष ई.पू.-3500 वर्ष ई.पू. तक वृहद् हिमालय से समुद्र की ओर अपने पूरे प्रवाह के साथ बह रही थी। परंतु इसके पश्चात् धीरे-धीरे विवर्तनिक तथा जलवायु परिवर्तनों के कारण इसका स्वरूप खत्म होना शुरू हो गया। गंगा नदी, भगीरथी तथा यमुना नदी जैसी विशाल सहायक नदियों को मिलाकर 6000 वर्ष ई.पू.-4000 वर्ष ई.पू. के आस-पास समुद्र में प्रचुर मात्रा में जल ले जाती थी और यह भारत की सर्वाधिक पूजनीय नदी बन गई।

यहाँ यह बताना अधिक प्रासंगिक होगा कि भू-वैज्ञानिकों ने इन दुर्घटनाओं की सबसे विश्वसनीय वैज्ञानिक व्याख्या दी, जिसके अनुसार सेतु के उत्तर में अर्थात्् पॉक स्ट्रेट क्षेत्र में समुद्री सतह ऊँचे स्तर पर है, जबकि सेतु के दक्षिणी क्षेत्र अर्थात्् मन्नार की खाड़ी में समुद्री सतह निचले स्तर पर है। इसलिए ड्रेज़र के प्रयोग से सेतु को ब्लास्ट करना संभव नहीं था। इसी कारण सरकार द्वारा रामसेतु के अवशेषों को नष्ट करने के सभी प्रयास अभी तक विफल रहे हैं तथा सेतु समुद्रम शिपिंग चैनल परियोजना वास्तविकता नहीं बन पाई है। करोड़ों भारतीयों को राहत देते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में सरकार ने एस.एस.सी.पी. के कार्यान्वयन में रामसेतु को अछूता छोड़ने का निर्णय लिया। वैसे भी राष्ट्रीय इंजिनियरिंग अनुसंधान (नीरी) ने एस.एस.सी.पी. को कभी भी मंजूरी नहीं दी और न ही श्रीलंका सरकार ने कभी इसका समर्थन किया है।

रामसेतु की उम्र 
वस्तुतः रामसेतु महातीर्थ है। रामसेतु की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। रामसेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं।
कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हज़ार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है। न केवल लोक मान्यताओ, विद्वानों के मतो से बल्कि पुरातत्त्वविदों के शोधों से भी यह सिद्ध हो गया है कि इस सेतु का काल 17,50,000 लाख वर्ष पुराना है जो रामायण काल के समकालीन बैठता है। हिन्दू धर्मग्रन्थों में निर्दिष्ट काल-गणना के अनुसार यह समय त्रेतायुग का है, जिसमें भगवान श्रीराम का अवतार हुआ था। सही मायनों में यह सेतु रामकथा की वास्तविकता का ऐतिहासिक प्रमाण है। समुद्र में जलमग्न हो जाने पर भी रामसेतु का आध्यात्मिक प्रभाव नष्ट नहीं हुआ है।

रामसेतु क़रीब 3500 साल पुराना है - रामासामी कहते हैं कि ज़मीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हज़ार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए। 

धर्म ग्रंथों और पुराणों में रामसेतु
भारत का एक लम्बा व गौरवशाली इतिहास रहा है। हिन्दू परम्परा में ऐसा विश्वास है कि रामसेतु वास्तव में एक पुल है जो कि तमिलनाडु के रामेश्वरम द्वीप को श्रीलंका के मन्नार द्वीप से जोड़ता है।

हिन्दुओ के प्राचीन धार्मिक ग्रंथ रामायण, महाभारत, पुराण आदि में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा श्रीलंका पर चढाई के समय रामसेतु निर्माण का स्पष्ट उल्लेख है। वेदिक ग्रंथो में वाल्मीकि रामायण सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है। इस रामायण ग्रंथ में वर्णन है कि जब राम को लंका जाने के लिये समुद्र पर पुल बनाने की आवश्यकता हुई तो उन्होंने समुद्र देवता से अनुमति लेकर अपने वानर सेना की सहायता से यह सौ योजन लम्बा पुल बनाया था। तथा इस ग्रंथ में उल्लेख है कि श्रीराम की सेना लंका के विजय अभियान पर चलते समय जब समुद्र तट पर पहुची तब विभीषण के परामर्श पर समुद्र तट पर डाब के आसान पर लेटकर भगवान राम ने समुद्र से मार्ग देने का आग्रह किया था। महाभारत में भी इस घटना का उल्लेख है। रामेश्वरम में आज भी प्रभु श्रीराम चन्द्र की शयन मुद्रा मूर्ति है। समुद्र से रास्ता मांगने के लिए यहीं पर रामचंद्र जी ने तीन दिन तक प्राथना की थी। शास्त्रों में श्रीराम सेतु के आकार के साथ साथ इसकी निर्माण प्रक्रिया का भी उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण कहता है कि सीताहरण के बाद जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक़्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।

अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण, विष्णु पुराण, अग्नि पुराण और ब्रह्म पुराण में भी श्रीराम के सेतु का ज़िक्र किया गया है।

रामसेतु का धार्मिक महत्त्व 
रामसेतु का धार्मिक महत्त्व केवल इससे ही जाना जा सकता है कि स्कन्द पुराण के ब्रह्मखण्ड में इस सेतु के माहात्म्य का बडे विस्तार से वर्णन किया गया है। नैमिषारण्य में ऋषियों के द्वारा जीवों की मुक्ति का सुगम उपाय पूछने पर सूत जी बोले - दृष्टमात्रेरामसेतौमुक्ति: संसार-सागरात्। 
हरे हरौचभक्ति: स्यात्तथापुण्यसमृद्धिता। 
रामसेतु के दर्शन मात्र से संसार-सागर से मुक्ति मिल जाती है। भगवान विष्णु और शिव में भक्ति तथा पुण्य की वृद्धि होती है। इसलिए यह सेतु सबके लिए परम पूज्य है। सेतु-महिमा का गुणगान करते हुए सूतजी शौनक आदि ऋषियों से कहते हैं - सेतु का दर्शन करने पर सब यज्ञों का, समस्त तीर्थो में स्नान का तथा सभी तपस्याओं का पुण्य फल प्राप्त होता है। सेतु-क्षेत्र में स्नान करने से सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं तथा भक्त को मरणोपरांत वैकुण्ठ में प्रवेश मिलता है। सेतु तीर्थ का स्नान अन्त:करण को शुद्ध करके मोक्ष का अधिकारी बना देता है। पापनाशक सेतु तीर्थ में निष्काम भाव से किया हुआ स्नान मोक्ष देता है। जो मनुष्य धन-सम्पत्ति के उद्देश्य से सेतु तीर्थ में स्नान करता है, वह सुख-समृद्धि पाता है। जो विद्वान् चारों वेदों में पारंगत होने, समस्त शास्त्रों का ज्ञान और मंत्रों की सिद्धि के विचार से सर्वार्थ सिद्धि दायक सेतु तीर्थ में स्नान करता है, उसे मनोवांछित सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। जो भी सेतु तीर्थ में स्नान करता है, वह इहलोक और परलोक में कभी दु:ख का भागी नहीं होता। जिस प्रकार कामधेनु, चिन्तामणि तथा कल्पवृक्ष समस्त अभीष्ट वस्तुओं को प्रदान करते हैं, उसी प्रकार सेतु-स्नान सब मनोरथ पूर्ण करता है। रामसेतु के क्षेत्र में अनेक तीर्थ स्थित हैं अत: स्कन्द पुराण में सेतु यात्रा का क्रम एवं विधान भी वर्णित है। सेतु तीर्थ में पहुंचने पर सेतु की वन्दना करें - रघुवीरपदन्यासपवित्रीकृतपांसवे। दशकण्ठशिरश्छेदहेतवेसेतवेनम:॥ केतवेरामचन्द्रस्यमोक्षमार्गैकहेतवे। सीतायामानसाम्भोजभानवेसेतवेनम:॥ 
श्रीरघुवीर के चरण रखने से जिसकी धूलि परम पवित्र हो गई है, जो दशानन रावण के सिर कटने का एकमात्र हेतु है, उस सेतु को नमस्कार है। जो मोक्ष मार्ग का प्रधान हेतु तथा श्री रामचन्द्र जी के सुयश को फहराने वाला ध्वज है, सीता जी के हृदय कमल के खिलने के लिए सूर्यदेव के समान है, उस सेतु को मेरा नमस्कार है। श्री रामचरित मानस में स्वयं भगवान श्रीराम का कथन है - 
मम कृत सेतु जो दरसनुकरिही। 
सो बिनुश्रम भवसागर तरिही॥ 
जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह कोई परिश्रम किए बिना ही संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा। श्री वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के 22 वें अध्याय में लिखा है कि विश्वकर्मा के पुत्र वानर श्रेष्ठ नल के नेतृत्व में वानरों ने मात्र पांच दिन में सौ योजन लंबा तथा दस योजन चौडा पुल समुद्र के ऊपर बनाकर रामजी की सेना के लंका में प्रवेश का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। यह अपने आप में एक विश्व-कीर्तिमान है। आज के इस आधुनिक युग में नवीनतम तकनीक के द्वारा भी इतने कम समय में यह कारनामा कर दिखाना संभव नहीं लगता। यह निर्माण वानर सेना द्वारा यंत्रों के उपयोग से समुद्र तट पर लाई गई शिलाओं, चट्टानों, पेड़ों तथा लकड़ियों के उपयोग से किया गया। महान् शिल्पकार नल के निर्देशानुसार महाबलि वानर बड़ी-बड़ी शिलाओं तथा चट्टानों को उखाड़कर यंत्रों द्वारा समुद्र तट पर ले आते थे। साथ ही वो बहुत से बड़े-बड़े वृक्षों को, जिनमें ताड़, नारियल, बकुल, आम, अशोक आदि शामिल थे, समुद्र तट पर पहुंचाते थे। नल ने कई वानरों को बहुत लम्बी रस्सियां दे दोनों तरफ खड़ा कर दिया था। इन रस्सियों के बीचोबीच पत्थर, चट्टानें, वृक्ष तथा लताएं डालकर वानर सेतु बांध रहे थे। इसे बांधने में 5 दिन का समय लगा। यह पुल श्रीराम द्वारा तीन दिन की खोजबीन के बाद चुने हुए समुद्र के उस भाग पर बनवाया गया जहां पानी बहुत कम गहरा था तथा जलमग्न भूमार्ग पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए यह विवाद व्यर्थ है कि रामसेतु मानव निर्मित है या नहीं, क्योंकि यह पुल जलमग्न, द्वीपों, पर्वतों तथा बरेतीयों वाले प्राकृतिक मार्गो को जोड़कर उनके ऊपर ही बनवाया गया था। महर्षि वाल्मीकि रामसेतु की प्रशंसा में कहते हैं - 
अशोभतमहान् सेतु: सीमन्तइवसागरे। 
वह महान् सेतु सागर में सीमन्त (मांग) के समान शोभित था। सनलेनकृत: सेतु: सागरेमकरालये। शुशुभेसुभग: श्रीमान् स्वातीपथइवाम्बरे॥ 
मगरों से भरे समुद्र में नल के द्वारा निर्मित वह सुंदर सेतु आकाश में छायापथ के समान सुशोभित था। नासा के द्वारा अंतरिक्ष से खींचे गए चित्र से ये तथ्य अक्षरश: सत्य सिद्ध होते हैं।

सुग्रीव के शाशन काल से लेकर रामेश्वरम क्षेत्र में 13 वी से 17 वी शताब्दी तक रामसेतु या सेतु नाम से मुद्रा का प्रचालन बराबर रहा है। सेतु नाम से एक डेढ़ हजार साल पुराने तो बहुत से सिक्के अनेक संग्रहालयो मे मौजूद हैं। 1806 मे ईस्ट इंडिया कंपनी के सर्वेयर जनरल रैनल ने इस सेतु को एडम्स ब्रिज के नाम से पुकारा था यह स्वाभाविक है। क्योंकि जिन्हें इस देश की परंपरा और संस्कृति का ज्ञान नहीं, वो इसे रामसेतु कैसे कहते ! ठीक वर्तमान में यही स्थिति हमारे राजनेताओ की है, जो देश की संस्कृति को जानते हुए भी अंजान बने हुए हैं। रामसेतु हमारी पहचान नहीं हमारी विरासत भी है। इसे भारतीय शास्त्रों में विष्णुपाद के नाम से जाना जाता है। रामेश्वरम से उत्खनन मे मिले एक शिलालेख मे नेपाल के महाराजा द्वारा श्रीराम सेतु का पूजन वर्णन है। 
अस्ति रामेश्वरं नाम, रामसेतौ पवित्रितम् ।
क्षेत्राणामपि सवेॅषां, तिथाॅनामपि चोत्तमम् ।। 
दृष्टमात्रे रामसेतौ,  मुक्तिः संसारसागरात् ।
(स्कंद पुराण - ब्राह्म. स्तुमहात्म्य) 
भगवान श्रीराम के आदेश द्वारा बांधे गए सेतु से जो परम पवित्र हो गया है वह रामेश्वरम तीर्थ सभी तीर्थों तथा क्षेत्रो मे उत्तम है। उस सेतु के दर्शन मात्र से मुक्ति हो जाती है। 

नल विश्वकर्मा और नील का भारत वर्श मे बहुत ही महत्वपूर्ण और रचनात्मक भूमिका निभाता दर्शाया गया है वो एक महान विद्वान शिल्पी थे उनको दिया गया श्राप एक पवित्र सेतु के निर्माण का कार्य बना। 

भूयो भूयो भामिनो भूमिपाला, नत्वा नत्वा याचते रामचंद्रः ।
सामान्योऽयं धमॅसेतुनॅराणां, काले काले पालनीयो भवद्धि।। 
(स्कंद पुराण) 
(ब्रह्य, धमाॅ. 34/40) 
हे भविष्य में होने वाले राजाओ !  यह रामचंद्र आप लोगों से विनम्रतापूर्वक बारंबार नमन कर याचना करता है कि आप लोग मेरे द्वारा बांधे गए रामसेतु की सम्मान और सुरक्षा सदा करते रहे। 

सन्दर्भ सूची ग्रंथ पुस्तके - 
- श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण (सचित्र) 
- अयोध्या : 2002-03, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 2003
- स्कंदपुराण 
- आनंद रामायण 
- इन्सायक्लोपेडिया ब्रिटेनिका 
- रघुवंश (कालिदास) 
- विष्णुपुराण 
- अग्निपुराण 
- ब्रम्हपुराण 
- इंडियन आर्कियोलॉजी 1971-72 — ए रिव्यू, भारतीय - - - पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1975
- इंडियन आर्कियोलॉजी 1976-77 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1980
- इंडियन आर्कियोलॉजी 1979-80 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 1983
- इंडियन आर्कियोलॉजी 2002-03 — ए रिव्यू, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण 2009
- मेमोआयर्ज ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, संख्या 55, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 1999
- मेमोआयर्ज ऑफ आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, संख्या 70, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, 1999
- ‘जहँ जहँ चरण पड़े रघुवर के’, (डॉ. राम अवतार शर्मा) 
- रामायण की कहानी विज्ञान की जुबानी (
- रामसेतु - राष्ट्रीय एकता का प्रतीक (सुब्रमण्यम स्वामी) 

संकलनकर्ता - मयूर मिस्त्री 
श्री विश्वकर्मा साहित्य धर्म प्रचार समिति 
नल विश्वकर्मा


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