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विश्वकर्मा श्लोक 1

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*दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने* *प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।* *शौर्यं शत्रुजने, क्षमा गुरुजने, नारीजने धूर्तता*   *ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ॥ [22]* (भर्तृहरि नीति शतक श्लोक २२ )  अपनों के प्रति कर्त्तव्य परायणता और दायित्व का निर्वाह करना, अपरिचितों के प्रति दयालुता का भाव रखना, दुष्टों से सदा सावधानी बरतना, अच्छे लोगों के साथ अच्छाई से पेश आना,  राजाओं से व्यव्हार कुशलता से पेश आना, विद्वानों के साथ सच्चाई से पेश आना, शत्रुओं से बहादुरी से पेश आना, गुरुजनों से नम्रता से पेश आना, महिलाओं के साथ के साथ समझदारी से पेश आना ; इन गुणों या ऐसे गुणों में माहिर लोगों पर ही सामाजिक प्रतिष्ठा निर्भर करती है।    *विश्वकर्मा साहित्य भारत*

यज्ञपति परमात्मा विश्वकर्मा

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यज्ञपति परमात्मा विश्वकर्मा वेद-शास्त्रों में विश्वकर्मा परमात्मा को यज्ञपति कहा गया है मुख्य रूप से अथर्ववेद में कहा गया है इसी अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है। जिसका ज्ञान ब्रह्म ज्ञान के समान है अर्थात अथर्ववेद का एक भी शब्द ब्रह्म वाक्य के समान है।  यज्ञपतिमृषयः एनसाहुर्निर्भक्तं प्रजा अनुतप्यमानम् । मथव्यान्त्स्तोकान् अप यान् रराध सं नष्टेभिः सृजतु विश्वकर्मा ॥  (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त - ३५, मंत्र - २) अर्थात - प्रजाओ के विषय में अनुताप करने वाले यज्ञपति विश्वकर्मा को ऋषिगण पाप से अलग बताते हैं। जिन यज्ञपति विश्वकर्मा ने सोमरस की बूंदों को आत्मसात किया है ,वे विश्वकर्मा परमात्मा उन बूंदों से हमारी यज्ञ को संयुक्त एवं पूर्ण करें। अदान्यान्त्सोमपान् मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः। यदेनश्चकृवान् बद्ध एष तं विश्वकर्मन् प्र मुञ्चा स्वस्तये ॥ - (अथर्ववेद कांड -२, सूक्त -३५, मंत्र - ३) अर्थात - जो व्यक्ति दान ना करके मनमाने ढंग से सोमपान करता है, वह न तो यज्ञ को जानता है और ना धैर्यवान होता है। ऐसा व्यक्ति बद्ध होकर पाप करता है। हे विश्वकर्मा देव! आप उसके कल्याण