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Showing posts from March, 2023

मेरे आविष्कार, मेरे विश्वकर्मा

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मेरे आविष्कार, मेरे विश्वकर्मा पृथ्वी की मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास का वर्णन और ग्रंथो मे दर्शाया गया चीख चीख के कह रहा हैं कि विश्वकर्मिय ब्राह्मण जाति ही तकनीक , शिल्प, सभ्यता, निर्माण, विज्ञान, वास्तुशास्त्र जैसे अनेक परम्परागत कार्यो में निपुण रही है। ज्यादातर शिल्पकारों के काम का उल्लेख मह्त्वपूर्ण रहा है। क्योंकि परम्परागत शिल्पकार के बिना मानव सभ्यता, संस्कृति तथा विकास की बात सिर्फ कल्पना ही लगती हैं। विश्वकर्मिय शिल्पकारों ने प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक विभिन्न कला सभ्यता के स्वरुपों में लोहकार, रथकार, सोनार, ताम्रकार, शिल्पकार, वास्तुविद अपने कौशल से भारतीय एवं दुनिया की अनेक धरती को सजाने में कोई भी कसर छोड़ी नहीं है । समस्त धारणा से उपर सोचे तो सृजनात्मक की तरह परम्परागत शिल्पकार अपने औजारों के उपयोग से मानव सभ्यता को सरल, सहज और सुंदर बनाने का तकनीकी विकास कर रहे हैं। आज समस्त सृष्टि जो हमे सुवर्ण रुप में दृष्टिगोचर हो रही है वह हमारे परम्परागत शिल्पकारों के खून पसीने और कड़े श्रम की ही देन है। यह बात हम गर्व से कह सकते हैं कि हम विश्वकर्मा हे। मनुष्य

शिल्पकला का स्तम्भ - बस्तर का शिल्प

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दक्षिण कोसल के शिल्प एवं शिल्पकार सृजन एवं निर्माण का के देवता भगवान विश्वकर्मा है, इसके साथ ॠग्वेद के मंत्र दृष्टा ॠषि भगवान विश्वकर्मा भी हैं। ऋग्वेद मे विश्वकर्मा सुक्त के नाम से 11 ऋचाऐं लिखी हुई है। जिनके प्रत्येक मन्त्र पर लिखा है ऋषि विश्वकर्मा भौवन देवता आदि। यही सुक्त यजुर्वेद अध्याय 17 सुक्त मन्त्र 16 से 31 तक 16 मन्त्रों मे आया है ऋग्वेद मे विश्वकर्मा शब्द का एक बार इन्द्र व सुर्य का विशेषण बनकर भी प्रयोग हुआ है। शास्त्र कहते हैं – यो विश्वजगतं करोत्य: स: विश्वकर्मा अर्थात वह समस्त जड़ चेतन, पशु पक्षी, सभी के परमपिता है, रचनाकार हैं। महर्षि दयानंद कहते हैं – विश्वं सर्वकर्म क्रियामाणस्य स: विश्वकर्मा सम्यक सृष्टि का सृजन कर्म जिसकी क्रिया है, वह विश्वकर्मा है। इस तरह सारी सृष्टि का निर्माता भगवान विश्वकर्मा को ही माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों के मनन-अनुशीलन से यह विदित होता है कि जहाँ ब्रहा, विष्णु ओर महेश की वन्दना-अर्चना हुई है, वही भगवान विश्वकर्मा को भी स्मरण-परिष्टवन किया गया है। “विश्वकर्मा” शब्द से ही यह अर्थ-व्यंजित होता है “विशवं कृत्स्नं कर्म व्यापारो वा यस्य सः। अ

कश्मीरी लोहार राजवंश का इतिहास

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कश्मीर का लोहार राजवंश लोहार राजवंश, भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग में, 1003 और लगभग 1320 सीई के बीच कश्मीर के हिंदू शासक थे। राजवंश के प्रारंभिक इतिहास का वर्णन राजतरंगिणि (राजाओं का क्रॉनिकल) में किया गया था, जो 12 वीं शताब्दी के मध्य में कल्हण द्वारा लिखी गई एक रचना थी और जिस पर राजवंश के पहले 150 वर्षों के कई और शायद सभी अध्ययन निर्भर करते हैं। आगे के अध्ययन जोनाराज और श्रीवर के वृत्तांतों पर आधारित हैं। राजवंश के बाद के शासक कमजोर थे: इस अवधि के दौरान आंतरिक लड़ाई और भ्रष्टाचार स्थानिक थे, केवल कुछ ही राहत के साथ, इस क्षेत्र में इस्लामी हमलों के विकास के लिए राजवंश को उजागर किया। मूल सर माकॅ आँरेल स्टीन द्वारा अनुवादित 12वीं शताब्दी के पाठ राजतरंगिणी के अनुसार, लोहार के प्रमुखों का परिवार खासा जनजाति से था। लोहार राजवंश की सीट एक पहाड़ी-किला था जिसे लोहारकोट्टा कहा जाता था, जिसका सटीक स्थान लंबे समय से अकादमिक बहस का मामला रहा है। कल्हण स्टीन के एक अनुवादक ने इनमें से कुछ सिद्धांतों पर चर्चा की है और माना है कि यह पश्चिमी पंजाब और कश्मीर के बीच एक व्यापार मार्ग पर पहाड़ों की पीर